रविवार, 29 नवंबर 2020

अपनी अपनी खेती....., (त्रिलोकीनाथ)

 

अपनी अपनी खेती.......



किसान बनाम करोना....,

(त्रिलोकीनाथ)

वह पंजाब की धरती है  जहां भगत सिंह जन्मे थे और उन्हें यदि भ्रम भी है  तो भी वह गुलामी से मुक्त होने की तड़प रखते हैं... फिर शासन उन्हें आतंकवादी कहे, देशद्रोही कहे या


खालिस्तानी उन्हें फर्क नहीं पड़ता। यही सतत संघर्ष का बड़ा मार्ग है जिसमें देश की आजादी सुरक्षित रहती है।

तो इतने बड़े आंदोलन में आदिवासी क्षेत्र शहडोल का कोई प्रतिनिधित्व जिंदा भी है यह लिखा जाने वाला इतिहास बताएगा...? क्योंकि आजादी के 5 दशक बाद तक शहडोल उमरिया और अनूपपुर यानी शहडोल क्षेत्र की सिंचित कृषि का रकबा मात्र 4-5 प्रतिशत के इर्द-गिर्द था क्योंकि सरकारों ने यहां की किसानी को पनपने नहीं दिया। प्राकृतिक संसाधन से भरपूर शहडोल क्षेत्र आज भी उसी प्रकार से माफिया और तस्करों से लूट रहा है जैसे पहले लूट रहा था। सिर्फ सरकार का चेहरा बदला है ।यह कहना गलत नहीं होगा कि किसान आंदोलन के  संदर्भ में किसी ने भी यदि सत्ता समर्पित उद्योगपतियों के खिलाफ सोचने की हिमाकत की तो उसे आतंकवादी या राष्ट्रद्रोह  तो नहीं कहा गया किंतु जिला-बदर करना प्रशासन के बाएं हाथ का खेल था। और यह अनुभव शहडोल में कम से कम एक बार तो हमने भी देखा है कि रिलायंस कंपनी के खिलाफ जब किसान आंदोलन के जरिए कोई ग्रामीण व्यक्ति राधेश्याम अपने लोक-ज्ञान का प्रयोग करता है किसानों को संगठित करने की सोच रखता है तो उसे बुद्धिमान समाज याने कलेक्टर चाहे वह पदोन्नत कलेक्टर ही क्यों ना रहा हो अथवा आईआईटी से निकले पुलिस अधीक्षक किस तरह से जिला बदर कर देते हैं। ताकि शहडोल के किसान आंदोलन को उद्योगपति के खिलाफ खड़ा ना होने दिया जाए। क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्र है इस दृष्टिकोण में पूरा भारत शहडोल से पूरी तरह से उसी प्रकार से कटा दिखता है जैसे वह अंडमान निकोबार दीप समूह का हिस्सा हो...?

 बावजूद इसके की सर्व संपन्न प्राकृतिक संसाधन से परिपूर्ण शहडोल में किसानों की समस्या दमन और शोषण की  तमाम चरम सीमाओं को पार  कर रहा है। बावजूद  भारत में चल रहे क्रांतिकारी किसान आंदोलन में  शहडोल का प्रतिनिधित्व शून्य क्यों दिखता है...?  यह  प्रमाणित रुप से शोषण का सर्टिफिकेट भी क्यों न माना जाए ।


बहरहाल बात भारत  की किसानी आंदोलन की तो किसान बनाम राम,किसान बनाम पश्चिमबंगाल और किसान बनाम निजाम अब किसान बनाम  अन्नपूर्णा आदि आदि नाम के अनेक प्रकार के मोर्चा  खोलकर   सत्ता की राजनीति को पिछले 70 साल एक गाली की तरह देखते हुए मोदी-सरकार ने अपने "सत्ता-सिंहासन" को अपने तरीके से और अपनी शर्तों  पर चला रहे। क्यो की लोकतंत्र में लोकमत और जनमत ही सर्वोच्च  होता है इसलिए विपक्ष को अंततः  टुकड़े-टुकड़े गैंग के रूप में कश्मीर के गुपकार संगठन के जरिए अपनी भावनाएं सब तक पहुंचा दी। अपने विरोधियों को अंत में आतंकवादी वा राष्ट्रद्रोह घोषित करनेे का किया ।

 तो विरोधी अगर भारत का किसान है तो उसे भी आतंकवादी बताने में सरकार जरा भी शर्म महसूस नहीं करती। किंतु इस बार मुकाबला राजनीतिक दलों से ना होकर किसानों से है जो दिल्ली को घेराबंदी करने में अड़ गए हैं।

 गुलाम-मीडिया से लेकर तमाम प्रोपेगेंडा के तमाम अस्त्र जब फेल हो गए तब गृहमंत्री अमित शाह के जरिए सशर्त-वार्ता का प्रस्ताव दिया कि अगर बुराड़ी में पूरे किसान  एकत्र हो तो दूसरे दिन वार्ता हो सकती है। जिसे भारत का बुद्धिमान लोकज्ञानी किसान समाज एक सिरे से खारिज कर दिया ।

जैसे वह समझ चुका है कि बुरारी में एक जगह इकट्ठा करने और बाद में उसमें विद्रोह कराने का खेल वह समझ चुका हो...? 




बहरहाल आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंत में कहीं कनाडा में गायब हो चुकी तथाकथित अन्नपूर्णा  देवी को ढूंढकर वापस ला किसानों को धार्मिक चक्रव्यूह में फंसाना चाहते थे किंतु किसान समाज नरेंद्र मोदी की अब तक के तमाम झूठे अनुभवों से सच को जान चुका था। इसलिए उन्हें भी खारिज कर दिया ।

 नरेंद्र मोदी ने कहा

कृषि कानूनों के खिलाफ जारी किसानों के आंदोलन के बीच हो रहा है. फिलहाल, पीएम मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में कहा कि एक खुशखबरी सुना रहा हूं. कनाडा से मां अन्नापूर्णा देवी की मूर्ति वापस लाई गई है. इसके लिए कनाडा सरकार का आभार व्यक्त करता हूं.

पीएम मोदी ने मन की बात कार्यक्रम ने कहा कि आज मैं आप सबके साथ एक खुशखबरी साझा करना चाहता हूं. हर भारतीय को यह जानकर गर्व होगा कि देवी अन्नपूर्णा की एक बहुत पुरानी प्रतिमा कनाडा से वापस भारत आ रही है. माता अन्नपूर्णा का काशी से बहुत ही विशेष संबंध है. अब उनकी प्रतिमा का वापस आना हम सभी के लिए सुखद है. माता अन्नपूर्णा की प्रतिमा की तरह ही हमारी विरासत की अनेक अनमोल धरोहरें, अंतरराष्ट्रीय गिरोहों का शिकार होती रही हैं."

किंतु इसे भी एक शतरंजी चाल की तरह देखकर भारतीय किसान समाज यह जाग चुका है की करोड़ों सनातन हिंदू धर्म समाज को हिंदुत्व के बहकावे में लाकर उसे अफजा या ज्यादा नहीं भटकाया जा सकता।

 पुराने अनुभव के के आधार पर लोक ज्ञानी समाज कृषि बिल में संशोधन के अलावा उसे कुछ स्वीकार नहीं है। और यही कारण है कि सरकार से आर पार करने पर उतर गया है यही लोकतंत्र की खासियत होती है जब लोकतंत्र के नेता भ्रमित हो जाते हैं तब लोक ज्ञान उसका मार्ग प्रशस्त करता है ।


 और शायद कोरोनाकाल मे लाए के कृषि बिल मे किसान समाज जिस अंदाज में हाल में हुए उपचुनावों की भीड़ में चुनाव कराने की प्रक्रिया को देखा और समझा उसने कोरोनावायरस की उपस्थिति को भी नजरअंदाज कर खुलेआम कोविड-19 सबसे खतरनाक स्थान दिल्ली की घेराबंदी करने की घोषणा कर दी और तमाम उन रास्तों को रोकने का काम किया जहां से लोग आते जाते हैं दिल्ली की सल्तनत जहां जाम होती है। अब अगर कोरोनावायरस का संक्रमण सोशल डिस्टेंसिंग के जरिए फैलता है और लोग उससे प्रभावित होकर मरते हैं तो यह जनरल डायर के फायरिंग के आदेश से जलियांवाला बाग में मारे गए नागरिकों से कमतर नहीं होगा। और सरकार इस जिम्मेवारी से भाग भी नहीं सकती।

 पंजाब के संपन्न किसान समाज शायद देश का अग्रणी किसान समाज है जिसने अपनी समझ के आधार पर स्वाभाविक रूप से भारत के किसान आंदोलन का नेतृत्व का मोर्चा संभाल लिया है यह अलग बात है यह सब कुछ स्वाभाविक हो रहा है। और पंजाब किसानों की जागरूकता के आधार पर भारत के डरे और सहमे हुए अन्य किसान समाज अपनी-अपनी जागरूकता से अपनी बातों को दिल्ली में जाकर रखने का प्रयास कर रहे हैं। सत्ता धीशों की लापरवाही से कोरोनावायरस का वह का जो भयानक भ्रम जाल जो बुना गया था वह भारत का लोकज्ञानी समाज तोड़कर जोखिम उठाते हुए देश की अस्मिता के प्रश्नों पर दिल्ली की सड़कों पर है।

 हो सकता है किसान समाज को जो महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो "भारत की आत्मा गांवों में बसती है" और वही आत्मा और कोई नहीं यही किसान हैं और आत्मा की आवाज यह है कि सरकार भयानक भ्रम जाल में के बीच जो कृषि सुधार बिल लाई है उससे उसे भारतीय किसान समाज को खत्म हो जाने का खतरा है । हो सकता है सरकार सही हो.? और कृषि बिल में किसान हित हो...? यह भी हो सकता है कि सरकार पूरी तरह से गलत हो... किंतु सही और गलत के बीच में जो समझ स्थापित होनी चाहिए वह तानाशाही की धरातल पर संभव ही नहीं है। और सरकार तानाशाही पर विश्वास कर अपनी शर्तों में काम करने की आदी हो गई है।

 धीरेे धीरे बीते 70 साल को गलत बतानेे वाली मोदी सरकार  को सिर्फ 70 दिन के किसान आंदोलन ने  घुटने के बल खड़ा किया है।  अब  तानाशाही के जरिए बात होगी या फिर  विनम्र भारत  अपने आत्मा से  सलाह लेकर काम करेगा  यह बात  देखने की होगी। किंतु यदि बात तानाशाही की धरातल पर ही चलती रहे तो भयानक रक्तपात क्या भारत का भविष्य बनेगा?

