बुधवार, 30 दिसंबर 2020

अलविदा 2020...., वर्ष 2021, सतत-संघर्ष की पत्रकारिता में..( त्रिलोकीनाथ)

 

 अलविदा 2020...., 


वर्ष 2021, सतत-संघर्ष की पत्रकारिता में..

पारिवारिक सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता बने

(त्रिलोकीनाथ)

पत्रकारिता की सुचिता, सुरक्षा और संरक्षण को चुनौती देने वाला वर्ष भी साबित हुआ 2020... और यही नया इंडिया कि कल्पना भी है। कोरोना के महाभ्रम जाल में भारत के विकासशील लोकतंत्र में शेष-अवशेष पत्रकारिता की भ्रूण हत्या का प्रयास किया गया। 2020 का वर्ष एक बड़ा प्रयोगशाला बन गया। भारत में वैसे भी देश की आजादी के बाद पत्रकारिता का कोई अपना इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं रहा, परिणाम स्वरूप पत्रकारों के नियंत्रण कर्ता विधायिका और कार्यपालिका को नियंत्रित करने वाले अफसर और कर्मचारी हुआ करते हैं। जो राजनेताओं के निर्देश पर पत्रकारों को उपकृत करने का काम करते थे । एक प्रकार का परजीवी  बना दिया गया  जबकि हमारे प्रधानमंत्री  आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं ।ऐसे अफसरों को प्रेस अटैची भी संबोधित किया गया है। किंतु नेताओं और अटैची के इस अटैचमेंट से भारतीय पत्रकार समाज का बहुत अहित हुआ है।


 शहडोल जैसे आदिवासी विशेष क्षेत्रों में जो राजधानी क्षेत्रों में सीधे दखल नहीं रखते थे उन्हें उस "गरीबी-रेखा" की सूची में भी शामिल नहीं किया गया जो पत्रकारों को अधिमान्यता या मान्यता की पहचान देती थी। हालांकि पत्रकार अधिमान्यता वास्तविक लाभ जिसे आर्थिक लाभ कहा जाता है चिन्हित तौर पर पत्रकारों के तथाकथित रिटायरमेंट 60 वर्ष की उम्र के बाद उन्हें सम्मान निधि या वृद्धावस्था पेंशन अथवा सरकारी भीख के रूप में दिए जाने का नियम नेता और अटैची ने बनाया था ।उसमें भी एक क्लाज़ जोड़ दी थी कि जब वह पत्रकार जिसे कथित तौर पर अधिमान्य किया गया है जिस वर्ष से अधिमान्य होगा उसके 10 वर्ष बाद यह सम्मान निधि की भीख उसे दी जाएगी ।बाद में सरकारों ने जो कथित तौर पर यह मानते हैं कि पत्रकारों की राजसत्ता में या लोकतंत्र में कोई जरूरत ही नहीं है। उनके स्थान पर मुखौटा पहने हुए पत्रकार-जमात जो उनके अपने गुलाम होते हैं ज्यादातर उनकी नियुक्तियां होने लगी कोई ऐसी नीति नहीं बनी कि तहसील में भी पत्रकारिता में सेवा है देने वाला व्यक्ति तत्काल इस अधिमान्य सूची में सूचीबद्ध हो भविष्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी और संरक्षण के लिए भी। और राज्य सत्ता तथा उसके अटैची उन्हें ही निष्पक्ष पत्रकारिता का विकल्प बनाकर प्रस्तुत कर दिया जो उनके लिए  दासता स्वीकार करते थे नतीजतन अधिमान्यता की जो सूची याने गरीबी रेखा की सूची बनाई गई। उसमें भी सत्ता और अटैची ने अपने गुलामों को रखना चालू कर दिया और वे उन्हें पत्रकार के रूप में बताने लगे जो पहले लोग विहित तो प्रक्रिया से आ गए उनकी बात अलग है।

 हाल में एनडीटीवी के भोपाल के पत्रकार अनुराग बारी की एक न्यूज़ बड़ी दिलचस्प रही, कहना चाहिए यह एक प्रकार की घोषणा थी कि विधानसभा में ट्रैक्टर के प्रवेश के प्रतिबंध पर न्यूज़ कवर करने के लिए जब अनुराग बारी गये तो उन्हें यह कहकर वहां खड़े दरबान /पुलिस अधिकारी ने अंदर जाने से मना कर दिया कि जिन पत्रकारों को अंदर प्रवेश करने की सूची बनाई गई है उसमें अनुराग बारी का नाम नहीं था। तो इससे यह साबित भी हो गया कि सत्ता और अटैची ने जब जिसे चाहा पत्रकार होने का ठप्पा लगा दिया ।जो परोक्ष रूप से गुलामी का ठप्पा ही माना जाना चाहिए ।

किंतु इसका जरा भी पत्रकारों में खलबली नहीं मची क्योंकि बहुत संख्यक पत्रकार समाज गुलामी की दास्तां को स्वीकार कर चुका है। तो जब हालात भोपाल राजधानी में इतने बदतर हों... तो, आदिवासी क्षेत्रों में पत्रकारिता के दमन और शोषण उसे पतित बनाए रखने के लिए यदि पत्रकार 10% अपना योगदान देते हैं तो 90% योगदान सत्ता-अटैची का होता है ।क्योंकि पत्रकारों को यह आशा रहती है कि शासन प्रशासन उसका सम्मान करेगी किंतु हालात अब वैसे नहीं रह गए हैं ।यही कारण है कि खासतौर से शहडोल संभाग के पत्रकारों की अधिमान्यता गरीबी-रेखा की सूची से भी बदतर है ।

 बहरहाल सूची की चर्चा प्राथमिकता नहीं है। प्राथमिकता, पत्रकारों की बदले हुए परिवेश में अजीबका की है उन्हें यह सम्मान दिलाने की भी है कि वे जो अपना पेसा निष्पक्ष तरीके से करना चाहते हैं वह लोकतंत्र के हित में एक आवश्यक चतुर्थ स्तंभ है। कोरोना कार्यकाल में कोरोनावायरस सेवा कार्यकर्ताओं के लिए जिन्हें चिन्हित किया गया उसमें पत्रकार भी नहीं है। पूरे भारतवर्ष में यह सत्ता और उसकी अटैची ने माना। किंतु जिन सर्वोच्च प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को चिन्हित किया या ने चिकित्सक और चिकित्सा सेवा से जुड़े हुए लोगों को, इतिहास गवाह है वर्ष 2020 में यह भी साबित हुआ कि उन्होंने भी हड़ताल करके यह प्रमाणित किया कि उन्हें चिन्हित किया जाए और सूचीबद्ध किया जाए जो स्वास्थ्य कार्यकर्ता इस महामारी में सेवा करते हुए मर गए ।शासन ने उन्हें भी सूचीबद्ध नहीं किया।

 तो वास्तव में लोकतंत्र में पत्रकारिता जिसका आजादी के बाद कोई इंफ्रास्ट्रक्चर ही नहीं है उन्हें कोविड-19 बीमारी में योगदान के लिए क्यों पहचाना जाएगा...? कुल मिलाकर पत्रकार जन्म ले, सरवाइव करें या मर जाएं... वर्तमान लोकतंत्र पद्धति को इससे बहुत सरोकार नहीं रह गया है...। किंतु देश की आजादी अंग्रेजों की दया में नहीं मिली है, और अंग्रेजों की दया में जीनेवाले लोगों की कृपा में भी नहीं मिली है.. पर आजादी की बात लोकतंत्र का जीवित रहना सतत संघर्ष की पहचान है।

 इसलिए आजादी का प्रमुख स्तंभ पत्रकारिता को स्वयं के लिए सुनिश्चित अजीबका का अनुसंधान करना चाहिए.... जो उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। और पत्रकारिता मे अपनी अजीबका कि आय का निवेश करना चाहिए ।यह पत्रकारिता धर्मन्यास का अब प्रमुख पहचान बन गया है। यदि पत्रकार 2021 की शुरुआत से अपनी अजीब का को सुनिश्चित करने की सर्वोच्च प्राथमिकता कर्तव्य को सत्ता और प्रेस अटैची के भरोसे रखकर आगे बढ़ेगा तो वह एक खतरनाक जोखिम ले रहा है... क्योंकि सत्ता और प्रेसअटैची भी पूरी तरह से निजी करण की ओर जा रही है और कोई भी निजी उद्योगपति पत्रकारों को और उनकी निष्पक्षता को कभी बर्दाश्त नहीं करेगा...।

 इसलिए 2021 की शुभकामनाओं के साथ आदिवासी क्षेत्रों के पत्रकारों को यह भी शुभकामनाएं सुनिश्चित करनी चाहिए कि वह अपने अजीबका की गारंटी की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ पत्रकारिता की स्वच्छता, सुचिता, निष्पक्षता और कर्तव्य परायणता को पूर्ण करें अन्यथा शानदार गुलाम बनकर शासन-प्रशासन की रंग महल में दासता को निर्वहन करें... बहुत शुभकामनाएं।


मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

तो मील का पत्थर साबित होगा बाणगंगा मेला मैदान

 तो मील का पत्थर साबित होगा बाणगंगा मेला मैदान 


मेला मैदान में अतिक्रमण हटाने तथा चैनलिंक लगाने के दिए निर्देश

शहडोल । आज कलेक्टर एवं जिला मजिस्ट्रेट डॉ0 सतेंद्र सिंह तथा पुलिस अधीक्षक  अवधेश गोस्वामी ने आज बाणगंगा मेला के पूर्व तैयारियों के संबंध में बाणगंगा मेला मैदान का अवलोकन किया। कलेक्टर ने अनुविभागीय अधिकारी राजस्व सोहागपुर  धर्मेन्द्र मिश्रा को मेला मैदान के आस-पास अतिक्रमण हटाने के निर्देश दिए। कलेक्टर ने डीएम एमपीआरडीसी  को ग्रेड़र लगाकर बाणगंगा मैदान का समलतीकरण कराने के निर्देश दिए। अवलोकन के दौरान कलेक्टर ने मेला मैदान की साफ-सफाई कराने के निर्देश मुख्य नगरपालिका अधिकारी को देते हुए कहा कि मेला मैदान के आस-पास लैटाना, बबूल एवं आदि के झाड़ हटाए।

कलेक्टर एवं पुलिस अधीक्षक ने समक्ष उपस्थित होकर बाणगंगा मैदान में हुए अतिक्रमण को हटवाया

निरीक्षण के दौरान कलेक्टर एवं पुलिस अधीक्षक ने बाणगंगा मेला मैदान के किनारे हुए अतिक्रमण को जेसीबी बुलवाकर अतिक्रमित दुकानो का टीन सेड हटवाया एवं अनुविभागी अधिकारी राजस्व सोहागपुर को निर्देश किया कि नोटिस देकर शेष अतिक्रमण भी हटाया जाएं। कलेक्टर ने मुख्य मार्ग से 40 फिट दूर इलेक्ट्रिक खम्भों के बगल से चैन लिंक कराने के निर्देश मुख्य नगर पालिका अधिकारी को दिए। कलेक्टर ने अवलोकन के दौरान निर्देशित किया कि सड़क के दोनो ओर समलतीकरण कराकरण मुरूम आदि डालकर साफ एवं स्वच्छ बनाएं, आस-पास लैंटाना आदि हटवाएं ताकि मंदिर एवं सड़क दूर से दिख सके। कलेक्टर ने मेला मैदान में स्वागत बोर्ड लगाने के निर्देश डीएम एमपीआरडीसी को दिए। 


शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

लोग मरते हैं तो मरने दे, मंत्री जी तो कहेंगे उपभोक्ता जागरूक हों

 

लोग मरते हैं तो मरने दे, मंत्री जी तो कहेंगे उपभोक्ता जागरूक हों


तो कैबिनेट मंत्री और शहडोल क्षेत्र के पूर्व आदिवासी जनजाति मंत्री वर्तमान में खाद्य मंत्री बिसाहूलाल सिंह भी कह रहे हैं कि उपभोक्ता जागरूक हो।


