मंगलवार, 31 मार्च 2020

मुद्दा, न्यायपालिका और पत्रकारिता का.. ,लोकतंत्र, को रोना और पत्रकारिता-4 (त्रिलोकीनाथ)

लोकतंत्र, को रोना और पत्रकारिता-4 
मुद्दा, न्यायपालिका 
और पत्रकारिता का.. 

😓राहत-राशि देने में यह संवेदनहीन 
क्यों है वे ......?
वक्त की नजाकत,
इन्हें कौन समझाए...🤔

( त्रिलोकीनाथ )
         बॉम्बे बार एसोसिएशन (बीबीए) ने रविवार को एक नोटिस जारी किया जिसमें कहा गया है कि बॉम्बे बार एसोसिएशन ट्रस्ट कोरोना वायरस की महामारी से निपटने के लिए प्रधानमंत्री राहत कोष में 10 लाख रुपये का योगदान दे रहा है। बीबीए सचिव और वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. बीरेंद्र सराफ द्वारा लिखित नोटिस, में कहा गया है- "पूरी दुनिया की तरह, भारत अपने सबसे बुरे संकटों में से एक का सामना कर रहा है क्योंकि यह COVID -19 की महामारी से लड़ रहा है। जैसा कि आप जानते हैं, हमारे देशवासियों  देशवासी दैनिक आजीविका और अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं.......

        इस खबर के बाद मैंने विचार किया,
जब मैंने यह कड़ी प्रारंभ की थी तो अपनी पहली कड़ी में विशेषकर भारतीय संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल आदिवासी विशेष क्षेत्रों के पत्रकारों के लिए, क्योंकि हमारी पहुंच यहीं तक है, के बीच में इस बात का भी संदेश देने का प्रयास किया था कि अपने आर्थिक परिस्थितिकी को अपने अद्यतन परिवेश को अपने  नजरिए से शासन व प्रशासन के बीच में रखना चाहिए। वह इसलिए भी ताकि शायद विश्वव्यापी कोरोना महामारी की भयावहता के मध्ये नजर भ्रष्ट राजनीत और उसके वृंदगान गाने वाले राज-भाठों से बाहर निकल कर उनका आत्ममंथन यह सुनिश्चित करें कि बीते 70 साल के बाद क्या पत्रकारिता को लेकर, उस पर आश्रित मनुष्यों को लेकर उनमें कोई संवेदना उनकी स्वतंत्रता को बरकरार रखते हुए उन्हें जीने का हक देती है....
    जीना और मरना कुदरत का करिश्मा है, इसमें कोई शक नहीं...., यदि कुदरत ने तय कर लिया है तो शासन और प्रशासन हो या चीन का तथाकथित जैविक रासायनिक हथियार कोरोना; वह कुदरत के लक्ष्य को प्राप्त करेगा ही..... और यदि यह महामारी है तो हवा के झोंके की तरह यह भी निकल जाएगी.... कुछ बड़े पेड़ गिरेंगे, किंतु छोटे-मोटे घाॅस-फूंस फिर भी जीवित रहेंगे... यह भी कुदरत का करिश्मा है।
     किंतु हमें तो मनुष्यों की सतत स्वतंत्रता के लिए संभावनाओं के अवसर देखने चाहिए और भारतीय पत्रकारिता की पतनसील स्थिति पर इस महामारी में भी सरकारी भोंपू के अलावा बहुत कुछ दिखती नहीं रही है। आज चीनी कोरोनावायरस हमले का घोषित छठवां दिन है, कई प्रकार की राहत शासन स्तर पर आर्थिक रूप से कमजोर तथा मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर हो रहे लोगों के लिए जारी किए जा रहे हैं।
 हमारे पहले कड़ी में, अपने कारणों के सहित मैंने प्रस्तुत करने का काम किया कि शायद अन्य पत्रकार भी अपनी आर्थिक परिस्थितिकी को समझते हुए अपने मनोवैज्ञानिक दबाव को ठीक करने के लिए शासन से आर्थिक पैकेज की, जमीनी पत्रकारों के लिए खासतौर से जो चिन्हित है, व सूचीबद्ध है ,हालांकि इसमें उनके सूत्र नहीं है, गैर पत्रकार भी नहीं है। फिर भी जितने भी हैं उन सूचीबद्ध लोगों को आर्थिक पैकेज देकर राहत प्रदान करना चाहिए....
 जैसी अपेक्षा थी "मुंडे-मुंडे मतर् भिन्ना...."  उसी अनुरूप पत्रकारों ने अपेक्षित एप्रोच नहीं किया है.... कुछ पत्रकारों ने एक कदम आगे चलकर तटस्थ किंतु सकारात्मक संदेश देने का काम किया है.... कि उन्हें भी आर्थिक मदद की जरूरत है.। किंतु इन्हें हम प्रतिनिधि पत्रकार के रूप में चिन्हित कर सकते हैं..... वास्तव में यह काम उन पत्रकार संघों का है, जो आए दिन कोई ना कोई नाटक-नौटंकी और ड्रामा रच कर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं..... दुखद यह है एक  ने भी पत्र लिखने की साहस, उनमें भी नहीं दिखाई दिया।
 इसका मतलब यह नहीं है कि जितने भी पत्रकार हैं वे सब करोड़पति-अरबपति और संपन्न लोग हैं, विशेषकर पांचवी अनुसूची में शामिल सभी आदिवासी क्षेत्रों में। किंतु उनका आत्मबल सत्य को स्वीकारने में शायद इसलिए भी कमजोर है कि उन्हे भरोसा है कि वे व्यक्तिगत रूप से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर, तुष्टि पूर्ति कर लेंगे.... किंतु पूरे पत्रकार समाज का ख्याल उनको नहीं है....। और इसमें कोई शक नहीं है कि वह सब सत्य को जानते हैं।
      यह बात भी बड़ी स्पष्ट है कि सासन को कोई अलग से पैकेज नहीं देना है..... जो धन सरकारी तौर पर अपना चारण-भाट करने वाले अखबार मालिकों को या दलालों को या फिर इनके नाम पर भ्रष्ट लोकतंत्र धनराशि व्यय करता है, उसी धन से संबंधित अखबारों के ही शासन के अभिलेखों में दर्ज चिन्हित जमीनी प्रतिनिधि गण अथवा स्वतंत्र पत्रकारों को मैं तो कहता हूं गैर पत्रकारों को भी, इसी बजट से तत्काल आर्थिक राहत का एक पैकेज उनके बैंक खातों में सीधा डालना चाहिए। और भरोसा जीतने का काम करना चाहिए कि शासन और प्रशासन भारतीय लोकतंत्र का उनके साथ खड़ा है।
 यह वही सरकारें हैं जो मीसाबंदी में अगर कोई भी बंद हो गए थे...., उन्हें लाखों  रुपए लंबे समय से दे रही है... सिर्फ अपनी वोट राजनीति के लिए। मूल रूप से जो मीसाबंदी थे उन्हें जरूरत थी, इसमें कोई शक नहीं।
     अब हम बात करते हैं मीशा बंदियों की जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी, क्या उन्हें भी स्वत: आगे आकर अपने मीसाबंदी कार्यकाल के सहयोगी पत्रकारों को अपनी प्राप्त धनराशि के आधे बजट में इस महामारी से राहत पहुंचाने का प्रस्ताव शासन को नहीं देना चाहिए था...... या  एक हमारे मीसाबंदी समाजवादी नेता हैं उनकी भाषा में "तनखैय्या" होकर भ्रष्ट हो गए हैं....? उनकी नैतिकता उन्हें आवाज क्यों नहीं दे रही है...?
 एक और नजरिया हम मान लेते हैं कि ब्यूरोक्रेट्स निर्देशों का पालनहार मात्र है... इसलिए यह जो जनप्रतिनिधि हैं जो विधायक या सांसद हैं, जो लोकतंत्र का तारणहार बनने का प्रयास करते हैं, यह भी क्या चल रही महामारी की आंधी में पत्रकारों को बचाने के मामले में शुतुरमुर्ग की तरह बालू के अंदर सिर छुपा रखा है.... ?, यह इनकी जिम्मेदारी है कि वे पत्र लिखकर या बोलकर अपने नेता को सूचीबद्ध पत्रकारों को राहत पहुंचाने के लिए तत्काल कदम उठाने का कोई काम क्यों नहीं किया.....?
 और यह अजीब मनोदशा होगी कि फिर भी पत्रकार समाज या क्षेत्रीय पत्रकारिता इनके सामने गुलामों की तरह ही, स्वयं को प्रस्तुत करते रहेंगे..... क्योंकि वह पत्रकारिता की शपथ, स्वतंत्रता की वकालत नहीं करेंगे.... यह एक बात थी जो हमने रखी।
 किंतु इससे हटकर अन्य महत्वपूर्ण बात है,
जब व्यक्तिगत तौर पर राहत और परिस्थितिकी के लिए हम संज्ञान लिए,  तब लोकतंत्र के "चतुर्थ स्तंभ" ने भलाई चुप्पी साधे रखी.... किंतु महत्वपूर्ण प्रथम स्तंभ न्यायपालिका के एक वकील मित्र ने मुझे व्हाट्सएप किया कि हमारे बारे में भी कुछ लिखिए......,
 मुझे अच्छा लगा कि वे समान रूप से खाते पीते घर के होने के बाद भी विशेषकर पांचवी अनुसूची क्षेत्र में याने शहडोल संभाग में वकीलों का वकालत के पेशे में किन्ही कारणों से आए अजीबका  पालन करने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे....
 यह भी कड़वा सच है कि जिस न्यायपालिका का बुनियादी ढांचा हर प्रकार से सशक्त है, आर्थिक रूप में उसकी मजबूती और उसकी स्वतंत्रता दोनों ही किसी हिमालय के पहाड़ से कमजोर नहीं हैं.... अकेले मध्यप्रदेश हाई कोर्ट बार काउंसिल को ले, तो कहते हैं उसका बजट इतना जबरदस्त है कि  मुट्ठी भर 25  मेंबर्स अक्सर इस धनराशि से देश और विदेश में मौज करते हैं.... वकीलों की कल्याण के लिए एक ही बैठकर हमेशा चर्चा का विषय रही है। इस बार काउंसिल में इस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप वर्तमान अधिवक्ता चुनाव में ज्यादा देखे गए..... और इसी के आधार पर वोट भी मांगे गए...., तो क्या बार काउंसिल जो न्याय का प्रतिनिधित्व करता है, वह अपने चिन्हित अधिवक्ताओं,/ रजिस्टर्ड अधिवक्ताओं को इस महामारी में एकमुश्त आर्थिक पैकेज नहीं दे सकता.....? जबकि वह संपन्न है, क्या उसकी सोच कोरोना से भी ज्यादा किसी भयानक महामारी से बीमार है...., जो बीते कई सालों के बावजूद भी स्वस्थ तरीके से मूल्यांकन नहीं कर पा रही है, कि अधिवक्ताओं को मासिक आर्थिक पैकेज चाहिए ही चाहिए... कई ऐसे हैं जिन्हें मैं जानता हूं जो दिहाड़ी मजदूर से ज्यादा बदतर हालात में दूसरे अथवा तीसरे या फिर चौथे दिन अपनी आमदनी के लिए परेशान होते देखे गए हैं.... उनका भी अपना परिवार है, क्या बार काउंसिल का बजट इस महामारी में उनके लिए काम नहीं आ सकता.....? अगर नहीं आ सकता है, तो यह बेहद शर्म की बात है..... लोकतंत्र का महत्वपूर्ण "प्रथम-स्तंभ" बेहद जर्जर और दीमको से भरा हुआ है...? यह बात बहुत चिंता करने वाली है।
 अगर इस महामारी में आप अपने स्टेटस का मूल्यांकन नहीं कर पाते, सर्व संपन्न होने के बाद भी तो विधायिका और कार्यपालिका , यह तो भ्रष्ट समाज का प्रतिबिंब बन कर रह गए हैं , इसका यह आशय नहीं किस में अच्छे लोग नहीं है जो है अभी उनकी आवाज और सोच नक्कारखाने में तूती की तरह है। इनके बारे में तो धारणा बनती जा रही है कि देश भगवान भरोसे चलता है... और इसका स्वरूप भी हमने देखा है।
 महानगरों में जहां इनकी बातों पर भरोसा टूट जाने से हजारों की संख्या में "सोशल डिस्टेंसिंग" की परवाह किए बिना जनता जीवन की तलाश में, कोरोना महामारी की परवाह किए बिना भी, बाहर निकल पड़ती है....? क्योंकि सतत स्वतंत्रता ,आजीविका और बच्चों का भविष्य उन्हें इस भ्रामक धुए में भ्रमित किए हुए हैं....
 तो आशा करनी चाहिए की प्रथम स्तंभ की न्यायपालिका के बार काउंसिल का बड़ा बजट अपने चिन्हित अधिवक्ताओं के लिए अपना द्वार खोल देगा.... यदि आपको लगता है कि अधिवक्ता संपन्न है तो आप किसी नरेंद्रमोदी की तरह, यह भी कह सकते हैं.... कि जो संपन्न हैं वे इस आर्थिक मदद को बार काउंसिल के लिए वापस छोड़ दें...., ताकि बाकी अधिवक्ता साथियों को कुछ अतिरिक्त दे सके।
शहडोल जिला अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष संदीप तिवारी इस बात को लेकर चिंतित हैं उन्होंने अपने उच्च स्तर पर अधिवक्ताओं के
हित पर निर्णय लेने का आग्रह भी किया है