 यदि ऐसा होता है तो इंदिरा गांधी की आपातकाल को पीछे छोड़ देगा क्योंकि यह सामूहिक रक्तपात का भयानक मंजर होगा चाहे वह कोरोनावायरस के जरिए ही क्यों ना हो....? और यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि पंजाब वह धरती है जहां जलियांवाला बाग में तानासाह सत्ताधीस अंग्रेजी पुलिस अधिकारी के तानाशाही को छाती पर झेल चुका है। और शायद इसीलिए पंजाब किसानों पर सरकार के तमाम भ्रम जालो का कोई असर नहींं पड़ता। अपने लक्ष्य को पाने के लिए आज भी वही जज्बा भारतीय लोकज्ञानी समाज में स्थापित है। किसान आंदोलन से सिर्फ यही नजर आता है अगर चुनौती बड़ी है तो रास्ता गांधीवादी क्यों नहीं होना चाहिए किसानों की आंदोलन पर पूरे देश की निगाहें आशा भरी नजरों से सफलता के मुकाम पर टिक गई हैं।

 Next..

बिरसा मुंडा ही क्यों...?

दलपत के नाम कॉलेज समर्पित क्यो न हो..?

रविवार, 22 नवंबर 2020

आदिवासी क्षेत्र, भगवान भरोसे,आत्मनिर्भर कैसे बने....? (त्रिलोकीनाथ)

  शहडोल, प्रदेशकापांचवा

कोरोना-संक्रमित क्षेत्र बरकरार


आत्मनिर्भर कैसे बने....?

(त्रिलोकीनाथ)

आंकड़ों की जादूगरी और तमाम प्रकार के आंकड़ों को छुपाने के खेल के बावजूद मध्यप्रदेश में कोरोनावायरस कि संक्रमित क्षेत्रों की सूची में शहडोल क्षेत्र पांचवां बड़ा संक्रमित क्षेत्र है बावजूद इसके कोरोना कोविड-19 को रोकने के लिए प्रदेश शासन ने आदिवासी क्षेत्र को उसके हाल में संघर्ष करने के लिए छोड़ दिया है। 18 अक्टूबर के आंकड़ों को देखें और 1 माह बाद 22 नवंबर के आंकड़े बताते हैं कि शहडोल क्षेत्र लगातार बड़ा संक्रमित क्षेत्र है। क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर क्षेत्र में माफिया गिरी  को खुली छूट मिली हुई है  इस कारण  कोरोना संक्रमण  आदिवासी क्षेत्र की किस्मत बन रहे है ।

 आंकडो की जादूगरी में  देखिए,  देखते रहिए और समझते रहिए।  यहां का प्राकृतिक संसाधन  यहां की दुर्भाग्य  बनता जा रहा है ।


तो सबसे  पहले के आंकड़े देखें जहां की शहडोल अनूपपुर और उमरिया में 4810 संक्रमित व्यक्ति बताए गए थे और 50 व्यक्ति मृत थे 22 नवंबर को यानी 34 दिन बाद इन आंखों में 5623 संक्रमित तथा  57 मृत व्यक्तियों की स्थितियां प्रगट हो रहे हैं यानी 34 दिन में आंकड़ों के हिसाब से सिर्फ 7 व्यक्ति मरे हैं जिसमें शहडोल के दो व्यक्ति अनूपपुर के दो व्यक्ति और उमरिया के तीन व्यक्ति प्रदर्शित किए गए हैं।

 34 दिन में 7 व्यक्तियों की मृत्यु इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि कहां रोज एक व्यक्ति मृत हो रहा था। कहां यह आंकड़ा जादूगरी से गायब हो गया तो सरकारी आंकड़े हैं सरकार जैसा चाहती है बड़ाती घटाती रहती है किंतु मृत्यु के मामले में यह अजीब जादू लगता है बहरहाल तुलना करना चाहिए ताकि आप समझ सके कि आप किस स्तर पर धोखा खा रहे हैं....

















चुनाव के मद्देनजर हमारे लोकतंत्र ने एक नया फंडा निकाला किस सिर्फ मेडिकल कॉलेज के आंकड़े ही कोविड-19 के आंकड़ों को सही माना जाए ।यानी फीवर क्लीनिक के या अन्य  आंकडे कोविड-19 के संक्रमित व्यक्तियों किस श्रेणी से बाहर हो गए यह भगवान ही बता पाएगा। 
सरकारी आंकड़ों और सत्ता में बैठे लोगों पर आप विश्वास करें या ना करें उससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि अभी तक भारतीय राजनीति में सत्तासीन किसी भी बड़े मंत्री के परिवार में या स्वयं मंत्री मृत्यु नहीं हुआ है ।रह गई चुनाव की बात तो हम सिर्फ वोटर हैं, वोट कब, कहां, कैसे, कितना, पड़ना है यह सब राजनीतिज्ञों के बाएं हाथ का खेल होता जा रहा है ।तो इसे भी एक दैवीय आपदा के रूप में हमें स्वीकार कर लेना चाहिए। जैसा कि भारत के मोदी सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा कर ही दिया है स्वयं का ख्याल रखें परिवार को सुरक्षित करें









तो परिवार के स्वास्थ्य की सुरक्षा की सरकार की जिम्मेदारीी से आपकी अपनी जिम्मेवारीी है और यह तब पूरी होगी जब आप स्वयं कोरोनावायरस कॉविड 19 से सुरक्षिित रहने ठेका लेंगे क्योंकि यात्री और यात्री के समान की जिम्मेदारी संसार के यात्रियों की ही होतीी है कम से कम भारत में यही होता दिख रहा है आदिवासीी क्षेत्र शहडोल में सत प्रतिशत अपनी सुरक्षा आपकी निहित जिम्मेदारी है क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार ने जिन बड़े पांच जिलों में आंशिक लॉकडाउन कियाा है उसमें आदिवासीी क्षेत्र शहडोल नहीं है जबकि प्रदेश का पांचवा संक्रमित आदिवासी क्षेत्र स्वयं प्रदर्शिित है।
 तो क्या  शहडोल में लगता है तो प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सिलसिला रुक जाएगा...? शायद यही एक सोच कोरोना को शहडोल क्षेत्र में बढ़ावा दे रही है। क्योंकि ज्यादातरतर सफेदपोश राजनीतिक और अफसर प्राकृतिक संसाधनों की लूट में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष शामिल हो चुके हैं।
 इसलिए मास्क पहने रहिए और जीवन को बचातेेेेेेेेेेे बने  तो   बचाना सीख लीजिए क्योंकि आदिवासी क्षेत्र शहडोल में माफिया, मोदी सरकार के आत्मनिर्भर भारत का आइकॉन बना है।  आप जीवन को बचानेेे के लिए आत्मनिर्भर बन जाएं यही आपके लिए उचित होगा।
शहडोल की इस कदर उपेक्षा का सुनिश्चित होना उपलब्ध आंकड़ों  का परिणाम है ।ईश्वर करे मेरी यह सोच गलत हो।


शनिवार, 21 नवंबर 2020

आखिर क्यों मोहनराम ट्रस्ट बना हुआ है अपराधियों का अड्डा? (त्रिलोकीनाथ)

आखिर क्यों,

 मोहनराम ट्रस्ट परिसर तालाब बना हुआ है अपराधियों का अड्डा ...?









