बुधवार, 30 दिसंबर 2020

अलविदा 2020...., वर्ष 2021, सतत-संघर्ष की पत्रकारिता में..( त्रिलोकीनाथ)

 

 अलविदा 2020...., 


वर्ष 2021, सतत-संघर्ष की पत्रकारिता में..

पारिवारिक सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता बने

(त्रिलोकीनाथ)

पत्रकारिता की सुचिता, सुरक्षा और संरक्षण को चुनौती देने वाला वर्ष भी साबित हुआ 2020... और यही नया इंडिया कि कल्पना भी है। कोरोना के महाभ्रम जाल में भारत के विकासशील लोकतंत्र में शेष-अवशेष पत्रकारिता की भ्रूण हत्या का प्रयास किया गया। 2020 का वर्ष एक बड़ा प्रयोगशाला बन गया। भारत में वैसे भी देश की आजादी के बाद पत्रकारिता का कोई अपना इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं रहा, परिणाम स्वरूप पत्रकारों के नियंत्रण कर्ता विधायिका और कार्यपालिका को नियंत्रित करने वाले अफसर और कर्मचारी हुआ करते हैं। जो राजनेताओं के निर्देश पर पत्रकारों को उपकृत करने का काम करते थे । एक प्रकार का परजीवी  बना दिया गया  जबकि हमारे प्रधानमंत्री  आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं ।ऐसे अफसरों को प्रेस अटैची भी संबोधित किया गया है। किंतु नेताओं और अटैची के इस अटैचमेंट से भारतीय पत्रकार समाज का बहुत अहित हुआ है।


 शहडोल जैसे आदिवासी विशेष क्षेत्रों में जो राजधानी क्षेत्रों में सीधे दखल नहीं रखते थे उन्हें उस "गरीबी-रेखा" की सूची में भी शामिल नहीं किया गया जो पत्रकारों को अधिमान्यता या मान्यता की पहचान देती थी। हालांकि पत्रकार अधिमान्यता वास्तविक लाभ जिसे आर्थिक लाभ कहा जाता है चिन्हित तौर पर पत्रकारों के तथाकथित रिटायरमेंट 60 वर्ष की उम्र के बाद उन्हें सम्मान निधि या वृद्धावस्था पेंशन अथवा सरकारी भीख के रूप में दिए जाने का नियम नेता और अटैची ने बनाया था ।उसमें भी एक क्लाज़ जोड़ दी थी कि जब वह पत्रकार जिसे कथित तौर पर अधिमान्य किया गया है जिस वर्ष से अधिमान्य होगा उसके 10 वर्ष बाद यह सम्मान निधि की भीख उसे दी जाएगी ।बाद में सरकारों ने जो कथित तौर पर यह मानते हैं कि पत्रकारों की राजसत्ता में या लोकतंत्र में कोई जरूरत ही नहीं है। उनके स्थान पर मुखौटा पहने हुए पत्रकार-जमात जो उनके अपने गुलाम होते हैं ज्यादातर उनकी नियुक्तियां होने लगी कोई ऐसी नीति नहीं बनी कि तहसील में भी पत्रकारिता में सेवा है देने वाला व्यक्ति तत्काल इस अधिमान्य सूची में सूचीबद्ध हो भविष्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी और संरक्षण के लिए भी। और राज्य सत्ता तथा उसके अटैची उन्हें ही निष्पक्ष पत्रकारिता का विकल्प बनाकर प्रस्तुत कर दिया जो उनके लिए  दासता स्वीकार करते थे नतीजतन अधिमान्यता की जो सूची याने गरीबी रेखा की सूची बनाई गई। उसमें भी सत्ता और अटैची ने अपने गुलामों को रखना चालू कर दिया और वे उन्हें पत्रकार के रूप में बताने लगे जो पहले लोग विहित तो प्रक्रिया से आ गए उनकी बात अलग है।

 हाल में एनडीटीवी के भोपाल के पत्रकार अनुराग बारी की एक न्यूज़ बड़ी दिलचस्प रही, कहना चाहिए यह एक प्रकार की घोषणा थी कि विधानसभा में ट्रैक्टर के प्रवेश के प्रतिबंध पर न्यूज़ कवर करने के लिए जब अनुराग बारी गये तो उन्हें यह कहकर वहां खड़े दरबान /पुलिस अधिकारी ने अंदर जाने से मना कर दिया कि जिन पत्रकारों को अंदर प्रवेश करने की सूची बनाई गई है उसमें अनुराग बारी का नाम नहीं था। तो इससे यह साबित भी हो गया कि सत्ता और अटैची ने जब जिसे चाहा पत्रकार होने का ठप्पा लगा दिया ।जो परोक्ष रूप से गुलामी का ठप्पा ही माना जाना चाहिए ।

