मंथन -1
यानी
मजबूत लोकतंत्र ...
(त्रिलोकीनाथ)
बीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में एक विशेषता थी कि उसमें पार्टी के कार्यकर्ता के जन्म लेने का प्रचलन था, अब यह 21वीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दल का कार्यकर्ता किसी लोकतांत्रिक प्राकृतिक प्रसव -पीड़ा के जरिए नहीं आता है बल्कि वह टेस्ट-ट्यूब से फैक्ट्री की तरह एक प्रोडक्ट मात्र है। यानी एक प्रकार का जैविक यंत्र मात्र, जिसे रिमोट कंट्रोल के जरिए नेता जो कभी परिवारवाद से अथवा विरासत से जन्म लेता था 21वीं सदी में नेता परिवार का मुखिया बनने के बजाय डॉन बन कर रहना पसंद करता है।
वह एक माफिया का डॉन रहता है यही कारण है की 20वीं सदी में पार्टी कार्यकर्ताओं को नेता बनने के अवसर उस पार्टी में जिंदा रहते थे किंतु माफिया का डांन बनने की प्रक्रिया में माफिया डॉन जिसे सेलेक्ट करता है वही पार्टी का नेता होता है। इसे ही 21वीं सदी में इंटरनल-डेमोक्रेसी (आंतरिक लोकतंत्र )की परिभाषा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
पतित होता लोकतंत्र......
जबकि वास्तव में चाहे आजादी की लड़ाई का जन्मा हुआ नेतृत्व हो अथवा जनक्रांति के दौर में जयप्रकाश के आंदोलन से निकले हुए नेता हो या फिर अन्ना हजारे के आंदोलन से निकले हुए लोग हो (हालांकि अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दावा भी प्रस्तुत रहा है) वे सभी स्वाभाविक पार्टी के कार्यकर्ता थे और लोकतंत्र की प्रसव पीड़ा से जन्म लेकर नेता बने थे। किंतु बीसवीं सदी से ही माफिया डॉन के रूप में पार्टी चलाने की सोचने बिना राजनीतिक प्रसव पीड़ा के ऊपर से कार्यकर्ता नियुक्त होने लगे थे।जिन्हें तथाकथित वोट के माध्यम से निर्वाचित घोषित करा कर स्थापित किया जाने लगा और इसे ही 21वीं सदी में स्थापित लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करने का काम हुआ।
इससे वास्तविक लोकतंत्र मरने लगा और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत आधी सदी के बाद ही गुलामी की नई व्यवस्थित अनुशासित चुनी हुई यांत्रिक व्यवस्था के रूप में माफिया-प्रोडक्ट जन्म लेने लगा। जो वास्तव में प्राकृतिक प्रसव पीड़ा के नहीं बल्कि पॉलिटिकल टेस्ट ट्यूब के माफिया प्रोडक्ट हुए। किसी फैक्ट्री में उत्पाद की तरह संख्या बल बढ़ाने लगे।
लोकतंत्र के तराजू मे बटखरे की भूमिका |
यह तो हुई 20वीं और 21वीं सदी की राजनैतिक इच्छा शक्ति के पतन की परिस्थिति। अब देखते हैं कि आखिर यह क्यों हुई? क्या संभावना जीवित है... कि वास्तविक लोकतंत्र जिंदा रह पाएगा.....?