(त्रिलोकीनाथ)


इसमें जलन भी लगती है कि हमारे स्थानीय लोक त्यौहार, छठ-पर्व के उत्सव आयोजन में पीछे हो गए हैं ।और यह अच्छी जलन है। इसलिए बहुत ज्यादा अच्छी जलन है क्योंकि यह सोचकर गर्व होता है छठ-पर्व की वजह से साल में एक बार आवश्यक रूप से तालाबों और जल सरोवर जल केंद्रों को याद किया जाता है। इसके लिए इस त्यौहार को विशेष रुप से मन में आस्था बनती है


 वैसे ही पानी के महत्व को शायद इसलिए छोड़ना चाहिए क्योंकि जल निगम में कई गुजराती ठेकेदार दूर अंचल से लाकर स्वच्छ जल हमें पिलाएंगे क्योंकि शहडोल नगर को केंद्र में रखकर बात हो पानी की पानी से भरे तालाबों की अथवा नदी नालों  के आसपास हैं उनके संरक्षण के लिए क्या हमारी कोई सोच जिंदा भी है.... और है तो किस सीमा तक है....? चुनावी नारों तक है, राजनीति के उपयोग के लिए है अथवा माफियाओं के हित के लिए है इसमें अलग-अलग संदर्भ में अलग-अलग विषय वस्तु बन जाते हैं।

 


किंतु जिस प्रकार से वोट की राजनीति हाल में गर्म हुई है उसमें बिहार अथवा उत्तर प्रदेश के लोगों का शहडोल मे दबदबा इस बात पर दिखने लगा है कि छठ पर्व में जल संरक्षण के लिए सुनिश्चित जल सरोवर नदी नालों को लेकर गाहे-बगाहे काफी कुछ होने लगा है। और चाहे जो डर हो, सम्मान तो बिल्कुल नहीं है; सम्मान होता तालाबों के प्रति, तो तालाब शहडोल के मर नहीं रहे होते । तो डर के कारण छठ पर्व में तालाबों की विशेष रूप से निगरानी की जाने लगी है। क्योंकि बिहारी वोटर या बिहारी नेता स्थानीय राजनीति में प्रभुत्व बना चुके हैं।

 इसमें जलन भी लगती है कि हमारे स्थानीय लोक त्यौहार, छठ-पर्व के उत्सव आयोजन में पीछे हो गए हैं ।और यह अच्छी जलन है। इसलिए बहुत ज्यादा अच्छी जलन है क्योंकि यह सोचकर गर्व होता है छठ-पर्व की वजह से साल में एक बार आवश्यक रूप से तालाबों और जल सरोवर जल केंद्रों को याद किया जाता है। इसके लिए इस त्यौहार को विशेष रुप से मन में आस्था बनती है।

 बहराल जल संरक्षण और त्योहारों के बीच में महत्वपूर्ण बात यह है कि मोहन राम तालाब फिर से चर्चा में आया यह शहडोल नगर का गौरवशाली तालाब भी है और उससे ज्यादा यह तमाम अपराधियों का अड्डा भी है कुछ धर्म का नकाब पहनकर संरक्षित अपराध है तो कुछ गैर कानूनी तरीके से अपराधी स्वेच्छा से अपराध करते हैं। अगर कमिश्नर शहडोल की बात माने तो करोड़ों रुपए का भ्रष्टाचार मोहन राम तालाब संरक्षण के नाम पर प्रमाणित है। जांच का काम है, होता रहता है क्योंकि भ्रष्टाचार उतना ही जरूरी है जितना कि प्रशासन चलाना?


 किंतु इस सब में जब छुटपुट अपराध, हत्या के अंजाम तक पहुंच जाएं तो चर्चा होनी ही चाहिए कि अगर मोहनराम तालाब करोड़ों रुपया सरकारी फंड से खर्च करने के बाद भी सुरक्षित और संरक्षित नहीं है और तब और जबकि मध्यप्रदेश का उच्च न्यायालय ट्रस्ट मामलों के लंबित मुकदमे में अपने निर्देश के अधीन एक स्वतंत्र कमेटी  के प्रबंधन में मोहन राम तालाब को छोड़ रखा हो तो फिर और क्या तरीका है कि मोहन राम तालाब क्षेत्र में हत्या ना हो।

 तमाम प्रकार के नशाखोरी का यह  अड्डा  ना बने सौंदर्यीकरण के नाम पर भ्रष्टाचार का जो पहाड़ खड़ा किया गया है जो थोड़ा बहुत इन्वेस्ट भी किया गया है वह बचा रह जाए क्योंकि जो भी सुंदरीकरण किया गया था वह भी चोरों ने लूटना चालू कर दिया है कबाड़ी होने लोहे की ग्रिल काट ली है लाइट्स को नुकसान पहुंचाया गया है सीमेंटेड चेयर टूट गई हैं क्या इसके लिए  अलग से उच्च न्यायालय में जाने की आवश्यकता है  कि वह कोई पथक निर्देश से...?,

 कम से कम तब तक जब तक की कोई जांच कमेटी कमिश्नर की इसकी पारदर्शी जांच ना कर ले आप इसे सुरक्षित क्यों नहीं रहना चाहिए ....?

किंतु ऐसा कुछ होता नहीं दिखता है हिंदुत्व की ठेकेदारी पर काम करने वाली राज्य सरकार हो या फिर नगर पालिका की सरकार हो दोनों ही मोहन राम मंदिर के इस विरासत को बर्बादी के हालात में छोड़ दिया है? क्यों उच्च न्यायालय के आदेशों का पालन नहीं हो रहा है ? 

यह कहना बड़ा आसान है कि जिन्हें शिकायत हो वह न्यायालय के आदेश की अवमानना की शिकायत उच्च न्यायालय में कर ले। किंतु इससे क्या मंदिर और तालाब बचाया जा सकता है? अगर न्यायालय ही कुछ कर सकती या न्यायालय के आदेशों का सम्मान होता तो मोहन राम तालाब के अंदर अपराधिक गतिविधियों का गतिविधियों का अड्डा नहीं बनता। स्वतंत्र कमेटी का प्रबंधन मोहन राम तालाब को संरक्षित और सुरक्षित रख करता। किंतु ऐसा लगता है जैसे ना वर्तमान स्वतंत्र कमेटी को चिंता है और ना ही हाई कोर्ट को संज्ञान में डालने की कोई बात है। शासन और प्रशासन तो अपराधियों को तब तक पहचानना भी नहीं चाहते जब तक के हत्या ना हो जाए।

 मोहन राम तालाब के 2 तालाबों में एक तालाब शहडोल शहर की नालियों का अड्डा है जहां प्रदूषित पानी भरा हुआ है। यह वही स्रोत तालाब है जिसका विनियमित तरीके से पानी शुद्ध होकर मुख्य तालाब में आना चाहिए किंतु ऐसा लगता है कि प्रबंधन अथवा ट्रस्ट पर कब्जा करके अवैध रूप से काम कर रहे हिंदुत्व के लोगों को बस में नहीं है।

चौकीदारों ने ही लूट ली संपत्ति...


 अन्यथा उच्च न्यायालय में मुकदमा लंबित रहते जिस तरह मोहन राम मंदिर ट्रस्ट की शहडोल खसरा नंबर 138 की जमीन 33 डिसमिल लूट ली गई उसी तरह स्रोत तालाब को भी भाटकर उस पर हिंदुत्व के लोगों का कब्जा हो जाता। अन्यथा ईदगाह वाले तो कर ही लेते हैं। जैसे अन्य समाज के लोगों ने कब्जा कर ही लिया है इसी हिंदुत्व सरकार के संरक्षण में। प्रतीकात्मक तौर पर इस विषय को छोड़कर अगर हम मुख्य बिंदु पर नहीं आएंगे तो भटक जाएंगे।

आखिर परिसर में अपराध का जिम्मेदार कौन?

 मुद्दा यह है की छठ का त्यौहार के कारण मोहन राम तालाब कुछ दिन के लिए ही चाहे सुरक्षित हो जाता है। आखिर क्यों नहीं जिन लोगों का दबदबा है वह इसे कानूनी तौर तरीके से सुरक्षित और संरक्षित करने का प्रशासन पर दबाव डालते हैं? तब जबकि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय निर्देश करता है कि मोहन राम मंदिर ट्रस्ट की प्रबंधन को स्वतंत्र एजेंसी या स्वतंत्र समिति अपने हाथ में ले ले और संपूर्ण ट्रस्ट को सुरक्षित करें ।


इसके बावजूद आखिर किन लोगों ने माननीय उच्च न्यायालय के आदेश को किनारे रखकर इसी लंबित प्रकरण के दौरान अपराधियों का अड्डा ट्रस्ट प्रॉपर्टी को बनने दिया। जबकि 2011 में उच्च न्यायालय ने स्वतंत्र समिति के गठन का काम किया था। तो क्या स्वतंत्र समिति के लोगों ने मिलकर ही अपराध जगत का अड्डा बनाने का काम किया है? क्या इस दौरान बदलने वाले जिला प्रशासन व पुलिस प्रशासन मोहन राम तालाब क्षेत्र को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए प्रबंधन  को हत्या के आरोप के लिए जिम्मेदार ठहराया? कि आखिर उसके क्षेत्र में हत्या कैसे हो रही है। या फिर अपराधिक गतिविधियों का केंद्र वह कैसे बन रहा है। हमें अभी भी याद है कि बाईपास रोड स्थित शराबगी डीजल पंप पर एक बस में आग लग जाने से एक व्यक्ति जलकर मर गया था और  पंप में परिसर में क्योंकि बस खड़ी थी इसलिए दिलीप शराबगी, पंप मालिक के खिलाफ भी अपराधिक मुकदमा बना था। जब मोहन राम तालाब परिसर में हत्या होती है तो प्रबंधन के खिलाफ अपराधिक मुकदमा कायम क्यों नहीं होता...? यह प्रश्न भी अहम है।

 क्योंकि जब यह मुद्दा उठेगा तभी यह बात भी स्पष्ट होगी की क्या उच्च न्यायालय के निर्देश के अधीन कानून सम्मत कार्यवाही प्रशासन यहां कर भी रहा है अथवा नहीं। अन्यथा धर्म का नकाब पहनकर मोहन राम तालाब परिसर मैं किस प्रकार से कानून को अपनी जूती में नोक पर रखकर कोई माफिया पूरे धार्मिक परिसर को अपराधियों का अड्डा बना दिया है। किंतु इसके लिए जब तक कानून और प्रशासन का जमीर जागता नहीं है तब तक यह संभव ही नहीं है क्योंकि जैसे ही कानून के हाथ नकाबपोश  लोगों तक पहुंचेंगे पुलिस और प्रशासन के पसीने छूटने लगेगे और शायद यही डर है कि मोहन राम तालाब परिसर हर प्रकार के अपराधियों का खुला अड्डा है ।भ्रष्टाचार का स्वर्ग है और गैर कानूनी काम करने वालों का शरणगाह भी क्योंकि यहां हिंदुत्व का झंडा लहरा रहा है, सनातन हिंदू धर्म सिर्फ गुलाम है। किंतु अंत में छठ पर्व में मैं हमेशा गौरवान्वित रहूंगा कि जहां भी इसे मानने वाला समाज है साल में एक बार कमिटेड होकर तालाबों के लिए काम कर रहा है उन्हें बहुत-बहुत बधाई।


शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

स्वस्थ पत्रकारिता यानी स्वस्थ लोकतंत्र (त्रिलोकीनाथ)

 मंथन -2

स्वस्थ पत्रकारिता    

यानी

स्वस्थ लोकतंत्र

(त्रिलोकीनाथ)   

बीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में एक विशेषता थी कि उसमें पार्टी के कार्यकर्ता के जन्म लेने का प्रचलन था, अब यह 21वीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दल का कार्यकर्ता किसी लोकतांत्रिक  प्राकृतिक प्रसव -पीड़ा के जरिए नहीं आता है बल्कि वह टेस्ट-ट्यूब से फैक्ट्री की तरह एक प्रोडक्ट मात्र है। 
ऐसा नहीं है कि यह उनकी अपनी सोच हो, माफिया-गिरी की राजनीतिक इच्छाशक्ति से जो प्रोपेगेंडा की फैक्ट्री स्थापित की गई है जिसमें से लोकतंत्र के कार्यकर्ता प्रोडक्ट की तरह पैदा होते रहते हैं और 130 करोड़ आबादी का ठेका लेते हैं, दरअसल ऐसे ही लोग लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहे हैं| फिर वे राष्ट्रवादी हो या ना हो किंतु वह गद्दार नहीं है..| ऐसा मेरी सोच है, हो सकता है यह सोच गलत हो| किंतु लोकतंत्र के लिए किसी एक सोच मैं एस्टेब्लिश होना ही पड़ेगा और लोकतंत्र की आवश्यक राजनीतिक कड़ी के रूप में तराजू के बटखरे का का जिंदा रहना धातु के टुकड़े में उसका बना रहना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वही एकमात्र टेस्टट्यूब है याने पैरामीटर है| जो स्वस्थ पत्रकारिता के जरिए स्वस्थ लोकतंत्र को बनाए रखता है|
स्वस्थ पत्रकारिता के जरिए स्वस्थ लोकतंत्र 
 यह बात बहुत कशमकश वाली है  कि अगर आप पत्रकारिता में हैं तो राजनीतिक मंच में जाने के लिए आपको आग से होकर जाना पड़ेगा| कई ऐसे बड़े पत्रकार हैं जो स्वतंत्रता और निष्पक्षता के लिए आइकॉन रहे |अरुण शौरी का नाम बीसवीं सदी में इनमें लिया जा सकता है और बदली की परिस्थिति में पत्रकार आशुतोष गुप्ता का नाम भी लिया जा सकता है| आज अगर देखा जाए तो यह दोनों निष्पक्ष पत्रकार राजनैतिक मार्ग में जाने के लिए आग में झुलसे हुए पत्रकार के रूप में दिख रहे हैं| क्योंकि राजनीतिक दलों में प्राकृतिक प्रसव पीड़ा की राजनीतिक इच्छाशक्ति के नेता की चाहत रखने वाले लोग अब माफिया-डॉन की भूमिका में अपने राजनीतिक दलों का संचालन करना चाहते हैं |

अरुण शौरी या प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर जैसे आईकॉन को देख कर हम लोग भी भारतीय लोकतंत्र में पत्रकारिता की संभावना के मार्ग पर चलें| अरुण शौरी तो मूर्ति-भंजक पत्रकार माने जाते थे |कुछ अच्छा करने की चाहत में वे राजनीति कोयला-खदान में जा फंसे और कालिक तो लगनी ही थी| तब अरुण सॉरी जो कहते थे और पत्रकारिता में प्रयोग करते थे वह किसी भी बड़ी राजनैतिक नेतृत्व के लिए कसौटी का परिचायक होती थी | यदि दोष होता था तो वह टूट जाता था| इसीलिए वे मूर्ति-भंजक पत्रकार के रूप में भी जाने गए | इसलिए भी वे हमारे आईकन थे |
अब जबकि ऐसे पत्रकारों में दो लड़कियों के पिता मैग्सेसे अवार्ड प्राप्त रवीश कुमार जब कोई प्रयोग करते हैं तो उन्हें मां-बहन की गाली देना माफिया गिरी की राजनीति पार्टियों के लिए सहज हो गया है| क्योंकि वे माफिया-डॉन के प्रोडक्ट हैं| नैतिकता का संभल उनके लिए मायने नहीं रखता| अब उनका विचार तंत्र मजबूत होता है तो वह अपनी राज विचारधारा से प्रभावित करके रवीश कुमार को राजनीतिक नेतृत्व मिला सकते थे| जैसे अटल बिहारी बाजपेई जैसे नेताओं ने अरुण शौरी को लाया था| यह अलग बात है कि  भविष्य अरुणशौरी जैसे ही होता है|
 क्योंकि राजनीति की काली दुनिया में कालिख लगनी ही थी| किंतु लोकतंत्र बचा रहता, अगर किसी एक बलिदान से गांव समाज का या देश का हित होता है तो ऐसे प्रयोग किये जाए| हलां कि इसरूप से मैं इसे भी नाजायज मांगता हूं यह मानवाधिकार के खिलाf भी  है| किंतु दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यदि स्वतंत्रता बरकरार रखनी है तो किसी को भगत सिंह और किसी को चंद्रशेखर आजाद की तरह बलिदान भी होना पड़ेगा |
यही एकमात्र योग्यता है कि लोकतंत्र जिंदा रहे अन्यथा गोरे अंग्रेजों की गुलामी  की विचारधारा "चुनी हुई सरकार" के रूप में लोकतंत्र का नकाब पहनकर दबे पांव भारतीय जनमानस में गुलामी के वर्चस्व को स्थापित कर रही है| यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना अच्छा है किंतु 21वीं सदी के भारत में डिजिटल इंडिया में यह होता नहीं दिख रहा है |राजनीतिक पार्टियों में कार्यकर्ता, नेता नहीं बन रहे हैं बल्कि रेडीमेड प्रोडक्ट neta का नकाब  पहनाकर प्रस्तुत किए जाते हैं जिसे कार्यकर्ताओं को गुलामों की तरह स्वीकार करना पड़ता है |और वह भी पूरी अनुशासन, समर्पण और निष्ठावान कार्यकर्ता की कसौटी में खड़े होकर | क्योंकि उसकी निगरानी कोई अदृश्य शक्ति कर रही होती है| 
यही कारण है की अदृश्य शक्तियां लोकतंत्र में आवश्यक बटघरों को नष्ट भी कर रही हैं और उसके जरिए निष्पक्ष पत्रकारिता को दमन भी | 
बहरहाल नजदीक से शीर्ष नेतृत्व के इर्द-गिर्द रहकर देखने और समझने से यह महसूस होता है कि हर राजनीतिक दल में लोकतंत्र के प्रति आंतरिक सत्य को महसूस करने की ताकत अभी भी जिंदा है यह अलग बात है कि वास्तविक सत्य को, दिखाने वाले सत्य के रूप में प्रस्तुत करने की ताकत में  वह नपुंसक होती जारही है 
यानी मानसिकगुलाम माफिया-डॉन की राजनीति के सामने नतमस्तक है और यही पतित लोकतंत्र की शुरुआत है ।                             (जारी 3)






बुधवार, 18 नवंबर 2020

मंथन -1 मजबूत कार्यकर्ता यानी मजबूत लोकतंत्र ... (त्रिलोकीनाथ)

 मंथन -1

मजबूत कार्यकर्ता 



यानी 




मजबूत लोकतंत्र ...
(त्रिलोकीनाथ) 
बीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में एक विशेषता थी कि उसमें पार्टी के कार्यकर्ता के जन्म लेने का प्रचलन था, अब यह 21वीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दल का कार्यकर्ता किसी लोकतांत्रिक  प्राकृतिक प्रसव -पीड़ा के जरिए नहीं आता है बल्कि वह टेस्ट-ट्यूब से फैक्ट्री की तरह एक प्रोडक्ट मात्र है। यानी एक प्रकार का जैविक यंत्र मात्र, जिसे रिमोट कंट्रोल के जरिए नेता जो कभी परिवारवाद से अथवा विरासत से जन्म लेता था 21वीं सदी में नेता परिवार का मुखिया बनने के बजाय डॉन बन कर रहना पसंद करता है।

 वह एक माफिया का डॉन रहता है यही कारण है की 20वीं सदी में पार्टी कार्यकर्ताओं को नेता बनने के अवसर उस पार्टी में जिंदा रहते थे किंतु माफिया का डांन बनने की प्रक्रिया में माफिया डॉन जिसे सेलेक्ट करता है वही पार्टी का नेता होता है। इसे ही 21वीं सदी में इंटरनल-डेमोक्रेसी (आंतरिक लोकतंत्र )की परिभाषा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