अब सवाल यह है की रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग में यात्रा करने वाला यात्री उपभोक्ता है कि नहीं या वह यात्री मात्र है...? यह कानूनी पचड़ा है इसलिए भी के मंत्री जी को अगर अनूपपुर आना होता है भोपाल से तो ट्रेन से आते हैं और उनकी सड़कें ठीक हैं अगर उन्हें रीवा जाना पड़े तो उन्हें अंदाज हो जाएगा की एक यात्री के नाते वह रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग के उपभोक्ता है कि नहीं....? क्योंकि बड़े बड़े आईएएस और इंजीनियर उन्हें समझा सकते हैं कि यात्री एक उपभोक्ता है अथवा नहीं ..?
शायद यह सड़क निर्माण  तब के लोक निर्माण मंत्री रहे बिसाहूलाल सिंह की अनुपम देन थी।
 और अगर उनकी समझ में आता तो वह शायद एक मुकदमा उस ठेकेदार के खिलाफ जरूर लगाते जिसकी वजह से रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग कई हत्याओं के लिए जिम्मेदार हो चुका है। सड़क मार्ग में हुई हत्याएं जिससे दुर्घटना कहा जाता है मे मरने वालों को ठेकेदार और सरकार के अनुबंध के बीच में कितना मुआवजा देना  है या नहीं, अपने को इसलिए पता नहीं है क्योंकि रीवा अमरकंटक  बी ओ टी संभवत सड़क मार्ग में बनने वाली राज्य सरकार की पहली योजना थी ।
और इस योजना के अनुबंध की कॉपी रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग मैं पढ़ने वाले सभी जिला के जिला कलेक्टर के पास भी नहीं मिलेगी। क्योंकि यह बहुत को गोपनीय दस्तावेज है।
 गोपनीय दस्तावेज इस लिए भी है क्योंकि कथित तौर पर शासन के साथ जो अनुबंध हुआ था ठेकेदार का उसमें महत्वपूर्ण पैरा यह था कि सड़क निर्माण के बाद ठेकेदार 15 साल टोल टैक्स वसूले गा और 10 साल सड़क का रखरखाव करेगा कुल 25 साल सड़क के प्रबंधन का ठेका हुआ था। किंतु शासन के नेता और अफसर की मिलीभगत से ठेकेदार इस घटिया निर्माण की सड़क में 15 साल आदिवासी विशेष क्षेत्र शहडोल और अनूपपुर की सड़कों से हजारों करोड़ों रुपए लुटे और बंदरबांट किए। शेष बचे 10 साल तो छोड़कर सड़क का प्रबंधन भाग गया, ....अब लोग मर रहे हैं यह दुर्घटनाएं हो रही हैं तो होती रहे..।
 सरकार नयी योजना बनाने में लग गई है अब नए ठेकेदार को नए तरीके से आदिवासी क्षेत्र को लूटने की लूट की छूट देने की योजनाओं पर काम हो रहा है...? शायद इसीलिए सड़क के रखरखाव का अनुबंध का हिस्सा गायब हो गया है।
 और मंत्री जी कह रहे हैं उपभोक्ताओं को जागरूक होना चाहिए। घटनाएं क्योंकि अनगिनत है और प्रतिपल घट भी रही है इस सड़क मार्ग पर इसलिए एक-एक करके गिनाना मुश्किल है किंतु दो फोटो दुर्घटनाओं की हाल वाली दिखा रहे हैं । पूरे सड़क मार्ग के थानों में ऐसी गाड़ियां शोभा बढ़ाती रहती है बस पुलिस के पास यही चौकीदारी बची है



कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि छुहिया घाटी रीवा के पास कब बड़ी आपदा का हिस्सा बन जाए कहा नहीं जा सकता किंतु कर्तव्यनिष्ठा मंत्री बिसाहू लाल जी की तारीफ ए काबिल है वे उपभोक्ता  को जागरूक करने में लगे हुए हैं ।बेहतर होता बिसाहूलाल आदिवासी क्षेत्र के सीधी और रीवा शहडोल अनूपपुर के भी विधायकों के साथ सांसदों को लेकर एक मीटिंग करते और तत्काल रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग के अनुबंध करता ठेकेदार को बुलाकर सड़क ठीक करने को कहते हैं ।नहीं कर सकते, तो कम से कम संबंधित कलेक्टर्स को पत्र तो लिख सकते थे..... जागरूकता के लिए ।ताकि हो रही हत्याओं के लिए कोई जिम्मेदार ठहराया जा सके। क्योंकि कितने घंटा सड़कों को जाम करके सड़क यात्री उपभोक्ता रो सकेगा.. अब तो ठेकेदार भी भाग गया है तो सड़क में मेडिकल फैसेलिटीज भी खत्म है.। इसलिए बेहतर है सड़क प्रबंधन के लिए किसी भी प्रकार की समीक्षा बैठक में रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग के अनुबंध पर चर्चा हो। 
अन्यथा लूट सके तो लूट...., वर्तमान शासन प्रशासन की पहचान बनती जा रही है। अगर शर्म है तो शर्मसार होना चाहिए अन्यथा पारदर्शी भ्रष्टाचार के धुंध में में उपभोक्ताओं को जागरूक करते रहिए..,

कोई नई बात नहीं है उधर प्रधानमंत्री जी किसानों को जागरूक नहीं  कर पा रहे हैं  और यहां मंत्री जी  याने ऊपर से लेकर नीचे तक जागरूकता जारी है...

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

सम्मान का अपमान, अब जारी हुए स्पष्टीकरण

 

सम्मान का अपमान या अपमान का सम्मान.. 

वरिष्ठ अधिवक्ता संतोष शुक्ला ने जताया कड़ा एतराज.   " मामला राजनीति का है"

 एडिशनल एसपी की साफगोई




वरिष्ठ अधिवक्ता एवं समाजसेवी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता संतोष कुमार शुक्ला ब्यौहारी- विगत दिनों हरिभूमि समाचार पत्र के शहडोल एडिसन में प्रकाशित गुण्डा लिस्ट जिसे पुलिस अधीक्षक कार्यालय शहडोल द्वारा जारी लिस्ट में पुलिस अधीक्षक द्वारा जारी की गई गुंडा लिस्ट की सूची के बारे मे ब्योहारी के  कांग्रेसी नेता ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए नाराजगी व्यक्त की है। श्री शुक्ला ने साफ और कड़े शब्दों में कहा जितने दिन से पुलिस अधीक्षक अपनी सेवाएं अपने पद पर दे रहे हैं उस समय से विगत 40 वर्षों से मेरे नाम पर कोई मामला थाना ब्योहारी या अन्य पुलिस थानों में दर्ज नहीं है ।जिससे यह कहा जा सके की मेरे द्वारा कहीं पर हिंसा भड़काई गई है, शांति भंग की गई है। कोई दंगा फसाद किया गया है या कराया गया। बावजूद इसके पुलिस अधीक्षक द्वारा गुंडा लिस्ट की सूची में गुंडा शब्द को परिभाषित किए बिना जोड़कर प्रकाशित कराया गया। इसके पीछे प्रदेश की शिवराज सरकार का हाथ हो सकता है क्योंकि विगत कुछ दिनों से ब्योहारी नगर पंचायत के चेयरमैन पद के लिए मेरा नाम चर्चाओं में है। समस्त समाज के लोग यह मान रहे हैं ब्योहारी में पिछले जो अध्यक्ष चुने गए वह केवल खाने और उड़ाने के अलावा कुछ भी उपलब्धि ब्यौहारी के लिए नहीं दे पाए इस बार नगर के विभिन्न समाज के लोग मुझसे कह रहे हैं कि मैं नगर पंचायत के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ूं क्योंकि लोगों की हमेशा से मुझसे बहुत सारी अपेक्षाएं रही हैं। शायद इसीलिए भाजपा सरकार और उसके नुमाइंदे यह षड्यंत्र रच रखे हैं। 

 श्री शुक्ल ने


चुटकी लेते हुए कहा प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने विरोधियों पर बड़ी कड़ी और सूक्ष्म नजर रखते हैं जिन नेताओं व कार्यकर्ताओं से सरकार व भाजपा को परेशानी या खतरा समझ में आता है उन्हीं लोगों के ऊपर कुछ ना कुछ षडयंत्र रच कर बदनाम करने की कोशिश की जाती रही है आगे अभी और भी कई षड्यंत्र रचे जाएंगे ।जिसके लिए हमको आपको और समस्त कार्यकर्ताओं को सजग और सतर्क रहना होगा। श्री शुक्ल ने आगे कहा मेरे सहित शहडोल जिले के जाने-माने चर्चित अधिवक्ता एवं संघ के पूर्व अध्यक्ष दिनेश दीक्षित  का भी नाम इस सूची में जोड़ा गया है।
 यह पूछे जाने पर की इस सूची को लेकर आप का अगला कदम क्या होगा...? श्री शुक्ल ने कहा मैं इस सूची से काफी आहत हुआ हूं मेरे कार्यकर्ताओं में रोष   और आक्रोश का माहौल व्याप्त है मैं अपने वरिष्ठ जनों से विचार विमर्श के बाद ही बताऊंगा कि मैं आगे क्या करने वाला हूं ।फिलहाल प्रकाशित सूची एक राजनैतिक षड्यंत्र है जिसका जवाब पुलिस अधीक्षक शहडोल को देना चाहिए। साथ ही प्रदेश के गृहमंत्री और मुख्यमंत्री को आगाह करते हुए शुक्ल ने कहा जिम्मेदार लोगों को ऐसे कदम नहीं उठाने चाहिए जिससे समाज में उनके प्रति घृणा नफरत वा हीन भावना पैदा हो। हालांकि उन्होंने सरकार को भ्रष्टाचार का पोषक बताते हुए कहा यह घिनौनी हरकत सिर्फ भाजपा और उसके नेता ही कर सकते हैं। पुलिस प्रशासन स्थानीय नेताओं और सरकार के दबाव में आकर ऐसा कोई कार्य ना करें जिससे उन्हें बाद में पछताना पड़े।

श्री शुक्ल के सहयोगी शेख रब्बानी का भी नाम इस गुंडा लिस्ट में सम्मिलित होने पर पत्रकारों के सवाल के जवाब में शेख रब्बानी ने कहा विगत डेढ़ दो दशकों से मेरे नाम से कोई मामले दर्ज नहीं है और वर्तमान में मेरे ऊपर कोई प्रकरण भी प्रचलन में नहीं है, बावजूद इसके मेरा नाम इस सूची में क्यों आया, मेरे समझ से परे है। श्री रब्बानी ने मुस्कुराते हुए एक प्रश्न के उत्तर में कहा की स्वाभाविक है श्री संतोष शुक्ला मेरे राजनीतिक गुरु हैं और जब इस सूची में उनका नाम आया है तो मेरा नाम आना स्वाभाविक ही है। लेकिन इस नाम के पीछे भाजपा सरकार और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की साजिश है जो कभी कामयाब और सफल नहीं होंगे।
 जैसा कि सबको विदित हो चुका है की नगर पंचायत की सीट सामान्य है और मैं अपने पूरे टीम के साथ पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ श्री संतोष शुक्ल के नाम का समर्थन कर रहा हूं और मेरी पूरी टीम करेगी शायद इसी से भयभीत होकर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने यह साजिश रची। रब्बानी ने कहा हम तो कांग्रेसी हैं हमारा नाम तो स्वाभाविक ऐसी सूचियों में आएगा ही लेकिन भाजपा कितनी एहसान फरामोश हो चुकी है की वह अपने ही पार्टी के युवा नेता श्री कृष्ण गुप्ता राजन एवं अन्य लोगों का नाम भी जोड़कर उन्हें भी राजनीतिक लड़ाई से किनारे करने की साजिश रच रही है। कुल मिलाकर यह कहा जाए कि शिवराज सरकार पहले भी अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को समय समय पर ठिकाने लगाती रही है और दमन कारी नीतियो से विख्यात और चर्चित है ।जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जाएंगे वह अपनी करतूत करते रहेंगे। फिलहाल उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा यदि माननीय पुलिस अधीक्षक ने मेरा नाम भी घसीटा ही था तो उन्हें मेरी फोटो भी लगानी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य से कहीं मैं और ज्यादा चर्चित ना हो जाऊं उन्होंने मेरा केवल नाम ही प्रकाशित कराया है फोटो नहीं लगाई है जिससे मैं कुछ ज्यादा ही दुखी हूँ।

 जबकि कांग्रेश से ही दावेदारी जता रहे केशव द्विवेदी मामू ने फोन पर कहा की वर्तमान में शहडोल में पदस्थ पुलिस हम लोगों को राजनीतिक रुप से क्षति पहुंचाने के लिए चार दशक पूर्व की सूची को उछाल कर बदनाम करने की साजिश की है ।
बहरहाल आज शहडोल एडिशनल एसपी

मुकेश वैश्य ने अपनी साफगोई में कहा है कि पुलिस ने ऐसी कोई सूची जारी नहीं की है
इन हालातों में यह और भी विरोधाभासी हो जाता है कि आखिर ऐसी सूचियां बनती कहां हैं और कैसे जारी हो जाती है।
 शहडोल का पत्रकार जगत इतना मेहनत करने वाला तो नहीं है की कोई सूची बना सके।
 देखते हैं आगे आगे होता है क्या....



बुधवार, 23 दिसंबर 2020

अनुबंध की खेती /धंधा, खतरनाक प्रयोग.. (त्रिलोकीनाथ)

 अनुबंध की खेती /धंधा, खतरनाक प्रयोग....

  संविधान-सुरक्षा गारंटी के बाद क्यों लुट रहे हैं आदिवासी


क्षेत्र....? 

जान जोखिम में डाल जब गांव-समाज की भीड़ शहर में उतरी...

(त्रिलोकीनाथ)

 भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास न करने का कोई कारण समझ में नहीं आता है  वे चुनी सरकार के लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं। बावजूद इसके जब मोदी सरकार और संस्थाएं चाहे वह वित्त मंत्रालय हो कानून मंत्रालय हो अथवा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया हो या फिर इन सबसे ऊपर भारत के लोकतंत्र का प्रमुख स्तंभ उच्चतम न्यायालय हो इनकी कही गई बातों पर हमको आंख मूंदकर भी विश्वास इसलिए करना होता है क्योंकि बहुत उच्चस्तरीय चिंतन मनन के परिणाम स्वरूप इनके आदेश जारी होते हैं। जो लोकहित के प्रति समर्पित बताए जाते हैं।

अब कोविड-19 के दौर में बेंगलुरु से चले एक नोटिस के अंश भाग को पढ़ें यह बात सही है कि यह किसान बिल के नए रूप में जन्मे कांटेक्ट फार्मिंग यानी अनुबंध है के आधार पर खेती की किसी कंपनी के द्वारा भेजा गया किसी ऋणी के लिए नोटिस नहीं है किंतु पैसा देते वक्त जो अनुबंध होता है वह चाहे खेती में हूं अथवा अन्य क्षेत्र में कांटेक्ट कांटेक्ट होता है और सब का वसूली कमोबेश इसी भाषा में होती है तो पहले वसूली की भाषा समझ ले....

