लोकतंत्र, को रोना
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;....
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,...
----"मैं तोड़ती पत्थर।"
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,...
----"मैं तोड़ती पत्थर।"
(त्रिलोकीनाथ)
आज सुबह जब रेडियो पर सुना कि "राष्ट्रीय स्वयंसेवक को आवाहन किया गया है कि वे इस महामारी से लड़े...." तो एक आत्मिक खुशी हुई की तब रक्षा मंत्री जॉर्जफर्नांडीस गुजरात के समता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में स्पष्टीकरण दे रहे थे ..., कि उन्होंने भाजपा के साथ हाथ मिलाकर कोई गलती नहीं की..., वे कह रहे थे कि भारत में "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" में एक अनुशासित कार्यकर्ताओं का संगठन है और यदि समाजवादियों को लगता है कि वे गलत हैं तो उन्हें जाकर, उनसे मिलकर, उन्हें समझाया जाए कि वे राष्ट्रीय मुख्यधारा में आए.....।
उन्होंने नाराज होकर कहा, क्या आप चाहते हैं कि देश का एक और टुकड़ा हो ......? इस प्रकार की आशंका प्रकट करते हुए जॉर्ज साहब अपना स्पष्टीकरण दे रहे थे। क्योंकि समाजवादी बहुत नाराज थे समाजवाद की धारा को संघ की धारा से मिलाने पर।
किंतु आज रेडियो में कोरोना महामारी के दौरान जब यह भ्रम हुआ तो हम अचानक कुछ देर के लिए खुश हो गए..... क्योंकि हमने आधी बात सुनी थी, उन्हें हमारे प्रधानमंत्री जो भाजपा के हैं शायद r.s.s. को मुख्यधारा के लिए आह्वान किए जा रहे हैं, किंतु यह भ्रम एक पल में टूट गया.....
क्योंकि प्रधानमंत्री जी वास्तव में कह रहे थे की "130 करोड़ लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक बनकर महामारी से लड़ना चाहिए...., वे पूरे जनता को पुकार रहे थे ।कि स्वयं उत्साहित होकर इस महामारी के युद्ध में अपना योगदान करते अपनी सुरक्षा, अपने परिवार की सुरक्षा के लिए सतर्कता बरती जाए। तो यह एक प्रकार की जागरूकता मात्र थी।
मशहूर उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल राग दरबारी में एक दृष्टांत देते हैं;
"दोपहर ढल रही थी एक हलवाई की दुकान पर एक हलवाई बैठा था, जो दूर से हलवाई से जान पड़ता था। दुकान के नीचे एक नेता खड़ा था जो दूर से नेता जैसा दिखता था, वही साइकिल के हैंडल पकड़े एक पुलिस का सिपाही खड़ा था जो दूर से ही पुलिस के सिपाही दिखता था ।दुकान पर रखी हुई मिठाई बासी और मिलावट के माल से बनी जान पड़ती थी और थीं भी, दूध पानीदार और आरारुट के असर से गाढ़ा दिख रहा था और था भी। पृथ्वी पर स्वर्ग का यह ऐसा कोना था जहां सारी सच्चाई निगाह के सामने थी। ना कहीं कुछ छिपा था न छिपाने की जरूरत थी ।"
किंतु भ्रम है...भ्रम का क्या...., उसका कारोबार अलग है वह मानव मस्तिष्क को भ्रमित करता रहता है....क्योंकि आरएसएस यानि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक में बहुत अंतर नहीं है, संघ की पूंछी हट जाए तो जो प्रधानमंत्री बोल रहे थे वह है, और अगर संघ शब्द की पूंछी जुड़ जाए तो पूरे मायने बदल जाते हैं....।
नवरात्रि का अवसर है हमें बंदना करनी चाहिए...
