अनुबंध की खेती /धंधा, खतरनाक प्रयोग....
संविधान-सुरक्षा गारंटी के बाद क्यों लुट रहे हैं आदिवासी
क्षेत्र....?
जान जोखिम में डाल जब गांव-समाज की भीड़ शहर में उतरी...
(त्रिलोकीनाथ)
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास न करने का कोई कारण समझ में नहीं आता है वे चुनी सरकार के लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं। बावजूद इसके जब मोदी सरकार और संस्थाएं चाहे वह वित्त मंत्रालय हो कानून मंत्रालय हो अथवा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया हो या फिर इन सबसे ऊपर भारत के लोकतंत्र का प्रमुख स्तंभ उच्चतम न्यायालय हो इनकी कही गई बातों पर हमको आंख मूंदकर भी विश्वास इसलिए करना होता है क्योंकि बहुत उच्चस्तरीय चिंतन मनन के परिणाम स्वरूप इनके आदेश जारी होते हैं। जो लोकहित के प्रति समर्पित बताए जाते हैं।
अब कोविड-19 के दौर में बेंगलुरु से चले एक नोटिस के अंश भाग को पढ़ें यह बात सही है कि यह किसान बिल के नए रूप में जन्मे कांटेक्ट फार्मिंग यानी अनुबंध है के आधार पर खेती की किसी कंपनी के द्वारा भेजा गया किसी ऋणी के लिए नोटिस नहीं है किंतु पैसा देते वक्त जो अनुबंध होता है वह चाहे खेती में हूं अथवा अन्य क्षेत्र में कांटेक्ट कांटेक्ट होता है और सब का वसूली कमोबेश इसी भाषा में होती है तो पहले वसूली की भाषा समझ ले....
"इन परिस्थितियों में मैं एतद् द्वारा आपको इस नोटिस की प्राप्ति के 7 दिनों के भीतर ₹78877 बकाया राशि का भुगतान मेरे मुवक्किल के शाखा कार्यालय में गिरवी संपत्ति को समर्पण करने की याद दिलाता हूं ऐसा न करने की सूरत में मेरा मुवक्किल आपके द्वारा क्रियान्वित किए गए समझौते (अनुबंध का
समझौता) कि शर्तों के अनुरूप कानूनी कार्यवाही शुरू करने और अपने विवेक का प्रयोग करते हुए आगे समझौते की शर्तों के अनुसार पूर्ण ऋण सुविधा वापस लेने और गिरवी वाहन को कब्जे में लेने के लिए मजबूर हो जाएगा ।और संबंधित पुलिस स्टेशन के पास आईपीसी की धारा 406, 420, 467, 468, 471 वा 504 के तहत उचित आपराधिक शिकायत दर्ज कराएगा और उपाय की मांग करेगा।" और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कीीी ऐसी नोटिस भेजने वाली व्यक्ति का ना तो मोबाइल नंबर होता है और ना ही ईमेल नंबर जिसकेेेे जरिए संवाद बन सके इससे उपभोक्ता इन धमकी नुमा पत्रों के जरिए सिर्फ चाही गई रकम के अनुसार लुट जाता है
निश्चित तौर पर जब भी कोई कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या अनुबंध की खेती होगी या किसी भी प्रकार का आदिवासी क्षेत्रों में ऐसे अनुबंध होंगे तो गुंडागर्दी की भाषा में कंपनी के वकील इसी प्रकार का नोटिस भेजकर गांव समाज को आतंकित करेंगे ।जैसा अभी दूसरे फाइनेंस सिस्टम में कर रहे हैं। उससे ज्यादा दुखद यह है कि पुलिस और प्रशासन इन इन्वेस्टमेंट कंपनियों के एजेंट के रूप में मूक बधिर होकर गांव समाज को भटकने के लिए मजबूर कर देंगे। जैसा कि कोविड-19 के दौरान आदिवासी क्षेत्रों के जिला मुख्यालयों में हजारों की संख्या में ग्रामीण भटकते देखे गए,ताकि कर्ज से मुक्ति पा सकें।
किसी भ्रामक सूचना के आधार पर यह सही है कि भ्रम फैलाने वालों पर जिला पुलिस ने कार्यवाही की किंतु क्या लूट रहे अथवा शोषण कर रहे सूदखोरों के नएअवतारों पर पुलिस का कोई नया शिकंजा कसा है....? उत्तर है,
बिल्कुल नहीं....।