"इन परिस्थितियों में मैं एतद् द्वारा आपको इस नोटिस की प्राप्ति के 7 दिनों के भीतर ₹78877 बकाया राशि का भुगतान मेरे मुवक्किल के शाखा कार्यालय में गिरवी संपत्ति को समर्पण करने की याद दिलाता हूं ऐसा न करने की सूरत में मेरा मुवक्किल आपके द्वारा क्रियान्वित किए गए समझौते (अनुबंध का


समझौता) कि शर्तों के अनुरूप कानूनी कार्यवाही शुरू करने और अपने विवेक का प्रयोग करते हुए आगे समझौते की शर्तों के अनुसार पूर्ण ऋण सुविधा वापस लेने और गिरवी वाहन को कब्जे में लेने के लिए मजबूर हो जाएगा ।और संबंधित पुलिस स्टेशन के पास आईपीसी की धारा 406, 420, 467, 468, 471 वा 504 के तहत उचित आपराधिक शिकायत दर्ज कराएगा और उपाय की मांग करेगा।
" और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कीीी ऐसी नोटिस भेजने वाली व्यक्ति का ना तो मोबाइल नंबर होता है और ना ही ईमेल नंबर जिसकेेेे जरिए संवाद बन सके इससे उपभोक्ता इन धमकी नुमा पत्रों के जरिए सिर्फ चाही गई रकम के अनुसार लुट जाता है

 निश्चित तौर पर जब भी कोई कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या अनुबंध की खेती होगी या किसी भी प्रकार का आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे अनुबंध होंगे तो गुंडागर्दी की भाषा में कंपनी के वकील इसी प्रकार का नोटिस भेजकर गांव समाज को आतंकित करेंगे ।जैसा अभी दूसरे फाइनेंस सिस्टम में कर रहे हैं। उससे ज्यादा दुखद यह है कि पुलिस और प्रशासन इन इन्वेस्टमेंट कंपनियों के एजेंट के रूप में मूक बधिर होकर गांव समाज को भटकने के लिए मजबूर कर देंगे। जैसा कि कोविड-19 के दौरान आदिवासी क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों में हजारों की संख्या में ग्रामीण भटकते देखे गए,ताकि कर्ज से मुक्ति पा सकें।


किसी भ्रामक सूचना के आधार पर यह सही है कि भ्रम फैलाने वालों पर जिला पुलिस ने कार्यवाही की किंतु क्या लूट रहे अथवा शोषण कर रहे सूदखोरों के नएअवतारों पर पुलिस का कोई नया शिकंजा कसा है....? उत्तर है,

 बिल्कुल नहीं....।

फिर पुलिस का प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कहना कि वे सूदखोरों पर कड़ी नजर रख रहे हैं सिर्फ एक ढकोसला नजर आता है।क्यों कि शहडोल जैसे भारत के संविधान के पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र में भी यदि उनकी बातों पर अमल होता नहीं दिखाई देता या फिर भारत के ही कानूनों की धमकीनुमा कार्यवाही हो जो बैंकिंग कार्य प्रणाली में नहीं दिखती है। तो लगता है कि भारत सरकार का बोलने वाला सच अलग होता है और करने वाला सच अलग होता है। या फिर नीतियों का दोगलापन जानबूझकर ऐसा रखा जाता है ताकि वोट के धंधे के लिए कुछ और बात कही जाए और नोट के धंधे के लिए कुछ और।


 बात अभी बात करेंगे इस चीज के लिए कि भारत सरकार रोजगार के सबसे बड़े अवसर के रूप में भारत की बैंकिंग कार्य प्रणाली को ऋण देने की गारंटी के रूप में सामने रखती है। याने भारतीय रिजर्व बैंक से नियंत्रित होने वाली बैंकिंग कार्यप्रणाली के जरिए ही वह भारतीय आजीविका व सामाजिक ढांचे का ताना-बाना बुनती है और आशा करती है कि भारतीय नागरिक इस रास्ते से अपना विकास तय करेगा। किंतु जमीनी हकीकत कुछ और होता है सस्ता सुलभ ऋण कम से कम आदिवासी विशेष क्षेत्रों में अलग अलग तरीके से क्रेडिट संस्थाओं/ माइक्रो फाइनेंस के जरिए भी दिया जाता है। लेकिन जब ऐसी संस्थाएं संविधान में सुरक्षित आदिवासी विशेष क्षेत्रों में भी धमकी नुमा अंदाज में भारतीय पुलिस के  बनाए गए कानूनों का उपयोग अपनी सूदखोरी की प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए निर्भीक होकर काम करती दिखती है। अलग-अलग नकाब के रूप में वह उपभोक्ताओं को लूटने के तौर तरीके निकालती है। 

तब प्रतीत होता है कि भारत सरकार के कानूनों को ना मानने का और निर्भीकता पूर्वक पत्राचार के जरिए लूटने की प्रवृत्ति पर अमल करने कि साहस को आखिर कौन संरक्षण दे रहा है...? तो लगता यह भी है कि कोई बेंगलुरु से बैठकर, कोई चेन्नई से बैठकर भारत की नीतियों के विरुद्ध कैसे आदिवासी क्षेत्र में डाका डालने की सोच पैदा करता है....।

 बात विश्वव्यापी कोविड-19 के दौरान भारत सरकार, वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया आदि अथवा उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों पर ऋण सुविधाओं पर उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के विरुद्ध कैसे कोई क्रेडिट कंपनी बैंकिंग कार्यप्रणाली, उपभोक्ताओं को लूटने के लिए कानून का नकाब पहनकर जब नोटिस भेज सकती है। अथवा मानना चाहिए कि वह भारत के कानूनों दिशानिर्देशों को "जूते की नोक" में रखकर अपने भ्रष्ट सिस्टम के जरिए स्थानीय लोग, कानून व्यवस्था को खरीद कर अपने उपभोक्ताओं को आतंक के सहारे लूटने की व्यवस्था पर विश्वास करता है। 

इससे ज्यादा दुखद यह है कि शहडोल जैसे आदिवासी विशेष क्षेत्रों में भी प्रशासन हाथ में हाथ धरे तब तक नींद से जागने का प्रयास नहीं करता जब तक कि कर्ज के बोझ तले प्रताड़ित संपूर्ण जनमानस माइक्रोफाइनेंस कंपनियों अथवा क्रेडिट फाइनेंस कंपनियों के बुने जाए मकड़जाल से भयभीत होकर वह "कोरोना-कॉविड 19" के भी भयानक दौर में बिना किसी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किए हजारों की संख्या में अपने-अपने कलेक्ट्रेट में न्याय की आशा में किसी भ्रामक परिस्थितियों मे भीड़ के रूप में प्रकट नहीं हो जाते ।किंतु ऐसी भीड़ में भी क्या प्रशासन तक का कोई दूरगामी नीतिकारी कार्यक्रम पर अमल करता दिखता है....? शायद नहीं।


वह इसलिए कहना उचित होगा कि मुंबई दिल्ली अथवा चेन्नई आदि स्थानों पर बैठे हुए कानून का नकाब पहनकर वकील लोग क्रेडिट कंपनियों के एजेंट बनकर मनमानी नोटिस उपभोक्ताओं को भेजते रहते हैं जैसे आदिवासी क्षेत्रों के थाने इनकी आदेश के गुलामी इच्छा के तत्पर हों। और इसी सोच के अनुरूप कि वे जैसा चाहेंगे स्थानीय पुलिस को उंगली के इशारे से नचाते रहेंगे। वह  आतंक और भय का वातावरण गैरकानूनी तरीके से बनाते रहते हैं ।एक प्रकरण में क्रेडिट कंपनी अपने उपभोक्ता को कैश लोन तब देती है जब वह उपभोक्ता की बैंक खातों को उसकी साख को तलाश लेती है किंतु उस ऋण दाता कंपनी को जरा भी शर्म नहीं आती कि 36 महीने के लिए जारी लोन का निपटारा  के महीनों के दौरान वह इकट्ठा सिर्फ 12 महीने में कैसे वसूल सकती है। तब जबकि माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर कई बैंकों ने अपनी बैंक कार्यप्रणाली को अपडेट करते हुए शेष बकाया राशि पर सरल किस्तों को बनाने का काम किया हो। बल्कि उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देश पर किस्तों की छूट का समावेश भी किया हो। यदि कोई क्रेडिट इन्वेस्टमेंट कंपनी ऐसा नहीं करती है और खुलेआम नोटिस भेजकर गैरकानूनी दवाब बनाती है तो वह सिर्फ आदिवासी क्षेत्रों में सूदखोरी का कानूनी नकाब पहनकर आतंक बनाने का काम करती है। और यदि ऐसा होता है और इस प्रकार के आतंक के भय से दूर गांव से निकलकर भारी भीड़ जिला मुख्यालय मैं कर्ज से मुक्त होने का सपना देखती है तो दोष किसका है उस आईएएस आईपीएस पढ़े लिखे समाज का अथवा अनपढ़ ग्रामीण समाज का जो कि अभी भी इन अधिकारियों पर न्याय की आसरा पर अपना भविष्य देखते हैं देखना यह होगा किस समय समय पर कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक कानून पालन की गारंटी तथा सूदखोरी के खिलाफ मनमानी मांग करने वाले क्रेडिट कंपनियों अथवा बैंकिंग कार्य प्रणाली के विरुद्ध क्या कोई संज्ञान लेते भी हैं अथवा वे किसी मौखिक संज्ञान के तहत आदिवासी क्षेत्र में लूट के इस कारोबार को छूट देते नजर आते हैं। क्योंकि उन्होंने संवेदनहीनता के साथ कानून का नकाब पहनकर आदिवासी क्षेत्रों में लूट का कारोबार स्थापित कर रखा है।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

यानी जमीर जिंदा है (त्रिलोकीनाथ)

 मामला शहडोल  जिला चिकित्सालय में सामूहिक इस्तीफे का ।

जमीर जिंदा है... 



         (त्रिलोकीनाथ)

जी हां, यह खबर चौंकाने वाली तो है ही कि जहां 1-1 डॉक्टर् के अकाल पड़े हो, जहां चिकित्सा कार्य प्रणाली की चर्चा भारत में होती हो कि कुछ ही घंटे में कैसे बच्चे बार-बार मर जाते हैं, जहां कुपोषण को लेकर चर्चा होती हो, जहां चिकित्सीय गुणवत्ता कभी मॉडल बन कर आता है तो कभी गंदगी और गुणवत्ता हीन का कारण बन जाता है, ऐसे जिला चिकित्सालय शहडोल में अराजकता का ही  आलम है की जातिवाद से ज्यादा खतरनाक अधिनायकवाद अपनी सत्ता कुंडली के रूप में जमा कर चिकित्सा व्यवस्था में फुफकार लगाना चाहता है...?

 हो सकता है उच्चशिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता हीन शिक्षा प्रणाली और अराजकता सिद्ध हो चुके आदिवासी क्षेत्र शहडोल में जमीर को मारकर उच्च शिक्षा मे अधिनायकवाद जड़े जमा लिया हो किंतु चिकित्सा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर-चिकित्सक समाज का जमीर शायद आज भी जिंदा है कि वह चिकित्सा के अंदर पारंपरिक जूनियर-सीनियर की मर्यादा का पालन बनाए रखने के लिए स्वयं में गुणवत्ता की आचार संहिता स्थापित करने के लिए आज भी वह वचनबद्ध दिखते हैं ।


तमाम प्रकार की अराजक प्रणाली के बावजूद भी यदि चिकित्सा जगत के डॉक्टर थोपी गई कार्य प्रणाली के रामराज्य को अस्वीकार कर देते हैं तो इसका मतलब है कि चिकित्सा समाज में आज भी जमीर जिंदा है ।

निश्चित तौर पर आज दिए गए सामूहिक इस्तीफा से शासन और प्रशासन के कान खड़े होंगे कि ऐसा नहीं चल सकता खासतौर से आत्मनिर्भर चिकित्सक समाज में। किंतु यह भी अराजक हो चुकी सिस्टम के पतन की कहानी है की यदि सेवा में रत चिकित्सक समाज शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात शासन और प्रशासन के समक्ष रखता है तो उसे भी किसान आंदोलन की तरह नजरअंदाज करने का काम होता है। यह ठीक है कि जिस प्रकार से किसान आंदोलन में लोग मर रहे हैं या प्रताड़ित हैं उस तरह से शहडोल में चिकित्सा के छोटी सी नियुक्ति में कोई डॉक्टर नहीं मरेगा किंतु निश्चित तौर पर इसका कुप्रभाव आम मरीज पर आदिवासी क्षेत्र में जबरदस्त पड़ने वाला है। एक पर्यावरण का भी निर्माण होगा जिसमें यह सिद्ध होगा कि यहां पर स्वास्थ्य चिकित्सा प्रणाली में गुणवत्ता देने की वजह जबरजस्ती पदों पर कब्जा करके अपनी मनमानी चलाने का काम हो रहा है। और इससे आदिवासी क्षेत्र का मरीज सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर अविश्वास करेगा। इसलिए भी जरूरी है कि समय रहते बिना किसान आंदोलन की तरह इसे लंबा खींचने के तत्काल इस पर निर्णय लिया जाना चाहिए और जो चिकित्सा समाज चिकित्सक स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए सर्वसम्मति का निर्माण करना चाहते हैं उसका निर्माण करके सम्मानजनक तरीके से चिकित्सा के अंदर निर्मित आचार संहिता का सम्मान भी करना चाहिए ।

देखते हैं की अधिनायकवाद क्या चिकित्सा संस्था को बचाना चाहता है अथवा अपनी मनमानी करके अपना सिक्का जमाना चाहता है कि मैं चाहे यह करूं मैं चाहे वह करूं मेरी मर्जी..... आशा करना चाहिए कि बौद्धिक समाज चिकित्सकों के सर्वसम्मति का सम्मान करते हुए संवेदनशील जिला चिकित्सालय की व्यवस्था तत्काल ठीक करेंगे।


शनिवार, 19 दिसंबर 2020

किसान की खबर है , भाई; ज़रा धैर्य से... त्रिलोकीनाथ

 

किसान की खबर है , भाई; ज़रा धैर्य से...