यह खुशी की बात है की बार काउंसिल ने उनकी बात को सुना और समझा तथा आश्वासन भी दिया है किंतु समय रहते आश्वासन पर अमल हो जाएगा तो उसकी विश्वसनीयता का









 यह भी एक विकल्प है कि जो आप उनके "मृत्यु" में देने वाले हैं, जैसा कि संकल्पित है..., उसका कुछ भाग उन्हें "जीवन-दान" देने के लिए, सुरक्षा के आश्वासन के लिए तत्काल राहत पैकेज का इंतजाम करें.... और घोषणा भी। ताकि आप को ही देख कर सही, "हवा और पानी में जीने की गारंटी वाला पत्रकारिता" चतुर्थ स्तंभ के लिए बाकी लोकतंत्र कुछ विचार कर सकें.... इसे हमारा स्वार्थ ही समझें । किंतु बहुत जरूरी है... यह स्वार्थ, क्योंकि इसमें भारत की राष्ट्रीयता के मूलभूत सिद्धांत "जियो और जीने दो" निहित है....... ऐसा भी समझ सकते हैं कि अगर कुछ अधिवक्ताओं को यह राहत राशि मिलेगी तू खो सकता है उनमें से कुछ लोग हमारे जैसों को भी मदद करने का हाथ बढ़ा में क्योंकि दर्द का रिश्ता जमकर बोलता है।
तो..., "प्रत्येक चुनौती एक अवसर है..." क्या आप अवसर का लाभ नहीं उठाना चाहते...? 
तो सोचिए और सोचते रहिए...
 और अगर कुछ करना है तो
 कर डालिए....
 अन्यथा गिलास में थोड़ा सा जल और उसमें मदिरा के कुछ हिस्सा और अगर घर में बर्फ का टुकड़ा है... उसको भी डालकर गर्मी का आनंद लीजिए.... क्योंकि बीते 7 दशक में ऐसा ही होता आया है....... यह हमारी झूठी कल्पना है.😊 बुरा मत मानिएगा मंगलम, शुभम......

सोमवार, 30 मार्च 2020

सुबह 9:00 बजे 31 मार्च 2020 अद्यतन अधतन हालात आंकड़ों में कोविड-19

सुबह 9:00 बजे 31 मार्च 2020 अद्यतन अधतन हालात आंकड़ों में कोविड-19



डरना भी जरूरी है.....( त्रिलोकी नाथ)




लोकतंत्र, को रोना और पत्रकारिता 3

डरना भी जरूरी है......

