अपनी अपनी खेती.......
किसान बनाम करोना....,
(त्रिलोकीनाथ)
वह पंजाब की धरती है जहां भगत सिंह जन्मे थे और उन्हें यदि भ्रम भी है तो भी वह गुलामी से मुक्त होने की तड़प रखते हैं... फिर शासन उन्हें आतंकवादी कहे, देशद्रोही कहे या
खालिस्तानी उन्हें फर्क नहीं पड़ता। यही सतत संघर्ष का बड़ा मार्ग है जिसमें देश की आजादी सुरक्षित रहती है।
तो इतने बड़े आंदोलन में आदिवासी क्षेत्र शहडोल का कोई प्रतिनिधित्व जिंदा भी है यह लिखा जाने वाला इतिहास बताएगा...? क्योंकि आजादी के 5 दशक बाद तक शहडोल उमरिया और अनूपपुर यानी शहडोल क्षेत्र की सिंचित कृषि का रकबा मात्र 4-5 प्रतिशत के इर्द-गिर्द था क्योंकि सरकारों ने यहां की किसानी को पनपने नहीं दिया। प्राकृतिक संसाधन से भरपूर शहडोल क्षेत्र आज भी उसी प्रकार से माफिया और तस्करों से लूट रहा है जैसे पहले लूट रहा था। सिर्फ सरकार का चेहरा बदला है ।यह कहना गलत नहीं होगा कि किसान आंदोलन के संदर्भ में किसी ने भी यदि सत्ता समर्पित उद्योगपतियों के खिलाफ सोचने की हिमाकत की तो उसे आतंकवादी या राष्ट्रद्रोह तो नहीं कहा गया किंतु जिला-बदर करना प्रशासन के बाएं हाथ का खेल था। और यह अनुभव शहडोल में कम से कम एक बार तो हमने भी देखा है कि रिलायंस कंपनी के खिलाफ जब किसान आंदोलन के जरिए कोई ग्रामीण व्यक्ति राधेश्याम अपने लोक-ज्ञान का प्रयोग करता है किसानों को संगठित करने की सोच रखता है तो उसे बुद्धिमान समाज याने कलेक्टर चाहे वह पदोन्नत कलेक्टर ही क्यों ना रहा हो अथवा आईआईटी से निकले पुलिस अधीक्षक किस तरह से जिला बदर कर देते हैं। ताकि शहडोल के किसान आंदोलन को उद्योगपति के खिलाफ खड़ा ना होने दिया जाए। क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्र है इस दृष्टिकोण में पूरा भारत शहडोल से पूरी तरह से उसी प्रकार से कटा दिखता है जैसे वह अंडमान निकोबार दीप समूह का हिस्सा हो...?
बावजूद इसके की सर्व संपन्न प्राकृतिक संसाधन से परिपूर्ण शहडोल में किसानों की समस्या दमन और शोषण की तमाम चरम सीमाओं को पार कर रहा है। बावजूद भारत में चल रहे क्रांतिकारी किसान आंदोलन में शहडोल का प्रतिनिधित्व शून्य क्यों दिखता है...? यह प्रमाणित रुप से शोषण का सर्टिफिकेट भी क्यों न माना जाए ।