"..सवा लाख से एक लड़ाऊं ..."



गुरु गोविंद सिंह की यह भाषा जंग में उतरे बाबा नरेंद्र मोदी को शायद जल्दी समझ में आ गई.. कि उसका मुकाबला  भारत के  वोटरों से नहीं है  जिन्हें  ईवीएम के  खिलौने से  खेला जा सकता हो बल्कि भारतीय आत्मा की आवाज से है लेकिन देर बहुत हो गई|

(--------त्रिलोकीनाथ---------)

 

इसीलिए मोदी  ने दिल्ली के चारों ओर सड़कों पर रोक दिए गए किसान आंदोलन बनाम मोदी सरकार का मोर्चा अंततः अपने सभी लगभग फेल हो चुके हमलावर अस्त्रों में अविश्वास करके स्वयं दूसरी घोषित किसान आंदोलन उर्फ कन्फ्यूजन जंग की लड़ाई में स्वयं को उतार दिया| गुजरात में आमने-सामने कुछ किसानों से बात करने के बाद मध्य प्रदेश के बहाने देश की लाखों-करोड़ों किसानों को समझाने के लिए करोड़ों  पर खर्च करके टेली कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए  वर्चुअल मीटिंग में

किसानों को समझाने का प्रयास किया की 
किसानोंको कुछ लोग गुमराह कर रहे हैं जैसे कृषि बिल किसानों के कल्याण का नया अवतार है|

 किंतु लगता है बहुत देर हो चुकी है जहां के किसान समझ गए हैं व लड़ रहे हैं दिल्ली में आकर, जान दे रहे हैं । 

और बचा कुचा सरकार जागरूकता पैदा करने का काम कर रही है आखिर दुनिया की सबसे बड़ी ताकतवर संख्या वाली पार्टी का अधिनायकवाद अपने हाथ में रखने वाला शख्स चिल्ला चिल्ला कर भी जब किसान सुधार कार्यक्रमों को नहीं समझा पा रहा है। नरेंद्र मोदी अब कितना भी कहे कि उनकी नियति गंगा और नर्मदा की तरह पवित्र है लेकिन यह नियति प्रदूषण का शिकार हो चुकी है  तो लगता है  मोदी बाबा का  विश्वास  आम आदमियों में नहीं रहा है ,कम से कम जागरूक पंजाब हरियाणा किसानों में  नहीं है।  उसका कारण  साफ और सुथरा है। प्राथमिक विद्यालयों में  एक कहानी से  यह समझ में आता है तो आइए भेड़िया आया भेड़िया आया वाली कहानी है क्या इस दौर में समझने का प्रयास करते हैं

 कहानी

एक बार की बात हैएक लड़का था जो अपनी भेड़ों के झुंड को ताजी हरी घास चराने के लिए पहाड़ी पर ले जाता था। यह काम उसके लिए थोड़ा उबाऊ था। ऊपर पहाड़ों में बैठबैठे वो पूरा दिन ऊब जाता था। एक दिन उसके दिमाग में एक विचार आया जिससे वो अपनी बोरियत दूर कर सकता है। अपनी बोरियत दूर करने के लिएवह चिल्लाया, “भेड़ियाभेड़ियाभागोभेड़िया आयाभेड़िया आया”।


आसपास बसें गाँव वाले उसकी आवाज सुनकर अपनी लाठी लेकर दौड़े
सोचकर कि कहीं भेड़िया उस बच्चे को खा न जाएं। लेकिन उन्होंने देखा कि वहाँ कोई भेड़िया नहीं आया था। गाँव वालों को वहाँ देखकर लड़का जोरजोर से हँसने लगाउसे लगा उसने लोगों को बेवकूफ बना दिया।

फिर कुछ दिनों के बाद उसने फिर से वैसा ही करने का सोचावह चिल्लाया, “भेड़िया आयाभेड़िया आया!” और गाँव वाले फिर से पहाड़ी की ओर भागते हुए गएतो फिर उन्होंने पाया कि चरवाहे लड़के ने फिर से उन्हें बेवकूफ बनाया था। लड़का फिर लोटपोटकर हँसने लगा यह सोच कर की उसने फिर से गाँव वालों को बेवकूफ बना दिया। इस बात से सभी गाँव वाले बहुत गुस्से में आ गए और उन्होंने उस लड़के से कहा “अगली बार जब तुम सच में मदद के लिए रोओगेपुकारोगे तो हम नहीं आएंगे।” यह कहकर सभी वहाँ से चले गए।

अगले दिन जब वह लड़का पहाड़ों में अपनी भेड़ें चरा रहा थातो उसने अचानक उसे एक भेड़िया दिखा। वह डरकर जल्दी से एक पेड़ पर चढ़ गया और जोर से चिल्लाया “बचाओभेड़िया आयाभेड़िया आया!”, वह चिल्लाते रहा। लेकिन अफसोसकोई भी उस लड़के की भेड़ को बचाने नहीं आया। भेड़िया उसकी कुछ भेड़ों को खा गया। 


 जोर-जोर से अपनी बातों को चिल्लाने से आप कब तक लोगों को बेवकूफ बना सकते हैं इस कहानी के कई पक्ष है किंतु स्वयं को देश का प्रधान सेवक और चौकीदार कहने वाले नरेंद्र मोदी की हालात कुछ इसी प्रकार से हो गई है

इस तरह बीते 6 साल से जो भी सब्जबाग 56 इंची के नरेंद्र मोदी ने अपनी भाजपा और साथियों की मदद से भारत की जनता को दिखाएं वास्तव में वह धरातल पर उतरे नहीं। जो जबरदस्ती जन स्वीकृत के विरुद्ध बदलाव किया भी गया वह मात्र भेड़िया कदर दिखाने के उद्देश्य मुट्ठी भर लोगों  की पुष्टि के लिए  अथवा हिंदुत्व ब्रांड विस्तार के लिए किया गया ।

हद तो तब हो गई जब कोरोना के महाकाल में चोरी-छिपे कृषि बेल को मनमानी तरीके से अध्यादेश के जरिए कानून बना दिया गया जागरूक अथवा नासमझ पंजाब हरियाणा के किसानों को यह बिल समझ में नहीं आया तो बजाय उन्हें समझाने के महीनों से उनके सामने उन्हें बौना दिखाने के लिए तमाम प्रकार के झुंझुनू बजाए जाते रहे। कभी राम मंदिर कभी 370 तो कभी करोना का उन्माद और भय का स्पीकर बजता रहा। चक्की कृषि बेल भारत की आत्मा की आवाज को हिला रहा था। वे आंदोलन पर उतर आए सत्याग्रह जैसे खतरनाक हथियार के साथ लेकिन उन्हें संतुष्ट करने की बजाय अब जबकि सब अस्त्र जिसमें विरोधियों को देशद्रोही किसानों को खालिस्तानी गद्दार अथवा अलग-अलग प्रकार के अराजकतावादी बताने का प्रयास करने वाले सभी प्रोपेगेंडा फेल हो गए तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कमान संभाली है।

किसान आंदोलन की लंबी लड़ाई से मोदी हारे और थके हुए नेतृत्व का परिचायक है। इसलिए अब अगर वह सही भी बोलते हैं तो भेड़िया आया भेड़िया आया की कहानी के मुख्य चरित्र बन कर रह जाते हैं। देखना होगा कि कहीं कोई भेड़िया चरित्र को खा जाए। और लोग विश्वास नहीं करेंगे कि भेड़िया सचमुच में आया है जबकि वास्तविक हालात यह हैं कि कृषि बिल से संबंधित तीन सुधार भी आज लाखों किसानों को भेड़िए की तरह खाने को उत्सुक हैं। ऐसा कन्फ्यूजन है यह मोदी का दावा है। यह अलग बात है गांव समाज/ किसान समाज कुछ राजनीतिक दलों की चौकीदारी के सहयोग से भेड़िए को फिलहाल हांका लगाए हुए हैं। देखना यह भी होगा भेड़ियों की संख्या बल ज्यादा बड़ी है तो वह किसानों को खाती है अथवा किसान आंदोलन काल्पनिक कथित कृषि सुधार बिल के भेड़िया को मार डालता है। अभी सिर्फ दो राज्य हुए हैं जहां से बाबा मोदी कर्तव्यनिष्ठ होकर, निष्ठावान चौकीदार होने के नाते अपने  बनाए कानून की रक्षा कर रहे हैं अभी कई राज्यों में इससे भी बड़ी करोड़ों अरबों रुपए खर्च करने वाली मीटिंगो के जरिए किसान आंदोलन पर बाबा मोदी के हमले होंगे।

 तो लड़ाई लंबी चलेगी... जंग में कितने किसान मरेंगे... यह कोई महत्व नहीं रखता है उनके लिए..। महत्व  रखता है मेरा कानून जिंदा रहेगा या नहीं...।

  वास्तव में मध्य मार्ग यह भी है की एक कदम पीछे करके यह कानून वापस लेकर पुनः सर्वसम्मति से कृषि सुधार बिल पारित हो जाए किंतु जंग में अस्त्र और मौत का कारोबार चल चुका है तो देखते चलिए मीटिंग तक कितने किसान मरते हैं...? किंतु सवाल यह है आंकड़ों को क्या कोई इमानदारी से बताएगा भी कि क्यों भ्रम बन रहा है की "बाड़ी अब खेत खा रही है...?"





रविवार, 13 दिसंबर 2020

शहडोल जेल का इतिहास से निकलेगा किसानों का भविष्य....?

 



क्या किसान आंदोलन शहडोल जेल की भूमिका तय होगी.....?


(आज आजतक ने राकेश टिकैत की और


किसान यूनियन की हिस्ट्री का प्रकाशन किया है जिससे यह शंका बलवती होने लगी है कि क्या राकेश टिकैत वर्तमान किसान आंदोलन को अथवा फेल करेंगे या फिर समझौते का बड़ा चेहरा बनाया जा सकता है दरअसल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया गिरी के जो बड़े चेहरे लोकतंत्र में पत्रकारिता के नाम पर सरकार की ओर से उनके लिए काम करते हैं उसमें कई टीवी चैनल्स में प्रमुख नाम आज तकका कुशलता के साथ दिया जाता है और यदि 50 किसान चेहरों में टिकैत का चेहरा सामने आता है तो यह भी सामने आता है कि राकेश टिकैत से अलग मिला गया था। इसे भी याद रखना जरूरी है कि राकेश टिकैत शहडोल क्षेत्र के जैतहरी मोजर बेयर प्लांट में जब किसान आंदोलन के नेतृत्व में आए थे तब उन्हें भारतीय जनता पार्टी सरकार ने गिरफ्तार करके शहडोल जेल में डाल दिया था जहां वे लंबे समय तक रहे और फिर बाद में भाजपा के तथाकथित समझौते के तहत उन्हें जेल से मुक्ति मिली थी। तो शहडोल जेल की यह कहानी दिल्ली के किसान आंदोलन को कितना प्रभावित करती है देखना होगा। फिलहाल देखिए टिकैत के कहानी जो आज तक ने बताई है बहर हाल  किसानों के हित में
 यदि कोई समझौता होता है तो सुखद होगा अन्यथा दुखद तो हो ही रहा है)




किसानों के साथ एक और नाम जो आंदोलन में मुखर तौर पर उभरा है वह है भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत का. भारतीय किसान यूनियन एक ऐसा किसान संगठन है जिसकी पहचान पूरे देश में है और इसके अध्यक्ष राकेश के बड़े भाई नरेश टिकैत हैं. लेकिन, व्यवहारिक तौर पर यूनियन से जुड़े फैसले राकेश टिकैत ही लेते हैं. राकेश बड़े किसान नेता और भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष रहे स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत के दूसरे बेटे हैं.


राकेश टिकैत फिलहाल किसानों के उस कोर ग्रुप में शामिल हैं जो कृषि संशोधन बिल पर लगातार सरकार से बात कर रही है. बीती शाम अमित शाह से मुलाकात करने वाले किसानों में भी राकेश टिकैत शामिल थे और सभी पिछले पांच दौर की वार्ताओं में भारतीय किसान यूनियन का प्रतिनिधित्व राकेश टिकैत ही कर रहे थे.


