गुरुवार, 28 जनवरी 2021

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। (त्रिलोकीनाथ)

 जाकी रही भावना जैसी,

 प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।


(त्रिलोकीनाथ)

भावार्थ - जिनकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूंढने की आदत पड़ गई है, वे हज़ारों गुण होने पर भी दोष ढूंढ लेते हैं!

निश्चित तौर पर जब संभाग मुख्यालय का पत्रकार समाज कलेक्ट्रेट में जमीन पर बैठकर अपने प्रशासकों का इंतजार कर रहा था और हमारे पुलिस अधीक्षक और कलेक्टर जब वहां आए तो उन्होंने भी इसे देखा था और यह दिखाने वाला सत्य था, सोचने वाला और समझने वाला भी। जिसे अपने सकारात्मक संस्कारों की वजह से अधिकारियों ने जिम्मेदारी के साथ मामले का सकारात्मक हल निकालते हुए पत्रकार समाज को उसकी गरीबी पर बजाय  उचित हल कर के भावनाओं को सम्मान देने का काम किया गया ।


जिस वजह से पत्रकारिता और कार्यपालिका कि यह क्षणिक विरोधाभास तत्काल समाप्त हो गया और आदिवासी क्षेत्र के इन दोनों लोकतांत्रिक स्तंभों में पुनः आपसी ट्रस्ट बढ़ाने का काम हुआ ।

तो यह भी बताना जरूरी है  भारत के आजादी के बाद पहली बार पत्रकारिता के इस प्रकार के प्रदर्शन के कारण यह ट्रस्ट घटा क्यों था...? इस पर मंथन होना चाहिए। तमाम सकारात्मक प्रयासों , विचारधारा और संस्कारों के बावजूद इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार था....?

 जब पत्रकारिता और कार्यपालिका संवाद हो रहा था एक इमोशनल वाकया आया, जब पुलिस अधीक्षक श्री गोस्वामी ने हमारे पूर्वज गोस्वामी जी की लिखी बातों का उल्लेख किया "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी....."

 वास्तव में शहडोल के मानस भवन में पुलिस यातायात विभाग का कार्यक्रम आखिर इस प्रकार के मानस का वातावरण गोस्वामी तुलसीदास के उल्लेख का कारण क्यों बन गया...? पत्रकारिता समाज कोई अघोषित आर एस एस का बौद्धिक विभाग नहीं है... बल्कि वह है एक घोषित स्वविवेक से जोखिम भरा दायित्व है... जिसमें लगातार खतरे बढ़ते ही चले जा रहे हैं.... और उसे अपमानित करने का अवसर भी बढ़ रहा है.... इसके लिए कार्यों को क्रियान्वयन का पर्यावरण, वातावरण की अभिव्यक्ति और उसका प्रदर्शन भी जिम्मेदार  रहा है। कोई एक दिन यह सब कुछ नहीं हो जाता जैसे कि पुलिस अधीक्षक श्री गोस्वामी ने अपनी भावनाओं में इसे साझा भी किया। तो यदि स्वागत कर्ता और जिस का स्वागत हो रहा है दोनों ही ट्रस्ट के दायरे में नहीं आ पाते, चाहे वह दिखाने वाला सत्य ही क्यों ना हो, प्रोटोकॉल का हिस्सा ही क्यों ना हो, तो वातावरण का निर्माण होता है। ट्रस्ट कोई सिर्फ कानूनी धारा नहीं है यह स्वाभाविक रूप से मानसिक पटेल में स्वीकार किए जाने वाला शब्द भी है।

 जहां तक महिलाओं का सम्मान है द्वापर युग में महिला प्रधान समाज होता था गंगा-पुत्र, कुंती-पुत्र देवकी-नंदन, यशोदा के लाला,  कई ऐसे संबोधन है जो मातृ पक्ष को प्रधानता का प्रमाण पत्र था। जब रामायण लिखी गई तब अयोध्या नरेश दशरथ पुत्र राम ,उत्तम कुल पुलस्य से कर नाती राजा रावण आदि का जिक्र आने लगा, यह परिवर्तन का प्रमाण भी है। क्योंकि वातावरण बदल गया था ।

तो मानस भवन के पत्रकारिता के मानस में किसी महिला अधिकारी का प्रोटोकॉल निर्वहन प्रश्न चिन्ह के घेरे में यूं ही नहीं खड़ा हो गया था... जबकि यह दिखाने वाला  सत्य था। तो दूसरा वास्तविक सत्य मंच के नीचे क्रियान्वित हो रहा था जिसने लोकतंत्र के क्षेत्र स्तंभ को एक शासकीय कार्यक्रम में जाने या अनजाने में अपमानित किया जा रहा था । जिसके लिए पुनः कार्यपालिका और पत्रकारिता में संवाद के जरिए समन्वय स्थापित हुआ।

 कह सकते हैं कि लोकतंत्र का यह गरीब स्तंभ देश की आजादी के बाद से ही अव्यवस्थित और शोषित स्तंभ का अपमान भी कोई नई बात नहीं है। तो ठीक ही कहा गोस्वामी जी ने यह अचानक नहीं हुआ है शोषण के बाद ही क्रांति मानस पटल में जन्म लेने लगती है और उसकी भाषा मौन से स्वीकृत होती है। तो मन में यह बात भी अस्वीकृत हो रही थी पत्रकारिता का समाज जो भी है जैसा भी है दलित या शोषित भी है और जब उसे बताया यह समझाया गया किस संस्कार खत्म नहीं हुए हैं, लोकतंत्र को जिंदा रखने की जिम्मेदारी सामूहिक जिम्मेदारी है ।तो ट्रस्ट फिर से कायम हो गया।

 कार्यपालिका चाहती तो नकारात्मक संस्कार का परिचय दे सकती थी, हम आदिवासी क्षेत्र के पत्रकार हैं हर प्रकार के परिचय से वाकिफ हैं किंतु हमारी भावना पवित्र है बावजूद इसके अपवित्र वर्ग पत्रकार समाज में घुसकर कार्यपालिका के पत्रकारिता के आपसी ट्रस्ट को उसी प्रकार से नष्ट कर रहा है जिस प्रकार से कार्यपालिका के कई लोग इसे बर्बाद करने में अपने प्राप्त क्षमता के बाद भी तुले हैं। जिन्हें चिन्हित करने का और उन से बचते रहने का सबब अभी हमें सीखना होगा और उसका एकमात्र लोकतंत्र में रास्ता है वह लगातार आपसी संवाद के जरिए समन्वय की स्थापना।

 यह एक कड़वा सत्य है किंतु अंदर बहुत मिठास है पूर्व के उच्च अधिकारी सूर्य प्रताप सिंह परिहार का मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि उन्होंने मुझ जैसे पत्रकारिता समाज के दलित-नासमझ पत्रकार को सिर्फ चाय पिला कर के और उसे सम्मान देकर अद्यतन हालात में कम से कम 4 से 5000 करोड रुपए का फायदा लोकतंत्र को कराया था जो निरंतर हो भी रहा है और कार्यपालिका ही नहीं विधायिका और न्यायपालिका के लोगों को उसमें तनख्वाह मिल रही है विकास पर कार्य हो रहे हैं यह एक अलग बात है कि हम अभी भी दलित वा शोषित पत्रकार समाज के हिस्सा है। क्योंकि हम आदिवासी मूल क्षेत्र के निवासी हैं ।

और इस प्रकार से आदिवासी-पन आने की शिकायत  के कार्यपालिका में मामूली से किसी छोटे से कर्मचारी के कारण पत्रकारिता और कार्यपालिका में अविश्वास कैसे खड़ा हो जाता है इस संवाद के जरिए हमने पाया भी है। तो उच्च अधिकारियों को जिन का दायित्व है कि वह दलित व शोषित समाज के प्रति सद्भावना रखते हुए ट्रस्ट का निर्माण करें उनसे हमेशा अपेक्षा बनी रहेगी, तब-तक, जब-तक दलित पत्रकार समाज किसी तहसील में या किसी गांव में जब स्वाभाविक रूप से पैदा होता है तब उसे भोपाल में बैठा हुआ कोई आईएएस अधिकारी जो कमिश्नर जनसंपर्क के नाम से भी जाना जाता है चिन्हित नहीं कर लेता।

