मंगलवार, 31 मार्च 2020

मुद्दा, न्यायपालिका और पत्रकारिता का.. ,लोकतंत्र, को रोना और पत्रकारिता-4 (त्रिलोकीनाथ)

लोकतंत्र, को रोना और पत्रकारिता-4 
मुद्दा, न्यायपालिका 
और पत्रकारिता का.. 

😓राहत-राशि देने में यह संवेदनहीन 
क्यों है वे ......?
वक्त की नजाकत,
इन्हें कौन समझाए...🤔

( त्रिलोकीनाथ )
         बॉम्बे बार एसोसिएशन (बीबीए) ने रविवार को एक नोटिस जारी किया जिसमें कहा गया है कि बॉम्बे बार एसोसिएशन ट्रस्ट कोरोना वायरस की महामारी से निपटने के लिए प्रधानमंत्री राहत कोष में 10 लाख रुपये का योगदान दे रहा है। बीबीए सचिव और वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. बीरेंद्र सराफ द्वारा लिखित नोटिस, में कहा गया है- "पूरी दुनिया की तरह, भारत अपने सबसे बुरे संकटों में से एक का सामना कर रहा है क्योंकि यह COVID -19 की महामारी से लड़ रहा है। जैसा कि आप जानते हैं, हमारे देशवासियों  देशवासी दैनिक आजीविका और अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं.......