जानिए कौन हैं राकेश टिकैत

राकेश टिकैत की पहचान ऐसे व्यवहारिक नेता की है जो धरना-प्रदर्शनों के साथ-साथ किसानों के व्यवहारिक हित की बात रखते हैं. किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के दूसरे बेटे राकेश टिकैत के पास इस वक्त भारतीय किसान यूनियन की कमान है और यह संगठन उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के साथ-साथ पूरे देश में फैला हुआ है.

राकेश टिकैत का जन्म मुजफ्फरनगर जनपद के सिसौली गांव मे 4 जून 1969 को हुआ था. राकेश टिकैत 1992 में दिल्ली पुलिस में कांस्टेबल के पद पर नौकरी करते थे. राकेश टिकैत ने मेरठ यूनिवर्सिटी से एमए की पढ़ाई की हुई है. लेकिन 1993-1994 में दिल्ली के लाल किले पर स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में चल रहे किसानों के आंदोलन के चलते सरकार का आंदोलन खत्म कराने का जैसे ही दबाव पड़ने लगा उसी समय राकेश टिकैत ने 1993-1994 में दिल्ली पुलिस की नौकरी छोड़ दी थी.


नौकरी छोड़ किसानों की लड़ाई में लिया हिस्सा

नौकरी छोड़ राकेश ने पूरी तरह से भारतीय किसान यूनियन के साथ किसानों की लड़ाई में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था. पिता महेंद्र सिंह टिकैत की कैंसर से मृत्यु के बाद राकेश टिकैत ने पूरी तरह भारतीय किसान यूनियन की कमान संभाल ली.

दरअसल महेंद्र सिंह टिकैत बालियान खाप से आते थे और जब महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु हुई तब आपने बड़े बेटे नरेश टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का अध्यक्ष बनाया क्योंकि खाप के नियमों के मुताबिक बड़ा बेटा ही मुखिया हो सकता है, लेकिन व्यवहारिक तौर पर भारतीय किसान यूनियन की कमान राकेश टिकैत के हाथ में है और सभी अहम फैसले राकेश टिकैत ही लेते हैं. राकेश टिकैत की संगठन क्षमता को देखते हुए उन्हें भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय प्रवक्ता बना दिया गया था जिसे वो आज तक बखूभी निभा रहे हैं.

बागपत जनपद के दादरी गांव की सुनीता देवी से हुई शादी

राकेश टिकैत की शादी सन 1985 में बागपत जनपद के दादरी गांव की सुनीता देवी से हुई थी इनके एक पुत्र चरण सिंह दो पुत्री सीमा और ज्योति हैं. इनके सभी बच्चों की शादी हो चुकी है. भारतीय किसान यूनियन की नींव 1987 में उस समय रखी गई थी. जब बिजली के दाम को लेकर किसानों ने शामली जनपद के करमुखेड़ी में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में एक बड़ा आंदोलन किया था. जिसमें दो किसान जयपाल ओर अकबर पुलिस की गोली लगने से मारे गए थे. उसके बाद भारतीय किसान यूनियन बनाया गया था जिसका अध्यक्ष स्वर्गीय चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत को बनाया गया था.

15 मई 2011 को लंबी बीमारी के चलते महेंद्र सिंह टिकैत के निधन के बाद इनके बड़े बेटे चौधरी नरेश टिकैत को पगड़ी पहनाकर भारतीय किसान यूनियन का अध्यक्ष बनाकर कमान सौंप दी गई थी. राकेश टिकैत ने दो बार राजनीति में भी आने की कोशिश की है. पहली बार 2007 मे उन्होंने मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा था. उसके बाद राकेश टिकैत ने 2014 में अमरोहा जनपद से राष्ट्रीय लोक दल पार्टी से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था. लेकिन दोनों ही चुनाव में इनको हार का सामना करना पड़ा था.

 बीकेयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं राकेश टिकैत

भारतीय किसान यूनियन के नेता रहे स्वर्गीय महेंद्र सिंह टिकैत के पुत्र राकेश टिकैत टिकट कुल चार भाई हैं, जिनमें सबसे बड़े नरेश टिकैत हैं जोकि भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. वहीं राकेश टिकैत बीकेयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. इसके अलावा राकेश टिकैत के दो अन्य भाई हैं. उत्तर प्रदेश से भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश प्रवक्ता, आलोक वर्मा ने आज तक से बातचीत में, जानकारी साझा करते हुए बताया कि राकेश टिकैत से छोटे एवं तीसरे स्थान पर उनके भाई सुरेंद्र टिकैत मेरठ के एक शुगर मिल में मैनेजर के तौर पर कार्यरत हैं. वहीं, सबसे छोटे भाई नरेंद्र खेती का काम करते हैं. आलोक वर्मा आगे बताते हैं कि वर्ष 1985 में राकेश दिल्ली पुलिस में एसआई यानी कि सब इंस्पेक्टर के तौर पर भर्ती हुए थे. 


दिल्ली के लाल किले पर डंकल प्रस्ताव आंदोलन चलाया

इसी दौरान उनके पिता महेंद्र टिकैत द्वारा दिल्ली के लाल किले पर डंकल प्रस्ताव हेतु आंदोलन चलाया गया था, जिसमें सरकार द्वारा राकेश टिकैत के ऊपर दबाव डाला जा रहा था कि वह अपने पिता को समझाएं और आंदोलन को खत्म कराएं. सरकार द्वारा राकेश के ऊपर दबाव बनाने के कारण 1993 में राकेश टिकैत ने पुलिस की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और उसके बाद से इन्होंने किसानों के लिए सक्रिय काम करते हुए अपने पिता के साथ काम करना शुरू किया और 1997 में भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाए गए.

किसानों की लड़ाई लड़ते रहने के कारण राकेश टिकैत 44 बार जेल की यात्रा भी कर चुके हैं. बीकेयू के उत्तर प्रदेश प्रवक्ता आलोक यह भी बताते हैं कि मध्यप्रदेश में एक समय किसान के भूमि अधिकरण कानून के खिलाफ उनको 39 दिनों तक जेल में रहना पड़ा था. उसके उपरांत दिल्ली में लोकसभा के बाहर किसानों के गन्ना मूल्य बढ़ाने हेतु सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया,और गन्ना को जला दिया था, जिसकी वजह से उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया था.

बाजरे के मूल्य बढ़ाने के लिए सरकार से मांग

राकेश टिकैत ने राजस्थान में भी किसानों के हित में बाजरे के मूल्य बढ़ाने के लिए सरकार से मांग की थी, सरकार द्वारा मांग न मानने पर टिकैत ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया था. जिस वजह से उन्हें जयपुर जेल में जाना पड़ा था. हालांकि आलोक वर्मा बताते हैं कि राजस्थान सरकार ने बाजरे के मूल्य को किसानों के लिए बढ़ा दिया था. वहीं, राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह ने 2014 में अमरोहा से राकेश टिकैत को लोकसभा प्रत्याशी बनाया था.

इस मामले में लगातार सरकार से बातचीत कर रहे भारतीय किसान यूनियन का मानना है कि अब गेंद सरकार के पाले में है और सरकार को ही तय करना है कि आंदोलन खत्म होगा या फिर अनवरत चलता रहेगा क्योंकि अगर सरकार ने तीनों कानून वापस नहीं लिए तो इस आंदोलन के खत्म होने की संभावना नहीं है



शनिवार, 12 दिसंबर 2020

कितने सही हैं तीन नए कृषि कानून....

कितने सही हैं तीन नए कृषि कानून....



एक विश्लेषण


 

मौजूदा किसान संघर्ष की पृष्ठभूमि

(जरूरी नहीं कि हम सहमत हो इन विचारों से। किंतु यह भी जरूरी नहीं यह विचार राष्ट्रद्रोही हो। और जब संसद के अंदर सन्नाटा छा जाए चिंतन, मंथन और बहस पतन की पराकाष्ठा में भ्रम के धुंध में खो जाएं तब देश की जन संसद  को देश की सैद्धांतिक मुद्दों पर चिंतन, मंथन और बहस के अधिकार का आरक्षण सांसदों से छीन लेना चाहिए और जन संसद में चिंतन मंथन और बहस पर विचार होते रहना चाहिए आज एक नया विचारधारा सामने आए जिसे आप तक लाया जा रहा है)

देशभर में लॉकडाउन घोषित करने के डेढ़ महीने बाद प्रधानमंत्री महोदय को यह ख्याल आया कि कोरोना वायरस की महामारी से निपटने में जनता की कुछ मदद भी करना चाहिए और 12 मई 2020 को उन्होंने बीस लाख करोड़ रुपए के एक राहत पैकेज कि घोषणा की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, "ये पैकेज देश के मजदूरों और किसानों के लिए है जिन्होंने हर हालत में, हर मौसम में और चौबीसों घंटे अपने देशवासियों के लिए काम किया"। बाद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अगले पांच दिन तक इस पैकेज में शामिल प्रावधानों की विस्तार से व्याख्या की। उन्होंने कहा कि खेती के क्षेत्र के लिए इस पैकेज में ग्यारह कदम उठाये गए हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर का कोष स्थापित किया गया है, जानवरों के लिए टीकाकरण, खाने-पीने की चीजों के छोटे उद्यम आदि के लिए इस पैकेज में प्रावधान किये गए हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा उन्होंने की खेती के बाजार कि संरचना में किये जाने वाले तीन सुधारों के बारे में। इसमें एक सुधार आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 से संबंधित है, दूसरा विभिन्न राज्यों के कृषि उत्पाद मार्केटिंग कमेटी कानूनों को ख़तम करने के बारे में और तीसरा ठेका खेती को संस्थागत रूप देने के बारे में है। ये तीनों सुधार मौजूदा कृषि उत्पादों के बाजार की संरचना पर से सरकार का नियंत्रण हटाने के मकसद से किये गए हैं। जब कोविड और लॉकडाउन की वजह से खेती में पहले से चले आ रहे संकट में और भी इज़ाफ़ा हो गया, और जब वंचितों और हाशिये पर मौजूद परिवारों को राज्य की सहायता की जरूरत थी ताकि निर्दयी और निरंकुश बाजार की अनिश्चितताओं और क्रूरताओं से राज्य उनकी रक्षा करे तब मोदी सरकार ने बाजार को और अधिक खोलकर और अपना नियंत्रण हटाकर समाज के कमजोर तबकों को बाजार के सामने पूरी तरह असहाय छोड़ दिया। वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश की जनता को आत्मनिर्भर बनाने का एजेंडा यही था।


जब संसद का मानसून सत्र 14 सितंबर 2020 को शुरू हुआ तब ये तीनों विधेयक राज्यसभा एवं लोकसभा में रखे गए। लोकसभा में यह विधेयक पास हो गए लेकिन 17 सितंबर को शिरोमणि अकाली दल की सांसद और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इन विधेयकों के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया। 20 सितंबर को ये विधेयक राज्यसभा में रखे गए जहाँ समूचे विपक्ष ने इन विधेयकों की बारीक पड़ताल के लिए एक समिति बनाने कि मांग की। विपक्षी सदस्यों ने यह भी मांग की कि इन विधेयकों को अमान्य करने के उनके प्रस्तावों पर राज्यसभा में मतदान करवाया जाये। राज्यसभा के उपसभापति ने उनकी मांग अस्वीकार कर दी और सदन में घमासान मच गया। सभी नियमों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर वैसी ही अफरा-तफरी में इन विधेयकों को आनन्-फानन पारित कर दिया। तीसरा कानून, "आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन 1955" 22 सितंबर 2020 को पारित किया और 27 सितंबर को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ये तीनों विधेयक कानून बन गए।


 


संसद में पारित कृषि विधेयक


1. आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020


आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में भारत में लागू किया गया था। तब इस नियम को लागू करने का उद्देश्य उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता उचित दाम पर सुनिश्चित करवाना था। अतः इस कानून के अनुसार आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, मूल्य और वितरण सरकार के नियंत्रण में होगा जिससे उपभोक्ताओं को बेईमान व्यापारियों से बचाया जा सके। आवश्यक वस्तुओं की सूची में खाद्य पदार्थ, उर्वरक, औषधियां, पेट्रोलियम, जूट आदि शामिल थे।


23 सितम्बर 2020 को पारित अधिनियम में संशोधन के बाद बने इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है। इस प्रकार, इन वस्तुओं पर जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी को सीमित करने और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने जैसे प्रतिबंध हटा दिए गए हैं। अब इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं होगा। हालाँकि इस अधिनियम में प्रावधान है कि युद्ध, अकाल या असाधारण मूल्य वृद्धि जैसी आकस्मिक स्थितियों में प्रतिबंधों को फिर से लागू किया जा सकता है लेकिन जिस समय इस प्रतिबंध को हटाया गया है, क्या यह आपातकालीन समय नहीं है? आज कोविड-19 के दौर में करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए हैं। यह ऐसा समय है जब लोग अपनी मौलिक जरूरतों को पूरा करने लायक भी नहीं कमा पा रहे। इस अभूतपूर्व कठिनाई के दौर में लोकतान्त्रिक राज्य की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को उनकी बुनियादी जरूरतों का सामान सस्ती कीमत पर उपलब्ध करवाए। जीने के लिए बुनियादी जरूरतों में खाद्य सामग्री सबसे पहले क्रम पर आती है, लेकिन कानून में इस तरह का बदलाव करके जरूरतमंदों को खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाने के बजाए अधिक मूल्य पर उपज बेचने जैसी बेहतर संभावनाओं एवं भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटाना बेहद शर्मनाक सोच है। इस कानून से जमाखोरों को वैधता मिल जाती है।