 याने उसे दिमागी तौर तत्काल अधिमान्यता देने के क्रम में खड़ा नहीं कर लेता, सरकारी रिकॉर्ड में तब तो उसकी प्रशिक्षण प्रक्रिया प्रारंभ होगी क्योंकि अभी भी हमारा लोकतंत्र अपेक्षा तो यह करता है कि पूरे ब्रह्मांड का जिम्मेदारी पत्रकार समाज उठाएं और उसे भूखे प्यासे और प्रशिक्षण हीना भी बनाए रखा जाए क्योंकि पत्रकारिता का बुनियाद कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका के अनुरूप स्वयं के बुनियादी ढांचे से नहीं होता क्योंकि उसमें तथाकथित सफल अखबार मालिक, दलाल और अब तो बड़े-बड़े कॉरपोरेट घराने जिन्हें हम माफिया के रूप में भी देखते हैं वे नियंत्रित करने लगे।

 यह अलग बात है कि इन कारपोरेट घरानों को अपनी जूती में बांधकर कार्यपालिका और विधायिका के लोग लोकतंत्र को नियंत्रित रखना चाहते हैं.... जिसका प्रत्यक्ष नुकसान जमीनी पत्रकारों की स्वाभाविक बौद्धिकता पर पड़ता है।

बहुत लंबा हो जाएगा... किंतु चिंतन और मंथन का विषय बहुत है.. क्योंकि गोस्वामी जी ने कहा भी है "जाकी रही भावना जैसी......." देश की आजादी के 7 दशक बाद भी तमाम शोषण और दमन किस सतत प्रक्रिया के बाद भी बिना किसी बुनियादी ढांचे में खड़ा पत्रकार समाज पूर्ण पवित्र भावना से आज भी महिलाओं मैं सीता और राधा को देखता है इसमें कोई शक नहीं है और उसी तरह भी हमेशा पूजनीय रहेंगी नर्मदा और सोन अंचल का सांस्कृतिक समाज कुछ इसी प्रकार का आदिवासी है। और यही वास्तविक सत्य है भ्रम में कुछ भी पैदा हो सकता है विश्वास रखना चाहिए।



बुधवार, 27 जनवरी 2021

अपना-अपना लाल-किला अपनी-अपनी धर्म-ध्वजा (त्रिलोकीनाथ)

 

मामला आदिवासी संभाग के आदिवासी विभागों का

अपना-अपना लाल-किला


अपनी-अपनी धर्म-ध्वजा

--त्रिलोकीनाथ--

पूरा का पूरा नकली लालकिला छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तब के मुख्यमंत्री गुजरात नरेंद्र मोदी के लिए बनवा दिया था ताकि वे रिहर्सल कर सकें उन्हें अब लाल किला से झंडा फहराना है, क्योंकि लालकिला मैं जिस का कब्जा होता है वही देश का हुक्मरान बनता है। यह एक सोच है।जब देश आजाद नहीं हुआ था तब कहते हैं इस लालकिला के अंतिम शासक बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों ने अंततः रंगून में ले जाकर दफना दिया था। यह अलग बात है कि कुछ लोगों ने उनकी कब्र को वापस लाया था ऐसी कहानियां भी है।

 तो बात नकली लालकिला से तब के मुख्यमंत्री नरेंद्रमोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद असली लालकिले में आकर लालकिला में झंडा फहराने का गौरव हासिल करते हैं। लालकिला से झंडा फहराना कब्जा की भी दास्तान है ऐसा आईकॉन थिंक-टैंकरो ने किया.. जिन्हें लालकिला जीतने की अपनी सोच पर आनंद आता है। इसी सोच को लेकर कोई सिरफिरा किसान आंदोलन की आड़ में कुछ झंडे धर्म के तो कुछ किसानों के लहरा आता है। यह भी अलग बात है यह सिख नुमा नकाब पहने दीप सिंह सिद्धू नामक कलाकार सत्ता देशों के साथ अपनी कई फोटो में देखा गया तो इस नाटक-नौटंकी वाले सिद्धू को किसने हायर किया था। यह जांच से पता चलेगा, अगर जांच होती है तो... और अगर नहीं होती है तो देशद्रोह और शहीदों की मौत पर जश्न मनाने वाला पत्रकार का नकाब पहने कोई अर्णब गोस्वामी की भी कोई जांच नहीं होती, यह एक व्यवस्था है...?

 जितना लालकिला से झंडा फहराना  महत्वपूर्ण था जितना कि राजपथ में परेड करना... तो फिर लालकिला को लावारिस किसके इशारे पर छोड़ दिया गया...? चाहे वह किसी निजी हाथों में क्यों न सौंप दिया गया रहा हो या फिर सिरफिरे नकाबपोश किसान आंदोलन को हिंसक बनाने के प्रयास करने वाली मनसावालों को लालकिला में पुलिस चुपचाप बैठ कर क्यों तमाशबीन बैठी रही। तो इस व्यवस्था के पीछे छुपी हुई ताकत या जिसे कुटिल राजनीति भी कहा जाता है, उसका चाणक्य कौन था....? यह जांच से शायद सामने आ भी जाए अथवा उसे सफलतापूर्वक छुपा भी दिया जाए, दोनों संभव है...।

 क्योंकि यह आज की राजनीति और राजनीतिक  पहचान बनती जा रही हैं, क्योंकि उन्हें शर्म नहीं आती।

इसलिए की यह आदिवासी क्षेत्र है यहां गंगा उल्टी ही बहती है यह बात इस घटना से प्रमाणित होती है। तो अमितसिंह नामक शिक्षक वापस अपनी मूल सेवा में भेज दिए जाते हैं तो क्या इससे यह बात खत्म हो जाती है आदिवासी विभाग के लालकिला मैं जो झंडा अमितसिंह ने फहराया है वह कोई अपराध नहीं था, यह व्यवस्था है तो सवाल यह


है कि कितने इस प्रकार के झंडा-धीशो को वापस मूल विभाग में भेजा जाएगा...? सोहागपुर विकासखंड के बीईओ चंदेल के अंडर में कई लोग अपना अपना झंडा गाड़े हैं और चंदेल अपने निहित भ्रष्टाचार की दुकान के लिए इन्हें संरक्षण भी दे रहे हैं। तो क्या कमिश्नर के आदेश को खारिज करने वाले उपायुक्त कार्यालय अपने अधीनस्थ चंदेल साहब के लालकिला को चुनौती दे सकते हैं .....? 

यह प्रश्न इसलिए भी खड़ा होता है क्योंकि खुद चंदेल गैरकानूनी तरीके से अपना झंडा फहरा रहे हैं। यह अलग बात है कि उनका धर्म-ध्वजा भ्रष्टाचार कि उन जातियों से और समाज से पैदा होता है जिसमें सिस्टम स्वयं में स्थिरता पाता है। बहरहाल अमितसिंह के ऊपर लगे दाग अमिट हो गए थे  या फिर नीलामी में मिला आदेश की कीमत बढ़ा दी गई थी..? क्योंकि सहायक आयुक्त कार्यालय में बैठा हुआ सोहागपुर मंडल संयोजक को सोहागपुर ब्लॉक में कोई काम ना होने की वजह से सहायक आयुक्त कार्यालय में जिले की जिम्मेदारी चाहे वह भ्रष्टाचार के झंडा फहराने की हो या फिर सिस्टम को बनाए रखने की हो, के लिए छोड़ रखा गया है तो फिर गोहपारू जैसे आदिवासी अंचल में मंडल संयोजक की कोई आवश्यकता दिखती तो नहीं थी ।और फिर क्या कारण हो सकता है की कमिश्नर के आदेश को डिप्टी कमिश्नर ने एक सिग्नेचर से हवा में उड़ा दिया....?