        इस खबर के बाद मैंने विचार किया,
जब मैंने यह कड़ी प्रारंभ की थी तो अपनी पहली कड़ी में विशेषकर भारतीय संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल आदिवासी विशेष क्षेत्रों के पत्रकारों के लिए, क्योंकि हमारी पहुंच यहीं तक है, के बीच में इस बात का भी संदेश देने का प्रयास किया था कि अपने आर्थिक परिस्थितिकी को अपने अद्यतन परिवेश को अपने  नजरिए से शासन व प्रशासन के बीच में रखना चाहिए। वह इसलिए भी ताकि शायद विश्वव्यापी कोरोना महामारी की भयावहता के मध्ये नजर भ्रष्ट राजनीत और उसके वृंदगान गाने वाले राज-भाठों से बाहर निकल कर उनका आत्ममंथन यह सुनिश्चित करें कि बीते 70 साल के बाद क्या पत्रकारिता को लेकर, उस पर आश्रित मनुष्यों को लेकर उनमें कोई संवेदना उनकी स्वतंत्रता को बरकरार रखते हुए उन्हें जीने का हक देती है....
    जीना और मरना कुदरत का करिश्मा है, इसमें कोई शक नहीं...., यदि कुदरत ने तय कर लिया है तो शासन और प्रशासन हो या चीन का तथाकथित जैविक रासायनिक हथियार कोरोना; वह कुदरत के लक्ष्य को प्राप्त करेगा ही..... और यदि यह महामारी है तो हवा के झोंके की तरह यह भी निकल जाएगी.... कुछ बड़े पेड़ गिरेंगे, किंतु छोटे-मोटे घाॅस-फूंस फिर भी जीवित रहेंगे... यह भी कुदरत का करिश्मा है।
     किंतु हमें तो मनुष्यों की सतत स्वतंत्रता के लिए संभावनाओं के अवसर देखने चाहिए और भारतीय पत्रकारिता की पतनसील स्थिति पर इस महामारी में भी सरकारी भोंपू के अलावा बहुत कुछ दिखती नहीं रही है। आज चीनी कोरोनावायरस हमले का घोषित छठवां दिन है, कई प्रकार की राहत शासन स्तर पर आर्थिक रूप से कमजोर तथा मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर हो रहे लोगों के लिए जारी किए जा रहे हैं।
 हमारे पहले कड़ी में, अपने कारणों के सहित मैंने प्रस्तुत करने का काम किया कि शायद अन्य पत्रकार भी अपनी आर्थिक परिस्थितिकी को समझते हुए अपने मनोवैज्ञानिक दबाव को ठीक करने के लिए शासन से आर्थिक पैकेज की, जमीनी पत्रकारों के लिए खासतौर से जो चिन्हित है, व सूचीबद्ध है ,हालांकि इसमें उनके सूत्र नहीं है, गैर पत्रकार भी नहीं है। फिर भी जितने भी हैं उन सूचीबद्ध लोगों को आर्थिक पैकेज देकर राहत प्रदान करना चाहिए....
 जैसी अपेक्षा थी "मुंडे-मुंडे मतर् भिन्ना...."  उसी अनुरूप पत्रकारों ने अपेक्षित एप्रोच नहीं किया है.... कुछ पत्रकारों ने एक कदम आगे चलकर तटस्थ किंतु सकारात्मक संदेश देने का काम किया है.... कि उन्हें भी आर्थिक मदद की जरूरत है.। किंतु इन्हें हम प्रतिनिधि पत्रकार के रूप में चिन्हित कर सकते हैं..... वास्तव में यह काम उन पत्रकार संघों का है, जो आए दिन कोई ना कोई नाटक-नौटंकी और ड्रामा रच कर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं..... दुखद यह है एक  ने भी पत्र लिखने की साहस, उनमें भी नहीं दिखाई दिया।
 इसका मतलब यह नहीं है कि जितने भी पत्रकार हैं वे सब करोड़पति-अरबपति और संपन्न लोग हैं, विशेषकर पांचवी अनुसूची में शामिल सभी आदिवासी क्षेत्रों में। किंतु उनका आत्मबल सत्य को स्वीकारने में शायद इसलिए भी कमजोर है कि उन्हे भरोसा है कि वे व्यक्तिगत रूप से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर, तुष्टि पूर्ति कर लेंगे.... किंतु पूरे पत्रकार समाज का ख्याल उनको नहीं है....। और इसमें कोई शक नहीं है कि वह सब सत्य को जानते हैं।
      यह बात भी बड़ी स्पष्ट है कि सासन को कोई अलग से पैकेज नहीं देना है..... जो धन सरकारी तौर पर अपना चारण-भाट करने वाले अखबार मालिकों को या दलालों को या फिर इनके नाम पर भ्रष्ट लोकतंत्र धनराशि व्यय करता है, उसी धन से संबंधित अखबारों के ही शासन के अभिलेखों में दर्ज चिन्हित जमीनी प्रतिनिधि गण अथवा स्वतंत्र पत्रकारों को मैं तो कहता हूं गैर पत्रकारों को भी, इसी बजट से तत्काल आर्थिक राहत का एक पैकेज उनके बैंक खातों में सीधा डालना चाहिए। और भरोसा जीतने का काम करना चाहिए कि शासन और प्रशासन भारतीय लोकतंत्र का उनके साथ खड़ा है।
 यह वही सरकारें हैं जो मीसाबंदी में अगर कोई भी बंद हो गए थे...., उन्हें लाखों  रुपए लंबे समय से दे रही है... सिर्फ अपनी वोट राजनीति के लिए। मूल रूप से जो मीसाबंदी थे उन्हें जरूरत थी, इसमें कोई शक नहीं।
     अब हम बात करते हैं मीशा बंदियों की जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी, क्या उन्हें भी स्वत: आगे आकर अपने मीसाबंदी कार्यकाल के सहयोगी पत्रकारों को अपनी प्राप्त धनराशि के आधे बजट में इस महामारी से राहत पहुंचाने का प्रस्ताव शासन को नहीं देना चाहिए था...... या  एक हमारे मीसाबंदी समाजवादी नेता हैं उनकी भाषा में "तनखैय्या" होकर भ्रष्ट हो गए हैं....? उनकी नैतिकता उन्हें आवाज क्यों नहीं दे रही है...?