इस संशोधन को उचित ठहराते हुए सरकार तर्क देती है कि किसान अपनी कृषि उपज को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बेचकर बेहतर दाम प्राप्त कर सकेंगे। इससे किसानों को व्यापार एवं सौदेबाजी के लिए बड़ा बाजार मुहैया होगा और उनकी व्यापारिक शक्ति बढ़ेगी। इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटा देने से भंडारण क्षेत्र (वेयर हाऊसिंग) की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और इसमें निजी निवेशकों को भी आमंत्रित किया जा सकेगा।


देश में किसान परिवारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को देखते हुए ऐसे किसान गिने-चुने ही हैं जो अपना कृषि उत्पाद मुनाफे की तलाश में दूर-दराज के इलाकों तक भेज पाते हों या जिनके पास इतने बड़े गोदाम हों जहाँ वो अपनी फसल का लम्बे समय तक भंडारण कर सकें। ज़ाहिर है इस संशोधन वाले कानून से केवल बड़े व्यापारियों और कंपनियों को ही फायदा होगा। जो खाद्य पदार्थों के बाजारों में गहराई तक पैठ रखते हैं और ये अपने मुनाफे के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और परिवहन करके संसाधनविहीन बहुत सारे गरीब किसानों का नुकसान ही करेंगे।


 


2. कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य  (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020


1970 के दशक में, राज्य सरकारों ने किसानों के शोषण को रोकने और उनकी उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए 'कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था। इस अधिनियम के तहत यह तय किया कि किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जाएगी। मंडी कमेटी खरीददारों, कमीशन एजेंटों और निजी व्यापारियों को लाइसेंस प्रदान कर व्यापार को नियंत्रित करती है। मंडी परिसर में कृषि उत्पादों के व्यापार की सुविधा प्रदान की जाती है; जैसे उपज की ग्रेडिंग, मापतौल और नीलामी बोली इत्यादि। सरकारी मंडियों या लाइसेंसधारी निजी मंडियों में होने वाले लेन-देन पर मंडी कमेटी टेक्स लगाती है। भारतीय खाद्य निगम (फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया-एफसीआई) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कृषि उपज की खरीददारी सरकारी मंडियों के परिसर में ही होती है।


कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2020 के अनुसार कृषि व्यापार की यह अनिवार्यता कि मंडी परिसर में ही उपज बेचना जरूरी है खतम कर दी गई। नए कानून के मुताबिक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों के बाहर अपनी कृषि उपज बेच सकता है। यह कानून कृषि उपज की खरीद-बिक्री के लिए नए व्यापार क्षेत्रों की बात करता है जैसे किसान का खेत, फैक्ट्री का परिसर, वेयर हॉउस का अहाता इत्यादी। इन व्यापार क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म की भी बात की जा रही है। इससे किसानों को यह सुविधा मिलेगी कि वे कृषि उपज को स्थानीय बाजार के अलावा राज्य के अंदर और बाहर दूसरे बाज़ारों में भी बेच सकते हैं। इसके अलावा, इन नए व्यापार क्षेत्रों में लेन-देन पर राज्य अधिकारी किसी भी तरह का टेक्स नहीं लगा पाएंगे। यह कानून सरकारी मंडियों को बंद नहीं करता बल्कि उनके एकाधिकार को समाप्त करता है, सरकार का दावा है कि इससे कृषि उपज का व्यापार बढ़ेगा।


इस नियम का विरोध इसलिए भी किया जाना जरूरी है क्योंकि यह कानून संविधान में निहित राज्य सरकारों के अधिकार की अवमानना करता है। सत्तर के दशक में कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) को राज्य सरकार की विधानसभाओं ने बनाया था और अब इस नए कानून से कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) निरस्त हो गए हैं और केंद्र सरकार ने इन्हें निरस्त करते समय राज्य सरकार से बात करना भी जरूरी नहीं समझा। केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना उन्हें कैसे खत्म कर सकती है? 2003 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी तो यह निर्णय लिया गया था कि निजी कंपनियों को मंडी परिसर के बाहर कृषि उपज खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए। लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, केंद्र सरकार ने केवल एक मॉडल अधिनियम तैयार किया और उसके मुताबिक राज्य सरकारों को मंडी अधिनियम में संशोधन करने की सलाह दी। इसके विपरीत मोदी सरकार की एनडीए गवर्मेंट ने हर क्षेत्र में, हर मामले में संवैधानिक उल्लंघन करने का रिकॉर्ड बनाया है।


राज्य सरकारों के अधिकारों के हनन से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि किसान खुद इस कानून को किसान विरोधी और कॉरर्पोरेट समर्थक मानते हैं। वे जानते और मानते हैं कि इन सुधारों से उन्हें अपनी उपज के लिए उच्च मूल्य प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा। इसके बजाय इन सुधारों से कॉरपोरेट्स को कृषि उपज की सीधी खरीद की सुविधा होगी, जिस पर किसी हद तक कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) होने की वजह से राज्य सरकार का कुछ तो नियंत्रण था। कॉरपोरेट घरानों और बड़े व्यापारियों को खरीद-फरोख्त की खुली छूट मिल जाने से वे उन जगहों से ही किसानों की उपज खरीदेंगे जहाँ लेन-देन के लिए कोई शुल्क या टैक्स नहीं लिया जाएगा। शुरुआत में कंपनियों द्वारा किसानों को लुभाने के लिए कुछ आकर्षक मूल्य के प्रस्ताव दिए जाएंगे लेकिन बाद में फसल के दामों पर पूरा नियंत्रण कंपनियों और व्यापारियों का हो जायेगा। इस नए कानून का यह दुष्परिणाम होगा कि सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों में लेन-देन कमतर होने से व्यापार कम होने लगेगा और अंततः धीरे-धीरे सरकारी मंडियों का विघटन होता जाएगा और साथ ही साथ एफसीआई द्वारा खरीद भी खत्म हो जाएगी। जिसका परिणाम यह होगा कि कृषि मंडियों पर सरकारी एकाधिकार के बजाय कॉरर्पोरेट का एकाधिकार होगा और किसान निजी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दया पर निर्भर हो जाएंगे। कृषि उपज के अंतरराष्ट्रीय बाजारों में आते उतार-चढ़ाव और अनुचित व्यापार के परिणामों से देश के किसानों को बचने के लिए कोई बफर जोन नहीं होगी।


हालाँकि मोदी सरकार बार-बार आश्वासन दे रही है कि एफसीआई द्वारा कृषि उपज की खरीद जारी रहेगी और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। किसानों को इस आश्वासन पर जरा भी भरोसा नहीं है, इस सरकार का रिकार्ड है कि पहले भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में कई वादे किए गए थे जिन्हें कभी पूरा नहीं किया गया। 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में, भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि वह स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को लागू करेगी। इस घोषणा पत्र में किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने का वादा किया गया था। स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार उत्पादन के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में उत्पादन की सारी लागतों को शामिल किया जाये जैसे कि श्रम की लागत, जमीन की परोक्ष-अपरोक्ष लागत, मशीन की लागत इत्यादि। फिर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते वक्त इस कुल लागत पर पचास प्रतिशत कि बढ़ोतरी की जाये।


लेकिन जब चुनाव जीत लिया और सरकार बन गई तब 2015 में मोदी सरकार ने सर्वोच्च अदालत में एक हलफनामा दायर किया। इस हलफनामे में सरकार द्वारा कहा गया कि किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दी ही नहीं जा सकती क्योंकि इससे पूरे बाजार में विकृति आ जाएगी। इसके बाद, कृषि मंत्री ने कहा कि उन्होंने आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने के लिए कभी कोई वादा नहीं किया था। 2018-19 में, वित्त मंत्री ने एक बयान दिया कि वो स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के सुझावों को पहले ही लागू कर चुके हैं। संक्षेप में, सरकार ने इस संबंध में सभी प्रकार के गैरजिम्मेदाराना बयान दिए हैं और यह अंतिम कदम वास्तव में किसानों को किसी भी प्रकार के समर्थन मूल्य देने की जिम्मेदारी से बचने की कोशिश है। आखिरकार, इस तरह से सरकार द्वारा अपने आप को हर तरह की जिम्मेदारी से मुक्त कर लेना शायद प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए नारे "आत्म निर्भर" का अनुसरण है।


 


3. कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 2020


इस अधिनियम का उद्देश्य अनुबंध या ठेका खेती के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्थागत ढांचा तैयार करना है। ठेका या अनुबंध खेती में वास्तविक उत्पादन होने से पहले किसान और खरीददार के बीच उपज की गुणवत्ता, उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य के सम्बंध में अनुबंध किया जाता है। बाद में यदि किसान और खरीददार के बीच में कोई विवाद हो तो इस कानून में विवाद सुलझाने के प्रावधान शामिल हैं। सबसे पहले तो एक समाधान बोर्ड बनाया जाये जो कि विवाद को सुलझाने का पहला प्रयास हो। यदि समाधान बोर्ड विवाद न सुलझा सके तो आगे इस विवाद को सबडिविजनल अधिकारी और अंत में अपील के लिए कलेक्टर के सामने ले जाया जा सकता है लेकिन विवाद को लेकर अदालत में जाने का प्रावधान नहीं है। विधेयक विवाद सुलझाने की बात तो करता है लेकिन इसमें खरीद के अनुबंधित मूल्य किस आधार पर तय होंगे इसका कोई संकेत नहीं है। एक बड़ी कम्पनी तरह-तरह के दबाव बनाकर छोटे किसान से कम से कम मूल्य पर अनुबंध कर सकती है। और चूँकि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार नहीं बनाते हुए आस-पास की सरकारी या निजी मंडियों के समतुल्य मूल्य देने की बात की है, इसलिए जरूरी नहीं कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो। कानून की भाषा की पेचीदगियों से किसान को गफलत में डालकर कंपनियां अपने मुनाफे को सुनिश्चित करने वाला मूल्य अनुबंध में शामिल करवाएंगी। 


नवउदारवादी नीतियों के चलते पंजाब और हरियाणा में कई किसानों ने पेप्सीको और अन्य बड़ी कम्पनियों के साथ अनुबंध या ठेका खेती की है। ठेका खेती करने के बाद अनेक किसानों के अनुभव कड़वे रहे हैं। किसान बहुत सावधानीपूर्वक ठेका खेती के अनुबंधों के अनुसार काम करता है और कंपनियां खेत में खड़ी उपज को लेने से इंकार कर देती हैं। अनेक बार कम्पनियों द्वारा किसानों को समय पर भुगतान नहीं किया जाता है। अनुबंध होने के बावजूद किसान कंपनियों से लड़ने में सक्षम नहीं होता है क्योंकि अधिकांश किसानों के संसाधन कंपनियों कि तुलना में बहुत कम होते हैं। यदि विवाद हो तो उसे इस कानून के तहत सुलझाने की प्रक्रिया तो बताई गई है लेकिन इससे इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसान को न्याय मिलेगा ही। कंपनियों के पास वकीलों कि पूरी फौज होती है जबकि किसान कोर्ट-कचहरी के घुमावदार, पेचीदा चक्करों में बहुत लम्बे समय तक उलझा नहीं रह सकता। ठेका खेती को एक संस्थागत वैधानिक रूप देने से केवल वही किसान नहीं प्रभावित होंगे जो कॉन्ट्रेक्ट खेती कर रहे हैं, बल्कि ठेका खेती समूचे खेती के परिदृश्य को बदल देगी।


हाल में गुजरात में पेप्सीको कम्पनी ने कुछ ऐसे आलू उत्पादक किसानों से मुआवज़े कि मांग की जिन्होंने पेप्सीको के साथ खेती का कोई अनुबंध नहीं किया था। पेप्सीको का इन किसानों पर यह आरोप था कि बिना अनुबंध किये यह किसान आलू की वही किस्म उगा रहे थे जो पेप्सीको कम्पनी अनुबंध करके किसानों से उगवाती है और जिससे ले'ज़ ब्रांड के चिप्स बनते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि किसी खास उत्पाद के लिए अगर कंपनियां किसानों के साथ ठेका खेती का अनुबंध करती हैं तो वे उस फसल के बीज पर भी अपना कॉपीराइट का अधिकार जताती हैं जो बीज उन्होंने किसान को दिया होता है। यानि जो किसान कंपनियों के साथ खेती का अनुबंध नहीं करेंगे वे कम्पनी के बीज की किस्म को उगा भी नहीं सकेंगे।


इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि भारत की खेती के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश और निर्यात बाज़ारों पर अधिक निर्भरता देश की खेती में फसलों के चयन को बदल देगी। इससे हमारी खेती की पूरी व्यवस्था को बुरी तरह क्षति पहुंचेगी। जिस तरह गुलामी के दौर में हमारे किसान अपनी ज़मीन पर वह फसल उगाने के लिए स्वतंत्र नहीं थे जो वे उगाना चाहते थे या जो उनकी जरूरत थी, बल्कि उन्हें अंग्रेजों के डर से वह उगाना होता था जिसमें अंग्रेजों को फायदा था और जो अंग्रेजों की जरूरत थी। सन 1917 में चम्पारण में गांधीजी ने अंग्रेजों द्वारा करवाई जा रही नील की जबरिया खेती के खिलाफ अपना पहला सत्याग्रह किया था। तब में और अब में फर्क इतना ही है कि अब यही काम डंडे, बूटों और हंटर के बजाए ऊंची कीमत के लालच और मुनाफे की राजनीति के द्वारा किया जा रहा है और हमारे किसान फिर से अपनी जरूरत की फसल चुनने के अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं।


साम्राज्यवादी देशों का कृषि व्यापार में यह रवैया अनेक दशकों से रहा है। उष्णकटिबंधीय देशों यानि गर्म जलवायु वाले देशों में विभिन्न प्रकार के फलों, सब्जियों, फूल, मसाले और ऐसे अनेक कृषि उत्पाद उगाये जा सकते हैं जो यूरोप और अमेरिका के ठंडी और मध्यम या समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में नहीं उगाए जा सकते हैं। साम्राज्यवादी व्यवस्था यह चाहती है कि उष्णकटिबंधीय देश अपनी खेती में उन कृषि उत्पादों की पैदावार करें जिनकी जरूरत विदेशों में है और इसके बदले में वे विकसित देशों में भारी मात्रा में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न का आयात कर लें। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और आयात-निर्यात बाजार किसानों को खाद्यान्न उत्पादन को छोड़ देने और अपनी खेती को विकसित देशों के मुताबिक ढालने के लिए बहुत से लुभावने और आकर्षक प्रस्ताव दे सकते हैं। अफ्रीका में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी देशों ने ऐसा ही किया है और वहाँ की बड़ी आबादी की खाद्य सुरक्षा गंभीर खतरे में पड़ गई है। मौजूदा बदलावों को देखते हुए लगता है कि भारत भी अफ्रीका के रास्ते पर ही आगे बढ़ेगा और ऐसा करने में भारतीय राज्य का सक्रिय समर्थन है।


 


उम्मीद जगाते संघर्ष


यह कानून उन बड़े बदलावों का एक हिस्सा हैं जो भारत की अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवादी देशों की गुलाम अर्थव्यवस्था बनाने के लिए किये जा रहे हैं। हम नवउदारवाद के दौर में अपनी ही चुनी गई सरकारों द्वारा अपने ही देश के सार्वजानिक उद्यमों को निजी हाथों में औने-पौने दामों पर निजी कंपनियों को बेचा जाता देख रहे हैं। हाल ही में अनेक नए श्रम कानूनों को चार कोड के भीतर समेटकर उन्हें इस तरह बदल दिया गया है कि मालिकों को मजदूरों और कर्मचारियों के शोषण की और ज्यादा कानूनी आज़ादी हासिल हो जाये। यह तीन कृषि कानून भी उन व्यापक बदलावों का ही एक हिस्सा हैं जहाँ जनता द्वारा चुनी गई सरकार देशी-विदेशी महाकाय कंपनियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए अपने मजदूरों और किसानों की मेहनत को, उनकी आजीविका को और उनके जीवन को गिरवी रख रही है। किसानों का पिछले कई दिनों से दिल्ली घेराव का आंदोलन इन नीतियों के प्रतिरोध की एक पुरजोर कोशिश है और आने वाले वक्त में प्रतिरोध की ऐसी बहुत सी जोरदार कोशिशें उभरेंगी और शोषितों के अलग-अलग तबकों का सामूहिक प्रतिरोध एक दिन शोषण की व्यवस्था को खत्म कर एक नई व्यवस्था कायम करेगा।


जया मेहता

अर्थशास्त्री, इंदौर, मध्यप्रदेश

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मौजूदा किसान संघर्ष की पृष्ठभूमि


देशभर में लॉकडाउन घोषित करने के डेढ़ महीने बाद प्रधानमंत्री महोदय को यह ख्याल आया कि कोरोना वायरस की महामारी से निपटने में जनता की कुछ मदद भी करना चाहिए और 12 मई 2020 को उन्होंने बीस लाख करोड़ रुपए के एक राहत पैकेज कि घोषणा की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, "ये पैकेज देश के मजदूरों और किसानों के लिए है जिन्होंने हर हालत में, हर मौसम में और चौबीसों घंटे अपने देशवासियों के लिए काम किया"। बाद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अगले पांच दिन तक इस पैकेज में शामिल प्रावधानों की विस्तार से व्याख्या की। उन्होंने कहा कि खेती के क्षेत्र के लिए इस पैकेज में ग्यारह कदम उठाये गए हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर का कोष स्थापित किया गया है, जानवरों के लिए टीकाकरण, खाने-पीने की चीजों के छोटे उद्यम आदि के लिए इस पैकेज में प्रावधान किये गए हैं। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा उन्होंने की खेती के बाजार कि संरचना में किये जाने वाले तीन सुधारों के बारे में। इसमें एक सुधार आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 से संबंधित है, दूसरा विभिन्न राज्यों के कृषि उत्पाद मार्केटिंग कमेटी कानूनों को ख़तम करने के बारे में और तीसरा ठेका खेती को संस्थागत रूप देने के बारे में है। ये तीनों सुधार मौजूदा कृषि उत्पादों के बाजार की संरचना पर से सरकार का नियंत्रण हटाने के मकसद से किये गए हैं। जब कोविड और लॉकडाउन की वजह से खेती में पहले से चले आ रहे संकट में और भी इज़ाफ़ा हो गया, और जब वंचितों और हाशिये पर मौजूद परिवारों को राज्य की सहायता की जरूरत थी ताकि निर्दयी और निरंकुश बाजार की अनिश्चितताओं और क्रूरताओं से राज्य उनकी रक्षा करे तब मोदी सरकार ने बाजार को और अधिक खोलकर और अपना नियंत्रण हटाकर समाज के कमजोर तबकों को बाजार के सामने पूरी तरह असहाय छोड़ दिया। वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देश की जनता को आत्मनिर्भर बनाने का एजेंडा यही था।


जब संसद का मानसून सत्र 14 सितंबर 2020 को शुरू हुआ तब ये तीनों विधेयक राज्यसभा एवं लोकसभा में रखे गए। लोकसभा में यह विधेयक पास हो गए लेकिन 17 सितंबर को शिरोमणि अकाली दल की सांसद और खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इन विधेयकों के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया। 20 सितंबर को ये विधेयक राज्यसभा में रखे गए जहाँ समूचे विपक्ष ने इन विधेयकों की बारीक पड़ताल के लिए एक समिति बनाने कि मांग की। विपक्षी सदस्यों ने यह भी मांग की कि इन विधेयकों को अमान्य करने के उनके प्रस्तावों पर राज्यसभा में मतदान करवाया जाये। राज्यसभा के उपसभापति ने उनकी मांग अस्वीकार कर दी और सदन में घमासान मच गया। सभी नियमों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर वैसी ही अफरा-तफरी में इन विधेयकों को आनन्-फानन पारित कर दिया। तीसरा कानून, "आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन 1955" 22 सितंबर 2020 को पारित किया और 27 सितंबर को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ये तीनों विधेयक कानून बन गए।


 


संसद में पारित कृषि विधेयक


1. आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020


आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में भारत में लागू किया गया था। तब इस नियम को लागू करने का उद्देश्य उपभोक्ताओं को आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता उचित दाम पर सुनिश्चित करवाना था। अतः इस कानून के अनुसार आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, मूल्य और वितरण सरकार के नियंत्रण में होगा जिससे उपभोक्ताओं को बेईमान व्यापारियों से बचाया जा सके। आवश्यक वस्तुओं की सूची में खाद्य पदार्थ, उर्वरक, औषधियां, पेट्रोलियम, जूट आदि शामिल थे।


23 सितम्बर 2020 को पारित अधिनियम में संशोधन के बाद बने इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया गया है। इस प्रकार, इन वस्तुओं पर जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी को सीमित करने और इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने जैसे प्रतिबंध हटा दिए गए हैं। अब इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं होगा। हालाँकि इस अधिनियम में प्रावधान है कि युद्ध, अकाल या असाधारण मूल्य वृद्धि जैसी आकस्मिक स्थितियों में प्रतिबंधों को फिर से लागू किया जा सकता है लेकिन जिस समय इस प्रतिबंध को हटाया गया है, क्या यह आपातकालीन समय नहीं है? आज कोविड-19 के दौर में करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए हैं। यह ऐसा समय है जब लोग अपनी मौलिक जरूरतों को पूरा करने लायक भी नहीं कमा पा रहे। इस अभूतपूर्व कठिनाई के दौर में लोकतान्त्रिक राज्य की जिम्मेदारी है कि वह लोगों को उनकी बुनियादी जरूरतों का सामान सस्ती कीमत पर उपलब्ध करवाए। जीने के लिए बुनियादी जरूरतों में खाद्य सामग्री सबसे पहले क्रम पर आती है, लेकिन कानून में इस तरह का बदलाव करके जरूरतमंदों को खाद्य सामग्री उपलब्ध करवाने के बजाए अधिक मूल्य पर उपज बेचने जैसी बेहतर संभावनाओं एवं भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटाना बेहद शर्मनाक सोच है। इस कानून से जमाखोरों को वैधता मिल जाती है।


इस संशोधन को उचित ठहराते हुए सरकार तर्क देती है कि किसान अपनी कृषि उपज को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बेचकर बेहतर दाम प्राप्त कर सकेंगे। इससे किसानों को व्यापार एवं सौदेबाजी के लिए बड़ा बाजार मुहैया होगा और उनकी व्यापारिक शक्ति बढ़ेगी। इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के भंडारण की मात्रा पर प्रतिबंध हटा देने से भंडारण क्षेत्र (वेयर हाऊसिंग) की क्षमता बढ़ाई जा सकती है और इसमें निजी निवेशकों को भी आमंत्रित किया जा सकेगा।


देश में किसान परिवारों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत को देखते हुए ऐसे किसान गिने-चुने ही हैं जो अपना कृषि उत्पाद मुनाफे की तलाश में दूर-दराज के इलाकों तक भेज पाते हों या जिनके पास इतने बड़े गोदाम हों जहाँ वो अपनी फसल का लम्बे समय तक भंडारण कर सकें। ज़ाहिर है इस संशोधन वाले कानून से केवल बड़े व्यापारियों और कंपनियों को ही फायदा होगा। जो खाद्य पदार्थों के बाजारों में गहराई तक पैठ रखते हैं और ये अपने मुनाफे के लिए खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और परिवहन करके संसाधनविहीन बहुत सारे गरीब किसानों का नुकसान ही करेंगे।


 


2. कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य  (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020


1970 के दशक में, राज्य सरकारों ने किसानों के शोषण को रोकने और उनकी उपज का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के लिए 'कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था। इस अधिनियम के तहत यह तय किया कि किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जाएगी। मंडी कमेटी खरीददारों, कमीशन एजेंटों और निजी व्यापारियों को लाइसेंस प्रदान कर व्यापार को नियंत्रित करती है। मंडी परिसर में कृषि उत्पादों के व्यापार की सुविधा प्रदान की जाती है; जैसे उपज की ग्रेडिंग, मापतौल और नीलामी बोली इत्यादि। सरकारी मंडियों या लाइसेंसधारी निजी मंडियों में होने वाले लेन-देन पर मंडी कमेटी टेक्स लगाती है। भारतीय खाद्य निगम (फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया-एफसीआई) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कृषि उपज की खरीददारी सरकारी मंडियों के परिसर में ही होती है।


कृषि उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम 2020 के अनुसार कृषि व्यापार की यह अनिवार्यता कि मंडी परिसर में ही उपज बेचना जरूरी है खतम कर दी गई। नए कानून के मुताबिक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों के बाहर अपनी कृषि उपज बेच सकता है। यह कानून कृषि उपज की खरीद-बिक्री के लिए नए व्यापार क्षेत्रों की बात करता है जैसे किसान का खेत, फैक्ट्री का परिसर, वेयर हॉउस का अहाता इत्यादी। इन व्यापार क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म की भी बात की जा रही है। इससे किसानों को यह सुविधा मिलेगी कि वे कृषि उपज को स्थानीय बाजार के अलावा राज्य के अंदर और बाहर दूसरे बाज़ारों में भी बेच सकते हैं। इसके अलावा, इन नए व्यापार क्षेत्रों में लेन-देन पर राज्य अधिकारी किसी भी तरह का टेक्स नहीं लगा पाएंगे। यह कानून सरकारी मंडियों को बंद नहीं करता बल्कि उनके एकाधिकार को समाप्त करता है, सरकार का दावा है कि इससे कृषि उपज का व्यापार बढ़ेगा।


इस नियम का विरोध इसलिए भी किया जाना जरूरी है क्योंकि यह कानून संविधान में निहित राज्य सरकारों के अधिकार की अवमानना करता है। सत्तर के दशक में कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) को राज्य सरकार की विधानसभाओं ने बनाया था और अब इस नए कानून से कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) निरस्त हो गए हैं और केंद्र सरकार ने इन्हें निरस्त करते समय राज्य सरकार से बात करना भी जरूरी नहीं समझा। केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सलाह लिए बिना उन्हें कैसे खत्म कर सकती है? 2003 में जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार थी तो यह निर्णय लिया गया था कि निजी कंपनियों को मंडी परिसर के बाहर कृषि उपज खरीदने की अनुमति दी जानी चाहिए। लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, केंद्र सरकार ने केवल एक मॉडल अधिनियम तैयार किया और उसके मुताबिक राज्य सरकारों को मंडी अधिनियम में संशोधन करने की सलाह दी। इसके विपरीत मोदी सरकार की एनडीए गवर्मेंट ने हर क्षेत्र में, हर मामले में संवैधानिक उल्लंघन करने का रिकॉर्ड बनाया है।