 तो यह  भी देखना होगा कि डिप्टी कमिश्नर कार्यालय का नकाब पहनकर कोई सहायक परियोजना अधिकारी स्थाई रूप से डिप्टी कमिश्नर कार्यालय को खेल तो नहीं रहा है...? भ्रष्टाचार जिनका जन्म सिद्ध अधिकार है वे कब तक अपने-अपने लालकिलो में अपने अपने झंडे फहराते रहेंगे या फिर कोई नीतिगत व्यवस्था इन्हें चुनौती भी देगी, यह भी देखना होगा।

 इसलिए भी क्योंकि अगर करोड़ों रुपए के बड़े भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाला सहायक आयुक्त राजेंद्र श्रोति अचानक आदिवासी क्षेत्र से हटाया जाता है तो आखिर किस का झंडा और  किस-किस भ्रष्टाचारियों का धर्म का झंडा आदिवासी विभाग में लहराया जा रहा है। यह भी देखना चाहिए उन्हें भी जो कमिश्नर के आदेश को खत्म कर देते हैं, और उन्हें भी जो सहायक आयुक्त को हटवा देते हैं क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्र यहां गंगा उल्टी ही बहती है। कोई अदना सा कर्मचारी शिक्षक जब कोई बड़ा सा पद खरीद लेता है तो उसे नशा लग जाता है विधायकों को खरीदने का सांसदों को खरीदने का और वह उसे अपनी उंगली पर विधायक सांसद सुनना चाहता रहता है जिसकी वजह से उनका भ्रष्टाचार संरक्षित हो क्योंकि भ्रष्टाचारियों का अपना एक धर्म है और धर्म ध्वजा भी जिससे वह अपने लालकिले में फहराए रखना चाहता है....।

 कोई बड़ी बात नहीं है कि कोई बी ई ओ किसी हाईकोर्ट के आदेश को अनदेखा करें तो कोई बी ई ओ सहायक आयुक्त को हटवा दें और कोई सहायक परियोजना अधिकारी डिप्टी कमिश्नर का नकाब पहनकर, कमिश्नर के आदेश को खारिज करते हैं।

 प्रत्यक्षण किम् प्रमाणम,


आदिवासी संभाग के इस व्यवस्था से कि अगर शहडोल में अचानक सहायक आयुक्त हट गया है तो क्या उनको लाभ नहीं मिला जो इस बात पर नाराज थे की अपात्र संविदा कर्मचारियों को नियमित होने में वे बाधा थे.. उन लोगों
  को भी अनुकम्पा नियुक्ति मिलने में आसानी हो सकती है जो अपात्र थे क्या बे भ्रष्टाचार की दुकान चलाने वाले के कर्मचारियों की बड़े बाधक रहे या चिन्हित काम कर रहे थे एक बहुचर्चित मामला 3  बच्चों वाले कर्मचारियों को राहत मिल सकती है

और इन ज्ञात अज्ञात मुद्दों से हटकर सबसे हटकर  सबसे बड़ा कारण करोड़ों रुपए के का घपला उजागर होते होते रह गया। जिसे खंड शिक्षा अधिकारी ने अंजाम दिया था आखिर चंदेलो के अपने लालकिले होते हैं उनके अपने धर्म ध्वजा भी होते हैं जिसे सत्ता के संरक्षण में वे ठहराए रहते हैं अगर आदिवासी क्षेत्र में मुगलिया सल्तनत बरकरार है तो राह और भी आसान हो जाती है

अगर भ्रष्टाचार के पैमाने में नापित हो तो किसी की भी शहडोल परियोजना अधिकारी बनने की महत्वाकांक्षा आसान हो ही जाती है।

तो बंधुओं नेतृत्व विहीन राजनीति के शहडोल आदिवासी क्षेत्र में सब कुछ संभव है क्योंकि एक लोकप्रिय नारा चलता है "मोदी है तो मुमकिन है" नकली लालकिला भी और नकली झंडाधीश भी। रोचक विषय है आगे भी चर्चा करेंगे.....।








शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

तो दुनिया देखेगी 26 जनवरी को किसान-सत्याग्रह परेड (त्रिलोकीनाथ)

तो दुनिया देखेगी 26 जनवरी


 को 


किसान-सत्याग्रह परेड





करीब 90 साल पहले 24 दिनों की नमक सत्याग्रह यात्रा करके गांधी ने अंग्रेजों के एकाधिकार के कानून को चुनौती दी थी नमक सत्याग्रह का नाम पड़ा दांडी यात्रानमक सत्याग्रह महात्मा गांधी द्वारा चलाये गये प्रमुख आंदोलनों में से एक था. 12 मार्च, 1930 में बापू ने अहमदाबाद के पास स्थित साबरमती आश्रम से दांडी गांव तक 24 दिनों का पैदल मार्च निकाला था. उन्होंने यह मार्च नमक पर ब्रिटिश राज के एकाधिकार के खिलाफ निकाला था.


... तब देश विदेशियों का गुलाम था और हमारे पूर्वज स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे. करीब 9 दशक बाद कथित तौर पर देश स्वतंत्र हो चुका है बावजूद इसके लाखों किसान 3 उच्चतम न्यायालय से स्थगित कृषि कानूनों और न्यूनतम समर्थन मूल्य पाने के लिए भारत की राजधानी दिल्ली के चारों ओर घेराबंदी कर धरना दिए हुए हैं संपूर्ण अहिंसात्मक सत्याग्रह आंदोलन देश की लोकतांत्रिक सरकार के मुंह पर करारा तमाचा है कि वह 58 दिन बाद 11 दौर की बैठकों में यह निष्कर्ष लाती है "मैं चाहे ये करू मैं चाहे वो करुं, मेरी मर्जी...।" के अंदाज पर शासन ने अपना प्रस्ताव देते हुए कहा अब आपकी मर्जी.....

यानी मेरे मुर्गे की डेढ़ टांग के अंदाज में सरकार ने अपनी असफलता का प्रमाण पत्र जारी कर दिया कि वह लाखों किसानों और से को एक सैकड़ा से ज्यादा सिर्फ इस आंदोलन में शहीद किसानों के प्रति कोई सद्भावना नहीं रखती।

क्यों आई यह हालात


 तो क्या 26 जनवरी की गणतंत्र दिवस परेड पर जहां एक और चुनी हुई सरकार की और देश की आजादी का गणतंत्र दिवस परेड का आयोजन करेगा वही स्वतंत्र देश में स्वयं को गुलाम मानकर मोदी सरकार के कोरोना मैं  चोरी-छिपे  किंतु डंके की चोट में लाए गए कृषि कानूनों के विरोध में देश का अन्नदाता समाज

ट्रैक्टर परेड करेगा क्या है गांधीवादी तरीके का सत्याग्रह किसान ट्रैक्टर परेड होगा तो आजाद भारत में यह भी एक रिकॉर्ड होगा कि एक तरफ स्वतंत्र सरकार की सरकारी परेड तो दूसरी तरफ स्वयं को परतंत्र महसूस करने वाले अन्नदाता समाज का सत्याग्रह किसान ट्रैक्टर परेड आगामी 26 जनवरी को हमें देखने को मिलेगा

समाचार सूत्रों के अनुसार आज क्या हुआ दिल्ली में

 बहरहाल कृषि कानूनों को लेकर केंद्र सरकार और किसानों के बीच 11वें राउंड की बात भी आज बेनतीजा रही,  अगली बैठक की तारीख भी तय नहीं है. 11वें दौर की बातचीत  में आज सरकार ने न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य (MSP) की कानूनी गारंटी की मांग पर एक समिति गठित करने का प्रस्ताव भी रखा जिसे किसानों ने नामंजूर कर दिया. जानकारी के अनुसार, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि हमने अपनी ओर से भरपूर कोशिश की, अब गेंद आपके पाले में है. किसान नेताओं का कहना है कि  सरकार की ओर से कोई प्रगति सामने नहीं आई है. सरकार कह रही है कि वह अपनी ओर से 'अधिकतम प्रयास' कर चुकी है.कीर्ति किसान यूनियन के नेता राजेंद्र सिंह ने NDTV से नेकहा कि इससे पहले स्वामीनाथन कमीशन का गठन किया गया था और उसकी सिफारिशें वर्षों तक अटकी पड़ी रहीं.


गौरतलब है क‍ि जहां किसान इन तीनों कानूनों को 'विनाशकारी' बताते हुए इन्‍हें रद्द करने की अपनी मांग पर अडिग हैं, वहीं सरकार इसमें संशोधन की बात कर रही हैं. केंद्र सरकार की ओर से रखे गए प्रस्‍ताव को किसानों ने ठुकरा दिया है. शुक्रवार को 11वीं दौर की बैठक की शुरुआत में किसान संगठनों ने सरकार से कहा कि वह कानून को डेढ़ साल तक स्थगित करके समिति के गठन के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हैं. सूत्रों के मुताबिक, बैठक में सरकार की ओर से कहा गया कि किसान संगठनों ने क्यों अपने फैसले की जानकारी मीडिया के साथ बैठक से पहले ही साझा कर दी? सरकार ने किसान संगठनों से कहा कि वह सरकार के प्रस्ताव पर पुनर्विचार करे.