 एक और नजरिया हम मान लेते हैं कि ब्यूरोक्रेट्स निर्देशों का पालनहार मात्र है... इसलिए यह जो जनप्रतिनिधि हैं जो विधायक या सांसद हैं, जो लोकतंत्र का तारणहार बनने का प्रयास करते हैं, यह भी क्या चल रही महामारी की आंधी में पत्रकारों को बचाने के मामले में शुतुरमुर्ग की तरह बालू के अंदर सिर छुपा रखा है.... ?, यह इनकी जिम्मेदारी है कि वे पत्र लिखकर या बोलकर अपने नेता को सूचीबद्ध पत्रकारों को राहत पहुंचाने के लिए तत्काल कदम उठाने का कोई काम क्यों नहीं किया.....?
 और यह अजीब मनोदशा होगी कि फिर भी पत्रकार समाज या क्षेत्रीय पत्रकारिता इनके सामने गुलामों की तरह ही, स्वयं को प्रस्तुत करते रहेंगे..... क्योंकि वह पत्रकारिता की शपथ, स्वतंत्रता की वकालत नहीं करेंगे.... यह एक बात थी जो हमने रखी।
 किंतु इससे हटकर अन्य महत्वपूर्ण बात है,
जब व्यक्तिगत तौर पर राहत और परिस्थितिकी के लिए हम संज्ञान लिए,  तब लोकतंत्र के "चतुर्थ स्तंभ" ने भलाई चुप्पी साधे रखी.... किंतु महत्वपूर्ण प्रथम स्तंभ न्यायपालिका के एक वकील मित्र ने मुझे व्हाट्सएप किया कि हमारे बारे में भी कुछ लिखिए......,
 मुझे अच्छा लगा कि वे समान रूप से खाते पीते घर के होने के बाद भी विशेषकर पांचवी अनुसूची क्षेत्र में याने शहडोल संभाग में वकीलों का वकालत के पेशे में किन्ही कारणों से आए अजीबका  पालन करने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे....
 यह भी कड़वा सच है कि जिस न्यायपालिका का बुनियादी ढांचा हर प्रकार से सशक्त है, आर्थिक रूप में उसकी मजबूती और उसकी स्वतंत्रता दोनों ही किसी हिमालय के पहाड़ से कमजोर नहीं हैं.... अकेले मध्यप्रदेश हाई कोर्ट बार काउंसिल को ले, तो कहते हैं उसका बजट इतना जबरदस्त है कि  मुट्ठी भर 25  मेंबर्स अक्सर इस धनराशि से देश और विदेश में मौज करते हैं.... वकीलों की कल्याण के लिए एक ही बैठकर हमेशा चर्चा का विषय रही है। इस बार काउंसिल में इस प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप वर्तमान अधिवक्ता चुनाव में ज्यादा देखे गए..... और इसी के आधार पर वोट भी मांगे गए...., तो क्या बार काउंसिल जो न्याय का प्रतिनिधित्व करता है, वह अपने चिन्हित अधिवक्ताओं,/ रजिस्टर्ड अधिवक्ताओं को इस महामारी में एकमुश्त आर्थिक पैकेज नहीं दे सकता.....? जबकि वह संपन्न है, क्या उसकी सोच कोरोना से भी ज्यादा किसी भयानक महामारी से बीमार है...., जो बीते कई सालों के बावजूद भी स्वस्थ तरीके से मूल्यांकन नहीं कर पा रही है, कि अधिवक्ताओं को मासिक आर्थिक पैकेज चाहिए ही चाहिए... कई ऐसे हैं जिन्हें मैं जानता हूं जो दिहाड़ी मजदूर से ज्यादा बदतर हालात में दूसरे अथवा तीसरे या फिर चौथे दिन अपनी आमदनी के लिए परेशान होते देखे गए हैं.... उनका भी अपना परिवार है, क्या बार काउंसिल का बजट इस महामारी में उनके लिए काम नहीं आ सकता.....? अगर नहीं आ सकता है, तो यह बेहद शर्म की बात है..... लोकतंत्र का महत्वपूर्ण "प्रथम-स्तंभ" बेहद जर्जर और दीमको से भरा हुआ है...? यह बात बहुत चिंता करने वाली है।
 अगर इस महामारी में आप अपने स्टेटस का मूल्यांकन नहीं कर पाते, सर्व संपन्न होने के बाद भी तो विधायिका और कार्यपालिका , यह तो भ्रष्ट समाज का प्रतिबिंब बन कर रह गए हैं , इसका यह आशय नहीं किस में अच्छे लोग नहीं है जो है अभी उनकी आवाज और सोच नक्कारखाने में तूती की तरह है। इनके बारे में तो धारणा बनती जा रही है कि देश भगवान भरोसे चलता है... और इसका स्वरूप भी हमने देखा है।
 महानगरों में जहां इनकी बातों पर भरोसा टूट जाने से हजारों की संख्या में "सोशल डिस्टेंसिंग" की परवाह किए बिना जनता जीवन की तलाश में, कोरोना महामारी की परवाह किए बिना भी, बाहर निकल पड़ती है....? क्योंकि सतत स्वतंत्रता ,आजीविका और बच्चों का भविष्य उन्हें इस भ्रामक धुए में भ्रमित किए हुए हैं....
 तो आशा करनी चाहिए की प्रथम स्तंभ की न्यायपालिका के बार काउंसिल का बड़ा बजट अपने चिन्हित अधिवक्ताओं के लिए अपना द्वार खोल देगा.... यदि आपको लगता है कि अधिवक्ता संपन्न है तो आप किसी नरेंद्रमोदी की तरह, यह भी कह सकते हैं.... कि जो संपन्न हैं वे इस आर्थिक मदद को बार काउंसिल के लिए वापस छोड़ दें...., ताकि बाकी अधिवक्ता साथियों को कुछ अतिरिक्त दे सके।
शहडोल जिला अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष संदीप तिवारी इस बात को लेकर चिंतित हैं उन्होंने अपने उच्च स्तर पर अधिवक्ताओं के
हित पर निर्णय लेने का आग्रह भी किया है