     (  त्रिलोकीनाथ  )
 ब एनडीटीवी ग्रुप पर मदमस्त सत्ता छाती पर छापा डाल रही थी तब उसकी शुरुआत की प्रक्रिया में पहली प्रतिक्रिया सुब्रमण्यम स्वामी की आई थी उन्होंने कहा था डर कर भी रहना सीखना चाहिए लोकतंत्र का यह करिश्मा है कि डर से विजय पाकर एनडीटीवी मैग्सेसे अवार्ड तक जा धमका और डरना नहीं सीखा यह हमारी आजादी का प्रमाण पत्र है किंतु अब जो छुपा रुस्तम हमें डरा रहा है वह राजा और महाराजाओं और साम्राज्य की सीमाओं से पार है तथाकथित तौर पर यह मनुष्य की क्रूरता का बनाया गया एक जैविक हथियार है हालत इसे भी स्वीकृति नहीं मिली है इस रूप में विवाद भी हैं को बावजूद इसके इसका असर जबरदस्त है
    कहते हैं पूरी दुनिया में इनके साम्राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, यह कहावत है। क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत की महारानी एलिजाबेथ के साम्राज्य में जब सूरज इनके एक साम्राज्य में डूबता था तब दूसरे साम्राज्य में वह चमकता था और तीसरे साम्राज्य में उगता था। ऐसे महारानी के पुत्र प्रिंस चार्ल्स की सुरक्षा कितनी कड़क होगी यह अनुमान लगाना सहज है। बावजूद इसके छुपा रुस्तम कोरोना याने कोविड-19 से वे प्रताड़ित हो गए। सबको याद होगा कि कैसे अपने उस क्लिप के लिए भी चर्चित हुए थे जब किसी कार से उतरते वक्त हाथ बढ़ाने का कोशिश करने के बाद उन्हें याद आया की महामारी फैली है और उन्होंने भारतीय परंपरा के अनुसार हाथ जोड़कर उपस्थित लोगों का अभिवादन किया इतनी सतर्कता के बाद भी प्रिंस चार्ल्स को महामारी पकड़ ली। यह एक अलग बात है कि उन्होंने स्वयं को आइसोलेशन में रखा और वे स्वस्थ होकर निकल आए हैं।
 इसी ब्रिटिश गवर्नमेंट में  महारानी एलिजाबेथ के साम्राज्य के प्रधानमंत्री कोविड-19 से संक्रमित हैं
ब्रिटेन, ब्रिटेन में प्रिंस चार्ल्स के बाद अब प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री मैट हैनकॉक भी कोरोना से संक्रमित पाए गए हैं। समाचार एजेंसी एएनआइ ने यह जानकारी दी है। जानसन ने खुद इसकी जानकारी देते हुए कहा कि हल्के लक्षणों के बाद उनका कोरोना वायरस टेस्ट पाजिटिव आया है और अब उन्होंने डॉक्टरों की सलाह के मुताबिक मैंने 10 डाउनिंग स्ट्रीट में खुद को आइसोलेट कर लिया है। सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए एक वीडियो संदेश में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कहा है कि कोरोना के खिलाफ सरकार की लड़ाई में वह वीडियो कॉन्‍फ्रेंसिंग के जरिए ब्रिटिश सरकार का नेतृत्व करते रहेंगे। मालूम हो कि ब्रिटेन में कोरोना वायरस से 578 लोगों की मौत हो चुकी है। 

     तो इतना भय और डिप्रेशन जर्मनी के एक प्रांत के मंत्री को हुआ इस महामारी को लेकर कि वह आत्महत्या ही कर लिया



कोरोना वायरस के कहर से यूरोप में त्राहि मची है. कोविड 19 की वजह से ना सिर्फ बड़ी संख्या में लोग मारे जा रहे हैं, बल्कि इस खतरनाक बीमारी के कारण लोग डिप्रेशन के शिकार भी हो रहे हैं. अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत के बीच जर्मनी के एक मंत्री ने कोरोना वायरस की वजह से खुदकुशी कर ली है.
 जर्मनी में अब तक 62,435 लोग कोविड 19 से संक्रमित हैं जबकि 541 लोगों की मृत्यु हो चुकी है.


और स्पेन की राजकुमारी की मृत्यु का कारण भी यही कोविड-19 महामारी बनी।

कोरोना वायरस से स्पेन की राजकुमारी की मौत, पेरिस में ली आखिरी सांस


नई दिल्ली, 29 March, 2020

पूरी दुनिया में किसी रॉयल फैमिली से यह पहली मौत है. देश-दुनिया के कई लोग इस बीमारी की चपेट में आए हैं लेकिन मौत के मामले में स्पेन से यह बड़ी खबर सामने आई है. बता दें, यूरोपीय देशों में इटली के बाद स्पेन ही कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा प्रभावित है.

     
           क्या आप इसके बावजूद भी नहीं समझ पा रहे हैं कि यह महामारी कितनी खतरनाक है...? यह जब अमीरों को राजाओं महाराजाओं को मार सकती है, तो उत्तरप्रदेश के सरकार ने तो सिद्ध कर दिया है मजदूरों की भीड़ पर कीटनाशक दवाई का प्रयोग करके कि वे कीड़े मकोड़े से ज्यादा कुछ भी नहीं है। महामारी अगर प्रवेश की तो हम कीड़े-मकोड़े की तरह ही मर जाएंगे ।
      हमें इस महामारी से सतर्क रहना चाहिए और हम ही से जीत सकते हैं क्योंकि छोटा सा इलाज कि आप किसी को छुए ना...
     हो सकता है इसे छुआछूत की भाषा में न देखा जा रहा हो, किंतु आमतौर पर यह बीमारी छुआछूत की ही बीमारी है.... इसलिए जरा बचके... इस महामारी से जीतना है....
    इस बीमारी से शासन और प्रशासन जो मदद कर रहा है वह तो करेगा उसका कर्तव्य है किंतु उसकी अपनी सीमाएं हैं और लोकतंत्र में राजा तो जनता होती है और यह तय हो चुका है कि राजा और रानी मर रहे हैं तो मजदूर भी मर रहे हैं...
         तो अपनी सुरक्षा अपने घर की सुरक्षा लोगों के बीच में पर्याप्त सतर्कता और बीमारी हो जाती है तो घबराने की जरूरत नहीं है... इलाज भी है आत्मविश्वास.... और डॉक्टर की सलाह ..कई लोग ठीक हुए हैं..., गारंटी।
 आप भी ठीक होंगे..... किंतु ठीक होना है इसलिए बीमारी को निमंत्रण दे, यह तो सरासर मूर्खता है....  और बिना छुए, कुछ दिन अपने लोगों के साथ, अपनी मस्ती में ,आनंद में रहिए और शासन को भी आनंद दीजिए। यही हमारा कर्तव्य है, यही राष्ट्रभक्ति भी.... उन सब का सम्मान कीजिए जो हमारी सुरक्षा कर रहे हैं ।  तो कुछ करके और कुछ डर के दूर-दूर से बीमारी को दूर करिए।









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करीब 9:00 बजे रात्रि  30 मार्च 20 अद्यतन हालात कोविड-19


निर्माणाधीन जैतपुर कॉलेज के मजदूरों ने पैदल पकड़ी राह

नहीं दिया मजदूरी... ठहरेंगे  रेन बसेरा में....
शहडोल 30 मार्च 20।जिला अंतर्गत जैतपुर कॉलेज के ठेकेदार द्वारा मजदूरों के हित के लिए उचित प्रबंध नहीं किए थे, जब आशा की किरण टूट गई तो 10 मजदूरों का जत्था अपने घरों की ओर पैदल ही राह पकड़ लिया। कुछ दूर तक किसी वाहन से आए, शहडोल से करीब 15 किलोमीटर दूर से आकर आगे भी पैदल ही चंदिया के पास गांव जाने को बेताब दिखे दो मजदूर आज जयस्तंभ चौक में देखे गए।
 मजदूर  में रहमत ने बताया कि 8 मजदूरों का जत्था और है जो पीछे आ रहा है स्थानीय पुलिस के संरक्षण में उन्हें रैन बसेरा में ठहराया जाएगा वह भोजन का प्रबंध किया जाएगा और उचित माध्यम से वे गंतव्य को जा सकते हैं


गरीब आदमी के मायने.......

कट पेस्ट 
बरेली में कीड़े मकोड़े की तरह की गई व्यवस्था
गरीब आदमी के मायने.......


