गुरुवार, 26 मार्च 2020

लोकतंत्र, 
को रोना और पत्रकारिता...-1

&-क्योंकि  जब देश भक्ति का  और समाज सेवा का  नशा  करने का शौक  हमें लगा  तो हमने पत्रकारिता को चुना था......
&- क्योंकि भारत के संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र के हम निवासी हैं.......
&- क्योंकि पत्रकारिता से जुड़े तमाम वेतन आयोग और उससे लाभान्वित व्यक्तियों में जमीनी पत्रकार लगभग अछूता है.......
&- क्योंकि हम भी आदिवासी क्षेत्रों में पड़ रही खुलेआम डकैती और लूट में शामिल नहीं हो पाए....
&- क्योंकि अब हम आदतन पत्रकारिता के पेशे में फंस गए हैं....
     जैसे भारत इस समय को रोना में फंसा दिया गया है ...और इसलिए जरूरी है कि हम बात अपनी पहुंचाएं जरूर, इस आशा के साथ अगर मानवीय संवेदना लोकशाही में सचमुच कहीं बची है....?, तो वह जमीनी पत्रकारों के लिए "डायरेक्ट बेनिफिट स्कीम" का उपयोग कर कॉर्पोरेट जगत का मीडिया और अखबार मालिकों, नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार में खत्म होने वाले शासकीय धन (विज्ञापन आदि में मैं कटौती कर) से हमें यानी महामारी के दौर में "जमीनी पत्रकारों" को या 21 दिन के इस महायुद्ध में जिसकी तुलना हमारे प्रधानमंत्री जी "महाभारत युद्ध" से कर रहे हैं... वह कड़वा सच है, किंतु इससे भी ज्यादा कड़वा सच यह है कि आपके राहत घोषणाओं से अछूते मीडिया / पत्रकारिता के "जमीनी सैनिक" विशेषकर असंगठित क्षेत्र के अथवा शासकीय दस्तावेजों में नाम मात्र के दर्ज पत्रकारों को तत्काल राहत दिया जाए.....

 बावजूद आशा कम है.... कि ऐसा होगा....? किंतु शायर की यह बात भी अपनी जगह ठीक है की... "आशा पर आकाश टिका है.., कि स्वाॅस-तंतु कब टूटे.....


(त्रिलोकीनाथ)
ग्राम स्वराज महात्मा गांधी की दूरदर्शी कल्पना थी देश की गुलामी के बाद अगर ग्राम स्वराज स्थापित होता... राजनीति पवित्र मंसा की होती तो शायद स्वरूप कुछ और होता।

 मेरे देश का प्रधानमंत्री यह निर्णय ले की "जनता कर्फ्यू" लगाएं प्रदेश का मुख्यमंत्री इस बात में इस महामारी के दौरान यह निर्णय ले कि लोकतंत्र, प्रदेश का बचाना है क्योंकि "कोरोना का हमला" है...... इस मद्देनजर विधानसभा स्थगित की जाती है इससे ज्यादा यह कि लगातार कोरोना हमले पर हमला करता चला जा रहा था न सिर्फ केंद्र सत्ता बल्कि राज्य सत्ता और एक कदम आगे चलें तो तथाकथित स्वतंत्र न्यायपालिका में बैठे न्यायाधीश भी कोरोना के खतरे को लेकर आम नागरिक के भरोसे वाला निर्णय लेती, बजाय इसके सत्ता परिवर्तन की "भूख की तृप्ति" के लिए राजतंत्र में भाटो की तरह कोई "बृंद-गान" करती दिखी......
 अगर मध्य प्रदेश को मॉडल मान कर इस दुनिया में फैली 