यह खुशी की बात है की बार काउंसिल ने उनकी बात को सुना और समझा तथा आश्वासन भी दिया है किंतु समय रहते आश्वासन पर अमल हो जाएगा तो उसकी विश्वसनीयता का









 यह भी एक विकल्प है कि जो आप उनके "मृत्यु" में देने वाले हैं, जैसा कि संकल्पित है..., उसका कुछ भाग उन्हें "जीवन-दान" देने के लिए, सुरक्षा के आश्वासन के लिए तत्काल राहत पैकेज का इंतजाम करें.... और घोषणा भी। ताकि आप को ही देख कर सही, "हवा और पानी में जीने की गारंटी वाला पत्रकारिता" चतुर्थ स्तंभ के लिए बाकी लोकतंत्र कुछ विचार कर सकें.... इसे हमारा स्वार्थ ही समझें । किंतु बहुत जरूरी है... यह स्वार्थ, क्योंकि इसमें भारत की राष्ट्रीयता के मूलभूत सिद्धांत "जियो और जीने दो" निहित है....... ऐसा भी समझ सकते हैं कि अगर कुछ अधिवक्ताओं को यह राहत राशि मिलेगी तू खो सकता है उनमें से कुछ लोग हमारे जैसों को भी मदद करने का हाथ बढ़ा में क्योंकि दर्द का रिश्ता जमकर बोलता है।
तो..., "प्रत्येक चुनौती एक अवसर है..." क्या आप अवसर का लाभ नहीं उठाना चाहते...? 
तो सोचिए और सोचते रहिए...
 और अगर कुछ करना है तो
 कर डालिए....
 अन्यथा गिलास में थोड़ा सा जल और उसमें मदिरा के कुछ हिस्सा और अगर घर में बर्फ का टुकड़ा है... उसको भी डालकर गर्मी का आनंद लीजिए.... क्योंकि बीते 7 दशक में ऐसा ही होता आया है....... यह हमारी झूठी कल्पना है.😊 बुरा मत मानिएगा मंगलम, शुभम......

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