अकेले किसान नहीं हैं 70 साल के शोषण की दास्तान, पत्रकारिता ने भी खोया है अपना आसमान.....
(त्रिलोकीनाथ)
भारत के खेतों में अक्सर अलग-अलग तरीके का एक पुतला खड़ा किया जाता रहा है ताकि खेतों को नुकसान पहुंचाने वाले पशु-पक्षी उस पुतले को भ्रम में किसी व्यक्ति के उपस्थित होने का भान करते हुए खेत से भाग जाएं और खेत को नुकसान न पहुंचाएं। दर्असल ये किसानों का मुफ्त का इजाद किया हुआ अपना चौकीदार है। हलां कि इसका नाम चौकीदार नहीं था, फिर भी यह किसान का वफादार चौकीदार रहा ।क्योंकि यह पुतला है।
मल्टीनेशनल कंपनियां और कारपोरेट घरानों ने इस "चौकीदार" को चुरा लिया। बाद में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं को चौकीदार के रूप में भी इसलिए प्रचारित किया, क्योंकि उनका पप्पू उन्हें बार-बार चिड़ा रहा था कि "चौकीदार चोर है..।"
तो राजनीति में और भ्रष्टाचार की नीति में चौकीदार के शब्द को और उसमें निहित मंसा को कलंकित कर दिया।
दरअसल अगर चौकीदार कोई रहा और भारत यदि खेत है तो उसमें चौकीदार "सिर्फ जमीनी पत्रकार" रहा । जो कि उतना ही भारतीय आजादी मे शोषण का शिकार हुआ जितना कि खेत का मालिक किसान देश मे आजादी का शिकार हुआ। क्योंकि आजाद भारत में जो भी नीतियां बनाने का काम हुआ उसमें बहुतायत नीतियां ना तो किसानों के लिए बनी और ना ही जमीनी पत्रकारों के लिए बल्कि भारत में नीतियों का निर्माण ही इसलिए होता रहा ताकि मल्टीनेशनल कंपनियां और कारपोरेट घराने उसमें अपना धंधा ढूंढ सके। बीसवीं सदी में जो पांच दशक देश की आजादी के गुजरे उसमें काफी कुछ नैतिक राजनीति की उपस्थिति जीवित थी ।
समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस ने कहा था राजनीति की परिभाषा है लोगों की सेवा जो 21वीं सदी में विशेष तौर पर "हिंदुत्व" व "डिजिटल इंडिया" के ईवीएम वोट मशीन की लहर में सवार होकर आए मोदी सरकार को यह पूरी तरह से भान हो गया की सत्ता में आना सिर्फ एक प्रबंधन है। जो डिजिटल इंडिया में बहुत आसान है ।
आप भारत में वोटर तो हो सकते हैं किंतु ईवीएम मशीन नहीं। इसलिए आप का महत्व कमतर हो जाता है। क्योंकि निर्णय ईवीएम मशीन को करना होता है। और यह बात मोदी सरकार की कॉर्पोरेट कल्चर में चलने वाली कार्यप्रणाली से प्रमाणित होने लगा है कि उसे महात्मा गांधी के आजाद भारत में "अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति" के लिए कोई काम नहीं करना है बल्कि "पहली पंक्ति के पहले व्यक्ति" के लिए ही अपने नेताओं को समर्पित करना है। और हो भी क्यों ना अगर भारत का किसान अन्नदाता नाम के शब्द का स्वयं के लिए उपयोग करता है तो किसी भी सरकार को "प्राणदाता" के रूप में प्राणवायु देने वाला मल्टीनेशनल और कॉरपोरेटर उनके नियोक्ता होते हैं।
डिजिटल इंडिया में इस सच्चाई को प्रमाणित होने में हो सकता है वक्त लगे किंतु शासन के निर्णय फिलहाल प्रमाणित होते दिखते हैं हालांकि 70 साल का गाना व रोना गाने वाली व्यवस्था में अभी दिल्ली में आंदोलित किसानों के 70 दिन नहीं हुए हैं 52 दिन ही हुए हैं यह अलग बात है 70 से ज्यादा किसानों के इस आंदोलन के कारण मर जाने की खबर है
बहरहाल बीते 70 साल में सिर्फ भारत के किसानों का शोषण ही नहीं हुआ है जमीन के पत्रकारों का भी उतना ही शोषण हुआ है जितना कि किसानों का ।उतने ही किसान मजे में हैं जो सत्ता के लिए अपनी निष्ठा व्यक्त करते हैं उतने ही पत्रकार भी मजे में हैं जो सत्ता की चापलूसी में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। अब जमीनी पत्रकार की हालत सरकारी नीतियों के कारण बद से बदतर हो गई है उनका उद्देश्य पत्रकारिता से तटस्थ होकर पत्रकारिता का नकाब पहनकर अजीबका परक हो गया है क्योंकि यह मात्र शहरी नागरिक बनकर रह गए। और राजधानी में बैठे हुए कॉर्पोरेट कल्चर के पत्रकारिता ने इन जमीनी पत्रकारों की हत्या करने में अथवा उन्हें मानसिक रूप से गुलाम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब तो कॉर्पोरेट कल्चर के पत्रकारिता ने जैसे पुलिस थानों में थानेदारी की नियुक्ति अवैध वसूली पर आधारित हो गई है वैसे ही पत्रकारों की नियुक्ति करते वक्त कॉरपोरेट कल्चर के पत्रकारिता करने वाला नया समाज नियुक्त करने का काम करता है। किंतु पुलिस थाना मैं एक प्रशिक्षित समाज अपने कार्य को अंजाम देता है किंतु पत्रकारिता में जमीनी पत्रकारों को प्रशिक्षित करने का काम इसलिए नहीं होता क्योंकि प्रशिक्षण में भी पैसा लगता है। और कॉर्पोरेट कल्चर का पत्रकारिता यह काम भी मुफ्तखोरी में कराना चाहता है। (शेष अगले अंक 2पर)
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