फिर पुलिस का प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कहना कि वे सूदखोरों पर कड़ी नजर रख रहे हैं सिर्फ एक ढकोसला नजर आता है।क्यों कि शहडोल जैसे भारत के संविधान के पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र में भी यदि उनकी बातों पर अमल होता नहीं दिखाई देता या फिर भारत के ही कानूनों की धमकीनुमा कार्यवाही हो जो बैंकिंग कार्य प्रणाली में नहीं दिखती है। तो लगता है कि भारत सरकार का बोलने वाला सच अलग होता है और करने वाला सच अलग होता है। या फिर नीतियों का दोगलापन जानबूझकर ऐसा रखा जाता है ताकि वोट के धंधे के लिए कुछ और बात कही जाए और नोट के धंधे के लिए कुछ और।
बात अभी बात करेंगे इस चीज के लिए कि भारत सरकार रोजगार के सबसे बड़े अवसर के रूप में भारत की बैंकिंग कार्य प्रणाली को ऋण देने की गारंटी के रूप में सामने रखती है। याने भारतीय रिजर्व बैंक से नियंत्रित होने वाली बैंकिंग कार्यप्रणाली के जरिए ही वह भारतीय आजीविका व सामाजिक ढांचे का ताना-बाना बुनती है और आशा करती है कि भारतीय नागरिक इस रास्ते से अपना विकास तय करेगा। किंतु जमीनी हकीकत कुछ और होता है सस्ता सुलभ ऋण कम से कम आदिवासी विशेष क्षेत्रों में अलग अलग तरीके से क्रेडिट संस्थाओं/ माइक्रो फाइनेंस के जरिए भी दिया जाता है। लेकिन जब ऐसी संस्थाएं संविधान में सुरक्षित आदिवासी विशेष क्षेत्रों में भी धमकी नुमा अंदाज में भारतीय पुलिस के बनाए गए कानूनों का उपयोग अपनी सूदखोरी की प्रवृत्ति को बढ़ाने के लिए निर्भीक होकर काम करती दिखती है। अलग-अलग नकाब के रूप में वह उपभोक्ताओं को लूटने के तौर तरीके निकालती है।
तब प्रतीत होता है कि भारत सरकार के कानूनों को ना मानने का और निर्भीकता पूर्वक पत्राचार के जरिए लूटने की प्रवृत्ति पर अमल करने कि साहस को आखिर कौन संरक्षण दे रहा है...? तो लगता यह भी है कि कोई बेंगलुरु से बैठकर, कोई चेन्नई से बैठकर भारत की नीतियों के विरुद्ध कैसे आदिवासी क्षेत्र में डाका डालने की सोच पैदा करता है....।
बात विश्वव्यापी कोविड-19 के दौरान भारत सरकार, वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया आदि अथवा उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों पर ऋण सुविधाओं पर उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के विरुद्ध कैसे कोई क्रेडिट कंपनी बैंकिंग कार्यप्रणाली, उपभोक्ताओं को लूटने के लिए कानून का नकाब पहनकर जब नोटिस भेज सकती है। अथवा मानना चाहिए कि वह भारत के कानूनों दिशानिर्देशों को "जूते की नोक" में रखकर अपने भ्रष्ट सिस्टम के जरिए स्थानीय लोग, कानून व्यवस्था को खरीद कर अपने उपभोक्ताओं को आतंक के सहारे लूटने की व्यवस्था पर विश्वास करता है।
इससे ज्यादा दुखद यह है कि शहडोल जैसे आदिवासी विशेष क्षेत्रों में भी प्रशासन हाथ में हाथ धरे तब तक नींद से जागने का प्रयास नहीं करता जब तक कि कर्ज के बोझ तले प्रताड़ित संपूर्ण जनमानस माइक्रोफाइनेंस कंपनियों अथवा क्रेडिट फाइनेंस कंपनियों के बुने जाए मकड़जाल से भयभीत होकर वह "कोरोना-कॉविड 19" के भी भयानक दौर में बिना किसी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किए हजारों की संख्या में अपने-अपने कलेक्ट्रेट में न्याय की आशा में किसी भ्रामक परिस्थितियों मे भीड़ के रूप में प्रकट नहीं हो जाते ।किंतु ऐसी भीड़ में भी क्या प्रशासन तक का कोई दूरगामी नीतिकारी कार्यक्रम पर अमल करता दिखता है....? शायद नहीं।
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