गुरुवार, 28 जनवरी 2021

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। (त्रिलोकीनाथ)

 जाकी रही भावना जैसी,

 प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।


(त्रिलोकीनाथ)

भावार्थ - जिनकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूंढने की आदत पड़ गई है, वे हज़ारों गुण होने पर भी दोष ढूंढ लेते हैं!

निश्चित तौर पर जब संभाग मुख्यालय का पत्रकार समाज कलेक्ट्रेट में जमीन पर बैठकर अपने प्रशासकों का इंतजार कर रहा था और हमारे पुलिस अधीक्षक और कलेक्टर जब वहां आए तो उन्होंने भी इसे देखा था और यह दिखाने वाला सत्य था, सोचने वाला और समझने वाला भी। जिसे अपने सकारात्मक संस्कारों की वजह से अधिकारियों ने जिम्मेदारी के साथ मामले का सकारात्मक हल निकालते हुए पत्रकार समाज को उसकी गरीबी पर बजाय  उचित हल कर के भावनाओं को सम्मान देने का काम किया गया ।


जिस वजह से पत्रकारिता और कार्यपालिका कि यह क्षणिक विरोधाभास तत्काल समाप्त हो गया और आदिवासी क्षेत्र के इन दोनों लोकतांत्रिक स्तंभों में पुनः आपसी ट्रस्ट बढ़ाने का काम हुआ ।

तो यह भी बताना जरूरी है  भारत के आजादी के बाद पहली बार पत्रकारिता के इस प्रकार के प्रदर्शन के कारण यह ट्रस्ट घटा क्यों था...? इस पर मंथन होना चाहिए। तमाम सकारात्मक प्रयासों , विचारधारा और संस्कारों के बावजूद इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार था....?

 जब पत्रकारिता और कार्यपालिका संवाद हो रहा था एक इमोशनल वाकया आया, जब पुलिस अधीक्षक श्री गोस्वामी ने हमारे पूर्वज गोस्वामी जी की लिखी बातों का उल्लेख किया "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी....."

 वास्तव में शहडोल के मानस भवन में पुलिस यातायात विभाग का कार्यक्रम आखिर इस प्रकार के मानस का वातावरण गोस्वामी तुलसीदास के उल्लेख का कारण क्यों बन गया...? पत्रकारिता समाज कोई अघोषित आर एस एस का बौद्धिक विभाग नहीं है... बल्कि वह है एक घोषित स्वविवेक से जोखिम भरा दायित्व है... जिसमें लगातार खतरे बढ़ते ही चले जा रहे हैं.... और उसे अपमानित करने का अवसर भी बढ़ रहा है.... इसके लिए कार्यों को क्रियान्वयन का पर्यावरण, वातावरण की अभिव्यक्ति और उसका प्रदर्शन भी जिम्मेदार  रहा है। कोई एक दिन यह सब कुछ नहीं हो जाता जैसे कि पुलिस अधीक्षक श्री गोस्वामी ने अपनी भावनाओं में इसे साझा भी किया। तो यदि स्वागत कर्ता और जिस का स्वागत हो रहा है दोनों ही ट्रस्ट के दायरे में नहीं आ पाते, चाहे वह दिखाने वाला सत्य ही क्यों ना हो, प्रोटोकॉल का हिस्सा ही क्यों ना हो, तो वातावरण का निर्माण होता है। ट्रस्ट कोई सिर्फ कानूनी धारा नहीं है यह स्वाभाविक रूप से मानसिक पटेल में स्वीकार किए जाने वाला शब्द भी है।

 जहां तक महिलाओं का सम्मान है द्वापर युग में महिला प्रधान समाज होता था गंगा-पुत्र, कुंती-पुत्र देवकी-नंदन, यशोदा के लाला,  कई ऐसे संबोधन है जो मातृ पक्ष को प्रधानता का प्रमाण पत्र था। जब रामायण लिखी गई तब अयोध्या नरेश दशरथ पुत्र राम ,उत्तम कुल पुलस्य से कर नाती राजा रावण आदि का जिक्र आने लगा, यह परिवर्तन का प्रमाण भी है। क्योंकि वातावरण बदल गया था ।

तो मानस भवन के पत्रकारिता के मानस में किसी महिला अधिकारी का प्रोटोकॉल निर्वहन प्रश्न चिन्ह के घेरे में यूं ही नहीं खड़ा हो गया था... जबकि यह दिखाने वाला  सत्य था। तो दूसरा वास्तविक सत्य मंच के नीचे क्रियान्वित हो रहा था जिसने लोकतंत्र के क्षेत्र स्तंभ को एक शासकीय कार्यक्रम में जाने या अनजाने में अपमानित किया जा रहा था । जिसके लिए पुनः कार्यपालिका और पत्रकारिता में संवाद के जरिए समन्वय स्थापित हुआ।

