शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

स्वस्थ पत्रकारिता यानी स्वस्थ लोकतंत्र (त्रिलोकीनाथ)

 मंथन -2

स्वस्थ पत्रकारिता    

यानी

स्वस्थ लोकतंत्र

(त्रिलोकीनाथ)   

बीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में एक विशेषता थी कि उसमें पार्टी के कार्यकर्ता के जन्म लेने का प्रचलन था, अब यह 21वीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दल का कार्यकर्ता किसी लोकतांत्रिक  प्राकृतिक प्रसव -पीड़ा के जरिए नहीं आता है बल्कि वह टेस्ट-ट्यूब से फैक्ट्री की तरह एक प्रोडक्ट मात्र है। 
ऐसा नहीं है कि यह उनकी अपनी सोच हो, माफिया-गिरी की राजनीतिक इच्छाशक्ति से जो प्रोपेगेंडा की फैक्ट्री स्थापित की गई है जिसमें से लोकतंत्र के कार्यकर्ता प्रोडक्ट की तरह पैदा होते रहते हैं और 130 करोड़ आबादी का ठेका लेते हैं, दरअसल ऐसे ही लोग लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहे हैं| फिर वे राष्ट्रवादी हो या ना हो किंतु वह गद्दार नहीं है..| ऐसा मेरी सोच है, हो सकता है यह सोच गलत हो| किंतु लोकतंत्र के लिए किसी एक सोच मैं एस्टेब्लिश होना ही पड़ेगा और लोकतंत्र की आवश्यक राजनीतिक कड़ी के रूप में तराजू के बटखरे का का जिंदा रहना धातु के टुकड़े में उसका बना रहना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वही एकमात्र टेस्टट्यूब है याने पैरामीटर है| जो स्वस्थ पत्रकारिता के जरिए स्वस्थ लोकतंत्र को बनाए रखता है|
स्वस्थ पत्रकारिता के जरिए स्वस्थ लोकतंत्र 
 यह बात बहुत कशमकश वाली है  कि अगर आप पत्रकारिता में हैं तो राजनीतिक मंच में जाने के लिए आपको आग से होकर जाना पड़ेगा| कई ऐसे बड़े पत्रकार हैं जो स्वतंत्रता और निष्पक्षता के लिए आइकॉन रहे |अरुण शौरी का नाम बीसवीं सदी में इनमें लिया जा सकता है और बदली की परिस्थिति में पत्रकार आशुतोष गुप्ता का नाम भी लिया जा सकता है| आज अगर देखा जाए तो यह दोनों निष्पक्ष पत्रकार राजनैतिक मार्ग में जाने के लिए आग में झुलसे हुए पत्रकार के रूप में दिख रहे हैं| क्योंकि राजनीतिक दलों में प्राकृतिक प्रसव पीड़ा की राजनीतिक इच्छाशक्ति के नेता की चाहत रखने वाले लोग अब माफिया-डॉन की भूमिका में अपने राजनीतिक दलों का संचालन करना चाहते हैं |

अरुण शौरी या प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर जैसे आईकॉन को देख कर हम लोग भी भारतीय लोकतंत्र में पत्रकारिता की संभावना के मार्ग पर चलें| अरुण शौरी तो मूर्ति-भंजक पत्रकार माने जाते थे |कुछ अच्छा करने की चाहत में वे राजनीति कोयला-खदान में जा फंसे और कालिक तो लगनी ही थी| तब अरुण सॉरी जो कहते थे और पत्रकारिता में प्रयोग करते थे वह किसी भी बड़ी राजनैतिक नेतृत्व के लिए कसौटी का परिचायक होती थी | यदि दोष होता था तो वह टूट जाता था| इसीलिए वे मूर्ति-भंजक पत्रकार के रूप में भी जाने गए | इसलिए भी वे हमारे आईकन थे |
अब जबकि ऐसे पत्रकारों में दो लड़कियों के पिता मैग्सेसे अवार्ड प्राप्त रवीश कुमार जब कोई प्रयोग करते हैं तो उन्हें मां-बहन की गाली देना माफिया गिरी की राजनीति पार्टियों के लिए सहज हो गया है| क्योंकि वे माफिया-डॉन के प्रोडक्ट हैं| नैतिकता का संभल उनके लिए मायने नहीं रखता| अब उनका विचार तंत्र मजबूत होता है तो वह अपनी राज विचारधारा से प्रभावित करके रवीश कुमार को राजनीतिक नेतृत्व मिला सकते थे| जैसे अटल बिहारी बाजपेई जैसे नेताओं ने अरुण शौरी को लाया था| यह अलग बात है कि  भविष्य अरुणशौरी जैसे ही होता है|
 क्योंकि राजनीति की काली दुनिया में कालिख लगनी ही थी| किंतु लोकतंत्र बचा रहता, अगर किसी एक बलिदान से गांव समाज का या देश का हित होता है तो ऐसे प्रयोग किये जाए| हलां कि इसरूप से मैं इसे भी नाजायज मांगता हूं यह मानवाधिकार के खिलाf भी  है| किंतु दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यदि स्वतंत्रता बरकरार रखनी है तो किसी को भगत सिंह और किसी को चंद्रशेखर आजाद की तरह बलिदान भी होना पड़ेगा |
यही एकमात्र योग्यता है कि लोकतंत्र जिंदा रहे अन्यथा गोरे अंग्रेजों की गुलामी  की विचारधारा "चुनी हुई सरकार" के रूप में लोकतंत्र का नकाब पहनकर दबे पांव भारतीय जनमानस में गुलामी के वर्चस्व को स्थापित कर रही है| यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना अच्छा है किंतु 21वीं सदी के भारत में डिजिटल इंडिया में यह होता नहीं दिख रहा है |राजनीतिक पार्टियों में कार्यकर्ता, नेता नहीं बन रहे हैं बल्कि रेडीमेड प्रोडक्ट neta का नकाब  पहनाकर प्रस्तुत किए जाते हैं जिसे कार्यकर्ताओं को गुलामों की तरह स्वीकार करना पड़ता है |और वह भी पूरी अनुशासन, समर्पण और निष्ठावान कार्यकर्ता की कसौटी में खड़े होकर | क्योंकि उसकी निगरानी कोई अदृश्य शक्ति कर रही होती है| 
यही कारण है की अदृश्य शक्तियां लोकतंत्र में आवश्यक बटघरों को नष्ट भी कर रही हैं और उसके जरिए निष्पक्ष पत्रकारिता को दमन भी | 
बहरहाल नजदीक से शीर्ष नेतृत्व के इर्द-गिर्द रहकर देखने और समझने से यह महसूस होता है कि हर राजनीतिक दल में लोकतंत्र के प्रति आंतरिक सत्य को महसूस करने की ताकत अभी भी जिंदा है यह अलग बात है कि वास्तविक सत्य को, दिखाने वाले सत्य के रूप में प्रस्तुत करने की ताकत में  वह नपुंसक होती जारही है 
यानी मानसिकगुलाम माफिया-डॉन की राजनीति के सामने नतमस्तक है और यही पतित लोकतंत्र की शुरुआत है ।                             (जारी 3)






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