"या देवी सर्वभूतेषु, भ्रांति रूपेण संस्थिता;
नमस्तस्ए नमस्तस्ए नमस्तस्ए नमोनमः"
ताकि हम राष्ट्र हित में ट्रांसपेरेंट रहे। यह भ्रम हमें तब भी हुआ था जब सभी धार्मिक स्थलों के पट इस नवरात्रि में पल पर भी आम जनमानस के लिए बंद कर दिए गए थे क्योंकि कोरोना का चीनी वायरस हमारे समूह हत्या के लिए बेताब दिखा। वह हमें समाज बनाकर रहने की इजाजत नहीं देता था। क्योंकि से थूक या छींक के अथवा छू लेने से कोरोना के राक्षस "रक्त बीज" की तरह हमारी हत्या के लिए लालायित है। याने यदि हमने पर्याप्त मानव और मानव के बीच में दूरी बनाना सीख लिया तो इस चीनी राक्षस कोरोना से हम महायुद्ध जीत सकते हैं। किंतु भ्रम है, भ्रम का क्या ....चैत्र नवरात्रि में पूरे ढोंग-पाखंड के साथ प्रचार-प्रसार के साथ अयोध्या के रामजी टेंट से उठाकर वहां के मुख्यमंत्री योगी की सर्वोच्च प्राथमिक कार्यों में उन्हें रामलला को किसी सुरक्षित नए भवन में रख दिए।
पूरा प्रशासन बिना किसी सोशल डिस्टेंस का संदेश दिए इस धार्मिक आवरण को बनाने का काम कर रहा था। इधर शहडोल में बैठकर मुझे कचोट रहा था कि मैं अपने मंदिर नहीं जा सका नवरात्रि में क्योंकि मैं मुख्यमंत्री नहीं था।
देवी जी के दर्शन नहीं कर सका, वे मस्जिद नहीं जा पाएंगे या फिर कोई अन्य अपने धार्मिक मनोयोग का व्यक्तिगत रूप से भी आदर नहीं कर पाएगा क्योंकि धर्म भारतीय राजनीति में जबसे संविधान लागू हुआ है बहुत और बहुत ही व्यक्तिगत या ने उसे हम अपनी पत्नी अपने बच्चों में भी नहीं बांट सकते, कुछ इस प्रकार का स्थापित हो चुका है....। संविधान मौलिक अधिकार तो देता है किंतु वह मैं और मेरे भगवान के बीच में स्वतंत्रता का अधिकार देता है, उसके आड़ में पाखंड का तो पता ही नहीं, कम से कम सामाजिक उत्साह उत्सव के रूप में तब तक मनाने का अधिकार देता है जब तक आर्थिक साम्राज्यवाद का महाराक्षस चीन का जैविक हथियार बन चुका कोरोना नामक तो रक्तबीज राक्षस हमारी तरफ युद्ध की घोषणा करके आ रहा हो....
कुल मिलाकर यह कि, हम अपने भगवान की पूजा अपने मंदिर में नहीं कर सकते लेकिन भारत के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पूरे प्रोपेगंडा के साथ उसे करते हैं, यह एक वैचारिक विरोधाभास भी है... मौलिक अधिकारों को लेकर....
लेकिन संविधान मानता कौन है..? अब समय बीत गया है, यदि आप मानते भी हैं तो आपकी औकात नहीं है...., क्योंकि 25 तारीख को प्रधानमंत्री जी कोरोना महामारी के मद्देनजर के लॉक-डाउन करने के घोषणा के बाद आज 28 तारीख को चौथा दिन बीतने को है। 3 दिन महानगरों के मजदूरों ने शासन पर भरोसा किया.... क्योंकि उन्होंने बार-बार कहा "सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास.." किंतु यह है उन्हें ताश के पत्तों की तरह या धूल की महल की तरह ढहता नजर आया, सब बिखर गया। वह रात के अंधेरे में जो छुटपुट छुटपुट करके बेकारी बेरोजगारी और भूख की वैसे विश्वास पाले रहे कि कोई पालनहार कुछ करेगा वह सब टूट गया और आज सुबह भारत का पूरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया टीवी चैनल्स आदि अपना टीआरपी इस आधार पर बढ़ा रहे थे क्योंकि हजारों लाखों की संख्या में मजदूर बिना कोई सोशल डिस्टेंस का पालन किए जो जैसा भी है उसी मंज़र में जैसे कि 1947 मे हुआ रहा होगा.... "भीड़ की भीड़" अपने अपने हिंदुस्तान और अपने अपने पाकिस्तान की ओर जा रही थी... पुलिस वाले रोक रहे थे ,नेता भी टीवी चैनल पर विश्वास दिला रहे थे... कि हम पर भरोसा रखिए किंतु भरोसा टूट चुका था.....।
भगवान ना करें 1947 की तरह कहीं कोई सांप्रदायिकता का बीज इस चीनी राक्षस कोरोना के साथ मिलकर किसी बड़ी आपदा को कहीं निर्मित कर दे.... क्योंकि भूख और नींद का स्वार्थ आदमी को अंधा कर देता है.... और धर्म की सांप्रदायिकता उसे अविवेक बनाकर वह सब कुछ बनाने का बात कर देती है.... जब कहीं कोई 1947 की भीड़ किसी अज्ञात भय से पलायन का निर्णय लेकर किसी और सुरक्षा के दृष्टिकोण से निकल पड़ती है और तब कोई जरा सी भी असुरक्षा की चिंगारी किसी भयानक मंजर का पैदा करती है.....
