एक्शन का रिएक्शन
वैचारिक प्रदूषण...
न्याय का सबसे बड़ा रोड़ा
(त्रिलोकीनाथ)
बात बहुत पुरानी नहीं है अन्ना हजारे जी का जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन दिल्ली में तूफान बना रहा था तो हम शहडोल में यह भी सोचा करते थे कि क्या हमारे लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की जड़ें इस स्तर पर गहरी हो गई हैं कि लोकतंत्र का कोई स्तंभ इससे बच नहीं पा रहा है..... तमाम संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद। लेकिन जब सत्ता परिवर्तन हुआ और भ्रष्टाचार के विरुद्ध चले अन्ना के आंदोलन पर चढ़कर एक नई सरकार आई तो पारदर्शिता रूप से यह दिखने लगा कि हां भ्रष्टाचार समाज की जड़ों में जा पहुंचा है। और उसे मान्यता भी दिया जाने लगा। जैसे गांधी की फोटो लगाकर
स्वयं को गांधीवादी दिखाना यह भी गांधी की ईमानदारी को चुनौती देना ही है... जब भोपाल सांसद प्रज्ञाजी ने महात्मा गांधी जी के हत्यारे गोडसे को जायज ठहराया था तब हमारे प्रधानमंत्री और भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी ने उन्हें कहा था की वे आत्मा से कभी उन्हें क्षमा नहीं करेंगे।
और परिस्थितियां कुछ ही साल में ऐसे बदल गई की मोदी जी के नेतृत्व वाले शासन में जब राष्ट्रपति जी, कंगना राणावत को पद्मश्री का उपहार देते हैं तो पद्मश्री कंगना शौक से कहती हैं की "आजादी का पूरा आंदोलन ही झूठा था", असली आजादी 2014 में आई। यह घटना 21वीं सदी में आजादी के प्रति और हमारे पुरखों के प्रति नई पीढ़ी का खरीदा हुआ नजरिया है । क्योंकि कंगना जैसे युवा को विकास इसी पर दिखता है।
और भ्रष्टाचार की धुंध में, सत्ता के नशे में है भी.... यही शहडोल के नजर में देखें तो चाहे मोहन राम मंदिर ट्रस्ट के मामला हाईकोर्ट में भलाई न्याय के लिए वर्षों से लंबित हो.. किंतु इस न्याय की प्रक्रिया में उसे लोकतंत्र के सभी लोग लूट रहे हैं...? कुछ मूकबधिर बनकर तो, कुछ खुलेआम धर्म का
नकाब पहन कर। इसलिए क्योंकि सरकार हिंदुत्व का रक्षक का नकाब पहनकर देश में, प्रदेश में और स्थानीय शासन में लंबे समय से बरकरार है। जब कांग्रेस की सरकार आई तो धर्म का भ्रष्टाचार वहां भी अपने चेले विकसित कर लिए और कांग्रेसी भी इस भ्रष्टाचार की पोषक रहे तो यह भ्रष्टाचार पूर्ण बदली परस्थित है।
फिर भी इस मंदिर के अंदर जो थोड़ा बहुत धर्म बचा है हम उसमें मंदिर भी देखते हैं और भगवान की मूर्तियों में अपने आराध्य की कल्पना भी करते हैं। क्योंकि सच यही है कि वे हमारे अवतार हैं। हमारी यही सनातन परंपरा रही है।
इसके बावजूद कि पहले आजाद भारत के धर्म के प्रचारक आसाराम जैसे बलात्कारी जेल में जाते हैं फिर उनकी जेल में आरती उतारी जाती है। अगर हिंदू-मुस्लिम में धर्म अपना चेहरा बनाता है और कोई "राम-रहीम" धर्म का आदर्श पैदा होता है तो वह भी जेल जाता है, इसी बलात्कार और तमाम भ्रष्टाचार के आरोप में ।और सबसे बड़ा सहयोग कि हमारी राजनीति में जन्म लिया पूरा नेतृत्व चाहे वह सत्ता का हो या विपक्ष का इन बलात्कारियों को चरण पखार ने में अपने को धन्य समझते रहे।
ऐसे में भारतीय लोकतंत्र की सबसे कमजोर कड़ी पत्रकारिता अछूती रहेगी.., यह अविवेक पूर्ण सोच है। क्योंकि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पत्रकारिता के नाम पर शासन की भारी-भरकम राशि पर भ्रष्टाचार होता रहा।
और पत्रकारों को पारिश्रमिक के रूप में मिलने वाली कभी शासन की राशि का सीधा लाभ "डायरेक्ट बेनिफिट" पर योजनाएं नहीं बनी। क्योंकि उन्हें डर था पत्रकारिता ताकतवर होकर जिंदा हो जाएगी... जब आर्थिक रूप से कमजोर न होने पर भी वह ताकतवर है और ताकतवर हो जाएगी । इसलिए पत्रकारों को बंधुआ मजदूर बनाकर रखा गया।
किंतु जैसा कि मैंने कहा लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को शिष्टाचार का नकाब पहना कर मान्यता देने वाली व्यवस्था से यह "गरीब की लुगाई" बन गई और जो जब चाहा कोई भी राह चलता आदमी पत्रकारिता के लिए बोलता चला गया। जबकि संविधान हर भारतीय नागरिकों को गारंटी देता है कि कोई भी अन्याय के खिलाफ वह न्यायालय जाकर न्याय पा सकता है। तो फिर सड़क में पत्रकारिता के भ्रष्टाचार के नाम पर भ्रम बनाने की मुहिम चलाना तब और दयनीय अवस्था को बताता है जब हमने अपने विकास क्रम में खुद का घर कांच का बनाया हो और उस पर पत्थर फेंके जाने पर टूटने का खतरा भी हो...? फिर यह भी एक साहस है जिसका अभिनंदन होना चाहिए, किंतु उसका मंच बनाकर समन्वय पूर्ण से लोकतंत्र के साथ बैठकर करना चाहिए। तथ्य पूर्ण होने के बाद भी आप सही बोल पा रहे हैं या उसे साबित कर पा रहे हैं यह बड़ी चुनौती है।
किंतु जब कोई अपराध सिद्ध हो जाता है तो उस के पक्ष में बोलना उतना ही नाजायज है जितना कि आपके लगाए गए प्रमाणित आरोप सच हो..? बावजूद चुनौती कहां देना है यह बड़ी जिम्मेदारी है।
माननीय उच्च न्यायालय ने हाल में टिप्पणी की है टीवी चैनल पर होने वाले डिबेट से ज्यादा प्रदूषण फैलता है और इस तरह के प्रदूषण में कितना गंदा बनाता है यह सब हमने कल ही गांधी चौक के परस्पर प्रतियोगी कार्यक्रमों में देखा। क्या हम इससे बच नहीं सकते थे...?
