कारनामा विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता का
तो मिल गया,
पकोड़ा तलने का रहस्य...
विश्वविद्यालय चाहे केंद्रीय अथवा राज्य से संबंधित हो अगर विषय सामग्री को अथवा व्यक्तियों को पहचानने की गुणवत्ता खत्म होने लगती है या कहना चाहिए उम्रदराज हो जाती है तो विंध्य की गौरव राष्ट्रीय जनजाति अमरकंटक विश्वविद्यालय का कोई भी प्रोफेसर अश्लीलता, बलात्कार या भ्रष्टाचार के लिए न्यायालय से अपनी जमानत कराता देखा जा सकता है .....।यह कोई बड़ी घटना नहीं मानी जानी चाहिए। क्योंकि योग्यता सिफारिश से नहीं आती है, चरित्र का निर्माण किसी नियुक्ति से निर्मित नहीं होता है।
यह बात आमतौर पर देखी जाने लगी है इसी तरह है ।विषयसामग्री, नीतिनिर्धारण का उपयोग किस तरह करना चाहिए यह हमारे लोकतंत्र में अब रोजगार के अवसर की तरह दिखने लगा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के पकौड़ा तलना भी एक रोजगार है.... इस रहस्य में मुहावरे को हम समय-समय पर खोजते रहते हैं कि कहीं तो प्रमाणित हो।
इसी चक्कर में आज शहडोल के शंभूनाथ शुक्ला विश्वविद्यालय का एक विज्ञापन देखा गया जिसमें राज्यपाल महोदय से विद्यार्थियों को उपाधि दिए जाने के लिए पंजीयन शुल्क ₹500 प्रति विद्यार्थी जमा करने का विज्ञापन प्रकाशित हुआ है।
इसमें उच्च शिक्षित समाज, बेरोजगारों से धन संग्रह की योजना की अद्भुत कला दिखाई देती है। हम इतने पढ़े लिखे नहीं है यूपी अपने लोक ज्ञान से समझने कााा प्रयास करते है कि यह स्पष्ट नहीं है कि वे अपने ही विद्यार्थियों से ₹500 जमा कराना चाहते हैं अथवा भारत के सभी विद्यार्थियों से ₹500 जमा कराकर राज्यपाल द्वारा उपाधि दिए जाने का कारोबार करना चाहते हैं। यह भी सुनिश्चित नहीं है कि ₹500 जमा कराकर किस क्राइटेरिया के तहत उपाधि बेची जाएगी या सम्मानित किया जाएगा , किंतु निश्चित तौर पर अगर आदिवासी क्षेत्र का यह विश्वविद्यालय अपनी आदिवासी गुणवत्ता के तहत ₹500 पंजीयन शुल्क जमा करा रहा है।
तो कम से कम मध्यप्रदेश के अन्य विश्वविद्यालयों में भी ₹500 पंजीयन शुल्क जमा करा कर
विश्वविद्यालय अपना पकोड़ा तलने का उद्योग चला रहा है यह एक नीतिगत फैसला होगा ऐसा मानना चाहिए।
इस दृष्टिकोण में रोजगार के पकोड़ा तलने के कारोबार पर हम भी ख्वाबों में उड़ने लगे कि नाम मात्र की विश्वविद्यालय का लाइसेंस यदि हमें भी मिल जाता तो हम राज्यपाल जी से नहीं राष्ट्रपति महोदय द्वारा उपाधि दिए जाने के लिए ₹1000 पंजीयन शुल्क में तमाम विद्यार्थियों से उपाधि प्राप्त करने का नीतिगत कारोबार जरूर करते हैं। शायद इसी से अपनी भी कुछ बेरोजगारी दूर होती।