बहरहाल बात भारत की किसानी आंदोलन की तो किसान बनाम राम,किसान बनाम पश्चिमबंगाल और किसान बनाम निजाम अब किसान बनाम अन्नपूर्णा आदि आदि नाम के अनेक प्रकार के मोर्चा खोलकर सत्ता की राजनीति को पिछले 70 साल एक गाली की तरह देखते हुए मोदी-सरकार ने अपने "सत्ता-सिंहासन" को अपने तरीके से और अपनी शर्तों पर चला रहे। क्यो की लोकतंत्र में लोकमत और जनमत ही सर्वोच्च होता है इसलिए विपक्ष को अंततः टुकड़े-टुकड़े गैंग के रूप में कश्मीर के गुपकार संगठन के जरिए अपनी भावनाएं सब तक पहुंचा दी। अपने विरोधियों को अंत में आतंकवादी वा राष्ट्रद्रोह घोषित करनेे का किया ।
तो विरोधी अगर भारत का किसान है तो उसे भी आतंकवादी बताने में सरकार जरा भी शर्म महसूस नहीं करती। किंतु इस बार मुकाबला राजनीतिक दलों से ना होकर किसानों से है जो दिल्ली को घेराबंदी करने में अड़ गए हैं।
गुलाम-मीडिया से लेकर तमाम प्रोपेगेंडा के तमाम अस्त्र जब फेल हो गए तब गृहमंत्री अमित शाह के जरिए सशर्त-वार्ता का प्रस्ताव दिया कि अगर बुराड़ी में पूरे किसान एकत्र हो तो दूसरे दिन वार्ता हो सकती है। जिसे भारत का बुद्धिमान लोकज्ञानी किसान समाज एक सिरे से खारिज कर दिया ।
जैसे वह समझ चुका है कि बुरारी में एक जगह इकट्ठा करने और बाद में उसमें विद्रोह कराने का खेल वह समझ चुका हो...?
बहरहाल आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंत में कहीं कनाडा में गायब हो चुकी तथाकथित अन्नपूर्णा देवी को ढूंढकर वापस ला किसानों को धार्मिक चक्रव्यूह में फंसाना चाहते थे किंतु किसान समाज नरेंद्र मोदी की अब तक के तमाम झूठे अनुभवों से सच को जान चुका था। इसलिए उन्हें भी खारिज कर दिया ।
नरेंद्र मोदी ने कहा
कृषि कानूनों के खिलाफ जारी किसानों के आंदोलन के बीच हो रहा है. फिलहाल, पीएम मोदी ने मन की बात कार्यक्रम में कहा कि एक खुशखबरी सुना रहा हूं. कनाडा से मां अन्नापूर्णा देवी की मूर्ति वापस लाई गई है. इसके लिए कनाडा सरकार का आभार व्यक्त करता हूं.
पीएम मोदी ने मन की बात कार्यक्रम ने कहा कि आज मैं आप सबके साथ एक खुशखबरी साझा करना चाहता हूं. हर भारतीय को यह जानकर गर्व होगा कि देवी अन्नपूर्णा की एक बहुत पुरानी प्रतिमा कनाडा से वापस भारत आ रही है. माता अन्नपूर्णा का काशी से बहुत ही विशेष संबंध है. अब उनकी प्रतिमा का वापस आना हम सभी के लिए सुखद है. माता अन्नपूर्णा की प्रतिमा की तरह ही हमारी विरासत की अनेक अनमोल धरोहरें, अंतरराष्ट्रीय गिरोहों का शिकार होती रही हैं."