बच सकते थे, किंतु प्रश्न यही है कि मुद्दे उठाने वाले कितनी इमानदारी से, कितनी कर्तव्यनिष्ठा से, किस स्तर पर ब्लैकमेल करके न्याय पाना चाहते हैं..... यह उनकी नियत से तय होता है। पत्रकारिता में कोई गलत कर रहा है तो न्यायपालिका उसे दंडित करेगी यह तय है। क्या हम इस संविधान से ऊपर जाकर न्याय छीन लेना चाहते हैं... ऐसा नहीं होता है। संवैधानिक व्यवस्थाओं का पालन सब नागरिक की मर्यादाओं को सुंदर बनाता है । "एक्शन का रिएक्शन" तो लखीमपुर खीरी मे किसानों को जीप के तले किसानों की हत्या करने की सोच अपराधी प्रवृत्ति की राजनीत के बाद भी देखा है। वह भी बेहद विभत्स था.. मोदी जी की खोज इसे 14 अगस्त के विभीषिका दिवस के रूप में देखा जाना चाहिए....?
क्या इससे बचा नहीं जा सकता, शहडोल जैसे शांत शहर में शांति व्यवस्था भंग होने की पुलिस फोर्स की वह अचानक आई व्यवस्था, महीनों से चली आई किसी देवांता हॉस्पिटल के पक्ष में उसके अपराधियों को सही ठहराने के लिए गांधी के चेहरे को सामने रखकर किए गए प्रदूषण से पैदा हुई थी ,यह हमें हमेशा याद रखना चाहिए ।
गुड-क्रिमिनल और बैड-क्रिमिनल का सिद्धांत क्यों...?
ऐसी टकराहट ना हो और समन्वय में पूर्ण विकास हो, अपराधियों को पूरी तरह से दंड मिले... यह भ्रामक तरीके से निर्णय नहीं करना चाहिए हो सकता है.. झोलाछाप डॉक्टरों को मेडिकल इंस्टिट्यट का मुखिया बनाकर प्रस्तुत किया जाता हो जो बड़ा अपराध भी है, यह भी होता है कि हमारे बैंक का करोड़ों रुपए चिकित्सा क्षेत्र में निवेश कर क्षेत्र के आम आदमियों को लूटने का फीस तय करते हो... लेकिन इन अपराध का एक संवैधानिक निराकरण होना चाहिए.... लोकतंत्र की यही खूबसूरती है प्रदूषण कारी वातावरण विशेषकर पत्रकारिता जैसी आर्थिक रूप से कमजोर संस्था के खिलाफ प्रदूषण कारी वातावरण बनाने से आम आदमियों का हित नहीं होता है यह तय है।
रही पत्रकारिता की ताकत तो तमाम पूरे पत्रकारों को खरीद लेने के बाद भी कुछ पत्रकारों और इसमे डिजिटल इंडिया के डिजिटल मीडिया से भी करोड़ों किसानों को 14 माह बाद करीब 700 से भी ज्यादा किसान मर जाने के बलिदान के बाद अंततः किसी तानाशाह व्यवस्था कृषि बिल की वापसी करनी पड़ती है और उस पर पुनर चिंतन करना पड़ता है। यह भी प्रमाणित हुआ है।
हो सकता है आपके आरोप सही हो किंतु यह पत्रकारिता की भी खूबसूरती है इस खूबसूरत दर्पण को अपना आईना बना कर अपना चेहरा देखेंगे तो बदसूरत नहीं लगेगा... बस इतना ही।
सोचा तो नहीं था किंतु लिखना ही पड़ा क्योंकि पत्रकारिता कोई "गरीब की लुगाई" भी नहीं है जिसे आप "भौजाई" बनाकर मजाक करते रहें। और समाज में प्रदूषण फैलाते रहे । अगर वास्तव में ईमानदार हैं बैठकर चिंतन-मनन करिए, लोकतंत्र के अन्य अंगों के साथ मंथन करना चाहिए, रास्ते अवश्य निकलेंगे।
किंतु पहली शर्त है कि हम अपने लक्ष्य के प्रति ईमानदार बने रहे हम भी कदम से कदम मिलाकर चलेंगे "कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना...... नहीं चलेगा, नहीं चलेगा....