 (तथ्य संकलन एनडीटीवी समाचार से साभार)



शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

पत्रकारिता ने भी खोया है अपना आसमान..... त्रिलोकीनाथ

 अकेले किसान नहीं हैं 70 साल के शोषण की दास्तान, पत्रकारिता ने भी खोया है अपना आसमान.....

(त्रिलोकीनाथ)

भारत के खेतों में अक्सर अलग-अलग तरीके का एक पुतला खड़ा किया जाता रहा है ताकि खेतों को नुकसान पहुंचाने वाले पशु-पक्षी उस पुतले को भ्रम में किसी व्यक्ति के उपस्थित होने का भान करते हुए खेत से भाग जाएं और खेत को नुकसान न पहुंचाएं। दर्असल ये किसानों का मुफ्त का इजाद किया हुआ अपना चौकीदार है। हलां कि इसका नाम चौकीदार नहीं था, फिर भी यह  किसान का वफादार चौकीदार रहा ।क्योंकि यह पुतला है।

 मल्टीनेशनल कंपनियां और कारपोरेट घरानों ने इस "चौकीदार" को चुरा लिया। बाद में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं को चौकीदार के रूप में भी इसलिए प्रचारित किया, क्योंकि उनका पप्पू उन्हें बार-बार चिड़ा रहा था कि "चौकीदार चोर है..।"


 तो राजनीति में और भ्रष्टाचार की नीति में चौकीदार के शब्द को और उसमें निहित मंसा को कलंकित कर दिया।

 दरअसल अगर चौकीदार कोई रहा और भारत यदि खेत है तो उसमें चौकीदार "सिर्फ जमीनी पत्रकार" रहा । जो कि उतना ही भारतीय आजादी मे शोषण का शिकार हुआ जितना कि खेत का मालिक किसान देश मे आजादी का शिकार हुआ। क्योंकि आजाद भारत में जो भी नीतियां बनाने का काम हुआ उसमें बहुतायत नीतियां ना तो किसानों के लिए बनी और ना ही जमीनी पत्रकारों के लिए बल्कि भारत में नीतियों का निर्माण ही इसलिए होता रहा ताकि मल्टीनेशनल कंपनियां और कारपोरेट घराने उसमें अपना धंधा ढूंढ सके। बीसवीं सदी में जो पांच दशक देश की आजादी के गुजरे उसमें काफी कुछ नैतिक राजनीति की उपस्थिति जीवित थी ।

 समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस ने कहा था राजनीति की परिभाषा है लोगों की सेवा जो 21वीं सदी में विशेष तौर पर "हिंदुत्व" व  "डिजिटल इंडिया" के  ईवीएम वोट मशीन की लहर में सवार होकर आए मोदी सरकार को यह पूरी तरह से भान हो गया की सत्ता में आना सिर्फ एक प्रबंधन है। जो डिजिटल इंडिया में बहुत आसान है ।

आप भारत में वोटर तो हो सकते हैं किंतु ईवीएम मशीन नहीं। इसलिए आप का महत्व कमतर हो जाता है। क्योंकि निर्णय ईवीएम मशीन को करना होता है। और यह बात मोदी सरकार की कॉर्पोरेट कल्चर में चलने वाली कार्यप्रणाली से प्रमाणित होने लगा है कि उसे महात्मा गांधी के आजाद भारत में "अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति" के लिए कोई काम नहीं करना है बल्कि "पहली पंक्ति के पहले व्यक्ति" के लिए ही अपने नेताओं को समर्पित करना है। और हो भी क्यों ना अगर भारत का किसान अन्नदाता नाम के शब्द का स्वयं के लिए उपयोग करता है तो किसी भी सरकार को "प्राणदाता" के रूप में प्राणवायु देने वाला मल्टीनेशनल और कॉरपोरेटर उनके नियोक्ता होते हैं।

 डिजिटल इंडिया में इस सच्चाई को प्रमाणित होने में हो सकता है वक्त लगे किंतु शासन के निर्णय फिलहाल प्रमाणित होते दिखते हैं हालांकि 70 साल का गाना व रोना गाने वाली व्यवस्था में अभी दिल्ली में आंदोलित किसानों के 70 दिन नहीं हुए हैं 52 दिन ही हुए हैं यह अलग बात है 70 से ज्यादा किसानों के इस आंदोलन के कारण मर जाने की खबर है

 बहरहाल बीते 70 साल में सिर्फ भारत के किसानों का शोषण ही नहीं हुआ है जमीन के पत्रकारों का भी उतना ही शोषण हुआ है जितना कि किसानों का ।उतने ही किसान मजे में हैं जो सत्ता के लिए अपनी निष्ठा व्यक्त करते हैं उतने ही पत्रकार भी मजे में हैं जो सत्ता की चापलूसी में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। अब जमीनी पत्रकार की हालत सरकारी नीतियों के कारण बद से बदतर हो गई है उनका उद्देश्य पत्रकारिता से तटस्थ होकर पत्रकारिता का नकाब पहनकर अजीबका परक हो गया है क्योंकि यह मात्र शहरी नागरिक बनकर रह गए। और राजधानी में बैठे हुए कॉर्पोरेट कल्चर के पत्रकारिता ने इन जमीनी पत्रकारों की हत्या करने में अथवा उन्हें मानसिक रूप से गुलाम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब तो कॉर्पोरेट कल्चर के पत्रकारिता ने जैसे पुलिस थानों में थानेदारी की नियुक्ति अवैध वसूली पर आधारित हो गई है वैसे ही पत्रकारों की नियुक्ति करते वक्त कॉरपोरेट कल्चर के पत्रकारिता करने वाला नया समाज नियुक्त करने का काम करता है। किंतु पुलिस थाना मैं एक प्रशिक्षित समाज अपने कार्य को अंजाम देता है किंतु पत्रकारिता में जमीनी पत्रकारों को प्रशिक्षित करने का काम इसलिए नहीं होता क्योंकि प्रशिक्षण में भी पैसा लगता है। और कॉर्पोरेट कल्चर का पत्रकारिता यह काम भी मुफ्तखोरी में कराना चाहता है।           (शेष अगले अंक 2पर)



गुरुवार, 14 जनवरी 2021

मुद्दों की गरीबी में मुख्यमंत्री की ब्योहारी यात्रा , नहर में बस गिरी. भाग 2..( त्रिलोकीनाथ)

 संवेदनहीनता की पराकाष्ठा, एक जश्न .....


 राष्ट्रीय सड़क सप्ताह का बड़ा तोहफा


अगर मैं भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवादी पत्रकार अर्णब गोस्वामी की आत्मा को 2 मिनट के लिए अपने अंदर ले लूं ,तो अरणव अपने पुलवामा में 40 शहीद की मौत पर जो जश्न एक अफसर के साथ शेयर किया था तो रीवा अमरकंटक सड़क की हत्यारी मार्ग के कारण नहर के अंदर जिन 40 लोगों की हत्या कर दी गई है उस का जश्न मनाना चाहता हूं ...तो कैसे मना लूंगा , फिलहाल मैंने सोचा कि शिवराज सिंह जी ने जब व्यवहारी यात्रा किया था उस पर जो लेख लिखा था मैं उसे रिपीट कर अरनव की आत्मा को तृप्त के लिये ,मेरी पहली श्रद्धांजलि के रूप में अपना पुराना  लेख प्रस्तुत करता हूं, इसका पार्ट 3 शीघ्र लिखूंगा... क्योंकि मैं पत्रकार तो हुं ही चाहे गैर अधिमान्य पत्रकार ही क्यों ना हूं ।नई भाषा में भविष्य के "चुकुर समाज "का विंध्य का चुकुर। तो पढ़िए और जश्न का आनंद लीजिए। मौत का भी अपना एक जश्नन होता है। वे, राष्ट्रवादी हैं तो हम लोग आदिवासी क्षेत्र के आदिवासी चुकुर है हमें भी जश्न मनााने का हक होना चाहिए... क्योंकि शर्म उन्हें तो आती ही नहीं.........


मुद्दों की गरीबी में मुख्यमंत्री की ब्योहारी यात्रा...