रविवार, 29 मार्च 2020

कोविड-19 नौ बजे प्रातः 
सोमवार 30 मार्च 2020




हड़कंप मचाने वाली संदिग्ध महिला की नेगेटिव आई रिपोर्ट



गुड न्यूज़ बट,
 बैड डेथ

हड़कंप मचाने वाली संदिग्ध
महिला की नेगेटिव आई रिपोर्ट

 एक अच्छी खबर शहडोल के लिए की धनपुरी में कोरोना में संदिग्ध पाई गई महिला का कोरोना टेस्ट नेगेटिव निकला, किंतु दुखद  पक्ष यह रहा कि उसकी मौत हो गई।
 हालांकि महिला के हालात बहुत कुछ ऐसे थे की प्रशासनिक स्तर पर हलचल मच गई थी। और उसे तत्काल जबलपुर उच्च चिकित्सा के लिए भी भेजा गया। महिला ने चुकी पहले से बीमार थी इसलिए जो भी संबंधित चिकित्सक इलाज कर रहे थे और जहां भी महिला का आवागमन रहा प्रशासन ने संपूर्ण सतर्कता के साथ संबंधित क्षेत्र को सैनिटाइज करने का काम किया और संबंधित व्यक्तियों को आइसोलेशन में जाने की सलाह दी।
 इस खबर के बाद की महिला कोरोना नेगेटिव है निश्चित रूप से प्रशासन ने सांस ली होगी किंतु इस घटना के साथ ही महिला ने जाते-जाते जाते जाते शहडोल संभागी प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त रहने  का सबक सिखा गई महिला की मृत्यु के बाद



 आज शहडोल मुख्यालय में नगर में चुस्त दुरुस्त प्रशासन को देखा गया। पुलिस वालों ने जगह-जगह कड़ाई बरतने का काम किया। लोगों से जिस प्रकार के सहयोग की अपेक्षा होनी चाहिए थी उसे और बढ़ाने के लिए पुलिस प्रशासन अनुशासित नागरिकों को अनुशासन के दायरे में रहने की सीख दी अच्छा है। इस घटना के बाद संपूर्ण सतर्कता को पूर्ण अमल पर लाया जाए और नागरिकों में भी स्व अनुशासन बनाकर जिम्मेदार नागरिक के रूप में कर्तव्य सील रहने का तथा अपनी-सुरक्षा, सबकी -सुरक्षा समझ कर कोरोना से लड़ने का काम होगा। यही धनपुरी की मृत महिला को सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी

इस बीच लॉक डाउन के आज पांचवें दिन शाम में आंकड़ों की नजर में बढ़ोतरी देखी गई है


वर्ल्डोमीटर अपडेट 10:36 रात्रि पर

शनिवार, 28 मार्च 2020

भारत में संक्रमण हुआ हजारिया 10.10 pm 28.3.20






कोविड-19 इंडिया, हजार पार
 बारंबार अब करो विचार
 इंडिया में कोरोना, हजार पार
भारत में संक्रमण हुआ हजारिया
10.10 pm 28.3.20


शुक्रवार, 27 मार्च 2020

लोकतंत्र, को रोना और पत्रकारिता -2/ मजदूरों का पलायन......

लोकतंत्र, को रोना
 और पत्रकारिता -2

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;....
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,...

----"मैं तोड़ती पत्थर।"
                  (त्रिलोकीनाथ)
आज सुबह जब रेडियो पर  सुना  कि "राष्ट्रीय स्वयंसेवक को आवाहन किया गया है कि वे  इस महामारी से लड़े...."  तो  एक आत्मिक खुशी हुई  की  तब रक्षा मंत्री  जॉर्जफर्नांडीस  गुजरात के  समता पार्टी के  राष्ट्रीय अधिवेशन में  स्पष्टीकरण दे रहे थे ..., कि उन्होंने  भाजपा  के साथ हाथ मिलाकर कोई गलती नहीं की..., वे कह रहे थे  कि भारत  में "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ"  में एक अनुशासित  कार्यकर्ताओं का संगठन है और यदि समाजवादियों को लगता है कि वे गलत हैं तो उन्हें जाकर, उनसे मिलकर, उन्हें समझाया जाए कि वे राष्ट्रीय मुख्यधारा में आए.....।
 उन्होंने नाराज होकर कहा, क्या आप चाहते हैं कि देश का एक और टुकड़ा हो ......? इस प्रकार की आशंका प्रकट करते हुए जॉर्ज साहब अपना स्पष्टीकरण दे रहे थे। क्योंकि समाजवादी बहुत नाराज थे समाजवाद की धारा को संघ की धारा से मिलाने पर।
 किंतु आज रेडियो में कोरोना महामारी के दौरान जब यह भ्रम हुआ तो हम अचानक कुछ देर के लिए खुश हो गए..... क्योंकि हमने आधी बात सुनी थी, उन्हें हमारे प्रधानमंत्री जो भाजपा के हैं  शायद r.s.s. को मुख्यधारा के लिए आह्वान किए जा रहे हैं, किंतु यह भ्रम एक पल में टूट गया.....
  क्योंकि प्रधानमंत्री जी वास्तव में कह रहे थे  की "130 करोड़ लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक बनकर महामारी से लड़ना चाहिए...., वे पूरे जनता को पुकार रहे थे ।कि स्वयं उत्साहित होकर इस महामारी के युद्ध में अपना योगदान करते अपनी सुरक्षा, अपने परिवार की सुरक्षा के लिए सतर्कता बरती जाए। तो यह एक प्रकार की जागरूकता मात्र थी।

मशहूर उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल राग दरबारी में एक दृष्टांत देते हैं;
 "दोपहर ढल रही थी एक हलवाई की दुकान पर एक हलवाई बैठा था, जो दूर से हलवाई से जान पड़ता था। दुकान के नीचे एक नेता खड़ा था जो दूर से नेता जैसा दिखता था, वही साइकिल के हैंडल पकड़े एक पुलिस का सिपाही खड़ा था जो दूर से ही पुलिस के सिपाही दिखता था ।दुकान पर रखी हुई मिठाई बासी और मिलावट के माल से बनी जान पड़ती थी और थीं भी, दूध पानीदार और आरारुट के असर से गाढ़ा दिख रहा था और था भी। पृथ्वी पर स्वर्ग का यह ऐसा कोना था जहां सारी सच्चाई निगाह के सामने थी। ना कहीं कुछ छिपा था न छिपाने की जरूरत थी ।"
किंतु भ्रम है...भ्रम का क्या...., उसका कारोबार अलग है वह मानव मस्तिष्क को भ्रमित करता रहता है....क्योंकि आरएसएस यानि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक में बहुत अंतर नहीं है, संघ की पूंछी हट जाए तो जो प्रधानमंत्री बोल रहे थे वह है, और अगर संघ शब्द की पूंछी जुड़ जाए तो पूरे मायने बदल जाते हैं....।
 नवरात्रि का अवसर है हमें बंदना करनी चाहिए...

"या देवी सर्वभूतेषु, भ्रांति रूपेण संस्थिता;
नमस्तस्ए नमस्तस्ए नमस्तस्ए नमोनमः"
   