राज्य सरकारों के अधिकारों के हनन से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि किसान खुद इस कानून को किसान विरोधी और कॉरर्पोरेट समर्थक मानते हैं। वे जानते और मानते हैं कि इन सुधारों से उन्हें अपनी उपज के लिए उच्च मूल्य प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा। इसके बजाय इन सुधारों से कॉरपोरेट्स को कृषि उपज की सीधी खरीद की सुविधा होगी, जिस पर किसी हद तक कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी एक्ट) होने की वजह से राज्य सरकार का कुछ तो नियंत्रण था। कॉरपोरेट घरानों और बड़े व्यापारियों को खरीद-फरोख्त की खुली छूट मिल जाने से वे उन जगहों से ही किसानों की उपज खरीदेंगे जहाँ लेन-देन के लिए कोई शुल्क या टैक्स नहीं लिया जाएगा। शुरुआत में कंपनियों द्वारा किसानों को लुभाने के लिए कुछ आकर्षक मूल्य के प्रस्ताव दिए जाएंगे लेकिन बाद में फसल के दामों पर पूरा नियंत्रण कंपनियों और व्यापारियों का हो जायेगा। इस नए कानून का यह दुष्परिणाम होगा कि सरकार द्वारा अधिसूचित मंडियों में लेन-देन कमतर होने से व्यापार कम होने लगेगा और अंततः धीरे-धीरे सरकारी मंडियों का विघटन होता जाएगा और साथ ही साथ एफसीआई द्वारा खरीद भी खत्म हो जाएगी। जिसका परिणाम यह होगा कि कृषि मंडियों पर सरकारी एकाधिकार के बजाय कॉरर्पोरेट का एकाधिकार होगा और किसान निजी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दया पर निर्भर हो जाएंगे। कृषि उपज के अंतरराष्ट्रीय बाजारों में आते उतार-चढ़ाव और अनुचित व्यापार के परिणामों से देश के किसानों को बचने के लिए कोई बफर जोन नहीं होगी।


हालाँकि मोदी सरकार बार-बार आश्वासन दे रही है कि एफसीआई द्वारा कृषि उपज की खरीद जारी रहेगी और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। किसानों को इस आश्वासन पर जरा भी भरोसा नहीं है, इस सरकार का रिकार्ड है कि पहले भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में कई वादे किए गए थे जिन्हें कभी पूरा नहीं किया गया। 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में, भारतीय जनता पार्टी ने वादा किया था कि वह स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों को लागू करेगी। इस घोषणा पत्र में किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने का वादा किया गया था। स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार उत्पादन के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में उत्पादन की सारी लागतों को शामिल किया जाये जैसे कि श्रम की लागत, जमीन की परोक्ष-अपरोक्ष लागत, मशीन की लागत इत्यादि। फिर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते वक्त इस कुल लागत पर पचास प्रतिशत कि बढ़ोतरी की जाये।


लेकिन जब चुनाव जीत लिया और सरकार बन गई तब 2015 में मोदी सरकार ने सर्वोच्च अदालत में एक हलफनामा दायर किया। इस हलफनामे में सरकार द्वारा कहा गया कि किसानों को आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दी ही नहीं जा सकती क्योंकि इससे पूरे बाजार में विकृति आ जाएगी। इसके बाद, कृषि मंत्री ने कहा कि उन्होंने आयोग द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने के लिए कभी कोई वादा नहीं किया था। 2018-19 में, वित्त मंत्री ने एक बयान दिया कि वो स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के सुझावों को पहले ही लागू कर चुके हैं। संक्षेप में, सरकार ने इस संबंध में सभी प्रकार के गैरजिम्मेदाराना बयान दिए हैं और यह अंतिम कदम वास्तव में किसानों को किसी भी प्रकार के समर्थन मूल्य देने की जिम्मेदारी से बचने की कोशिश है। आखिरकार, इस तरह से सरकार द्वारा अपने आप को हर तरह की जिम्मेदारी से मुक्त कर लेना शायद प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए नारे "आत्म निर्भर" का अनुसरण है।


 


3. कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 2020


इस अधिनियम का उद्देश्य अनुबंध या ठेका खेती के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संस्थागत ढांचा तैयार करना है। ठेका या अनुबंध खेती में वास्तविक उत्पादन होने से पहले किसान और खरीददार के बीच उपज की गुणवत्ता, उत्पादन की मात्रा एवं मूल्य के सम्बंध में अनुबंध किया जाता है। बाद में यदि किसान और खरीददार के बीच में कोई विवाद हो तो इस कानून में विवाद सुलझाने के प्रावधान शामिल हैं। सबसे पहले तो एक समाधान बोर्ड बनाया जाये जो कि विवाद को सुलझाने का पहला प्रयास हो। यदि समाधान बोर्ड विवाद न सुलझा सके तो आगे इस विवाद को सबडिविजनल अधिकारी और अंत में अपील के लिए कलेक्टर के सामने ले जाया जा सकता है लेकिन विवाद को लेकर अदालत में जाने का प्रावधान नहीं है। विधेयक विवाद सुलझाने की बात तो करता है लेकिन इसमें खरीद के अनुबंधित मूल्य किस आधार पर तय होंगे इसका कोई संकेत नहीं है। एक बड़ी कम्पनी तरह-तरह के दबाव बनाकर छोटे किसान से कम से कम मूल्य पर अनुबंध कर सकती है। और चूँकि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य को आधार नहीं बनाते हुए आस-पास की सरकारी या निजी मंडियों के समतुल्य मूल्य देने की बात की है, इसलिए जरूरी नहीं कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य हासिल हो। कानून की भाषा की पेचीदगियों से किसान को गफलत में डालकर कंपनियां अपने मुनाफे को सुनिश्चित करने वाला मूल्य अनुबंध में शामिल करवाएंगी। 


नवउदारवादी नीतियों के चलते पंजाब और हरियाणा में कई किसानों ने पेप्सीको और अन्य बड़ी कम्पनियों के साथ अनुबंध या ठेका खेती की है। ठेका खेती करने के बाद अनेक किसानों के अनुभव कड़वे रहे हैं। किसान बहुत सावधानीपूर्वक ठेका खेती के अनुबंधों के अनुसार काम करता है और कंपनियां खेत में खड़ी उपज को लेने से इंकार कर देती हैं। अनेक बार कम्पनियों द्वारा किसानों को समय पर भुगतान नहीं किया जाता है। अनुबंध होने के बावजूद किसान कंपनियों से लड़ने में सक्षम नहीं होता है क्योंकि अधिकांश किसानों के संसाधन कंपनियों कि तुलना में बहुत कम होते हैं। यदि विवाद हो तो उसे इस कानून के तहत सुलझाने की प्रक्रिया तो बताई गई है लेकिन इससे इस बात की कोई गारंटी नहीं कि किसान को न्याय मिलेगा ही। कंपनियों के पास वकीलों कि पूरी फौज होती है जबकि किसान कोर्ट-कचहरी के घुमावदार, पेचीदा चक्करों में बहुत लम्बे समय तक उलझा नहीं रह सकता। ठेका खेती को एक संस्थागत वैधानिक रूप देने से केवल वही किसान नहीं प्रभावित होंगे जो कॉन्ट्रेक्ट खेती कर रहे हैं, बल्कि ठेका खेती समूचे खेती के परिदृश्य को बदल देगी।


हाल में गुजरात में पेप्सीको कम्पनी ने कुछ ऐसे आलू उत्पादक किसानों से मुआवज़े कि मांग की जिन्होंने पेप्सीको के साथ खेती का कोई अनुबंध नहीं किया था। पेप्सीको का इन किसानों पर यह आरोप था कि बिना अनुबंध किये यह किसान आलू की वही किस्म उगा रहे थे जो पेप्सीको कम्पनी अनुबंध करके किसानों से उगवाती है और जिससे ले'ज़ ब्रांड के चिप्स बनते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि किसी खास उत्पाद के लिए अगर कंपनियां किसानों के साथ ठेका खेती का अनुबंध करती हैं तो वे उस फसल के बीज पर भी अपना कॉपीराइट का अधिकार जताती हैं जो बीज उन्होंने किसान को दिया होता है। यानि जो किसान कंपनियों के साथ खेती का अनुबंध नहीं करेंगे वे कम्पनी के बीज की किस्म को उगा भी नहीं सकेंगे।


इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि भारत की खेती के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश और निर्यात बाज़ारों पर अधिक निर्भरता देश की खेती में फसलों के चयन को बदल देगी। इससे हमारी खेती की पूरी व्यवस्था को बुरी तरह क्षति पहुंचेगी। जिस तरह गुलामी के दौर में हमारे किसान अपनी ज़मीन पर वह फसल उगाने के लिए स्वतंत्र नहीं थे जो वे उगाना चाहते थे या जो उनकी जरूरत थी, बल्कि उन्हें अंग्रेजों के डर से वह उगाना होता था जिसमें अंग्रेजों को फायदा था और जो अंग्रेजों की जरूरत थी। सन 1917 में चम्पारण में गांधीजी ने अंग्रेजों द्वारा करवाई जा रही नील की जबरिया खेती के खिलाफ अपना पहला सत्याग्रह किया था। तब में और अब में फर्क इतना ही है कि अब यही काम डंडे, बूटों और हंटर के बजाए ऊंची कीमत के लालच और मुनाफे की राजनीति के द्वारा किया जा रहा है और हमारे किसान फिर से अपनी जरूरत की फसल चुनने के अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं।


साम्राज्यवादी देशों का कृषि व्यापार में यह रवैया अनेक दशकों से रहा है। उष्णकटिबंधीय देशों यानि गर्म जलवायु वाले देशों में विभिन्न प्रकार के फलों, सब्जियों, फूल, मसाले और ऐसे अनेक कृषि उत्पाद उगाये जा सकते हैं जो यूरोप और अमेरिका के ठंडी और मध्यम या समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में नहीं उगाए जा सकते हैं। साम्राज्यवादी व्यवस्था यह चाहती है कि उष्णकटिबंधीय देश अपनी खेती में उन कृषि उत्पादों की पैदावार करें जिनकी जरूरत विदेशों में है और इसके बदले में वे विकसित देशों में भारी मात्रा में उत्पादित होने वाले खाद्यान्न का आयात कर लें। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और आयात-निर्यात बाजार किसानों को खाद्यान्न उत्पादन को छोड़ देने और अपनी खेती को विकसित देशों के मुताबिक ढालने के लिए बहुत से लुभावने और आकर्षक प्रस्ताव दे सकते हैं। अफ्रीका में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी देशों ने ऐसा ही किया है और वहाँ की बड़ी आबादी की खाद्य सुरक्षा गंभीर खतरे में पड़ गई है। मौजूदा बदलावों को देखते हुए लगता है कि भारत भी अफ्रीका के रास्ते पर ही आगे बढ़ेगा और ऐसा करने में भारतीय राज्य का सक्रिय समर्थन है।


 


उम्मीद जगाते संघर्ष


यह कानून उन बड़े बदलावों का एक हिस्सा हैं जो भारत की अर्थव्यवस्था को साम्राज्यवादी देशों की गुलाम अर्थव्यवस्था बनाने के लिए किये जा रहे हैं। हम नवउदारवाद के दौर में अपनी ही चुनी गई सरकारों द्वारा अपने ही देश के सार्वजानिक उद्यमों को निजी हाथों में औने-पौने दामों पर निजी कंपनियों को बेचा जाता देख रहे हैं। हाल ही में अनेक नए श्रम कानूनों को चार कोड के भीतर समेटकर उन्हें इस तरह बदल दिया गया है कि मालिकों को मजदूरों और कर्मचारियों के शोषण की और ज्यादा कानूनी आज़ादी हासिल हो जाये। यह तीन कृषि कानून भी उन व्यापक बदलावों का ही एक हिस्सा हैं जहाँ जनता द्वारा चुनी गई सरकार देशी-विदेशी महाकाय कंपनियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए अपने मजदूरों और किसानों की मेहनत को, उनकी आजीविका को और उनके जीवन को गिरवी रख रही है। किसानों का पिछले कई दिनों से दिल्ली घेराव का आंदोलन इन नीतियों के प्रतिरोध की एक पुरजोर कोशिश है और आने वाले वक्त में प्रतिरोध की ऐसी बहुत सी जोरदार कोशिशें उभरेंगी और शोषितों के अलग-अलग तबकों का सामूहिक प्रतिरोध एक दिन शोषण की व्यवस्था को खत्म कर एक नई व्यवस्था कायम करेगा।


(कथित तौर पर यह लेख जया मेहता जी का है

जो अर्थशास्त्री, इंदौर, मध्यप्रदेश की बताई जाती हैं किंतु महत्वपूर्ण यह नहीं है कि यह ले किसका है महत्वपूर्ण यह है यह एक विचार है और विचारणीय है)



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