क्या आसमान से दिख सकती है 

"रीवा-अमरकंटक की हत्यारी" सड़क 

(त्रिलोकीनाथ)

खबर है 16 तारीख को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह "विजय सोता पुल" विषय पर आने वाले हैं, हो सकता है स्थानीय राजनीति को भी थोड़ा सा सनसनी पैदा करें.. क्योंकि ब्यौहारी विधानसभा क्षेत्र कॉन्ग्रेस से लाए गए भाजपा विधायक शरद कोल का विधानसभा क्षेत्र है। और मुख्यमंत्री की पहली पसंद में वे विधायक बने थे ,तब क्षेत्र के दबंग युवा नेता रिंकू सिंह बगावत कर दी थी।

 आरक्षण के अंधकार से  मुक्त होकर  ब्यौहारी की लॉटरी खुली है अब भारतीय जनता पार्टी का नगर पंचायत अध्यक्ष का पद सामान्य के लिए बना हुआ है। तो संभवत है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अपनी यात्रा में एक और लॉटरी भी खोलने वाले हैं..। क्योंकि भाजपा में कब किसकी लॉटरी लग जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। तो देखते चलिए रिंकू सिंह के बगावती तेवर के बीच में घंटी बांधने की जिम्मेदारी किसके सिर पर जाएगी। बहरहाल व्यवहारी को जिला बनाना या ना बनाना अभी ख्याली पुलाव ही है जो हवाई यात्रा के दौरान उतरते उतरते पक जाए कोई भरोसा भी नहीं। क्योंकि की "टुकड़े टुकड़े गैंग" के रूप में शहडोल जिले को लूट खसोट का बड़ा अड्डा बना दिया ।तो देखते चलिए आगे आगे होता है।

 विकास की नई रफ्तार की फोटो फेसबुक में आई है


एक जो नेताओं के आने में पैदा होती है। किंतु अभी जो कुछ देखना है समझना है विशेषकर व्यवहारी के जनप्रतिनिधियों को वह यह है कि क्या कांग्रेस पार्टी के कार्यकाल में रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग का ठेका जिस ठेकेदार को दिया गया था कथित तौर पर 25 वर्ष के लिए, उसे 15 साल टोल टैक्स वसूलने के बाद भागने की छूट क्यों दे दी गई। क्या अनुबंध में यह भी  था कि 15 वर्ष टोल टैक्स वसूलने के बाद वह सड़क को मौत का सड़क बना देगा।

जैसा कि रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग में आए दिन होता रहता है। या फिर गुपचुप तरीके से कथित तौर पर 25 वर्ष का अनुबंध


15 साल में ही खत्म कर दिया गया है यानी कानून में संशोधन कर दिया गया है...?

 बहरहाल और यदि लोग मर रहे हैं तो उसकी जिम्मेदारी नेता लेगा, मंत्री लेगा या ठेकेदार अथवा सब जिम्मेदारी अयोध्या में बैठे भगवान राम पर छोड़ दी गई है...? पर क्या फर्क पड़ता है मर तो किसान भी रहे हैं दिल्ली की सड़कों पर यह तो एक व्यवस्था है तो आदिवासी क्षेत्र में लोगों की क्या हैसियत है यह सोच भी हो सकती है...?

तो यह बात एक बड़ा मुद्दा है व्यवहारी वासियों के लिए भी और रीवा और शहडोल संभाग के लोगों के लिए भी, क्योंकि व्यवहारी केंद्र है विरोधाभासी विध्वंसक राजनीति की...। जहां के निवासी दशकों तक मंत्री रहे स्वर्गीय रामकिशोर शुक्ल के और बाद में समाजवादी से भाजपा के मंत्री रहे लोकेश सिंह के सानिध्य में रहे हैं..।


इन्हीं दोनों परिवार मैं एक शुक्ला परिवार के वरिष्ठ नेता एडवोकेट संतोष शुक्ला को हाल में पुलिस वाले को में गुंडा लिस्ट में चर्चित करने की खबरें गर्म रही हैं...। तो क्या उन्हें गुंडा बना कर उनकी राजनीत हो खत्म करने की साजिश हो रही थी...?, जैसा कि खुद संतोष शुक्ला का कहना था।

 तो फिर क्या इसी रीवा-अमरकंटक सड़क मार्ग के लिए व्यवहारी से शहडोल तक पद यात्रा करने वाले संतोष शुक्ला पुनः मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के पास अनुबंधित सड़क मार्ग में हो रही  सड़क दुर्घटनाओं में हत्याओं की जिम्मेदारी तय करने की बात रख पाने का साहस करेंगे...? और साहस करते की बात जहां तक है तो स्वर्गीय लवकेश सिंह के भाजपा के बागी पुत्र रिंकू सिंह भी सड़क मार्ग में हो रहे हत्याओं के लिए बात उठाने की जोखिम उठाएंगे.....? क्योंकि दोनों ताकतवर नेता रहे हैं..।

 बातें तो और भी हैं क्योंकि व्यवहारी के ही किसी विद्यालय में तस्करों ने रेत की तस्करी की प्राथमिक शिक्षा का केंद्र बनाया था, पहली बार ही किसी स्कूल में रेत माफिया के द्वारा भंडारण करके रेत की तस्करी की योजना बनाई गई थी और रेत तस्करी का बड़ा स्वर्ग इस समय व्यवहारी विधानसभा क्षेत्र बना हुआ है। बल्कि इसी ब्यौहारी के स्कूल से तस्करी का ज्ञान प्राप्त कर  शहडोल और रीवा संभाग रेत तस्करों का स्वर्ग बन गया है। यह अलग बात है कि सभी  विशेष राजनीतिक दल के लोग हैं ।

तो राजनीति इस बात की भी कि क्या वर्षों बरस मंत्री रहे स्थानीय नेताओं में यह साहस बचा है कि वे मुख्यमंत्री को बता सकें यह सब आखिर कब तक चलता रहेगा...? और दूसरी बात है कि मुख्यमंत्री जब हेलीकॉप्टर की उड़ान से आएंगे, तो जमीनी नेताओं जिनकी है हैसियत आदिवासी क्षेत्र में कीड़े-मकोड़े की तरह है, (जो उन्होंने खुद बनाई है आपस में फूट करके) उनको सुनने और समझने का वक्त भी देंगे....?

 क्योंकि पिछले 16 साल से भाजपा की ही सरकार है तो देखते चलिए मुद्दे तो ढेर सारे हैं....। क्या उठाने वाले टाइगर जिंदा है ....? क्योंकि बांधवगढ़ टाइगर का कब्र का भी रहा है जो सुर्खियों में बने रहे... तो कुछ टाइगर घर में घुसकर सोते हुए लोगों को शिकार किए जाने पर भी प्रदेश में खबर बनी है ...।

मुद्दे और भी बहुत हैं.., खुद उनके व्यवहारी नया सब्जबाग दिखाने का, जिसमें जिला बनाना भी एक सुनहरा सपना बना हुआ है...? यह अलग बात है कि लावारिस बन चुका आदिवासी क्षेत्र शहडोल को जिले के "टुकड़े-टुकड़े गैंग"  में बदल कर उसे लूटपाट का अड्डा बना दिया है। जो पूरी तरह से पारदर्शी है ।

और यह भी मुद्दा है जो आम बात हो गई है कि कोई रेंजर पुष्पा सिंह किसी  रेत तस्कर बड़े


पारदर्शी तरीके से वन क्षेत्रों में तस्करी  प्लान करती है...?   मुद्दा यह भी है कोई कबाड़ी हमारे आईजी साहब को असभ्यता से धमकाने का खुलेआम काम करता है....?. और दोनों ही कोई मुस्लिम कौम के तस्कर और स्मगलर होते हैं। और दोनों ही इस आदिवासी क्षेत्र में काला धन का बड़ा कारोबार करते हैं तो हिंदुओं की सरकार क्या अभी तक सोती रही या फिर सोने का नाटक करती रही...? जिस कारण मुस्लिम तस्कर आदिवासी क्षेत्र को अपना चारागाह बना लिए और प्रशासनिक अमला उनसे सौदा करता रहा....?

और तमाम हिंदुत्व के ठेकेदार चाहे वे संगठन मंत्री हो या आर एस एस के महान कर्णधार, क्या इनसे मिलकर हिसाब किताब लेते थे...? जो जान नहीं पाए कि मुस्लिम तस्कर कहीं पाकिस्तान परस्त तो नहीं....?