 ताकि हम राष्ट्र हित में ट्रांसपेरेंट रहे। यह भ्रम हमें तब भी हुआ था जब सभी धार्मिक स्थलों के पट इस नवरात्रि में पल पर भी आम जनमानस के लिए बंद कर दिए गए थे क्योंकि कोरोना का चीनी वायरस हमारे समूह हत्या के लिए बेताब दिखा। वह हमें समाज बनाकर रहने की इजाजत नहीं देता था। क्योंकि से थूक या छींक के अथवा छू लेने से कोरोना के राक्षस "रक्त बीज" की तरह हमारी हत्या के लिए लालायित है। याने यदि हमने पर्याप्त मानव और मानव के बीच में दूरी बनाना सीख लिया तो इस चीनी राक्षस कोरोना  से हम महायुद्ध जीत सकते हैं। किंतु भ्रम है, भ्रम का क्या ....चैत्र नवरात्रि में  पूरे  ढोंग-पाखंड के साथ प्रचार-प्रसार के साथ  अयोध्या के रामजी टेंट  से  उठाकर वहां के मुख्यमंत्री योगी की सर्वोच्च प्राथमिक कार्यों में उन्हें रामलला को किसी सुरक्षित नए भवन में रख दिए।
 पूरा प्रशासन बिना किसी सोशल डिस्टेंस का संदेश दिए इस धार्मिक आवरण को बनाने का काम कर रहा था। इधर शहडोल में बैठकर मुझे कचोट रहा था कि मैं अपने मंदिर नहीं जा सका नवरात्रि में क्योंकि मैं मुख्यमंत्री नहीं था।
 देवी जी के दर्शन नहीं कर सका, वे मस्जिद नहीं जा पाएंगे या फिर कोई अन्य अपने धार्मिक मनोयोग का व्यक्तिगत रूप से भी आदर नहीं कर पाएगा क्योंकि धर्म भारतीय राजनीति में जबसे संविधान लागू हुआ है बहुत और बहुत ही व्यक्तिगत या ने उसे हम अपनी पत्नी अपने बच्चों में भी नहीं बांट सकते, कुछ इस प्रकार का स्थापित हो चुका है....। संविधान मौलिक अधिकार तो देता है किंतु वह  मैं और मेरे भगवान के बीच में स्वतंत्रता का अधिकार देता है, उसके आड़ में पाखंड का तो पता ही नहीं, कम से कम सामाजिक उत्साह उत्सव के रूप में तब तक मनाने का अधिकार देता है जब तक आर्थिक साम्राज्यवाद का महाराक्षस  चीन का  जैविक हथियार बन चुका कोरोना नामक तो रक्तबीज राक्षस हमारी तरफ युद्ध की घोषणा करके आ रहा हो....
 कुल मिलाकर यह कि, हम अपने भगवान की पूजा अपने मंदिर में नहीं कर सकते लेकिन भारत के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पूरे प्रोपेगंडा के साथ उसे करते हैं, यह एक वैचारिक विरोधाभास भी है... मौलिक अधिकारों को लेकर.... 
लेकिन संविधान मानता कौन है..? अब समय बीत गया है, यदि आप मानते भी हैं तो आपकी औकात नहीं है...., क्योंकि 25 तारीख को प्रधानमंत्री जी कोरोना महामारी  के मद्देनजर के लॉक-डाउन करने के घोषणा के बाद आज 28 तारीख को चौथा दिन बीतने को है। 3 दिन महानगरों के मजदूरों ने शासन पर भरोसा किया.... क्योंकि उन्होंने बार-बार कहा "सबका साथ, सबका विकास  और सबका विश्वास.." किंतु यह है उन्हें ताश के पत्तों की तरह या धूल की महल की तरह ढहता नजर आया, सब बिखर गया। वह रात के अंधेरे में जो छुटपुट छुटपुट करके बेकारी बेरोजगारी और भूख की वैसे विश्वास पाले रहे कि कोई पालनहार कुछ करेगा वह सब टूट गया और आज सुबह भारत का पूरा  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया टीवी चैनल्स आदि अपना टीआरपी इस आधार पर बढ़ा रहे थे क्योंकि हजारों लाखों की संख्या में मजदूर बिना कोई सोशल डिस्टेंस का पालन किए जो जैसा भी है उसी मंज़र में जैसे कि 1947 मे हुआ रहा होगा.... "भीड़ की भीड़" अपने अपने हिंदुस्तान और अपने अपने पाकिस्तान की ओर जा रही थी... पुलिस वाले रोक रहे थे ,नेता भी टीवी चैनल पर विश्वास दिला रहे थे... कि हम पर भरोसा रखिए किंतु भरोसा टूट चुका था.....।
 भगवान ना करें 1947 की तरह कहीं कोई सांप्रदायिकता का बीज इस चीनी राक्षस कोरोना के साथ मिलकर किसी बड़ी आपदा को कहीं निर्मित कर दे.... क्योंकि भूख और नींद का स्वार्थ आदमी को अंधा कर देता है.... और धर्म की सांप्रदायिकता उसे अविवेक बनाकर वह सब कुछ बनाने का बात कर देती है.... जब कहीं कोई 1947 की भीड़ किसी अज्ञात भय  से पलायन का निर्णय लेकर किसी और सुरक्षा के दृष्टिकोण से निकल पड़ती है और तब कोई जरा सी भी असुरक्षा की चिंगारी किसी भयानक मंजर का पैदा करती है.....
 मध्य प्रदेश  ही नहीं देश  के दिल  में बैठकर 23 जनवरी से उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्देशित विधायकों के मतदान 20 फरवरी तक पर्याप्त समय रहा कि हमारे नेतृत्व-कर्ता चीनी राक्षस कोरोना को बॉर्डर पर रोक सकते थे... किंतु भ्रष्ट राजनीति ने उन्हें अंधा कर रखा था... आज भी वह देखने को शायद तैयार नहीं है.., 
उन्हें अभिमान है या दंभ है कि वे एक राष्ट्रीय आम सहमति के लिए अभी तक कोई भी एक मीटिंग नहीं बुलाए हैं....? अभी भी चैत्र नवरात्रि, 25 मार्च तक भगवान राम को अयोध्या के टेंट से निकलकर मुख्यमंत्री द्वारा किसी नए मंदिर की ओर जा रहा था। क्योंकि मंदिर की अट्टालिका जरूरी हैं....?
 सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" की प्रयागराज के पथ पर बैठी हुई वह मजदूर महिला शायद अब अयोध्या के करोड़ों-अरबों रुपए में बननेवाले, उस अट्टालिका "राम मंदिर" को देखकर यही सोच रही होगी और बता रही होगी कि "मैं तोड़ती पत्थर..."
 याद करिए इन मजदूरों के पलायन को..., याद करिए, निराला की "तोड़ती पत्थर" उस मजदूर को.....

"कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"

 हम कहां विकास कर पाए हैं..., क्या हमने लोगों का साथ दिया है... क्या लोगों का विश्वास बरकरार है...,
 नहीं, बिल्कुल नहीं.... अब तो कोई राजधर्म बताने वाला अटल भी नहीं है कोई जॉर्ज फर्नांडीस भी नहीं है कि अकेला , गुजरात के दंगों में गलियों से गुजरने का साहस रखता हो.....
कहते हैं विक्रमादित्य की कुर्सी पर बैठकर बालक भी न्याय करता था... हमारे प्रधानमंत्री जी आज जहां बैठे हैं क्या वह "विक्रमादित्य की कुर्सी" बनने का साहस करेगी.... क्या उन्हें एहसास होगा की पलायन कर रहा हुआ मजदूरों का लाखों का जत्था बेकारी, बेरोजगारी के भय और आशंका से प्रभावित है, और प्रताड़ित भी... क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता सड़कों पर मार्च पास्ट करने के लिए बने हैं....? क्या उनका अनुशासन उन्हें बाध्य नहीं करता कि देश की राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , उसके आत्म बुध का कारण होना चाहिए...?
 क्यों नागपुर के भागवत पुराण  में अभी तक नहीं कहा अपने कार्यकर्ताओं को, जो जहां है, वह पलायन हो रहे... मजदूरों के प्रति रोटी-सब्जी का इंतजाम करें.... क्योंकि वह पेशेवर हैं... उन्हें ज्ञान है कि हर घर से चार रोटियां देने की एक परंपरा है... क्या यह परंपरा भी प्रदूषित थे...?

 आज यह सोचने का वक्त है
 प्रधानमंत्री जी का आवाहन 130 करोड़ लोगों के लिए था...., यह सच्चाई जानकर  बड़ी निराशा हुई। काश भारत के सबसे बड़े अनुशासित संगठन और सबसे बड़ी दुनिया की लोकतांत्रिक सदस्यों वाली पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह निर्देशित होता कि वे पलायन की ओर बढ़ रहे मजदूर का आत्म-मनोबल, प्यार से जीतने के लिए "रोटी दाल और सब्जी की सड़क पर बिछा दे...., बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी सांप्रदायिक भावना के, सिर्फ राष्ट्रभक्ति और मात्र भक्ति के लिए....
 यदि हम इस नवरात्रि में भी उपासना नहीं कर पाए... तो हम भी चीन के महाराक्षस चीनी कोरोना के जैविक हथियार की तरह ही एक हथियार के अलावा कुछ भी नहीं.....? जिसमें मैं भी शामिल हूं।

 यह सुखद है कि मेरे शहडोल में इस स्तर का विकास नहीं हुआ, जिस स्तर का महानगरों में हुआ है... बावजूद इसके जब कोई बिलासपुर से पैदल चलकर, शहडोल आने की खबर मिलती है तो मन वचन और कर्म से हम घायल हो जाते हैं..... फिलहाल तो इतने ही लावारिस बन जाते हैं..., उस जज्बे को फिर भी सलाम करते हैं जो अपने लोक-ज्ञान से इन्हें विश्वास दिलाकर नयागांधी चौक शहडोल से जिला अस्पताल तक पहुंचाता है ...




  

गुरुवार, 26 मार्च 2020

लोकतंत्र, 
को रोना और पत्रकारिता...-1

&-क्योंकि  जब देश भक्ति का  और समाज सेवा का  नशा  करने का शौक  हमें लगा  तो हमने पत्रकारिता को चुना था......
&- क्योंकि भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र के हम निवासी हैं.......
&- क्योंकि पत्रकारिता से जुड़े तमाम वेतन आयोग और उससे लाभान्वित व्यक्तियों में जमीनी पत्रकार लगभग अछूता है.......
&- क्योंकि हम भी आदिवासी क्षेत्रों में पड़ रही खुलेआम डकैती और लूट में शामिल नहीं हो पाए....
&- क्योंकि अब हम आदतन पत्रकारिता के पेशे में फंस गए हैं....
     जैसे भारत इस समय को रोना में फंसा दिया गया है ...और इसलिए जरूरी है कि हम बात अपनी पहुंचाएं जरूर, इस आशा के साथ अगर मानवीय संवेदना लोकशाही में सचमुच कहीं बची है....?, तो वह जमीनी पत्रकारों के लिए "डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम" का उपयोग कर कॉर्पोरेट जगत का मीडिया और अखबार मालिकों, नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार में खत्म होने वाले शासकीय धन (विज्ञापन आदि में मैं कटौती कर) से हमें यानी महामारी के दौर में "जमीनी पत्रकारों" को या 21 दिन के इस महायुद्ध में जिसकी तुलना हमारे प्रधानमंत्री जी "महाभारत युद्ध" से कर रहे हैं... वह कड़वा सच है, किंतु इससे भी ज्यादा कड़वा सच यह है कि आपके राहत घोषणाओं से अछूते मीडिया / पत्रकारिता के "जमीनी सैनिक" विशेषकर असंगठित क्षेत्र के अथवा शासकीय दस्तावेजों में नाम मात्र के दर्ज पत्रकारों को तत्काल राहत दिया जाए.....