 कह सकते हैं कि लोकतंत्र का यह गरीब स्तंभ देश की आजादी के बाद से ही अव्यवस्थित और शोषित स्तंभ का अपमान भी कोई नई बात नहीं है। तो ठीक ही कहा गोस्वामी जी ने यह अचानक नहीं हुआ है शोषण के बाद ही क्रांति मानस पटल में जन्म लेने लगती है और उसकी भाषा मौन से स्वीकृत होती है। तो मन में यह बात भी अस्वीकृत हो रही थी पत्रकारिता का समाज जो भी है जैसा भी है दलित या शोषित भी है और जब उसे बताया यह समझाया गया किस संस्कार खत्म नहीं हुए हैं, लोकतंत्र को जिंदा रखने की जिम्मेदारी सामूहिक जिम्मेदारी है ।तो ट्रस्ट फिर से कायम हो गया।

 कार्यपालिका चाहती तो नकारात्मक संस्कार का परिचय दे सकती थी, हम आदिवासी क्षेत्र के पत्रकार हैं हर प्रकार के परिचय से वाकिफ हैं किंतु हमारी भावना पवित्र है बावजूद इसके अपवित्र वर्ग पत्रकार समाज में घुसकर कार्यपालिका के पत्रकारिता के आपसी ट्रस्ट को उसी प्रकार से नष्ट कर रहा है जिस प्रकार से कार्यपालिका के कई लोग इसे बर्बाद करने में अपने प्राप्त क्षमता के बाद भी तुले हैं। जिन्हें चिन्हित करने का और उन से बचते रहने का सबब अभी हमें सीखना होगा और उसका एकमात्र लोकतंत्र में रास्ता है वह लगातार आपसी संवाद के जरिए समन्वय की स्थापना।

 यह एक कड़वा सत्य है किंतु अंदर बहुत मिठास है पूर्व के उच्च अधिकारी सूर्य प्रताप सिंह परिहार का मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि उन्होंने मुझ जैसे पत्रकारिता समाज के दलित-नासमझ पत्रकार को सिर्फ चाय पिला कर के और उसे सम्मान देकर अद्यतन हालात में कम से कम 4 से 5000 करोड रुपए का फायदा लोकतंत्र को कराया था जो निरंतर हो भी रहा है और कार्यपालिका ही नहीं विधायिका और न्यायपालिका के लोगों को उसमें तनख्वाह मिल रही है विकास पर कार्य हो रहे हैं यह एक अलग बात है कि हम अभी भी दलित वा शोषित पत्रकार समाज के हिस्सा है। क्योंकि हम आदिवासी मूल क्षेत्र के निवासी हैं ।

और इस प्रकार से आदिवासी-पन आने की शिकायत  के कार्यपालिका में मामूली से किसी छोटे से कर्मचारी के कारण पत्रकारिता और कार्यपालिका में अविश्वास कैसे खड़ा हो जाता है इस संवाद के जरिए हमने पाया भी है। तो उच्च अधिकारियों को जिन का दायित्व है कि वह दलित व शोषित समाज के प्रति सद्भावना रखते हुए ट्रस्ट का निर्माण करें उनसे हमेशा अपेक्षा बनी रहेगी, तब-तक, जब-तक दलित पत्रकार समाज किसी तहसील में या किसी गांव में जब स्वाभाविक रूप से पैदा होता है तब उसे भोपाल में बैठा हुआ कोई आईएएस अधिकारी जो कमिश्नर जनसंपर्क के नाम से भी जाना जाता है चिन्हित नहीं कर लेता।

 याने उसे दिमागी तौर तत्काल अधिमान्यता देने के क्रम में खड़ा नहीं कर लेता, सरकारी रिकॉर्ड में तब तो उसकी प्रशिक्षण प्रक्रिया प्रारंभ होगी क्योंकि अभी भी हमारा लोकतंत्र अपेक्षा तो यह करता है कि पूरे ब्रह्मांड का जिम्मेदारी पत्रकार समाज उठाएं और उसे भूखे प्यासे और प्रशिक्षण हीना भी बनाए रखा जाए क्योंकि पत्रकारिता का बुनियाद कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका के अनुरूप स्वयं के बुनियादी ढांचे से नहीं होता क्योंकि उसमें तथाकथित सफल अखबार मालिक, दलाल और अब तो बड़े-बड़े कॉरपोरेट घराने जिन्हें हम माफिया के रूप में भी देखते हैं वे नियंत्रित करने लगे।

 यह अलग बात है कि इन कारपोरेट घरानों को अपनी जूती में बांधकर कार्यपालिका और विधायिका के लोग लोकतंत्र को नियंत्रित रखना चाहते हैं.... जिसका प्रत्यक्ष नुकसान जमीनी पत्रकारों की स्वाभाविक बौद्धिकता पर पड़ता है।

बहुत लंबा हो जाएगा... किंतु चिंतन और मंथन का विषय बहुत है.. क्योंकि गोस्वामी जी ने कहा भी है "जाकी रही भावना जैसी......." देश की आजादी के 7 दशक बाद भी तमाम शोषण और दमन किस सतत प्रक्रिया के बाद भी बिना किसी बुनियादी ढांचे में खड़ा पत्रकार समाज पूर्ण पवित्र भावना से आज भी महिलाओं मैं सीता और राधा को देखता है इसमें कोई शक नहीं है और उसी तरह भी हमेशा पूजनीय रहेंगी नर्मदा और सोन अंचल का सांस्कृतिक समाज कुछ इसी प्रकार का आदिवासी है। और यही वास्तविक सत्य है भ्रम में कुछ भी पैदा हो सकता है विश्वास रखना चाहिए।



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