 आखिर काला धन उन्हें क्यों चाहिए क्या यह भी कोई बड़ी नूरा कुश्ती तो नहीं है....?

 हिंदुत्व के साथ बड़ी धोखाधड़ी क्यों हो रही है  दूर गांव में  मुस्लिमों का आदिवासियों पर कब्जा क्यों हो रहा है क्या हिंदुत्व का  भयानक और डराने वाला चेहरा सिर्फ ईसाईयों के लिए है... आखिर यह तस्करों का स्वर्ग क्यों बन गया....?  क्या "टुकड़े टुकड़े गैंग" के रूप मेंबने जिलो मे बैठे हुए जिले के विधायक और मंत्री जिम्मेवार नहीं है ... अगर मुद्दे के रूप में देखेंगे तो यह भी एक मुद्दा है....?

 और इन सब की जिम्मेवारी ,आदिवासी क्षेत्रों को खनिज, संपदा,  नदियों को नष्ट-भ्रष्ट करने की  लुटुवाने की, ना अधिकारियों पर जवाबदेही तय हुई ना "माननीय तस्कर" किसी गुंडा लिस्ट में आए जो आए स्थानीय नेता ब्यौहारी के ही थे... तो मुद्दा यह भी है।

 देखते हैं 16 को क्या-क्या होता है ... कुछ होता भी है या नहीं होता है, यहां के टाइगर जिंदा है  या जिंदा बनने का प्रयास करते हैं... क्योंकि टाइगर जिंदा है कहने वाले मुख्यमंत्री तो आएंगे और बिहार नगर पंचायत की लॉटरी खोल कर चले जाएंगे... आखिर एक और पुल और सड़क का शिलान्यास करने वाले मुख्यमंत्री को हेलीकॉप्टर से जरूर दिखेगा कि रीवा-अमरकंटक सड़क मार्ग में आदिवासी क्षेत्र के कीड़े-मकोड़े दुर्घटनाओं में मर जाते हैं। और  क्षेत्र के  सांसद  या विधायक वे सिर्फ  वेतन उठाने के लिए  लोकसभा विधानसभा में जाते हैं । उन्हें इन सड़कों  से क्या लेना देना मुख्यमंत्री जी  यह भी जानते हैं ।तो सड़क या पुल कीड़े-मकोड़ों के लिए नहीं कॉर्पोरेट जगत के लिए ही बनाना पड़ता है ।

क्योंकि उन्हें यह भी मालूम हो गया है कि राजनीति सिर्फ एक सट्टा है और सट्टे में विरासत का कोई रोल नहीं होता है... किंतु अगर मुद्दे उठे और टिके रहे तो विरासत जिम्मेदारों के हाथ में संघर्ष की सौंपी जा सकती है... कुछ लोग सीख सकते हैं कि मुद्दों में लड़ना चाहिए अन्यथा शहडोल संभाग के जिले "टुकड़े-टुकड़े गैंग मे बड़े चारागाह बनी रहे हैं आप भी किसी पशु के रूप में जीना सीख लीजिए क्योंकि यही सच्ची राष्ट्रभक्ति दिखती है आज के दौर में......? हो सकता है मैं गलत हूं आशा भी करता हूं मैं गलत साबित रहूं..।

 (------------भाग 3 अगले अंक में------------)

सोमवार, 11 जनवरी 2021

सीजेआई ने कहा, हम बहुत निराश हैं. ..

 

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जब SC ने अटॉर्नी जनरल से कहा- 'जल्दबाजी पर लेक्चर मत दीजिए', 

जब SC ने अटॉर्नी जनरल से कहा- 'जल्दबाजी पर लेक्चर मत दीजिए', जानिए सुनवाई की 10 बड़ी बातें

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि नए कृषि कानूनों को लेकर   वह 'बेहद निराश' है. चीफ जस्टिस एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने कहा, ''क्या चल रहा है? 


पीठ ने कहा, ''हम आपकी बातचीत को भटकाने वाली कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते लेकिन हम इसकी प्रक्रिया से बेहद निराश हैं.'' पीठ में जस्टिस एस एस बोपन्ना और जस्टिस वी सुब्रमण्यम भी शामिल थे. 

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की 10 बड़ी बातें


1- पीठ ने कहा, ''हमारे समक्ष एक भी ऐसी याचिका दायर नहीं की गई, जिसमें कहा गया हो कि ये तीन कृषि कानून किसानों के लिए फायदेमंद हैं.''  उसने केन्द्र से कहा, ''हम अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ नहीं हैं; आप बताएं कि सरकार कृषि कानूनों पर रोक लगाएगी या हम लगाएं?''


2- अटॉर्नी जनरल केके. वेणुगोपाल ने शीर्ष अदालत से कहा कि किसी कानून पर तब तक रोक नहीं लगाई जा सकती, जब तक वह मौलिक अधिकारों या संवैधानिक योजनाओं का उल्लंघन ना करे. कोर्ट ने कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसान संगठनों से कहा, ''आपको भरोसा हो या नहीं, हम भारत की शीर्ष अदालत हैं, हम अपना काम करेंगे.''


3- किससे चर्चा किया कानून बनाने से पहले? कई बार से कह रहे हैं कि बात हो रही है. क्या बात हो रही है? इसपर एटॉर्नी जनरल ने कहा कि कानून से पहले एक्सपर्ट कमिटी बनी. कई लोगों से चर्चा की. पहले की सरकारें भी इस दिशा में कोशिश कर रही हैं.


4- चीफ जस्टिस ने कहा कि अगर हम कानून का अमल रोक देते हैं तो फिलहाल आंदोलन करने जैसा कुछ नहीं होगा. आप लोगों को समझा कर वापस भेजिए. सबका दिल्ली में स्वागत है. लेकिन लाखों लोग आए तो कानून व्यवस्था की स्थिति भी बिगड़ेगी. कोरोना का खतरा है. महिलाओं, वृद्धों और बच्चों को आंदोलन से अलग करना चाहिए. उन्हें वापस भेजना चाहिए.


5- कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि आप हल नहीं निकाल पा रहे हैं. लोग मर रहे हैं. आत्महत्या कर रहे हैं. हम नहीं जानते क्यों, महिलाओं और वृद्धों को भी बैठा रखा है. खैर, हम कमिटी बनाने जा रहे हैं. किसी को इस पर कहना है तो कहे.


6- एटॉर्नी जनरल ने कहा कि 26 जनवरी को राजपथ पर 2000 ट्रैक्टर दौड़ाने की बात कहीं जा रही है. इसपर किसान संगठनों के वकील दुष्यंत दवे ने कहा कि हम ऐसा नहीं करेंगे कोर्ट ने इस पर खुशी जाहिर की तो वहीं एटॉर्नी जनरल ने हलफनामा मांग लिया.


7- दुष्यंत दवे ने कहा कि पंजाब के किसान संगठन कभी भी गणतंत्र दिवस परेड को बाधित नहीं करना चाहेंगे. हर परिवार से लोग सेना में हैं. हमें रामलीला मैदान जाने देना चाहिए.


8- चीफ जस्टिस ने कहा कि मैं रिस्क ले रहा हूं. आप बुजुर्गों को बताइए कि चीफ जस्टिस चाहते हैं कि बुजुर्ग वापस चले जाएं. एटॉर्नी जनरल ने कहा कि कमिटी के सामने भी लोग अड़ियल रुख अपनाएंगे. कहेंगे कि कानून वापस लो.


9- CJI ने कहा कि हमें उनकी समझदारी पर भरोसा है. हम विरोध के लिए वैकल्पिक जगह नहीं दे रहे.


10- चीफ जस्टिस ने कहा कि हम आज की सुनवाई बंद कर रहे हैं. इसपर एटॉर्नी जनरल ने कहा कि जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. CJI ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा,

 "हमें जल्दबाजी पर लेक्चर मत दीजिए, हमने बहुत समय दिया है",

 जबकि किसान नेताओं ने कहा था कि वे अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ने के लिये तैयार हैं और उनकी 'घर वापसी' सिर्फ 'कानून वापसी' के बाद होगी. केन्द्र और किसान नेताओं के बीच 15 जनवरी को अगली बैठक प्रस्तावित है.