पतित होता लोकतंत्र......
 जबकि वास्तव में चाहे आजादी की लड़ाई का जन्मा हुआ नेतृत्व हो अथवा जनक्रांति के दौर में जयप्रकाश के आंदोलन से निकले हुए नेता हो या फिर अन्ना हजारे के आंदोलन से निकले हुए लोग हो (हालांकि अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दावा भी प्रस्तुत रहा है) वे सभी स्वाभाविक पार्टी के कार्यकर्ता थे और लोकतंत्र की प्रसव पीड़ा से जन्म लेकर नेता बने थे। किंतु बीसवीं सदी से ही माफिया डॉन के रूप में पार्टी चलाने की सोचने बिना राजनीतिक प्रसव पीड़ा के ऊपर से कार्यकर्ता नियुक्त होने लगे थे।जिन्हें तथाकथित वोट के माध्यम से निर्वाचित घोषित करा कर  स्थापित किया जाने लगा और इसे ही 21वीं सदी में स्थापित लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करने का काम हुआ।
इससे वास्तविक लोकतंत्र मरने लगा और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत आधी सदी के बाद ही गुलामी की नई व्यवस्थित अनुशासित चुनी हुई यांत्रिक व्यवस्था के रूप में माफिया-प्रोडक्ट जन्म लेने लगा। जो वास्तव में प्राकृतिक प्रसव पीड़ा के नहीं बल्कि पॉलिटिकल टेस्ट ट्यूब के माफिया प्रोडक्ट हुए। किसी फैक्ट्री में उत्पाद की तरह संख्या बल बढ़ाने लगे।
लोकतंत्र के तराजू  मे बटखरे की भूमिका |
 यह तो हुई 20वीं और 21वीं सदी की राजनैतिक इच्छा शक्ति के पतन की परिस्थिति। अब देखते हैं कि आखिर यह क्यों हुई? क्या संभावना जीवित है... कि वास्तविक लोकतंत्र जिंदा रह पाएगा.....? 
जी हां, वास्तविक लोकतंत्र की सुनिश्चित गारंटी है उसके अंतर्गत प्राकृतिक रूप से लोकतांत्रिक पद्धति में राजनीतिक-प्रसव-पीड़ा से कार्यकर्ता का जन्म हो, किसी फैक्ट्री उत्पाद की तरह कोई उद्योगपति अपने प्रोडक्शन पैदा न करें। और सच बात भी यह है की लोकतंत्र भारत का सिर्फ इसलिए जिंदा था क्योंकि का तराजू के दो पढ़ले में पक्ष और विपक्ष के बीच में न्याय सूचक कांटा तराजू की परिभाषा नहीं होता था बल्कि तटस्थ भूमिका अदा करने वाला और इन दोनों को बैलेंस करने वाला बटखरा  तराजू के कांटे को नियंत्रित करने का हमेशा काम करता रहता था। बटखरा, पक्ष और विपक्ष को न्याय पद्धति में खड़ा करके ओझल हो जाता था। किंतु यह दलाल नहीं था । बल्कि उसकी पहचान थी कि वह धातु का वह टुकड़ा है जो बटकरे के रूप में न्याय को जिंदा करने के लिए तराजू के कांटे को बीच में बैलेंस करने का काम करता था। लोकतंत्र के लिए यह अत्यावश्यक रहा की तराजू पक्ष और विपक्ष  और बांट और कांटे के साथ बटखरे को साथ साथ लेकर चलें किंतु पक्ष और विपक्ष ने बटकरे को खाना चालू कर दिया, उसकी कमजोरी को अपनी ताकत बनाना चालू कर दिया| इस तरह  लोकतांत्रिक पद्धति के पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई |

बटखरे का विस्तृत रूप ,चौथा स्तंभ "पत्रकारिता"
बटखरे का एक और विस्तृत रूप रहा जिसे चौथा स्तंभ पत्रकारिता के रूप में देखा गया| वही बटकरे की ताकत थी और वही पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए याने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बने रहने के लिए संजीवनी बूटी थी ताकि लोकतंत्र जिंदा रहे| किंतु जब संजीवनी बूटी ही खत्म होने लगी तो पत्रकारिता का खत्म हो जाना स्वाभाविक था| याने 2020 की हालात में देखें तो अगर एक परसेंट भी पत्रकारिता जिंदा है इसका मतलब बटखारा भी कहीं जिंदा है, उसमें जीवित रहने की जिजीविषा भी है अन्यथा लोकतांत्रिक नकाब ओढ़ कर माफिया-डॉन की राजनीति पत्रकारिता को भी खत्म कर रही है|
 यह खतरनाक प्रयोग 21वीं सदी में प्रारंभ हो गए हैं इसको हम चाहे तो इस प्रकार से भी समझ ले कि राष्ट्रवाद के नाम पर जब कुछ पार्टियां अपनी पहचान बनाने लगी तो शेष राजनैतिक दल, राष्ट्रद्रोही हो गए या फिर गैर-राष्ट्रवादी| जब राजनीतिक इच्छाशक्ति का लोकतंत्र में पतन होने लगा तब पत्रकारिता में भी यह बीमारी आ गई| बदलते परिवेश में पत्रकारिता, प्रेस, मीडिया, मल्टीमीडिया  आदि-आदि नाम से अपना पहचान बनाने लगी और नए परिवेश में वह इसे "कॉर्पोरेट-जनरलिज्म" का संज्ञा दे डाली|

नतीजतन कॉर्पोरेट-जर्नलिस्ट से मीडिया गिरी "कॉर्पोरेट-जनरलिज्म" का छोडकर राष्ट्रवादी पत्रकारिता का झंडा लेकर कुछ मीडिया के लोग स्वयं को राष्ट्रवादी पत्रकार होने का प्रोपेगेंडा सत्ता के समर्थन से प्रचारित करने लगे। जैसे अर्णब गोस्वामी  एक पत्रकार मीडिया गिरी का नकाब पहनकर "पूछता है भारत" स्लोगन देकर स्वयं को राष्ट्रवादी पत्रकार घोषित कर दिया|
जैसे वही एकमात्र राष्ट्रवादी पत्रकार है और बाकी देश के पूरे पत्रकार या तो गैर-राष्ट्रवादी हैं या फिर राष्ट्र-द्रोही यह पत्रकारिता पर स्वयंभू मीडिया का बड़ा हमला भी है...| यह मूल पत्रकारिता की हत्या का भी प्रयास है (जारी 2)




शनिवार, 14 नवंबर 2020

पंचतंत्र में डी2 और एम2 (त्रिलोकीनाथ)-1


(त्रिलोकीनाथ)
 आधुनिक कार्टून चित्र की दुनिया के रचयिता वाल्ट डिजनी ने कार्टून के माध्यम से यह दुनिया ही खड़ी कर दी है जो मानवीय भावनाओं के इर्द गिर्द भरपूर मनोरंजन से हमें आनंदित करता रहा। और उबाऊ हो रही जिंदगी में मुस्कुराहट के क्षण देने का काम किया। क्या बच्चे क्या बूढ़े हर क्षेत्र में बाल डिज्नी का जादू सिर चढ़कर बोलता रहा है। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सौ-सौ राष्ट्रों को घूमने के बाद आत्मनिर्भर भारत का अंग्रेजी संस्करण "वोकल फॉर लोकल" का कार्टून पर ज्यादा वजन दे रहे हैं। बाजारवाद की दुनिया में व्यापारी के नए नए आइटम का होना बाजारियों  के बाजार में टिके रहने के लिए जरूरी होता है। इसी कार्टून में "डोनाल्ड डक" और "मिकी माउस" का कार्टून उनकी कालजई रचना है। कार्टूनिस्ट के कार्टून हमारे आईकान होते हैं मनोरंजन के आइकॉन, दृष्टिकोण के भी आईकॉन हो जाते हैं ।और हमें आकर्षित करते रहते हैं।
 

राजनीति की दुनिया में डोनाल्ड डक अमेरिका के  डोनाल्ड से और भारत के  मोदी को "मिक्की माउस" के संदर्भ में हमने लिखने का प्रयास किया है।

बाकी कहानियां आप समझते रहिए और आनंद लेते रहे। 

ऐसा नहीं है कि वाल्ट डिजनी इकलौते रचनाकार रहे हो भारत में हजारो साल पहले पंडित विष्णु शर्मा द्वारा लिखे गये पंचतंत्र के पात्र पूरी तरह से पशु जगत के हैं तथापि इसमें बहुत कुछ ऐसा है जो मानव व्यवहार मे अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।

इसका सबसे पहला अनुवाद पहलवी और अरबी भाषा में किया गया था। पश्चिम की ओर इसके प्रवासन का श्रेय फारस के बादशाह नौशेरवाँ के निजी चिकित्सक बोरज़ुई को जाता है।कहते हैं बोरज़ुई छँठी शताब्दी ईसा  में मृत्त शरीर को ज़िंदा करने वाली मृत संजीवनी बूटी के लिये भारत आये थे। उन्हे बूटी तो मिली नहीं लेकिन पंचतंत्र मिल गया।और इसको पढ़ते हुये उन्हे बोध हुआ कि ज्ञान ही जादुई बूटी था और अज्ञान मृत शरीर। आश्चर्य नहीँ कि ज्ञान पंचतंत्र की निरंतर चलने वाली विषय-वस्तु है। दृष्टि की सच्ची इंद्रिय ज्ञान है आंख नहीं और यह नीति का एक व्यावहारिक मार्ग-दर्शक अथवा बुद्धिमत्तापूर्वक जीवन जीने की कला। पांच पुस्तकों में संग्रहीत ये नीति कथायें मनीषी विष्णु शर्मा ने एक राजा के मंदबुद्धि बेटों को सुनाईं थीं। 
इन संग्रह को इन खण्डों मेँ बाँटा गया है- मित्रों की हानि अथवा मित्र-भेद, मित्रलाभ अथवा मित्र-संप्राप्ति, कौआ और उल्लू अथवा काकोलुकीयम, लाभ की हानि अथवा लब्ध-प्रणाश और अविवेकी कर्म अथवा अपरीक्षित कारक।विष्णु शर्मा ने अपने माध्यम की तरह नीति कथा को चुना क्योंकि उनकी समझ से अग़र मनुष्य की कमज़ोरियों को मनोरंजक ढंग से उन पशुओं की कहानी की तरह कल्पित और प्रस्तुत किया गया हो तो मनुष्य उनको स्वीकार कर सकता है क्योँकि पशुओं को वे अनेक प्रकार से अपने आप से कमतर समझते हैं।