कोरोना"कोविड-19"महामारी को मद्देनजर तो बड़ी साफ और स्पष्ट अध्कचरी संस्कृति के मद्देनजर बोलें तो ट्रांस्प्रेंट-महामारी का हमला 23 जनवरी को हो चुका था। हमारी लोकशाही में बैठे तीन प्रमुख स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका; घोड़ा बेच कर सो रहे थे।
 जब से हमारे प्रधानमंत्री जी नरेंद्र मोदी सत्ता पर आए अपने नवाचार के तहत  उन्होंने विदेश मंत्री के तरह जैसा कि उनकी आदत है अघोषित निर्णय के तहत पूरे विदेशों में घूमने का और दुनिया को देखने का काम किया। 5 साल बल्कि 6 साल वे दुनिया घूमते रहे......
 कोरोना बीमारी के जनक चीन के राष्ट्रपति को अपने गृह राज्य अहमदाबाद में लाकर झूला भी झुलाया..... 6 साल में क्या यह उपलब्धि नहीं होनी चाहिए थी कि अगर रूस बच सकता है इस महामारी से लड़ने के लिए, तो भारत को भी बचने का पूरा हक है.... या फिर चीन प्रधानमंत्री के साथ "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा लगाते हुए विश्वासघात कर रहा था....? हम उनके उत्पाद और सामग्री को भारत में बाजार दे रहे थे, उनका बैंक खोल रहे थे और वे पीठ में छुरा मार रहे थे..... क्या वे तकनीकी ज्ञान प्राथमिकता से हमें नहीं दे सकते थे....?
 यह हमें सोचने का एक वक्त है के जब महामारी फैली है, जब सब रास्ते बंद होते जा रहे हैं, तब लोकतंत्र के तीनों स्तंभ से ज्यादा प्राय: अज्ञात "चतुर्थ-स्तंभ" यानी पत्रकारिता के बारे में प्रधानमंत्री और उनकी अद्यतन लोकशाही इस बात में नवाचार करने के पक्ष में निर्णय ले रही है कि मीडिया को, पत्रकारिता को संपूर्ण स्वतंत्रता देनी चाहिए..... पत्रकारिता को जीवन दीजिए, उसके गलत पक्ष (नेगेटिविटी) का नजरअंदाज करिए किंतु उसमें निकल रहे अच्छे पक्ष को (पॉजिटिविटी) से इस बात की संभावना देखिए कि क्या इस महामारी में लड़ने के लिए इन सैनिकों( जमीनी पत्रकारों) ने क्या अच्छी प्रस्तुति दी है......।
 बीते 7 दशक में पत्रकारिता को "यूज एंड थ्रो" और बाद में "कॉर्पोरेट का गुलाम" बनाने वाली सोच का यह एक बड़ा पराजय है..... उसने सत्य स्वीकारने की साहस की है.... किंतु अभी भी वह यानी सत्ताधीश असत्य में जीना चाहता है....? वह चाहता है कि 18 दिन के महाभारत के युद्ध के बाद अब 21 दिन के इस महामारी युद्ध में "पत्रकार-सैनिक" अपने लोक-ज्ञान के जरिए यदि कोई संभावित संजीवनी वटी जंगल से ढूंढ कर ला रहे हैं तो उसका जरूर लोकहित में उपयोग किया जाए....., राम और रावण के युद्ध में यह तय हुआ था कि विद्वान सुषेण वैद्य रक्ष संस्कृति का था, इसके बाद भी उसके ज्ञान का उपयोग राम ने अपने भाई लक्ष्मण को बचाने के लिए वैद्द का अपहरण कराया था। उस समय राजतंत्र था, रामायण की कथा एक बड़ा संदेश है...।