मंगलवार, 5 जनवरी 2021

तो, दाग अच्छे हैं.... गर्व से कहो हम भारतीय हैं....? (त्रिलोकीनाथ)

 तो, दाग अच्छे हैं....


गर्व से कहो हम भारतीय हैं....?

(त्रिलोकीनाथ)

कोरोनावायरस-नीति में जो देश को भुगतना पड़ा वह तो सब ने देखा, जब कोरोनावायरस ब्रिटेन में नए तरीके से जन्म लेने की खबर आई है तो भारत सरकार ने तत्काल हवाई यात्रा पर रोक लगा दिया शायद भारत की मोदी सरकार बुद्धिमान हो गई रही होगी..., किंतु यही काम यदि चीन के कोरोनावायरस का दुनिया में जब साम्राज्यवाद बढ़ रहा था उस वक्त किया होता, और अपनी सीमाओं की रक्षा हवाई यात्रा में ब्रेक लगाकर की होती तो शायद भारत हर मोर्चे पर इतना पीछे न चला गया होता....?, बर्बादी, बेकारी और मौत का कारोबार, प्रताड़ना की इंतहा सब उसने देखना पड़ा..। 

 किंतु अगर कोरोनावायरस के साम्राज्यवाद के छाया के तले उसे मनमानी तरीके से कानूनों को अंजाम देने का अवसर नहीं मिलता...? वह तीन कृषि संशोधन पर नहीं रखवा पाता और शायद लाखों बलिदानों के रूप में प्रकट हुए अयोध्या के राम मंदिर को जैन-दंपत्ति के माध्यम से पूजन कार्यक्रम भी ना हो पाता..? क्योंकि कुछ हिंदू रामानुज संप्रदाय के शायद खड़े हो जाते.. जैसे उमा भारती.. लोग...। यह भी कोरोनावायरस की कृपा थी।

 बोस ने कहा था “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा...”।

तो साम्राज्यवादी-वायरस ने अपना जलजला दिखाया.., यह इसका नकारात्मक पक्ष हैं। फिर चुनाव मे हुआ राजनीतिक-जन्म। बिहार में कहा गया कि अगर हमें वोट देंगे तो हम तुम्हें मुफ्त में वैक्सीन देंगे। यहीं आजादी की लड़ाई की स्मृतियां ताजी हो गई, सुभाषचंद्र बोस ने कहा था “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा...”। तो मोदी सरकार ने कहा तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वैक्सीन दूंगा।बहरहाल इस पर भी खूब राजनीति हुई। यह सब मुखौटा था, क्योंकि काम ईवीएम को करना था.. वही वास्तविक निर्णायक था।यह सब “प्रि-इलेक्शन” था। अब “पोस्ट-इलेक्शन” की बात हो रही है। तीन करोड़ लोगों को फ्री वैक्सीन मिलेगी.... बाकी का निर्णय बाद में।

अखिलेशप्रताप सिंह ने कहा “हम बीजेपी का वैक्सीन नहीं लगाएंगे..,


 तो अपने युवा नेता अखिलेशप्रताप सिंह ने कहा “हम बीजेपी का वैक्सीन नहीं लगाएंगे.., जब उनकी सरकार आ जाएगी तब अपना टीका लगाएंगे।” उपमुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश ने इसे वैज्ञानिकों का अपमान बताया। 

कोरोना के साम्राज्यवाद में सिर्फ इतना ही नहीं होना है, बहुत कुछ होना है। इस बार हमारे असली-मालिक गणतंत्र दिवस में हमारे अतिथि होंगे यानी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ।और एक तरफ दिल्ली में जहां मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत सरकार की परेड का कार्यक्रम होगा वही कोरोना के साम्राज्यवाद में पैदा हुआ कृषि-बिल के खिलाफ किसानों का ऐतिहासिक आंदोलन अपनी आजादी के लिए जंगी युद्ध में अपना “ट्रैक्टर-परेड” करेगा। तो फिर भारत की नासमझ जनता किस परेड को पसंद करेगी...?, यह भी देखने लायक बात होगी।

 हो सकता है यह दबाव बनाने की युद्ध नीति हो...? क्योंकि  गणित प्रश्नों के हल की तरह हम मान ले कि हम गुलाम भारत में है, तो हमारे मालिक के लाड-गवर्नर( ब्रिटिश प्रधानमंत्री) इस बार हमारे परेड के मुख्य अतिथि होंगे और उनकी सल्तनत में मोदी-सरकार अपना परेड का कार्यक्रम रखेगी। तो जो बागी, भारतीय किसान युद्ध लड़ रहे हैं, गांधीवादी तरीके से, वह भी अपना परेड करेंगे...। तो लाड-गवर्नर साहब बैठे तो कहीं रहेंगे... लेकिन उनका ध्यान दुनिया के लोगों की तरह किसानों की परेड की तरफ बना रहेगा...., भय से, आकर्षण से और गांधीवादी सत्याग्रह आंदोलन की झलक देश की आजादी के बाद 7 दशक बाद भी कैसी होगी...? लाड-गवर्नर साहब देखेंगे....।

 यह उपलब्धि मोदी सरकार के लिए कितना गौरवशाली होगी, कहा नहीं जा सकता..। किंतु यह जरूर है कि यह 21वीं सदी का ऐतिहासिक दिन होगा, जब आजाद-भारत के अंदर-गुलाम भारत की तस्वीर की झलक हम सब देखेंगे...? हो सकता है भारत के जिंदा-खबर-मीडिया अपनी झांकियों की झलकियों में इसे खबर बनाएं?

 यह अलग बात है कि हम दर्शक दीर्घा में होंगे... क्योंकि उनके शब्दों में, “भ्रमित किसान,” विपक्षी दलों द्वारा भ्रमजाल में फंसे किसान, अथवा पहले जैसे उनके चेले-चौपाटी कह गए खालिस्तानी.., राष्ट्र-द्रोही..., आतंकवादी..,? 

किसान अपनी अस्मिता की लड़ाई को आजाद भारत में ट्रैक्टर-परेड के माध्यम से अपने लाड-गवर्नर के सामने प्रस्तुत करेंगे... तब शायद उन्हें अपने ना होने का एहसास हो..? ,उनका जमीर..?, अपने पूर्व मालिक को देख कर जागे..? कि हम राजतंत्र के बारिश नहीं है, लोकतंत्र के नेता है और इस देश के संविधान हमारी विरासत है। क्योंकि मालिक के सामने यदि नौकर का अपमान होता है, चौकीदार का अपमान होता है तो चौकीदार का जमीर ज्यादा जागता है। देखना होगा की आजादी की लड़ाई में कितना दम बाकी है...?

भागवत ने कहा,उनकी नजर में “गांधी, हिंदू देशभक्त .."


गांधी के सत्याग्रह आंदोलन पर अमल कर रहे किसानों की लड़ाई को कमजोर करने के दृष्टिकोण से ही शायद भाजपा के पितर-पुरुष आर एस एस संचालक मोहन भागवत ने कहा है कि उनकी नजर में “गांधी, हिंदू देशभक्त थे..|  जहां एक और लाखों किसानों के कई महीनों से चल रहे तथा दिल्ली को इस कड़क ठंड में घेराबंदी कर रहे सत्याग्रही किसान आंदोलन को वे मूक-बधिर होकर नजरअंदाज कर रहे थे, वही इस सत्याग्रह आंदोलन के प्रणेता महात्मा गांधी को भी एक विचारधारा का अपना गुलाम बता रहे थे| याने “हिंदुत्व” का गुलाम घोषित कर रहे थे| यह भी कंफ्यूजन है या कन्फ्यूजन डाला जा रहा, लाड गवर्नर के सामने पाने की यह प्लानिंग थी, कि हम कंप्लीट है..?

हम गैर आंदोलनकारी  दर्शक दीर्घा के लोग निर्णय के इंतजार में ताली बजाएंगे....