किंतु इसे भी एक शतरंजी चाल की तरह देखकर भारतीय किसान समाज यह जाग चुका है की करोड़ों सनातन हिंदू धर्म समाज को हिंदुत्व के बहकावे में लाकर उसे अफजा या ज्यादा नहीं भटकाया जा सकता।
पुराने अनुभव के के आधार पर लोक ज्ञानी समाज कृषि बिल में संशोधन के अलावा उसे कुछ स्वीकार नहीं है। और यही कारण है कि सरकार से आर पार करने पर उतर गया है यही लोकतंत्र की खासियत होती है जब लोकतंत्र के नेता भ्रमित हो जाते हैं तब लोक ज्ञान उसका मार्ग प्रशस्त करता है ।
और शायद कोरोनाकाल मे लाए के कृषि बिल मे किसान समाज जिस अंदाज में हाल में हुए उपचुनावों की भीड़ में चुनाव कराने की प्रक्रिया को देखा और समझा उसने कोरोनावायरस की उपस्थिति को भी नजरअंदाज कर खुलेआम कोविड-19 सबसे खतरनाक स्थान दिल्ली की घेराबंदी करने की घोषणा कर दी और तमाम उन रास्तों को रोकने का काम किया जहां से लोग आते जाते हैं दिल्ली की सल्तनत जहां जाम होती है। अब अगर कोरोनावायरस का संक्रमण सोशल डिस्टेंसिंग के जरिए फैलता है और लोग उससे प्रभावित होकर मरते हैं तो यह जनरल डायर के फायरिंग के आदेश से जलियांवाला बाग में मारे गए नागरिकों से कमतर नहीं होगा। और सरकार इस जिम्मेवारी से भाग भी नहीं सकती।
पंजाब के संपन्न किसान समाज शायद देश का अग्रणी किसान समाज है जिसने अपनी समझ के आधार पर स्वाभाविक रूप से भारत के किसान आंदोलन का नेतृत्व का मोर्चा संभाल लिया है यह अलग बात है यह सब कुछ स्वाभाविक हो रहा है। और पंजाब किसानों की जागरूकता के आधार पर भारत के डरे और सहमे हुए अन्य किसान समाज अपनी-अपनी जागरूकता से अपनी बातों को दिल्ली में जाकर रखने का प्रयास कर रहे हैं। सत्ता धीशों की लापरवाही से कोरोनावायरस का वह का जो भयानक भ्रम जाल जो बुना गया था वह भारत का लोकज्ञानी समाज तोड़कर जोखिम उठाते हुए देश की अस्मिता के प्रश्नों पर दिल्ली की सड़कों पर है।
हो सकता है किसान समाज को जो महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो "भारत की आत्मा गांवों में बसती है" और वही आत्मा और कोई नहीं यही किसान हैं और आत्मा की आवाज यह है कि सरकार भयानक भ्रम जाल में के बीच जो कृषि सुधार बिल लाई है उससे उसे भारतीय किसान समाज को खत्म हो जाने का खतरा है । हो सकता है सरकार सही हो.? और कृषि बिल में किसान हित हो...? यह भी हो सकता है कि सरकार पूरी तरह से गलत हो... किंतु सही और गलत के बीच में जो समझ स्थापित होनी चाहिए वह तानाशाही की धरातल पर संभव ही नहीं है। और सरकार तानाशाही पर विश्वास कर अपनी शर्तों में काम करने की आदी हो गई है।
धीरेे धीरे बीते 70 साल को गलत बतानेे वाली मोदी सरकार को सिर्फ 70 दिन के किसान आंदोलन ने घुटने के बल खड़ा किया है। अब तानाशाही के जरिए बात होगी या फिर विनम्र भारत अपने आत्मा से सलाह लेकर काम करेगा यह बात देखने की होगी। किंतु यदि बात तानाशाही की धरातल पर ही चलती रहे तो भयानक रक्तपात क्या भारत का भविष्य बनेगा?
यदि ऐसा होता है तो इंदिरा गांधी की आपातकाल को पीछे छोड़ देगा क्योंकि यह सामूहिक रक्तपात का भयानक मंजर होगा चाहे वह कोरोनावायरस के जरिए ही क्यों ना हो....? और यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि पंजाब वह धरती है जहां जलियांवाला बाग में तानासाह सत्ताधीस अंग्रेजी पुलिस अधिकारी के तानाशाही को छाती पर झेल चुका है। और शायद इसीलिए पंजाब किसानों पर सरकार के तमाम भ्रम जालो का कोई असर नहींं पड़ता। अपने लक्ष्य को पाने के लिए आज भी वही जज्बा भारतीय लोकज्ञानी समाज में स्थापित है। किसान आंदोलन से सिर्फ यही नजर आता है अगर चुनौती बड़ी है तो रास्ता गांधीवादी क्यों नहीं होना चाहिए किसानों की आंदोलन पर पूरे देश की निगाहें आशा भरी नजरों से सफलता के मुकाम पर टिक गई हैं।
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