रविवार, 29 सितंबर 2019

पूंजीवादी व्यवस्था के कर्जा की इकाई/IIT: अब 900 फीसदी बढ़ेगी एमटेक की फीस..? ( त्रिलोकीनाथ )



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न्यू इंडिया में अब छात्र बनेंगे 
पूंजीवादी व्यवस्था के कर्जा की इकाई

 IIT: अब 900 फीसदी बढ़ेगी एमटेक की फीस..?

( त्रिलोकीनाथ )

अब आईआईटीज में पढ़ने वाले एमटेक के छात्रों पर फीस का बोझ बढ़ने वाला है। 

navbharat-times
सांकेतिक तस्वीर
   

  • *बीटेक कोर्सों की फीस के बराबर होगी एमटेक की फीस
  • *करीब 900 फीसदी की बढ़ोतरी को दी गई है मंजूरी
  • *छात्रों को हर महीने 12,400 रुपये स्टाइपेंड मिलना भी होगा बंद
  • *नई फैकल्टी के परफॉर्मेंस की हर 5 साल पर 
खबर नई दिल्ली  की है 
यह न्यू इंडिया का दौर है नई शब्दावली या है नया नजरिया है कॉरपोरेट बाबाओं के  आश्रम से  निकली "हनीप्रीत" से लेकर "हनी ट्रैप" तक न्यूइंडिया के डिक्शनरी के ग्लैमर है। पूंजीवाद के सितारे बुलंद है अब उसमें कोई चिन्मयानंद आड़े नहीं आएगा..., उसे भी जेल या अस्पताल भेजो आगे का रास्ता देखो...
कुछ इस अंदाज पर चल रहा है न्यू इंडिया का कारोबार, इसीलिए नैतिकता, गुणवत्ता बीते कल की बात होने वाली है.. अगर हो गई है तो उसे नजरअंदाज करिए। नए नैतिकता, नए गुणवत्ता नए मापदंड के कारक होंगे। हर जगह से सिर्फ पैसा और पैसा कैसे निकाला जाए... बीपीएल क्लास या लोअर क्लास को प्रलोभन देकर उत्थान का प्रोपेगंडा व वोट बैंक में बदलना और मिडिल क्लास... यह लोअरअपर क्लास से उसकी रही-सही पूंजी में डालकर, गुल्लक तोड़कर बैंक में डालना और बड़े पूंजी पतियों का लाखों लाख रुपए राहत देना, विकास के नए मापदंड के कारक बनने जा रहे हैं।