 बावजूद आशा कम है.... कि ऐसा होगा....? किंतु शायर की यह बात भी अपनी जगह ठीक है की... "आशा पर आकाश टिका है.., कि स्वाॅस-तंतु कब टूटे.....


(त्रिलोकीनाथ)
ग्राम स्वराज महात्मा गांधी की दूरदर्शी कल्पना थी देश की गुलामी के बाद अगर ग्राम स्वराज स्थापित होता... राजनीति पवित्र मंसा की होती तो शायद स्वरूप कुछ और होता।

 मेरे देश का प्रधानमंत्री यह निर्णय ले की "जनता कर्फ्यू" लगाएं प्रदेश का मुख्यमंत्री इस बात में इस महामारी के दौरान यह निर्णय ले कि लोकतंत्र, प्रदेश का बचाना है क्योंकि "कोरोना का हमला" है...... इस मद्देनजर विधानसभा स्थगित की जाती है इससे ज्यादा यह कि लगातार कोरोना हमले पर हमला करता चला जा रहा था न सिर्फ केंद्र सत्ता बल्कि राज्य सत्ता और एक कदम आगे चलें तो तथाकथित स्वतंत्र न्यायपालिका में बैठे न्यायाधीश भी कोरोना के खतरे को लेकर आम नागरिक के भरोसे वाला निर्णय लेती, बजाय इसके सत्ता परिवर्तन की "भूख की तृप्ति" के लिए राजतंत्र में भाटो की तरह कोई "बृंद-गान" करती दिखी......
 अगर मध्य प्रदेश को मॉडल मान कर इस दुनिया में फैली 

कोरोना"कोविड-19"महामारी को मद्देनजर तो बड़ी साफ और स्पष्ट अध्कचरी संस्कृति के मद्देनजर बोलें तो ट्रांस्प्रेंट-महामारी का हमला 23 जनवरी को हो चुका था। हमारी लोकशाही में बैठे तीन प्रमुख स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका; घोड़ा बेच कर सो रहे थे।
 जब से हमारे प्रधानमंत्री जी नरेंद्र मोदी सत्ता पर आए अपने नवाचार के तहत  उन्होंने विदेश मंत्री के तरह जैसा कि उनकी आदत है अघोषित निर्णय के तहत पूरे विदेशों में घूमने का और दुनिया को देखने का काम किया। 5 साल बल्कि 6 साल वे दुनिया घूमते रहे......
 कोरोना बीमारी के जनक चीन के राष्ट्रपति को अपने गृह राज्य अहमदाबाद में लाकर झूला भी झुलाया..... 6 साल में क्या यह उपलब्धि नहीं होनी चाहिए थी कि अगर रूस बच सकता है इस महामारी से लड़ने के लिए, तो भारत को भी बचने का पूरा हक है.... या फिर चीन प्रधानमंत्री के साथ "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा लगाते हुए विश्वासघात कर रहा था....? हम उनके उत्पाद और सामग्री को भारत में बाजार दे रहे थे, उनका बैंक खोल रहे थे और वे पीठ में छुरा मार रहे थे..... क्या वे तकनीकी ज्ञान प्राथमिकता से हमें नहीं दे सकते थे....?
 यह हमें सोचने का एक वक्त है के जब महामारी फैली है, जब सब रास्ते बंद होते जा रहे हैं, तब लोकतंत्र के तीनों स्तंभ से ज्यादा प्राय: अज्ञात "चतुर्थ-स्तंभ" यानी पत्रकारिता के बारे में प्रधानमंत्री और उनकी अद्यतन लोकशाही इस बात में नवाचार करने के पक्ष में निर्णय ले रही है कि मीडिया को, पत्रकारिता को संपूर्ण स्वतंत्रता देनी चाहिए..... पत्रकारिता को जीवन दीजिए, उसके गलत पक्ष (नेगेटिविटी) का नजरअंदाज करिए किंतु उसमें निकल रहे अच्छे पक्ष को (पॉजिटिविटी) से इस बात की संभावना देखिए कि क्या इस महामारी में लड़ने के लिए इन सैनिकों( जमीनी पत्रकारों) ने क्या अच्छी प्रस्तुति दी है......।
 बीते 7 दशक में पत्रकारिता को "यूज एंड थ्रो" और बाद में "कॉर्पोरेट का गुलाम" बनाने वाली सोच का यह एक बड़ा पराजय है..... उसने सत्य स्वीकारने की साहस की है.... किंतु अभी भी वह यानी सत्ताधीश असत्य में जीना चाहता है....? वह चाहता है कि 18 दिन के महाभारत के युद्ध के बाद अब 21 दिन के इस महामारी युद्ध में "पत्रकार-सैनिक" अपने लोक-ज्ञान के जरिए यदि कोई संभावित संजीवनी वटी जंगल से ढूंढ कर ला रहे हैं तो उसका जरूर लोकहित में उपयोग किया जाए....., राम और रावण के युद्ध में यह तय हुआ था कि विद्वान सुषेण वैद्य रक्ष संस्कृति का था, इसके बाद भी उसके ज्ञान का उपयोग राम ने अपने भाई लक्ष्मण को बचाने के लिए वैद्द का अपहरण कराया था। उस समय राजतंत्र था, रामायण की कथा एक बड़ा संदेश है...।


 अब लोकतंत्र है महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी किंतु भ्रष्टाचारियों ने उसमें "बाजार" नहीं पाया और  उस अवधारणा को धोखा देने का काम किया.... आज भी गांधी का नकाब बाजार पैदा कर रहा है बहरहाल सत्ताधीशों की  यह कार्य प्रणाली "प्रकृति-सत्ता" को शायद यह मंजूर नहीं था इसलिए भी 23 जनवरी को संपूर्ण संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद, वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने के बाद भी.... भारत सरकार और उसमें दिखने वाले नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शक्तिमान की तरह प्रस्तुत जरूर किए गए, किंतु दुनिया से दुनियादारी सीखने में शायद बहुत देर हो गई.........? क्योंकि कांग्रेस मुक्त भारत के कल्पना कार मध्यप्रदेश में कांग्रेस को नष्ट  करने का प्रयास रहे थे बावजूद कांग्रेस के नेता राहुल गांधी या प्रियंका गांधी जिन्हें वे वंशवाद बताने में जरा भी नहीं जी सकते यह चिल्लाते रहे की कोरोना एक गंभीर समस्या है कांग्रेस की सत्ता को हटाने से अगर वक्त मिल रहा है तो उस पर भी काम करें आर्थिक मोर्चे पर बहुत गंभीर हालात खड़े होने वाले हैं आदि-आदि जितना उनका इनपुट उन्हें बता रहा था वे प्रवक्ता की तरह बोल रहे थे यह अलग बात है कि भोपू पत्रकारिता ने उसे कितना तवज्जो दिया या उनकी बात को दबा दिया फिर भी छनकर बातें आ ही रही थी।
 यही कारण है कि 23 जनवरी को जब हमारा पड़ोसी चीन "तथाकथित तौर पर इस जैविक हथियार" का प्रयोग कर रहा था तब हम नींद में थे..... अहमदाबाद में झूला झूलाना पाकिस्तान को बिरयानी खिलाने से ज्यादा कुछ भी नहीं रहा.....? यह इसलिए भी आरोप लग रहा है क्योंकि केरल में आने वाले पहले 3 संक्रमित कोरोना के व्यक्तियों को  आने के बाद पूरे विदेशियों पर कड़ी नजर कड़े प्रतिबंध और कड़ा पहरा नहीं लगा कर रखा गया......?