मध्य प्रदेश ही नहीं देश के दिल में बैठकर 23 जनवरी से उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्देशित विधायकों के मतदान 20 फरवरी तक पर्याप्त समय रहा कि हमारे नेतृत्व-कर्ता चीनी राक्षस कोरोना को बॉर्डर पर रोक सकते थे... किंतु भ्रष्ट राजनीति ने उन्हें अंधा कर रखा था... आज भी वह देखने को शायद तैयार नहीं है..,
उन्हें अभिमान है या दंभ है कि वे एक राष्ट्रीय आम सहमति के लिए अभी तक कोई भी एक मीटिंग नहीं बुलाए हैं....? अभी भी चैत्र नवरात्रि, 25 मार्च तक भगवान राम को अयोध्या के टेंट से निकलकर मुख्यमंत्री द्वारा किसी नए मंदिर की ओर जा रहा था। क्योंकि मंदिर की अट्टालिका जरूरी हैं....?
सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" की प्रयागराज के पथ पर बैठी हुई वह मजदूर महिला शायद अब अयोध्या के करोड़ों-अरबों रुपए में बननेवाले, उस अट्टालिका "राम मंदिर" को देखकर यही सोच रही होगी और बता रही होगी कि "मैं तोड़ती पत्थर..."
याद करिए इन मजदूरों के पलायन को..., याद करिए, निराला की "तोड़ती पत्थर" उस मजदूर को.....
"कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
हम कहां विकास कर पाए हैं..., क्या हमने लोगों का साथ दिया है... क्या लोगों का विश्वास बरकरार है...,
नहीं, बिल्कुल नहीं.... अब तो कोई राजधर्म बताने वाला अटल भी नहीं है कोई जॉर्ज फर्नांडीस भी नहीं है कि अकेला , गुजरात के दंगों में गलियों से गुजरने का साहस रखता हो.....
कहते हैं विक्रमादित्य की कुर्सी पर बैठकर बालक भी न्याय करता था... हमारे प्रधानमंत्री जी आज जहां बैठे हैं क्या वह "विक्रमादित्य की कुर्सी" बनने का साहस करेगी.... क्या उन्हें एहसास होगा की पलायन कर रहा हुआ मजदूरों का लाखों का जत्था बेकारी, बेरोजगारी के भय और आशंका से प्रभावित है, और प्रताड़ित भी... क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता सड़कों पर मार्च पास्ट करने के लिए बने हैं....? क्या उनका अनुशासन उन्हें बाध्य नहीं करता कि देश की राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद , उसके आत्म बुध का कारण होना चाहिए...?
क्यों नागपुर के भागवत पुराण में अभी तक नहीं कहा अपने कार्यकर्ताओं को, जो जहां है, वह पलायन हो रहे... मजदूरों के प्रति रोटी-सब्जी का इंतजाम करें.... क्योंकि वह पेशेवर हैं... उन्हें ज्ञान है कि हर घर से चार रोटियां देने की एक परंपरा है... क्या यह परंपरा भी प्रदूषित थे...?
आज यह सोचने का वक्त है
प्रधानमंत्री जी का आवाहन 130 करोड़ लोगों के लिए था...., यह सच्चाई जानकर बड़ी निराशा हुई। काश भारत के सबसे बड़े अनुशासित संगठन और सबसे बड़ी दुनिया की लोकतांत्रिक सदस्यों वाली पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह निर्देशित होता कि वे पलायन की ओर बढ़ रहे मजदूर का आत्म-मनोबल, प्यार से जीतने के लिए "रोटी दाल और सब्जी की सड़क पर बिछा दे...., बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी सांप्रदायिक भावना के, सिर्फ राष्ट्रभक्ति और मात्र भक्ति के लिए....
यदि हम इस नवरात्रि में भी उपासना नहीं कर पाए... तो हम भी चीन के महाराक्षस चीनी कोरोना के जैविक हथियार की तरह ही एक हथियार के अलावा कुछ भी नहीं.....? जिसमें मैं भी शामिल हूं।
यह सुखद है कि मेरे शहडोल में इस स्तर का विकास नहीं हुआ, जिस स्तर का महानगरों में हुआ है... बावजूद इसके जब कोई बिलासपुर से पैदल चलकर, शहडोल आने की खबर मिलती है तो मन वचन और कर्म से हम घायल हो जाते हैं..... फिलहाल तो इतने ही लावारिस बन जाते हैं..., उस जज्बे को फिर भी सलाम करते हैं जो अपने लोक-ज्ञान से इन्हें विश्वास दिलाकर नयागांधी चौक शहडोल से जिला अस्पताल तक पहुंचाता है ...
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