 अब लोकतंत्र है महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी किंतु भ्रष्टाचारियों ने उसमें "बाजार" नहीं पाया और  उस अवधारणा को धोखा देने का काम किया.... आज भी गांधी का नकाब बाजार पैदा कर रहा है बहरहाल सत्ताधीशों की  यह कार्य प्रणाली "प्रकृति-सत्ता" को शायद यह मंजूर नहीं था इसलिए भी 23 जनवरी को संपूर्ण संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद, वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने के बाद भी.... भारत सरकार और उसमें दिखने वाले नेता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शक्तिमान की तरह प्रस्तुत जरूर किए गए, किंतु दुनिया से दुनियादारी सीखने में शायद बहुत देर हो गई.........? क्योंकि कांग्रेस मुक्त भारत के कल्पना कार मध्यप्रदेश में कांग्रेस को नष्ट  करने का प्रयास रहे थे बावजूद कांग्रेस के नेता राहुल गांधी या प्रियंका गांधी जिन्हें वे वंशवाद बताने में जरा भी नहीं जी सकते यह चिल्लाते रहे की कोरोना एक गंभीर समस्या है कांग्रेस की सत्ता को हटाने से अगर वक्त मिल रहा है तो उस पर भी काम करें आर्थिक मोर्चे पर बहुत गंभीर हालात खड़े होने वाले हैं आदि-आदि जितना उनका इनपुट उन्हें बता रहा था वे प्रवक्ता की तरह बोल रहे थे यह अलग बात है कि भोपू पत्रकारिता ने उसे कितना तवज्जो दिया या उनकी बात को दबा दिया फिर भी छनकर बातें आ ही रही थी।
 यही कारण है कि 23 जनवरी को जब हमारा पड़ोसी चीन "तथाकथित तौर पर इस जैविक हथियार" का प्रयोग कर रहा था तब हम नींद में थे..... अहमदाबाद में झूला झूलाना पाकिस्तान को बिरयानी खिलाने से ज्यादा कुछ भी नहीं रहा.....? यह इसलिए भी आरोप लग रहा है क्योंकि केरल में आने वाले पहले 3 संक्रमित कोरोना के व्यक्तियों को  आने के बाद पूरे विदेशियों पर कड़ी नजर कड़े प्रतिबंध और कड़ा पहरा नहीं लगा कर रखा गया......?


धन्यवाद की पात्र है वह और अच्छा है कनिका कपूर, लोकतंत्र के इन महाराजाओं के बीच में घूम-घूम कर नाची.... कॉर्पोरेट सिस्टम में करुणा की जागरूकता उसी प्रकार से पैदा की जैसा कि हमारे पांचवी अनुसूची क्षेत्र में कभी बैगा सम्मेलन पर तब मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान वैभव के साथ जमकर नाचे थे....,
 बहरहाल शायद तब हमारा लोकशाही जागा जब पूर्व मुख्यमंत्री  और पूर्व महारानी वसुंधरा राजे, आइसोलेशन में चली गई..... पूरे देश में यह चर्चा का विषय बन गया इसलिए भी कि अभी हाल में मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के केंद्र पर महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में प्रवेश किए थे जोकि पूर्व महारानी वसुंधरा राजे के भाई ग्वालियर महाराजा के पुत्र हैं इस प्रकार वे उनके भतीजे लगे इनके साथ कुछ लोकतंत्र के और वाहक भी जब अन्य नेता कोरोना की गिरफ्त में आने का भय जीने लगे.... तब तक बहुत देर हो चुकी थी....... और कोरोना के सभी वाहक चीनी बाजार की तरह भारत के आम नागरिकों के बीच में फैलने का काम कर गए और खेल रहे थे।