लोभ,छल, मूर्खता, धोखे, व्यभिचार और वफ़ादारी की कहानियां मात्रोश्‍का – गुड़िया के भीतर गुड़िया वाले रूसी खिलौने–की तरह खुलती हैं।
हालांकि पंचतंत्र हो या वाल्ट डिजनी की दुनिया के संदेश बुराई पर अच्छाई की विजयवाली उपदेशपूर्ण कहानियाँ नहीं हैं। 

तो आइए अपनी कहानी की पहली कड़ी में हम दिल्ली डीडी और एमएम माउस की राजनीति में एग्रीमेंट को जोड़कर देखें डीडी डक की समस्या यह है उसे राजनीति टिका रहना इसलिए जरूरी है क्योंकि वह एक एग्रीमेंट के तहत निजी जीवन में परिवार को बचा कर रखा है और जैसे ही वह चुनाव हारता है याने राष्ट्रपति पद से वंचित होता है वैसे ही उसकी पत्नी यानी मिसेज डीडी उनसे तलाक ले लेंगे यह बात भी चर्चा पर रही है क्यों उनकी निजी जिंदगी ही एक एग्रीमेंट रही है और एग्रीमेंट के जरिए ही वह निश्चित समय तक डीडी की अर्धांगिनी बनना स्वीकार की हैं अमेरिका में जीवन शैली का यह अपना नैतिक तरीका है हो सकता है मिसेज डीडी को तलाक के साथ कुछ धन भी मिल जाए किंतु मिसेस डीडी जितना समय भी राजनीति के दौर में एग्रीमेंट के तहत रही हैं अब डोनाल्ड  को वह पचा नहीं पा रही हैं इसलिए मुक्त होना चाहते हैं। यह खबर उनके सत्ता की राजनीति में होने के कारण एग्रीमेंट का पालन नहीं हो पा रहा है।

यह दुनिया के शक्तिशाली प्रथम व्यक्ति डीडी और मिसेस डीडी की दुविधा है, ऐसा नहीं है की डीडी के समकक्ष ही ताकतवर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के एमएम (मिकी माउस )की चाहत उनसे कुछ कमजोर है वह भी सत्ता की राजनीति में आते ही नंबर 1 के प्लेन पर अपना आधिपत्य जमा लिया है यह अलग बात है कि मिकी माउस को अपने सारे प्लेन महाराजा सहित बेचने पड़े हैं। तब जाकर वह नंबर एक पर उड़ रहा है। यह भी अलग बात है कि अमेरिका में नैतिकता की नीति के तहत डीडी जिस एग्रीमेंट को लेकर परेशान है वह भारत में कोई एग्रीमेंट ही नहीं होता है। यह भारतीय संस्कार की विशेषता है की मिकी माउस जहां चाहता है उस बिल में घुस जाता है यही उसकी सुरक्षा का कारण भी है और जब चाहता है अपनी अर्धांगिनी को रास्ते पर छोड़ देता है ।मिसेस एमएम ने हलां की कोई "अमेरिकी एग्रीमेंट" सत्ता की राजनीति करने वाले एमएम के साथ नहीं किया था और भारतीय संस्कार होने के कारण मिसेज एमएम परित्यक्ता का जीवन भी जीने को बाध्य है यह बात अलग है कि वह परित्यक्ता नहीं है।

 किंतु अमेरिका की तरह भारत मैं भी धीरे धीरे कानूनी बाध्यता एग्रीमेंट के तरह कहीं-कहीं बातें करती है सत्ता की चाहत त्याग की मूर्ति एमएम को दवाब बनाता है कि अगर चुनाव लड़ना है और प्रधानमंत्री बनना है तो शपथ दो की, कोई पत्नी भी है और बाल बच्चे, उसकी प्रॉपर्टी आदि आदि क्या है। एमएम इसमें अपनेआप फसतें हैं, चालाक एमएम किसी भी बड़े शिकारी को चकमा देकर अब तक किसी भी बिल में अंततः घुस जाने की कला के कलाकार रहे हैं किंतु लोकतंत्र में पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ तमाम सच्चाई यों को स्वीकार करना पड़ता है और किसी भी झूठ को बार-बार स्टेब्लेस्ड और आइकॉन बनाकर उसे स्थापित किया जा सकता है इस तरह अशिक्षा की अयोग्यता की तरह ही मिसेस एमएम को परित्यक्त जीवन की बाध्यता एक योग्यता के रूप में स्थापित की गई है। और यह अपने आप में आत्मनिर्भर भारत का बड़ा प्रतीक ही है। तथा एमएम की सफलता का राज भी। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र का हकदार अमेरिका का डीडी की तरह वहीं फंस जाता और उसकी मजबूरी हो जाती कि वह सत्ता की राजनीति में इसलिए बना रहे ताकि मिसेस डीडी उसे छोड़कर चलता ना कर दे। धन भी गया, धर्म भी गया बीवी भी गई, बाबा भी गया।
 किंतु भारत में जनसंख्या के बल पर सबसे बड़ा लोकतंत्र है इसलिए यहां नैतिकता को धर्म की जाल में सजा कर सत्ता की राजनीति बना रहना आसान है एमएम के लिए यही एक सबसे बड़ी सुविधा है और संस्कारी मिशेज एम एम ने भी कोई एग्रीमेंट भी नहीं किया कि वह सत्ता के हटने के बाद कुछ दबाव बना पाती। इसलिए दुनिया का सबसे ताकतवर लोकतंत्र  का डीडी से जनसंख्या बल के सबसे बड़े  लोकतंत्र का एमएम जीत जाता है। बिना किसी बिल में जाए इस तरह वाल्ट डिज्नी का मिकी माउस, डोनाल्ड डक को हरा देता है

सोमवार, 9 नवंबर 2020

अवैध शराब बिक्री के तले शोषण की हुई शिकार छात्रा......?

 

अवैध शराब बिक्री के तले शोषण की हुई शिकार छात्रा......?

शहडोल।साखी में ही   एक सूत्र के अनुसार कुछ लोग अवैध शराब बिक्री के संरक्षण  देने का काम कर रहे थे  और यह लंबे समय से जारी था  बाद में अवैध शराब बिक्री  की स्थल पर  रह रही  उक्त छात्रा का संपर्क  पुलिस वाले से हुआ  और  कथित तौर पर छात्रा के शोषण के लिए  उक्त पुलिसकर्मी भी  जिम्मेदार रहा।  उक्त छात्रा  किस प्रकार से शोषण की शिकार हुई  इसकी जन चर्चा अलग-अलग प्रकार से  बनी हुई है  किंतु दुर्भाग्य जनक तरीके से  हालात आत्महत्या तक पहुंच गया।  देखना होगा  इतनी सत्य निष्ठा से  इस घटना की छानबीन की जाती है  ताकि आमजन में  पुलिस की विश्वसनीयता  निर्दाग रहे। 

एक समाचार सूत्र के अनुसार 16 वर्षीय किशोरी की फांसी लगाने से मौत होने के बाद पुलिस ने पीएम प्रक्रिया शुरू करा दी है।

3 सदस्य डॉक्टर की टीम पीएम कर रही है कुछ ही देर बाद पीएम होने के पश्चात परिजनों को शव सौंप दिया जाएगा। जैतपुर अस्पताल में यह पीएम का प्रक्रिया शुरू हो गई है। जैतपुर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में 3 सदस्य डॉक्टरों की टीम किशोरी का पीएम कर रही है।
सुरक्षा व्यवस्था को मद्देनजर रखते हुए जैतपुर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भारी पुलिस बल तैनात किया गया है। महिला प्रकोष्ठ की डीएसपी सोनाली गुप्ता, एसडीओपी भारत दुबे, बुढ़ार थाना प्रभारी महेंद्र सिंह चौहान, सिंहपुर थाना प्रभारी सुभाष दुबे मौके पर मौजूद हैं


शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

छोटे प्यादों का फोटो प्रकाशन कितना उचित....?( त्रिलोकीनाथ)

आरोपित अवैध शराब व सट्टा  के छोटे प्यादों का फोटो प्रकाशन कितना उचित....?

 जबकि मुखिया सुरक्षित हो...