किंतु इसका जरा भी पत्रकारों में खलबली नहीं मची क्योंकि बहुत संख्यक पत्रकार समाज गुलामी की दास्तां को स्वीकार कर चुका है। तो जब हालात भोपाल राजधानी में इतने बदतर हों... तो, आदिवासी क्षेत्रों में पत्रकारिता के दमन और शोषण उसे पतित बनाए रखने के लिए यदि पत्रकार 10% अपना योगदान देते हैं तो 90% योगदान सत्ता-अटैची का होता है ।क्योंकि पत्रकारों को यह आशा रहती है कि शासन प्रशासन उसका सम्मान करेगी किंतु हालात अब वैसे नहीं रह गए हैं ।यही कारण है कि खासतौर से शहडोल संभाग के पत्रकारों की अधिमान्यता गरीबी-रेखा की सूची से भी बदतर है ।

 बहरहाल सूची की चर्चा प्राथमिकता नहीं है। प्राथमिकता, पत्रकारों की बदले हुए परिवेश में अजीबका की है उन्हें यह सम्मान दिलाने की भी है कि वे जो अपना पेसा निष्पक्ष तरीके से करना चाहते हैं वह लोकतंत्र के हित में एक आवश्यक चतुर्थ स्तंभ है। कोरोना कार्यकाल में कोरोनावायरस सेवा कार्यकर्ताओं के लिए जिन्हें चिन्हित किया गया उसमें पत्रकार भी नहीं है। पूरे भारतवर्ष में यह सत्ता और उसकी अटैची ने माना। किंतु जिन सर्वोच्च प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को चिन्हित किया या ने चिकित्सक और चिकित्सा सेवा से जुड़े हुए लोगों को, इतिहास गवाह है वर्ष 2020 में यह भी साबित हुआ कि उन्होंने भी हड़ताल करके यह प्रमाणित किया कि उन्हें चिन्हित किया जाए और सूचीबद्ध किया जाए जो स्वास्थ्य कार्यकर्ता इस महामारी में सेवा करते हुए मर गए ।शासन ने उन्हें भी सूचीबद्ध नहीं किया।

 तो वास्तव में लोकतंत्र में पत्रकारिता जिसका आजादी के बाद कोई इंफ्रास्ट्रक्चर ही नहीं है उन्हें कोविड-19 बीमारी में योगदान के लिए क्यों पहचाना जाएगा...? कुल मिलाकर पत्रकार जन्म ले, सरवाइव करें या मर जाएं... वर्तमान लोकतंत्र पद्धति को इससे बहुत सरोकार नहीं रह गया है...। किंतु देश की आजादी अंग्रेजों की दया में नहीं मिली है, और अंग्रेजों की दया में जीनेवाले लोगों की कृपा में भी नहीं मिली है.. पर आजादी की बात लोकतंत्र का जीवित रहना सतत संघर्ष की पहचान है।

 इसलिए आजादी का प्रमुख स्तंभ पत्रकारिता को स्वयं के लिए सुनिश्चित अजीबका का अनुसंधान करना चाहिए.... जो उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। और पत्रकारिता मे अपनी अजीबका कि आय का निवेश करना चाहिए ।यह पत्रकारिता धर्मन्यास का अब प्रमुख पहचान बन गया है। यदि पत्रकार 2021 की शुरुआत से अपनी अजीब का को सुनिश्चित करने की सर्वोच्च प्राथमिकता कर्तव्य को सत्ता और प्रेस अटैची के भरोसे रखकर आगे बढ़ेगा तो वह एक खतरनाक जोखिम ले रहा है... क्योंकि सत्ता और प्रेसअटैची भी पूरी तरह से निजी करण की ओर जा रही है और कोई भी निजी उद्योगपति पत्रकारों को और उनकी निष्पक्षता को कभी बर्दाश्त नहीं करेगा...।

 इसलिए 2021 की शुभकामनाओं के साथ आदिवासी क्षेत्रों के पत्रकारों को यह भी शुभकामनाएं सुनिश्चित करनी चाहिए कि वह अपने अजीबका की गारंटी की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ पत्रकारिता की स्वच्छता, सुचिता, निष्पक्षता और कर्तव्य परायणता को पूर्ण करें अन्यथा शानदार गुलाम बनकर शासन-प्रशासन की रंग महल में दासता को निर्वहन करें... बहुत शुभकामनाएं।


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