जी हां, वास्तविक लोकतंत्र की सुनिश्चित गारंटी है उसके अंतर्गत प्राकृतिक रूप से लोकतांत्रिक पद्धति में राजनीतिक-प्रसव-पीड़ा से कार्यकर्ता का जन्म हो, किसी फैक्ट्री उत्पाद की तरह कोई उद्योगपति अपने प्रोडक्शन पैदा न करें। और सच बात भी यह है की लोकतंत्र भारत का सिर्फ इसलिए जिंदा था क्योंकि का तराजू के दो पढ़ले में पक्ष और विपक्ष के बीच में न्याय सूचक कांटा तराजू की परिभाषा नहीं होता था बल्कि तटस्थ भूमिका अदा करने वाला और इन दोनों को बैलेंस करने वाला बटखरा तराजू के कांटे को नियंत्रित करने का हमेशा काम करता रहता था। बटखरा, पक्ष और विपक्ष को न्याय पद्धति में खड़ा करके ओझल हो जाता था। किंतु यह दलाल नहीं था । बल्कि उसकी पहचान थी कि वह धातु का वह टुकड़ा है जो बटकरे के रूप में न्याय को जिंदा करने के लिए तराजू के कांटे को बीच में बैलेंस करने का काम करता था। लोकतंत्र के लिए यह अत्यावश्यक रहा की तराजू पक्ष और विपक्ष और बांट और कांटे के साथ बटखरे को साथ साथ लेकर चलें किंतु पक्ष और विपक्ष ने बटकरे को खाना चालू कर दिया, उसकी कमजोरी को अपनी ताकत बनाना चालू कर दिया| इस तरह लोकतांत्रिक पद्धति के पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई |
बटखरे का विस्तृत रूप ,चौथा स्तंभ "पत्रकारिता"
बटखरे का एक और विस्तृत रूप रहा जिसे चौथा स्तंभ पत्रकारिता के रूप में देखा गया| वही बटकरे की ताकत थी और वही पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए याने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बने रहने के लिए संजीवनी बूटी थी ताकि लोकतंत्र जिंदा रहे| किंतु जब संजीवनी बूटी ही खत्म होने लगी तो पत्रकारिता का खत्म हो जाना स्वाभाविक था| याने 2020 की हालात में देखें तो अगर एक परसेंट भी पत्रकारिता जिंदा है इसका मतलब बटखारा भी कहीं जिंदा है, उसमें जीवित रहने की जिजीविषा भी है अन्यथा लोकतांत्रिक नकाब ओढ़ कर माफिया-डॉन की राजनीति पत्रकारिता को भी खत्म कर रही है|
यह खतरनाक प्रयोग 21वीं सदी में प्रारंभ हो गए हैं इसको हम चाहे तो इस प्रकार से भी समझ ले कि राष्ट्रवाद के नाम पर जब कुछ पार्टियां अपनी पहचान बनाने लगी तो शेष राजनैतिक दल, राष्ट्रद्रोही हो गए या फिर गैर-राष्ट्रवादी| जब राजनीतिक इच्छाशक्ति का लोकतंत्र में पतन होने लगा तब पत्रकारिता में भी यह बीमारी आ गई| बदलते परिवेश में पत्रकारिता, प्रेस, मीडिया, मल्टीमीडिया आदि-आदि नाम से अपना पहचान बनाने लगी और नए परिवेश में वह इसे "कॉर्पोरेट-जनरलिज्म" का संज्ञा दे डाली|
नतीजतन कॉर्पोरेट-जर्नलिस्ट से मीडिया गिरी "कॉर्पोरेट-जनरलिज्म" का छोडकर राष्ट्रवादी पत्रकारिता का झंडा लेकर कुछ मीडिया के लोग स्वयं को राष्ट्रवादी पत्रकार होने का प्रोपेगेंडा सत्ता के समर्थन से प्रचारित करने लगे। जैसे अर्णब गोस्वामी एक पत्रकार मीडिया गिरी का नकाब पहनकर "पूछता है भारत" स्लोगन देकर स्वयं को राष्ट्रवादी पत्रकार घोषित कर दिया|
जैसे वही एकमात्र राष्ट्रवादी पत्रकार है और बाकी देश के पूरे पत्रकार या तो गैर-राष्ट्रवादी हैं या फिर राष्ट्र-द्रोही यह पत्रकारिता पर स्वयंभू मीडिया का बड़ा हमला भी है...| यह मूल पत्रकारिता की हत्या का भी प्रयास है (जारी 2)
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