हालांकि अपने अनुभव में हमने मध्यप्रदेश शासन को कुछ हजार करोड़ रुपए राजस्व एकत्र करने का बड़ा नीतिगत रिसर्च किया था जिसमें प्राकृतिक जल स्रोतों से सीधा पानी लेने पर जलकर का नीतिगत नियम बने थे। यह सोच हमें लोक ज्ञान से तब प्राप्त हुआ था जब हम भटकते हुए सोननदी के किनारे जाकर देखे थे कि किस प्रकार से पूरी सोननदी का पानी ओरियंट पेपर मिल्स अकेले उद्योग के लिए पी रहा है। तब हमें लगा कि जैसे शहडोल के आदिवासी किसान भी हर खेती में पानी के बदले कुछ जलकर देते हैं उसी प्रकार से ओरियंट पेपर मिल भी कुछ जलकर जरूर देता होगा, लेकिन जब हमने जानना चाहा तब पता चला कि वह हमारे ऊपर आरोप लगाने लगे कि हमें कुछ ब्लैकमेल करना है, इसलिए हमारे द्वारा आरोप लगाए जा रहे हैं .... ।
बहरहाल लड़ाई एक दशक चली अंततः पकोड़ा तलने के इस उद्योग में हमें तो कुछ नहीं मिला; हां, मध्य प्रदेश राज्य शासन को1998 से हजारों करोड़ों पर जलकर के रूप में नया राजस्व प्राप्त होने लगा। जिससे तनख्वाह भी बनती होगी अधिकारियों की। किंतु हमें लगा कि यह पकोड़ा तलने का रोजगार हमारे लिए सही नहीं था...?
इसी तरह जब उम्र दराज लोग रिटायरमेंट की उम्र पार करने के बाद भी ऐसा माने यानी जिनकी पहचानने की शक्ति भी क्षीण होने लगती है वह विश्वविद्यालयों में बैठ जाते हैं तब ऐसे विज्ञापन से पकोड़ा तलने के इंडस्ट्री में कैसे बेरोजगार और बेकार उच्च शिक्षित छात्रों से ₹500 राज्यपाल से उपाधि प्राप्त करने के धंधे पर कमाते हैं सोच कर अटपटा लगता है...?
यदि ऐसी नीतियों पर विश्वविद्यालय अपना राजस्व बढ़ाता है तो क्या बुरा है की चिकित्सा क्षेत्र में पढ़ा लिखा चिकित्सक समाज चिकित्सा उद्योग पैदा करके समाज सेवा के जरिए करोड़ों अरबों रुपए बड़ी बेशर्मी से कमाए...। उनकी मजबूरी भी हो सकती है क्योंकि ऐसे चिकित्सक, सूदखोर बैंकों के मरीजों से प्राप्त होने वाली आय पर अपना करोड़ों रुपए प्राप्त करते हैं और फिर उसे चुकता करने के लिए मोटी मोटी फीस फोड़े-फुंसी को ठीक करने में भी वसूलने लग जाते हैं।
किंतु यह समस्या विश्वविद्यालयों से नहीं है क्योंकि शासन की माने तो करोड़ों-अरबों रुपए इन्हें अनुदान के रूप में देती है। फिर भी ₹500 प्रति छात्र से कितना राजस्व एकत्र होगा यह सोच कर मन परेशान होने लगता है...? तो यह एक आलोचना है, इसमें समालोचना भी छुपी हो सकती है.... कि आखिर क्या जरूरत पड़ गई कि राज्यपाल की उपाधि प्राप्त करने के लिए बेरोजगार छात्रों से ₹500 प्रति छात्र पंजीयन शुल्क एकत्र किया जाता है, और अगर यह सही है तो फिर हमें भी किसी विश्वविद्यालय की कागजों पर बने लाइसेंस क्यों नहीं बेचा जाना चाहिए ताकि हम राष्ट्रपति या किसी भी राज्यपाल या किसी भी बड़े पदाधिकारी जैसे प्रधानमंत्री आदि उपाधि बेचने के करोड़ों अरबों रुपए एकत्र करने का पकोड़ा तलने के इंडस्ट्री स्थापित कर सकें। शायद इसी से हमें कोई रोजगार मिल जाए...।
क्योंकि हम भी उम्र दराज होने को चल रहे हैं शायद नया इंडिया इसी दिशा में अपने युवाओं का भविष्य देखता हो....?
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