 हम मध्य प्रदेश की बात करें यहां दिल्ली के "टेस्ट-ट्यूब" के जरिए काल्पनिक डॉक्टर अमित शाह के लोकतंत्र की प्रसव पीड़ा में नकली प्रयोग हो रहे थे..?,
चाहते तो इस चीनी जैविक आक्रमण कोरोना  से युद्ध लड़ने के लिए चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या केंद्र सत्ता प्रयोग के तौर पर अब-तक काल्पनिक रहे "राष्ट्रीय सरकार" का प्रयोग करके भी मध्यप्रदेश में ऐसी ही कोई राष्ट्रीय आम सहमति वाली सरकार का निर्णय लेकर, कोरोना के मामले में गंभीर निर्णय ले सकती थी......, राज्य को स्वतंत्र करके उसे सर्व सहमति से निर्णय की छूट दे सकती थी.... किंतु प्रकृति को यह मंजूर नहीं था शायद पाप का आवरण बढ़ रहा था शायद इसीलिए हमारा भ्रष्ट लोकतंत्र, भ्रमित रहा.....?
 भलाई यह आरोप स्थापित हो रहे हो की इटली, जिसकी दुनिया में दूसरे नंबर की सबसे अच्छी स्वास्थ्य सेवा है, उसकी आर्थिक ढांचे को नष्ट करने के लिए उसके चीन पर बढ़ रहे, उद्योगपतियों के दबाव पर उन्हें नष्ट करने के लिए "चीनी-कोरोना" प्रयोग के तौर पर संक्रमित किया गया..... यह इसलिए भी  कहते हैं कि इटली की कई उद्योगों को, जो चीन में स्थापित हैं..., उन्हें चीनी उद्योगपतियों ने इसी "कोरोना-वायरस" के दौरान खरीद लिया है... क्योंकि इटली जीने मरने के संघर्ष में जद्दोजहद कर रहा है। उसकी सभी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं जो उच्च गुणवत्ता की थी धरी की धरी रह गई....।