धन्यवाद की पात्र है वह और अच्छा है कनिका कपूर, लोकतंत्र के इन महाराजाओं के बीच में घूम-घूम कर नाची.... कॉर्पोरेट सिस्टम में करुणा की जागरूकता उसी प्रकार से पैदा की जैसा कि हमारे पांचवी अनुसूची क्षेत्र में कभी बैगा सम्मेलन पर तब मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान वैभव के साथ जमकर नाचे थे....,
 बहरहाल शायद तब हमारा लोकशाही जागा जब पूर्व मुख्यमंत्री  और पूर्व महारानी वसुंधरा राजे, आइसोलेशन में चली गई..... पूरे देश में यह चर्चा का विषय बन गया इसलिए भी कि अभी हाल में मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के केंद्र पर महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में प्रवेश किए थे जोकि पूर्व महारानी वसुंधरा राजे के भाई ग्वालियर महाराजा के पुत्र हैं इस प्रकार वे उनके भतीजे लगे इनके साथ कुछ लोकतंत्र के और वाहक भी जब अन्य नेता कोरोना की गिरफ्त में आने का भय जीने लगे.... तब तक बहुत देर हो चुकी थी....... और कोरोना के सभी वाहक चीनी बाजार की तरह भारत के आम नागरिकों के बीच में फैलने का काम कर गए और खेल रहे थे।

 हम मध्य प्रदेश की बात करें यहां दिल्ली के "टेस्ट-ट्यूब" के जरिए काल्पनिक डॉक्टर अमित शाह के लोकतंत्र की प्रसव पीड़ा में नकली प्रयोग हो रहे थे..?,
चाहते तो इस चीनी जैविक आक्रमण कोरोना  से युद्ध लड़ने के लिए चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या केंद्र सत्ता प्रयोग के तौर पर अब-तक काल्पनिक रहे "राष्ट्रीय सरकार" का प्रयोग करके भी मध्यप्रदेश में ऐसी ही कोई राष्ट्रीय आम सहमति वाली सरकार का निर्णय लेकर, कोरोना के मामले में गंभीर निर्णय ले सकती थी......, राज्य को स्वतंत्र करके उसे सर्व सहमति से निर्णय की छूट दे सकती थी.... किंतु प्रकृति को यह मंजूर नहीं था शायद पाप का आवरण बढ़ रहा था शायद इसीलिए हमारा भ्रष्ट लोकतंत्र, भ्रमित रहा.....?
 भलाई यह आरोप स्थापित हो रहे हो की इटली, जिसकी दुनिया में दूसरे नंबर की सबसे अच्छी स्वास्थ्य सेवा है, उसकी आर्थिक ढांचे को नष्ट करने के लिए उसके चीन पर बढ़ रहे, उद्योगपतियों के दबाव पर उन्हें नष्ट करने के लिए "चीनी-कोरोना" प्रयोग के तौर पर संक्रमित किया गया..... यह इसलिए भी  कहते हैं कि इटली की कई उद्योगों को, जो चीन में स्थापित हैं..., उन्हें चीनी उद्योगपतियों ने इसी "कोरोना-वायरस" के दौरान खरीद लिया है... क्योंकि इटली जीने मरने के संघर्ष में जद्दोजहद कर रहा है। उसकी सभी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं जो उच्च गुणवत्ता की थी धरी की धरी रह गई....।

 डब्ल्यूएचओ के नजर में चीन जो कोरोना का जनक था, उसके यहां मरने वाले कोरोना रोगियों की संख्या की दुगनी संख्या इटली में जा पहुंची है, इन हालातों में हमारे भारत की संपूर्ण अर्थव्यवस्था कितनी चीन की दयापात्र रहेगी.... कुछ कह पाना इस बात पर निर्भर करेगा कि "चीनी-कोरोना" कितना बड़ा हमला करता है, कितने लोगों को मारता है..? अभी तो शुरुआत है।
 ऐसे किसी हमले के लिए... किसी राष्ट्रीय आम सहमति वाले विचारों वाली सरकार का प्रयोग, मध्यप्रदेश में हो सकता था। तुलनात्मक रूप से चीनी-कोराना के हमले का आकलन होता है, किंतु जैसे "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा बुलंद करते हुए चीन ने विश्वासघात किया कमोबेश उसी अंदाज पर "चीनी-हिंदी भाई-भाई" के तर्ज पर हमारा लोकतंत्र इस महामारी में भी उत्सव मनाने कि कोई ऑप्शन नहीं छोड़ा......! 
अब जब बहुत कुछ सरकार में अनुकूल ठीक हो गया, तो अपनी रही सही लोकशाही के अलावा 7 दशक के गुलामों को, या पत्रकारिता के पैदल-सैनिकों को आवाहन किया जा रहा है कि वे लोकतंत्र को बचाने में जो भी भूमिका निभा रहे हैं अपने लोग ज्ञान से उसमें पॉजिटिविटी ढूंढ कर काम किए जाएं.... 
किंतु बीते 7 दशक में कारपोरेटों का गुलाम बनाने का पैदल सैनिकों याने "जमीनी-पत्रकारों" को जब तक आप भोजन नहीं देंगे... सुनिश्चित आर्थिक स्वतंत्रता नहीं देंगे..... तब तक यह संपूर्ण स्वतंत्रता के साथ अपने लोक-ज्ञान का उपयोग आपके लोकतंत्र को या राजशाही को बचाने के लिए, स्वयं को कोरोना से भी नहीं बचा पाएंगे......।
आज जनता कर्फ्यू लगने के  बाद चौथे दिन तक यह निर्णय अभी तक नहीं लिया गया है...?
 पैदल-सैनिकों, मुफ्त के सैनिकों हवा, और पानी में अब तक जीने वाले सैनिकों जमीनी-पत्रकारों की आर्थिक आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की जाए.... उनके बैंक खातों में उतनी राशि दी जाए कि वह भारत में विशाल प्राचीन परंपरा और लोक-ज्ञान में फैली हुई तमाम प्रकार के अनुसंधानात्मक जड़ी-बूटियों के जरिए ऐसी महामारियो का निराकरण की संभावना के अवसर तलाश कर सकें.... जिसकी वैज्ञानिक पुष्टि करके कोई रास्ता निकाला जा सके.... ऐसे किसी वैकल्पिक समाधान को नजरअंदाज भी नहीं करना चाहिए हो सकता है जैसा कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि यह वह समय नहीं है।
 यह पहले भी बीते 7 दशक में हो सकता था किंतु आपने अपने पैदल-सैनिकों को यानी पत्रकारों को गुलाम बनाने की जो प्रवृत्ति पालने का काम किया दुर्भाग्य से आज आप उसमें स्वत: गुलाम होते चले गए।
 अब भी अवसर है कि भारत की आंतरिक लोक-शक्ति के वाहक पत्रकारिता को संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम कीजिए... प्रयोग के तौर पर उन्हें बैगा आदिवासी मानकर.... खासतौर से मैं मध्यप्रदेश की बात कर रहा हूं उनके खातों में कोई खास राशि देकर..... समस्त प्रकार की सूचनाओं को संज्ञान करते हुए ऐसी किसी भी महामारी से निपटने के रास्ते तलाश करने चाहिए।
 बिना राजनीतिक भेदभाव के दिखाने वाला सहमति...., बिना माफिया गिरी की सोच के दिखाने वाली सहमति के जरिए हम ग्राम-स्वराज की कल्पना को बुनियादी ढांचा को मजबूत कर सकते हैं...... महात्मा गांधी का यही दर्शन था। 
हो सकता है इसमें बहुत देर हो गई हो, हो सकता है यह आपके विचारों के विरोध में हो, किंतु जब तक आप संपूर्ण स्वतंत्रता की बात नहीं करेंगे तब तक हमारा लोक-ज्ञान वर्तमान लोकतंत्र की माफिया गिरी से भयभीत होकर अपने बिलों से नहीं निकलेगा... क्योंकि वह इस बात की गारंटी लेता है कि क्या आप विश्वसनीय हैं....
 ऐसा मैंने शहडोल के एक गांव के गांधीग्राम में सरकार की नजर में चिन्हित विशेष पिछड़ी जनजाति का एक बैगा आदिवासी जड़ी बूटियों का जानकार व्यक्ति से अनुभव प्राप्त किया.... आज भी जब मैं "हंसराज" नामक जड़ी बूटी की बात किसी से करता हूं तो वह साफ  कहता है कि ऐसी कोई जड़ी-बूटी नहीं है.... जबकि कड़वा सत्य है की बैगा हमें 3 किलोमीटर अंदर घनघोर जंगल में ले जाकर एक नाले में सूखी हुई घास की डोर को पकड़ कर बताया कि यही "हंसराज" है। पहले तो मैं आश्चर्यचकित रह गया किंतु करीब 15 फीट खुदाई करने के बाद उस सूखी घास के के सहारे वह उस पर लगी हुई 8-10 हंसराज को जोकि किसी छोटे आलू के आकार की थी हमें दिया। क्योंकि हमने उसका विश्वास जीत लिया था और इस लोक-ज्ञान के जरिए "हंसराज" का उपयोग लकवा ग्रस्त गले को ठीक करने मैं हमने भारी सफलता प्राप्त की..."
 मैं यह नहीं कहता कि "हंसराज" ही ऐसा कर सकता है बल्कि मैं यह कहता हूं भारत के विशाल भूभाग पर क्षेत्रीय लोक-ज्ञान को पत्रकारिता के जरिए जिनमें अनुसंधान की प्रवृत्ति होती है..., जो जैविक रूप से ऐसा कर सकते हैं, उन्हें स्वतंत्र करिए.. और स्वतंत्र रखिए..... शायद उनका खोया हुआ ज्ञान " लोकतंत्र" को बचाने में काम आवे...? महामारी के वक्त भी क्या हम सचेत हैं...? क्या हम ईमानदार हैं....? और अद्यतन लोकशाही की भाषा में क्या हम "ट्रांसपेरेंट" हैं......?