(त्रिलोकीनाथ)

आज एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम में रवीश कुमार ने बिहार की शराबबंदी के हालात पर बड़ी रिपोर्ट प्रस्तुत की उसमें सिवान के एक युवक की बात भी की


जो अपनी परिस्थितियों के कारण नौकरी छोड़ कर कोरोना काल में गांव आ गया और इसी दौरान आबकारी पुलिस  का छापा उसके घर में पड़ा जिसमें वह कथित तौर पर शराब कारोबार में पकड़ा गया और 7 दिन जेल मे रहा। जिसके कारण उसकी नौकरी उसकी नौकरी चली गई।

 इस घटना का जिक्र इस फोटो के साथ इसलिए किया गया है कि शहडोल आदिवासी विशेष क्षेत्र में अक्सर देखा जाता है कि बड़े बड़े अपराधों चाहे रेत माफिया  हो, कोल माफिया हो, वन माफिया  हो अथवा उद्योग माफिया आदि आदि माफिया का उनका चेहरा दिखाने में पुलिस बचती रही है या मीडिया भी उसको फोकस करने में बचा है। क्योंकि कोई व्यक्ति बड़ा आदमी है। लेकिन गैर कानूनी तरीके से शराब बेच रहे छोटे तबके के लोगों की फोटो चाहे वे पुरुषों महिलाओं व बुजुर्ग हूं। पुलिस अथवा आबकारी विभाग के प्रेस विज्ञप्ति के साथ जारी किया जाता है। जबकि यह सभी आरोपी  न्यायालय से दंडित भी नहीं होते अथवा उनका चालान भी प्रस्तुत नहीं होता। तो भी उनकी फोटो प्रकाशित कर दिया जाता है ।जबकि न्यायालय उन्हें अंतिम रूप से प्रमाणित भी नहीं करती है। यदि प्रमाणित कर भी दे यह सजा भी देते तो भी इनके अपराधों जो अजीबका परक होते हैं और मात्र सरकारी लाइसेंस जारी कर देने से वैध हो जाते हैं। और फिर वैध लाइसेंस के आड़ में अवैध शराब जो बिकती है ऐसे विक्रेताओं की फोटो भी कभी जारी नहीं की जाती। बल्कि जिले में कहां-कहां ऐसे अवैध कारोबार, वैध लाइसेंस धारी करते हैं उनकी फोटो भी जारी नहीं की जाती ।

फिर स्थानीय नागरिकों को इस प्रकार से फोटो जारी करके महानअपराधी की तरह प्रस्तुत करना कुछ अनैतिक प्रशासन की इंगित करता है। 

शायद हमारा समाचार  जगत इस चीज को नहीं समझ पाता है इसी को समझने के लिए हमने आज जब एनडीटीवी में आरोपित व्यक्ति की फोटो के साथ उसके चेहरे को छुपाए जाने के भाग को देखा तो फोटो खींच कर यह समझने का प्रयास किया है कि शहडोल पुलिस द्वारा इस प्रकार की फोटो जारी करना स्थानीय नागरिकों का कितना जायज है, जायज है भी या नहीं...? अथवा पूरी तरह से नाजायज है।

 तब और जब बड़े अवैध कार्य कारोबारियों को हमारी व्यवस्था संरक्षण देती है... क्योंकि वह भ्रष्टाचार की व्यवस्था के हिस्सा होते हैं और यह छोटे कारोबारी भ्रष्ट व्यवस्था को अप्रोच नहीं करते इसलिए इन्हें खानापूर्ति के रूप में इस्तेमाल भी किया जाता है...

 ऐसा लिखने का आशय यह  नहीं है की अवैध छोटे कारोबारियों को संरक्षण देना चाहिए, किंतु जब बड़े माफिया नुमा कारोबारियों रेत माफिया आदि के अवैध लोगों को थाने में लिस्टेड नहीं किया जाता की कुल कितने आदमी कहां कहां काम कर रहे हैं तो फिर इन छोटे गरीब आदमियों का अपराध क्या सिर्फ यह है कि वे गरीब है...? और परंपरागत तरीके से उस व्यवसाय में अजीबका ढूंढ रहे हैं जो गैरकानूनी है..। क्या इनके पुनर्वास की व्यवस्था भी की जाती है....?

 यह प्रश्न भी अहम प्रश्न है अथवा भविष्य में अपराधियों की सूची बनाने के लिए टारगेट पूरा करने में यह काम आते हैं....? यह यक्ष प्रश्न है। पुलिस अथवा संबंधित प्रशासन को स्थानीय गरीब लोगों के साथ सद्भावना पूर्ण फोटो प्रकाशन से परहेज क्यों नहीं करना चाहिए ....?

तब जबकि स्थापित संरक्षित माफिया के खिलाफ हम सोच भी नहीं पाते.....?



बुधवार, 4 नवंबर 2020

नुकसान पत्रकारिता को... (त्रिलोकीनाथ)

 

कॉरपोरेट मीडिया संकट , 

पतन का विरोधाभासी


 संघर्ष का अर्ध्यसत्य

नुकसान पत्रकारिता को...

(त्रिलोकीनाथ)

यह उकसा कर आत्महत्या कराने का प्रकरण मुझे शहडोल जिले के जैसिंहनगर के 6 पत्रकारों को 306 में फंसाने की याद दिला दे गया ,इसमें कई के भविष्य बर्बाद हो गए ।पुलिस, वह चाहे शहडोल हो या मुंबई की उकसाकर आत्महत्या कराने के मामले में प्रकरण दर्ज करने पर बार बार सोचना चाहिए.... ताकि  सच और झूठ के बीच का फर्क धारा 306 कर सके अन्यथा कानून की लिखी धाराएं लोकतंत्र के दुरुपयोग का कारण बन जाती है और यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है।

किंतु कॉरपोरेट मीडिया हाल में जिस प्रकार से काम कर रहा है यह उसका  पतन का विरोधाभासी संघर्ष है जिला स्तर पर पत्रकारों को पत्रकारिता बचाने के लिए चिंतन मनन करते रहना चाहिए।

 कारपोरेट जगत, पत्रकारिता को सिर्फ यूज एंड थ्रो के रूप में इस्तेमाल करता है।

आइए पहले अपनी कहानी सुनाने के वह कहानी सुनाएं जिसमें अर्णब गोस्वामी को 306 में लपेटा गया है।

पूछता है भारत  के लिए  अपने तरीके से  मीडिया गिरी करने वाले  टीवी चैनल के अर्णव गोस्वामी का मुम्बई पुलिस ने आज  गिरफ्तार कर ही दिया। मॉमला 2018 का है, आत्महत्या के लिए उकसाने का धारा 306 का। अर्नब गोस्वामी को महाराष्ट्र सीआईडी ने 2018 में इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक और उनकी मां कुमुद नाइक की आत्महत्या की जांच के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया है। अर्णब को अलीबाग ले जाया गया है।

जान लें कि अर्नब गोस्वामी का यह मॉमला पत्रकारिता से जुड़ा नहीं है। 

2018 में 53 साल के एक इंटीरियर डिजाइनर अन्वय नाइक और उसकी मां ने आत्महत्या कर ली थी। इस मामले की जांच सीआईडी की टीम कर रही है। कथित तौर पर अन्वय नाइक के लिखे सुसाइड नोट में कहा गया था कि आरोपियों (अर्नब और दो अन्य) ने उनके 5.40 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं किया था, इसलिए उन्हें आत्महत्या का कदम उठाना पड़ा। अर्णब गोस्वामी के रिपब्लिक टीवी ने आरोपों को खारिज कर दिया था।

अन्वय की पत्नी अक्षता ने इसी साल मई में आरोप लगाया था कि रायगढ़ पुलिस ने मामले की ठीक से जांच नहीं की। उन्होंने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से न्याय की गुहार लगाई थी। 

हालांकि, रायगढ़ के तब के एसपी अनिल पारसकर के मुताबिक, इस मामले में आरोपियों के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिले थे। पुलिस ने कोर्ट में रिपोर्ट भी दाखिल कर दी थी।अक्षता के मुताबिक, अन्वय ने रिपब्लिक टीवी के स्टूडियो का काम किया था। इसके लिए 500 मजदूर लगाए गए थे, लेकिन बाद में अर्नब ने भुगतान नहीं किया। जिससे वे तंगी में आ गए। परेशान होकर उन्होंने अपनी बुजुर्ग मां के साथ खुदकुशी कर ली। अक्षता का दावा है कि काफी कोशिश के बाद अलीबाग पुलिस ने अर्णब समेत तीनों आरोपियों के खिलाफ एफआईआर तो दर्ज की थे कथित तौर पर यह मामला क्लोज कर दिया था

शहडोल में दुष्प्रेरण का एक मामला जैसीनगर थाने से जुड़ा हुआ बताया आज जाता है ।जिसमें एक छात्रा के आत्महत्या का कारण यह बताया गया कि जैसीहनगर के 6 पत्रकार पेशे से जुड़े लोगों को घटनास्थल पर एक साथ पहुंचकर परिस्थितियों की संज्ञान लेने के मामले में हुई चर्चा के बाद छात्रा ने आत्महत्या कर लिया था। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात थी की तत्कालीन जिला पंचायत अध्यक्ष श्रीमती कमलेश नट के पति उक्त घटना स्थल स्कूल छात्रावास के मुखिया थे और तब बात चर्चा में आ जाने के कारण मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया और आत्महत्या के प्रकरण पर विशिष्ट छानबीन करने की वजह तत्कालीन पुलिस शहडोल ने पत्रकारों पर ही दुश प्रेरणा का आरोप लगाकर उन्हें आरोपी बना दिया।

 हालांकि कुछ पत्रकारों ने तब यह बात बताई थी किंतु पत्रकारिता का जो संगठन है वह इतना कमजोर थका हुआ और प्रतियोगी है की यह बात मजबूती के साथ पत्रकारिता हित में जोड़कर नहीं देखी गई हो सकता है तब तत्कालीन छात्रा से संबंधित घटना का संज्ञान यदि पुलिस ने लिया होता और वह उक्त विषय की चर्चा करती और तब छात्रा यदि आत्महत्या करती तो क्या पूरी पुलिस टीम पर दुष्प्रेरणना का आरोप लगाकर कार्यवाही की जाती ..?, शायद नहीं..। फिर कोई एक पत्रकार शायद उस प्रेरणा का कारक हो सकता था है .., पत्रकारों का दल पर यह आरोप लगाना तत्कालीन पुलिस की मानसिक दिवालियापन को बताती है फिर भी शहडोल जैसे आदिवासी क्षेत्रों में इस प्रकार से यह पहली बड़ी घटना थी जो पत्रकारिता पेशी के जुड़े लोगों के समूह पर पुलिस ने आरोपित किया था। और शायद तब पुलिस शहडोल पत्रकारिता के प्राकृतिक संसाधन की लूट के उजागर होने से नाराज थी।