 डब्ल्यूएचओ के नजर में चीन जो कोरोना का जनक था, उसके यहां मरने वाले कोरोना रोगियों की संख्या की दुगनी संख्या इटली में जा पहुंची है, इन हालातों में हमारे भारत की संपूर्ण अर्थव्यवस्था कितनी चीन की दयापात्र रहेगी.... कुछ कह पाना इस बात पर निर्भर करेगा कि "चीनी-कोरोना" कितना बड़ा हमला करता है, कितने लोगों को मारता है..? अभी तो शुरुआत है।
 ऐसे किसी हमले के लिए... किसी राष्ट्रीय आम सहमति वाले विचारों वाली सरकार का प्रयोग, मध्यप्रदेश में हो सकता था। तुलनात्मक रूप से चीनी-कोराना के हमले का आकलन होता है, किंतु जैसे "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा बुलंद करते हुए चीन ने विश्वासघात किया कमोबेश उसी अंदाज पर "चीनी-हिंदी भाई-भाई" के तर्ज पर हमारा लोकतंत्र इस महामारी में भी उत्सव मनाने कि कोई ऑप्शन नहीं छोड़ा......! 
अब जब बहुत कुछ सरकार में अनुकूल ठीक हो गया, तो अपनी रही सही लोकशाही के अलावा 7 दशक के गुलामों को, या पत्रकारिता के पैदल-सैनिकों को आवाहन किया जा रहा है कि वे लोकतंत्र को बचाने में जो भी भूमिका निभा रहे हैं अपने लोग ज्ञान से उसमें पॉजिटिविटी ढूंढ कर काम किए जाएं.... 
किंतु बीते 7 दशक में कारपोरेटों का गुलाम बनाने का पैदल सैनिकों याने "जमीनी-पत्रकारों" को जब तक आप भोजन नहीं देंगे... सुनिश्चित आर्थिक स्वतंत्रता नहीं देंगे..... तब तक यह संपूर्ण स्वतंत्रता के साथ अपने लोक-ज्ञान का उपयोग आपके लोकतंत्र को या राजशाही को बचाने के लिए, स्वयं को कोरोना से भी नहीं बचा पाएंगे......।
आज जनता कर्फ्यू लगने के  बाद चौथे दिन तक यह निर्णय अभी तक नहीं लिया गया है...?
 पैदल-सैनिकों, मुफ्त के सैनिकों हवा, और पानी में अब तक जीने वाले सैनिकों जमीनी-पत्रकारों की आर्थिक आत्मनिर्भरता सुनिश्चित की जाए.... उनके बैंक खातों में उतनी राशि दी जाए कि वह भारत में विशाल प्राचीन परंपरा और लोक-ज्ञान में फैली हुई तमाम प्रकार के अनुसंधानात्मक जड़ी-बूटियों के जरिए ऐसी महामारियो का निराकरण की संभावना के अवसर तलाश कर सकें.... जिसकी वैज्ञानिक पुष्टि करके कोई रास्ता निकाला जा सके.... ऐसे किसी वैकल्पिक समाधान को नजरअंदाज भी नहीं करना चाहिए हो सकता है जैसा कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने कहा कि यह वह समय नहीं है।
 यह पहले भी बीते 7 दशक में हो सकता था किंतु आपने अपने पैदल-सैनिकों को यानी पत्रकारों को गुलाम बनाने की जो प्रवृत्ति पालने का काम किया दुर्भाग्य से आज आप उसमें स्वत: गुलाम होते चले गए।
 अब भी अवसर है कि भारत की आंतरिक लोक-शक्ति के वाहक पत्रकारिता को संपूर्ण स्वतंत्रता के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम कीजिए... प्रयोग के तौर पर उन्हें बैगा आदिवासी मानकर.... खासतौर से मैं मध्यप्रदेश की बात कर रहा हूं उनके खातों में कोई खास राशि देकर..... समस्त प्रकार की सूचनाओं को संज्ञान करते हुए ऐसी किसी भी महामारी से निपटने के रास्ते तलाश करने चाहिए।
 बिना राजनीतिक भेदभाव के दिखाने वाला सहमति...., बिना माफिया गिरी की सोच के दिखाने वाली सहमति के जरिए हम ग्राम-स्वराज की कल्पना को बुनियादी ढांचा को मजबूत कर सकते हैं...... महात्मा गांधी का यही दर्शन था। 
हो सकता है इसमें बहुत देर हो गई हो, हो सकता है यह आपके विचारों के विरोध में हो, किंतु जब तक आप संपूर्ण स्वतंत्रता की बात नहीं करेंगे तब तक हमारा लोक-ज्ञान वर्तमान लोकतंत्र की माफिया गिरी से भयभीत होकर अपने बिलों से नहीं निकलेगा... क्योंकि वह इस बात की गारंटी लेता है कि क्या आप विश्वसनीय हैं....
 ऐसा मैंने शहडोल के एक गांव के गांधीग्राम में सरकार की नजर में चिन्हित विशेष पिछड़ी जनजाति का एक बैगा आदिवासी जड़ी बूटियों का जानकार व्यक्ति से अनुभव प्राप्त किया.... आज भी जब मैं "हंसराज" नामक जड़ी बूटी की बात किसी से करता हूं तो वह साफ  कहता है कि ऐसी कोई जड़ी-बूटी नहीं है.... जबकि कड़वा सत्य है की बैगा हमें 3 किलोमीटर अंदर घनघोर जंगल में ले जाकर एक नाले में सूखी हुई घास की डोर को पकड़ कर बताया कि यही "हंसराज" है। पहले तो मैं आश्चर्यचकित रह गया किंतु करीब 15 फीट खुदाई करने के बाद उस सूखी घास के के सहारे वह उस पर लगी हुई 8-10 हंसराज को जोकि किसी छोटे आलू के आकार की थी हमें दिया। क्योंकि हमने उसका विश्वास जीत लिया था और इस लोक-ज्ञान के जरिए "हंसराज" का उपयोग लकवा ग्रस्त गले को ठीक करने मैं हमने भारी सफलता प्राप्त की..."
 मैं यह नहीं कहता कि "हंसराज" ही ऐसा कर सकता है बल्कि मैं यह कहता हूं भारत के विशाल भूभाग पर क्षेत्रीय लोक-ज्ञान को पत्रकारिता के जरिए जिनमें अनुसंधान की प्रवृत्ति होती है..., जो जैविक रूप से ऐसा कर सकते हैं, उन्हें स्वतंत्र करिए.. और स्वतंत्र रखिए..... शायद उनका खोया हुआ ज्ञान " लोकतंत्र" को बचाने में काम आवे...? महामारी के वक्त भी क्या हम सचेत हैं...? क्या हम ईमानदार हैं....? और अद्यतन लोकशाही की भाषा में क्या हम "ट्रांसपेरेंट" हैं......?

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