 हम सब आदिवासी क्षेत्र के निवासी, इस आंदोलन के गैर-आंदोलनकारी भारतीय नागरिक है.., दर्शक-दीर्घा में बैठकर या तो मोदी-सरकार के लिए अथवा किसानों के लिए उनकी जीत में ताली बजाने के लिए बैठे हैं... कि हमारे आसपास जितनी भी गैरकानूनी अथवा अथवा कानून का नकाब पहनकर पर्यावरण विनाश का खुला खेल हो रहा है, माफिया-तस्कर  अपने सबसे ज्यादा स्वर्णिम-कार्यकाल में जी रहे हैं.. तो हम तो सिर्फ ताली-बजाने-वाले भारतीय नागरिक ही कहलाएंगे। 

तब भी..  जब किसान जीत जाएंगे.., तो भी मोदी-सरकार की जीत जाएगी तो भी.. अथवा लाड गवर्नर साहब जीत जाएंगे| और संदेश लेकर जाएंगे महारानी विक्टोरिया के पास..., एलिजाबेथ के पास कि आपका छोड़ा हुआ भारत अभी बरकरार है.. मैं अभी अभी देख कर आ रहा हूं....।

तो क्या हमें शर्म है, क्या हम शर्मसार होना चाहेंगे...? यह भी हमारे लिए गौरव का विषय है... 56 इंच का सीना हमारा, महीनों के किसान-सत्याग्रह-आंदोलन का निवारण करने में नपुंसक सिद्ध हुआ है.. और हम उसे गणतंत्र दिवस की देहरी में लाकर खड़ा कर दिए...। ट्रैक्टर परेड के रूप में शामिल करने के लिए....




इसीलिए मैं भारत के चुनाव आयुक्त की तरह बधाई देता हूं... सोहागपुर की जनता ने कभी शबनममौसी को विधायिका में भेज कर अपना संदेश दिया था... कि “गर्व से कहो हम भारतीय हैं....?”



रविवार, 3 जनवरी 2021

देर है अंधेर नहीं, साबित हुआ( त्रिलोकीनाथ)

 


अंततः सपना साकार हुआ....

 शहीदों को मिलेगी शांति..


(त्रिलोकीनाथ)

तत्कालीन कमिश्नर से मुलाकात हुई, बातों ही बातों में सिलसिला बना.. उन्हें बताया गया की जय स्तंभ के पेट्रोल पंप तक बनने वाली इस सीमेंटेड सीसी रोड जो मॉडल रोड के रूप में भी जानी गई इसके बनने का कोई अर्थ नहीं है और तब तक अर्थ नहीं है जब तक कि जयस्तंभ चौक को "दुर्घटना-स्थल" के रूप से बदलकर सामान्य सड़क मार्ग में ना बदला जाए। क्योंकि कटनी से लेकर गुमला तक के बीच में जय स्तंभ चौक  एक ऐसी जगह थी जहां पर हैवी व्हीकल के टायर ब्लास्ट होते थे। किसी बमब्लास्ट की तरह और 144 धारा वाला यह क्षेत्र दहशत में आ जाता था। यहां तक तो ठीक था ट्रक वालों को नुकसान


 होता था। किंतु उनके टायर ब्लास्ट होने की चलते कलेक्ट्रेट के सामने से गुजरने वाले सड़क में टर्निंग में निपनिया का एक व्यक्ति फंस गया और अंततः उसकी मौत हो गई ।हालांकि 1998 मे मै स्वतंत्र मत में एक आलेख के जरिए इस सड़क मार्ग को ठीक करने का ध्यानाकर्षण किया था मैं मानता हूं कि यह इंजीनियरिंग ट्रैफिक के खिलाफ बनाई गई सड़क है। कल इसकी पुष्टि ठेकेदारकर्मी ने भी की कि "हां, यहां पर गोल चौक ना बन कर के तिकोना मध्य स्थल बनना चाहिए था ताकि गाड़ियों को आराम मिले।" किंतु मेरा उद्देश्य चौक के तिकोना या गोला से ज्यादा टर्निंग में ढलान होने के कारण ट्रक टायर ब्लास्ट होने पर ज्यादा केंद्रित था। और इसीलिए मैंने प्रयास किया कि पेट्रोल पंप के आगे से लेकर जनपद तक यह सड़क समतल हो जाए या इस काबिल हो जाए कि यह दुर्घटनाओं का स्थल न बना रह सके । किंतु पूरे संभाग की तरह यह रोल मॉडल सड़क बन कर रह गई। दो-तीन पंचवर्षीय योजना में परिवर्तित इस मॉडल सड़क और जय स्तंभ चौक सड़क का कार्यकाल खींचता जा रहा था।


 दुर्भाग्य से जय स्तंभ सड़क निर्माण की शुरुआत कलेक्ट्रेट साइट के सड़क की बजाय से हातिमी सेंटर, कांजी हाउस तरफ की सड़क पर हो गया और फिर स्थानीय नागरिकों ने उसका अपने हितों के लिए इतना विरोध किया और इस प्रकार का विरोध किया की सड़क निर्माण कार्य-करता अलविदा हो गया। नतीजतन जयस्तंभ चौक किसी पंचवर्षीय योजना का हिस्सा हो गया, ऐसा लगा। और दुर्घटना-स्थल जस का तस रह गया ।कारण करीब 2 फिट थिकनेस की सड़क को अपने हिसाब से ठीक करना था। इसी बीच कोरोनावायरस महाशय आ गए और सब कुछ ठप हो गया। लगा, गई भैंस पानी में.., मेरा ड्रीम  जय स्तंभ चौक अब नहीं बनेगा।

 किंतु धन्यवाद वर्ष 21 का और जिला


प्रशासक डॉक्टर सत्येंद्र सिंह  का कि उनकी नजरें यहां इनायत हुई और इसका एन केन प्रकारेण विधवा उद्धार हुआ। कम से कम कहने देखने और सुनने में अच्छा लगेगा कि यह जयस्तंभ चौक है ।

जब तक सकारात्मक सोच के अधिकारी शहडोल में नहीं आ पाते तब तक विकास कलेक्ट्रेट के दर पर पर ही आकर दम तोड़ देता है, जय स्तंभ चौक सड़क निर्माण में यही होने जा रहा था । प्रशासन धन्यवाद का पात्र है कि उसने अपनी नेक नीति से संभाग के नाक बचाई है ।और अब हमें एक खूबसूरत जय स्तंभ चौक मिल सकता है ।शहीदों को बारंबार नमन उनकी श्रद्धांजलि के लिए के लिए बनाए गए जय स्तंभ का सम्मान जो बढ़ा।


शनिवार, 2 जनवरी 2021

सांझी विरासत का सपना लिए "सांझी-रसोई

 सांझी विरासत का सपना लिए


"सांझी-रसोई" ने तय किया की एक साल की उड़ान
शहडोल आदिवासी क्षेत्र में संभाग बनने के बाद यदि संभाग स्टेटस का कोई नागरिक सहभागिता  का कार्य सोशल कमिटमेंट के साथ हुआ तो उसमें सर्वोच्च नाम "सांझी रसोई" का ही है।

 

जो संभाग के विकास में युवाओं की नैतिक उत्थान का प्रमाण पत्र है और इन सबके बावजूद सबसे बड़ी बात यह है। यह प्रमाण पत्र की चाहत भी उन युवाओं को नहीं है जो इस कार्य को करने में न सिर्फ आनंद पाते हैं बल्कि आनंद का विस्तार भी करते हैं।
 आज 1 वर्ष हो गए इस अवसर पर उन्होंने जो कार्य किए उसे बताने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की है ।जो पूरे समर्पण भाव से उन्होंने किया विजयआश्रम की भी सद्भावना है ।ऐसे नागरिक दायित्व की भावना युवाओं में हमेशा बनी रहे ताकि प्रेरणा पाकर युवा भारतीय नागरिक बोध का उदाहरण बन सके निश्चित तौर पर जन सहभागिता का ट्रस्ट अगर किसी ने जीता है तो सांझी रसोई उसका बड़ा उदाहरण है क्योंकि लोग करना तो चाहते हैं। किंतु उन्हें बेहतरीन ट्रस्टी नहीं मिलते थे, उसकी कमी इन युवाओं ने खत्म कर दी है।

"गर्व से कहो हम भ्रष्टाचारी हैं- 3 " केन्या में अदाणी के 6000 करोड़ रुपए के अनुबंध रद्द, भारत में अंबानी, 15 साल से कहते हैं कौन सा अनुबंध...? ( त्रिलोकीनाथ )

    मैंने अदाणी को पहली बार गंभीरता से देखा था जब हमारे प्रधानमंत्री नारेंद्र मोदी बड़े याराना अंदाज में एक व्यक्ति के साथ कथित तौर पर उसके ...