 फिर जो प्रचलन बना वह नए पत्रकारिता समाज को जन्म दिया जिससे कॉरपोरेट मीडिया पत्रकारिता की जिस  भाषा में समझता है और बोलता है, जी हुजूरी करने वाले पत्रकारिता विशिष्ट राजनीतिक दलों की पक्षपात करने वाले पत्रकार, पत्रकारिता की नई पीढ़ी के आइकॉन बनते चले गए। यह जब आदिवासी क्षेत्रों यानी पिछड़े क्षेत्रों के हालात हैं तो राजधानी और सुपर मेट्रो सिटी मैं तो पत्रकारिता का नकाब पहनकर कॉरपोरेट जगत में कब्जा कर लिया। ऐसे में पत्रकारिता की आड़ में वह पत्रकारिता को नई परिभाषा देता रहता है। जिसका नतीजा कारपोरेट मीडिया में अंतर संघर्ष के रूप में अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी दुर्भाग्य जनक तरीके से हुई है। तमाम प्रकार की प्रश्न अपनी जगह हैं किंतु यदि नकाब मीडिया गिरी का और उससे जुड़ी पत्रकारिता की साख की बात होती है तब अर्णव चर्चा में आ जाते हैं। और जैसीहनगर के 6 पत्रकार निरपराध अर्णव जैसे आरोपों पर कोर्ट और पुलिस के शिकार हो जाते हैं ।न्यायालय कि अपनी परिभाषा है अपना नजरिया है कानूनी दांवपेच में जैसीहनगर का यह मामला कितना खरा उतरता है अपनी जगह है किंतु इससे जिन लोगों का भविष्य प्रभावित हुआ है उसे समझ कर नई पत्रकारों की पीढ़ी जोखिम लेकर पत्रकारिता का साहस नहीं दिखा पाएगी। वैसे भी भारत में चतुर्थ स्तंभ नाम का तिनका मात्र रह गया है जिसके सहारे पत्रकारिता अपनी नैया पार लगा रही है इसलिए जब भी अर्णव के मामले में शहडोल क्षेत्र अथवा मध्य प्रदेश की पत्रकारिता से जुड़े लोग प्रश्न खड़ा करने की बात करें तो जैसीहनगर के 6 पत्रकारों के मामले में पुलिस पुनर विवेचना करने अथवा राज्य शासन इस पर निर्णय ले यह जरूर शामिल होना चाहिए।

 अन्यथा अर्णव की गिरफ्तारी सिर्फ "बड़े लोगों की बड़ी बात" मात्र है और कुछ नहीं।,

 कम से कम शहडोल की पत्रकारिता के संदर्भ में कुछ भी नहीं।





सोमवार, 2 नवंबर 2020

शहडोल में भी हुआ था लवजिहाद..( त्रिलोकीनाथ)

शहडोल में भी हुआ था लवजिहाद..?,

हिंदुत्व-सरकार रही टांय-टांय फिश....



(त्रिलोकीनाथ)

इन दिनों लव जिहाद का धंधा जोरों पर चल रहा है उत्तर प्रदेश के कट्टर हिंदू का दावा करने वाली योगी सरकार के मुखिया ने बड़ा बयान दिया है किंतु हिंदुत्व की सरकारों में एक दुखद घटना शहडोल में भी घटी जिसका दूरगामी असर पड़ेगा ही पड़ेगा

 कोरोना के दौर में सिर्फ कोरोनावायरस ही भय पैदा नहीं किया शहडोल में एक परिवार ऐसा भी था प्रतिष्ठित परिवार जो लवजिहाद का शिकार हो गया। कहने के लिए हिंदुत्व और आर एस एस की प्योर सरकार जो 16-17 वर्ष से मध्यप्रदेश में अपना हिंदुत्व का सुशासन चलाई और उत्तरप्रदेश में कट्टर हिंदुत्व की सरकार इसदौर उस दोनों सरकारों में की पुलिस ने लवजिहाद को रोकने में नाकाम रही। ऐसा भी नहीं है कि हिंदुत्व के संगठन जो अलग-अलग रूप में, नाम में है उन्होंने इस पर संज्ञान नहीं लिया.... बावजूद इसके कट्टर हिंदुत्व की उत्तरप्रदेश की सरकार लाचार, बेबस और सिर्फ भ्रष्ट दिखी..। जिसका बड़ा खामियाजा शहडोल के एक बड़े परिवार में पड़ा और अंततः हिंदुत्व के ठेकेदारों के बीच में ठीक  उसी तरह अपनी लड़की को शिकारियों के हाथ में सौंपना पड़ा जिस प्रकार से लवजिहाद के शिकारी पूरे कानूनी स्वरूप में शहडोल की लड़की का शिकार कर ले गए। क्योंकि वह युवक और युवती कानूनी शादी की उम्र पार कर चुके थे। बचाकुचा एक  अधिवक्ता ने भूल भुलैया का वातावरण बनाकर उत्तरप्रदेश के उस शहर में उन्हे गुमा दिया।

 ऐसे हालात में जबकि इस्लामी कट्टरपंथी हिंदू लड़की का अपहरण कर ले कर ले जा रहे थे उस दौर में उस लड़की से मुलाकात कराने का एक भी अवसर ना तो मध्यप्रदेश के हिंदुत्व और आर एस एस की सरकार ने जिम्मेदारी उठाई और ना ही उत्तरप्रदेश के कट्टर हिंदू का नकाब पहन कर काम करने वाली सरकार ने कोई सहूलियत प्रदान की।

 इसमें यह तर्क भी खड़ा नहीं किया जा सकता की  हिंदू लड़की का पक्ष भारतीय जनता पार्टी से जुड़ा नहीं था... बावजूद इसके क्योंकि ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से ज्यादा निजी राजनीतिक हित मात्र कोई प्रगट नहीं हो पा रहे थे इसलिए हिंदू लड़की का पक्ष उत्तर प्रदेश में वास्तविक परिस्थितियों देखने के बाद भी कि मुस्लिम युवक की आर्थिक हालात बहुत जर्जर है और वह हिंदू लड़की की वर्तमान रहन-सहन की स्तर को पार भी नहीं सकता शहडोल का परिवार शिकंजे में फंसी लड़की को तथाकथित लव जिहाद से मुक्त नहीं करा पाया क्योंकि उत्तर प्रदेश में अधिवक्ता ने व कायदे लड़की को तब तक दूर रखने का काम किया जब तक कि न्यायालय में संरक्षण पाने की कानूनी सहूलियत लड़की को ना मिल जाए क्योंकि यह प्रदर्शित किया गया कि लड़की को अपने मां-बाप से ही जान का खतरा है इसका एक पक्ष इसलिए भी ज्यादा गंभीर है की लड़की ने एक मोटी रकम लेकर के मुस्लिम युवक के बहकावे में आकर अपने परिवार को और उसकी शान शौकत तथा इज्जत को धता बताते हुए अपहृत हो गई या ने जानबूझकर चली गई और उस घेराबंदी में जा पहुंची जहां उसे समझाया गया कि अब उसे अपने हिंदू परिवार से जान का खतरा है यदि कट्टर हिंदू उत्तर प्रदेश की सरकार से संरक्षण का आश्वासन सांगठनिक तौर पर होता या फिर हिंदू संगठनों के जरिए वह गाजीपुर में संरक्षित होती है तो उसकी मन है स्थिति सोचने और समझने की भिन्न होती सिर्फ यह कह देना की लड़की और लड़के बालिग हैं ऐसे किसी कथित लव जिहाद में फंसा कर कोरोना के भयानक कार्यकाल में हिंदू परिवार कट्टर हिंदू  सरकार मैं अपने अधिकार को लेकर परिवार सहित जान में जोखिम डाल कर घूमती रही यदि एक व्यक्ति को भी कोरोना तो हालात वितरित हो जाते अंततः यह मानकर हिंदू परिवार ने लड़की को दूरी बना ली कि अब उसके बस में उत्तर प्रदेश के हिंदू सरकार कोई संरक्षण नहीं दे पाएगी लेकिन यहां पर यह देखना अहम होगा कि क्या ऐसे लव जिहादी भविष्य में लड़की की ओर से उसके मां बाप की संपत्ति पर हक नहीं जम आएंगे तो क्या यह माना जाए हिंदू लड़की को बहला-फुसलाकर कोई राह चलते व्यक्ति न सिर्फ लड़की को अपहृत किया बल्कि उसके साथ एक मोटी रकम भी निकलवा कर अपने खाते में ट्रांसफर करवाया और भविष्य में जब लड़की का परिवार कमजोर या वृद्ध हो जाएगा तब लड़की अपने हक के लिए कानूनी नकाब पहनकर मां-बाप की धन संपत्ति मेहक नहीं जब आएगी जो वास्तव में उस रोड छाप मुस्लिम युवा की लूटी हुई संपत्ति मानी जाएगी ...।यह अलग बात है कि ।हर कोई लड़की "गुलाबो-सिताबो" की बेगम फातिमा नहीं है कि वह जीवन के अंतिम दौर में ऐसे लोभी आशिकों को भी धता बता देते हैं। इस तरह वर्तमान में लव जिहाद के धंधे पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेक रहे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आशा की किरण बनकर नजर आते हैं यह अलग बात है कि यह भी हिंदुत्व का झुनझुना ना साबित हो जाए......

 (इस आलेख को लिखने का उद्देश्य किसी परिवार को दुखी करना नहीं है बल्कि दुखत परिवार की आत्मीयता के साथ अन्य परिवारों को सबक सीखने की जरूरत है कि राजनीतिज्ञों से निजी मामलों में बहुत आसान लेकर काम नहीं करना चाहिए बल्कि स्वयं का संरक्षण स्वयं करना चाहिए)



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