मंगलवार, 24 मार्च 2020

अथ सब्जीमंडी कथा..... क्या कोरोना को लेकर हम तैयार हैं...?

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क्या कोरोना को लेकर हम तैयार हैं...?

या फिर भगवान भरोसे है 

आदिवासी क्षेत्र शहडोल
(त्रिलोकीनाथ)
 आज जनता कर्फ्यू का तीसरा दिन है, जिस प्रकार से खबरें आ रही हैं और कम से कम कितने दिन हमें सतर्कता बरतना पड़ेगा जनता कर्फ्यू को बरकरार रखने के लिए....?
 उस हिसाब से 15 दिन कहीं नहीं गए हैं। कोरोना वायरस से संपर्क तोड़ने का फिलहाल इस एकमात्र इलाज के अलावा कोई इलाज नहीं दिखता है। तो संपर्क तोड़ने की शुरुआत बहुत शानदार हुई किंतु शाम के 5:00 बजे  शंख,घंटा ,घड़ियाल और ताली या थाली  ने उसे समझने में कमजोरी कर दी। कई जगह तो उत्सव मनाते देखा गया कि जैसे कोरोना खत्म हो गया हो।
 यह सूचनाओं की क्रांति के युग में अध कचरी खबरों का परिणाम था या खबर की सही तरीके से प्रधानमंत्री की बातों को नहीं समझा गया। बहराल धीरे से यह बता दिया गया की जनता कर्फ्यू चलेगा। फिलहाल शहडोल प्रशासन ने 26 तारीख तक सुनिश्चित किया है। पूरी धैर्य के साथ आंख मूंदकर 15 दिन सोच कर चलें.... ।
प्रशासन भी कहे तो भी ना माने और 15 दिन स्व-अनुशासन से जैसे कि महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई के दौरान स्व अनुशासन का पालन करने की सलाह दी थी, अब पुनः वह वक्त आया है एक अज्ञात हमलावर से लड़ने का और यह लड़ाई हम सब की है।
 किंतु आज तीसरे दिन सुबह जब मैं बाहर गया तो सब्जी मंडी मैं जो हालात देखें उसको लेकर मन बेचैन हो गया, छोटे कारोबारियों का आर्थिक हालात की गड़बड़ी और व्यापार के मर जाने का खतरा तो है ही किंतु उसे कैसे स्व अनुशासन के तरीके से करना है यह सुनिश्चित नहीं किया गया।

 कोरोना वायरस के दौरान ही मध्य प्रदेश की सत्ता परिवर्तन और नए मुख्यमंत्री शिवराज का शपथ हुआ उन्होंने भी अपने शपथ समारोह के जरिए कोई ऐसा प्रचार नहीं किया कि कोरोना मामले मैं हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए। दिखाने वाला व्यवहार और सिखाने वाला व्यवहार, सत्ता परिवर्तन का आकर्षण हमें नहीं बता पाया। एक सही समय का ,सही संदेश नहीं मिल पाया .......
यह ठीक है कि मुख्यमंत्री ने कहा कि उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता कोरोना है किंतु देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं दिया, क्योंकि कांग्रेस गवर्नमेंट गिराना ए प्राथमिकता थी। अब जबकि पूर्व सीजेआई राज्यसभा सदस्य बन गए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि केंद्र की सत्ता न्यायपालिका को अपने इशारे पर नहीं चलाती है... तो मध्य प्रदेश के मामले में 20 तारीख को बहुमत सिद्ध करने का आदेश कुछ इसी प्रकार का था। कोरोना की समस्या इसमें कोई प्राथमिकता नहीं थी।
 इतना तो तय है ऐसे में जनमानस के बीच में खासतौर से शहडोल जैसे आदिवासी क्षेत्रों प्रशासनिक पकड़ से बाहर, माफियाओं की पकड़ के अंडर में रहने वाले क्षेत्रों पर दूरगामी परिणाम क्या होंगे .... यह तो भगवान भरोसे है।
 किंतु शहडोल संभागीय मुख्यालय के सब्जी मंडी में आज सुबह जिस प्रकार से सब्जी बेचने के मामले में व्यावहारिक कोरोना संबंधी सावधानियां देखने को नहीं मिली वह नागरिकों के दुर्भाग्य के अलावा और कुछ नहीं है। यह सौभाग्य अलग है कि कोरोना वायरस का हमला शहडोल में नहीं हुआ है।
 न सिर्फ में शहडोल में सब्जी मंडी में बल्कि भोपाल के विधायिका में भी; जो सब्जी मंडी की तरह ही है व्यवहार करती दिखी ...।कोई स्व-अनुशासन महात्मा गांधी का इन्हें नियंत्रित करते नहीं दिखा.....
 सब्जी मंडी की गंदगी 2 दिन मार्केट बंद रहने के बाद भी सुबह वैसे ही दिखा, जैसा हमेशा रहा था। कुछ ब्लीचिंग वगैरह जरूर देखें थोड़ा सफाई भी । किंतु ज्यादा भीड़भाड़ वाले इलाके में प्रति घंटा निगरानी वाली सफाई बिल्कुल नहीं की गई , ना ही सब्जी विक्रेताओं को संदेश दिया गया कि वे किस प्रकार से आम आदमी आदमियों से व्यवहार करते हुए सब्जी का विक्रय कर सकते हैं ।नगर पालिका शहडोल हो या जिला का प्रशासन अथवा संभाग का प्रशासन, सब्जी मंडी शहडोल के व्यवहार को मॉडल के तौर पर संदेश दे सकती है.. कि सभी लोग एक जगह व्यवसाय ना करके शहडोल, पुरानी शहडोल ,सुहागपुर गौरतारा या पांडव नगर अन्य अन्य क्षेत्रों में कई केंद्र बनाकर सब्जियों को विक्रीकर वितरण की व्यवस्था की जा सकती थी .....साथ ही उन्हें कोरोना की समस्या से लड़ने का  संदेश देने का भी केंद्र बनाया जा सकता था ....।इससे सब्जी मंडी हो अथवा रेलवे स्टेशन यहां की भीड़ को भी नियंत्रित किया जा सकता था। और हर छोटी-छोटी गुमटीओ या दुकानों को  10 मीटर में अथवा पांच-पांच मीटर में अंतर देकर व्यावहारिक रूप से जीवन व्यवहार का संदेश जा सकता था, जो नहीं हुआ।
 यह हमारे पालिका प्रशासन अथवा प्रशासन या पुलिस प्रशासन सब की असफलता है ऐसे अवसर अक्सर हमारी चुनौतियों से नवाचार का अवसर भी देते हैं। क्या हम उन अवसरों को या हर समस्या को एक अवसर के रूप में बदल नहीं सकते......?
 क्या हम चूक गए हैं.....?
अथवा अन्य विकल्प पर हम क्या कर सकते हैं...... इस पर जरूर काम होना चाहिए ।फिलहाल जो होता नहीं दिखा।
 हो सकता है मेरी आलोचना अतिरेक हो किंतु भयभीत जीवन शैली में मैं यही समझ पाया कि हम संघर्ष करने में आज भी विशेष पिछड़ी जनजाति के शहरी आदिवासी हैं..., क्या हम इसमें सुधार ला सकते हैं...?
तो कैसे ........?
जरूर करना चाहिए....।

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