 छोटे-छोटे इवेंट में बदल घटनाओं प्रचार तंत्र के लिए करोड़ों करोड़ रुपए बहाने वाले व्यवस्था में अब इंजीनियरिंग की एमटेक शिक्षा व्यवस्था में से पैसा निकालने का या फिर विद्यार्थियों को कर्जा के कारोबार में बंधुआ-इकाई बनाने का नया खेल खेला गया है ।जिसके तहत मनमानी फीस बढ़ा दी गई है ताकि बैंकर्स का कारोबार बढ़ाया जा सके।
 इस समय भारत के सड़क और मोहल्ले में मोबाइल की या मोबाइल रिचार्ज की दुकाने पान दुकानों की तरह खुल गई है और उससे भी ज्यादा मोबाइल के जरिए लोन देने वाली सैकड़ों बैंक संस्थाओं की लोन स्कीम मोबाइल के थ्रू मिडिल क्लास या लोअर क्लास के लिए एक जाल की तरह फैला दिया गया है। किसी भी तरह भारत का आम नागरिक इस कर्जे के जाल में फस कर गुलाम बन जाए। न्यू इंडिया गुलामों का भारत कैसे होगा..... इसके भी सपने देखे जा रहे हैं.. बजाय स्वावलंबन के एक स्वाभिमानी भारत के...?, एक गुलाम भारत की तरफ बढ़ने के हर रास्ते तय किए जा रहे हैं।
 उसी में एक है उच्च शिक्षा में सभी शासकीय सुविधाओं को खत्म कर विद्यार्थियों को कर्जे की इकाई बनाने का कारोबार आईआईटी में कर्जे का कारोबार का शासकीय तरीका कुछ इस प्रकार से होगा।
खबर  है कि आईआईटीज में एमटेक प्रोग्राम की फीस में करीब 9 गुना बढ़ोतरी होने वाली है। आईआईटीज की काउंसिल ने शुक्रवार को एमटेक प्रोग्राम की फीस को बीटेक कोर्सों की फीस के बराबर करने को मंजूरी दी है। बीटेक कोर्सों की फीस करीब 2 लाख रुपये सालाना है। इस तरह से आईआईटीज के एमटेक प्रोग्राम की फीस में करीब 900 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। आईआईटीज में एमटेक कोर्स की मौजूदा ऐडमिशन और ट्युइशन फीस प्रति सेमेस्टर 5,000 से 10,000 रुपये है। परिषद की मीटिंग की बैठक एचआरडी मिनिस्टर रमेश पोखरियाल की अध्यक्षता में हुई। मीटिंग में नए प्रफेसरों की पांच साल पर समीक्षा के प्रस्ताव को भी मंजूरी मिली है। पांच साल के बाद ही नए प्रफेसरों का भाग्य तय होगा कि उनकी नौकरी आगे जारी रहेगी या जाएगी। इसके अलावा छात्रों को दिए जाने वाले 12,400 रुपये के स्टाइपेंड को खत्म करने का भी सुझाव दिया गया है। 
बंद होगा स्टाइपेंडगेट स्कोर के आधार पर जिन छात्रों का दाखिला होता था, उनको हर महीने 12,400 रुपये का स्टाइपेंड मिलता था। अब इस स्टाइपेंड को बंद करने का प्रस्ताव रखा गया है। इसकी जगह इस स्टाइपेंड के कुछ हिस्से का इस्तेमाल यूजी लैब्स और कोर्सों में टीचिंग असिस्टेंटशिप के तौर पर देने के लिए किया जाएगा। इस फंड का अन्य पेशेवराना गतिविधियों के लिए भी किया जा सकता है। फीस बढ़ोतरी के साथ ही यह भी सुझाव दिया गया है कि जरूरतमंद छात्रों की मदद डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर या एजुकेशनल लोन के माध्यम से की जाए। 
5 साल पर नए प्रफेसरों की समीक्षा 
काउंसिल की मीटिंग में 'टेन्योर ट्रैक सिस्टम' को मंजूरी दी गई है। इसके आधार पर नए प्रफेसरों के परफॉर्मेंस की हर 5 साल पर समीक्षा होगी। एक एक्सटर्नल कमिटी रिसर्च और संस्थान को उनकी सेवा के आधार पर प्रफेसरों का मूल्यांकन करेगी। इस मूल्यांकन के आधार पर नए प्रफेसरों का असोसिएट प्रफेसर के तौर पर प्रमोशन होगा या फिर उनकी छुट्टी कर दी जाएगी। 
अभी कहां कितनी है एमटेक की ट्युइशन फीस 
मौजूदा समय में एक सेमेस्टर के लिए आईआईटी मुंबई की एमटेक ट्युइशन फीस 5,000 रुपये है जबकि आईआईटी दिल्ली की 10,000 रुपये। आईआईटी मद्रास में 3,750 रुपये की एकमुश्त भुगतान के साथ ट्युइशन फीस 5,000 रुपये है। आईआईटी खड़गपुर के पहले सेमेस्टर की फीस 25,950 रुपये है। इसमें से 6,000 रुपये रिफंड हो जाता है। बाद के सेमेस्टरों के लिए 10,550 रुपये फीस है। कुल 23 आईआईटीज में से सात पुरानी आईआईटीज में करीब 14,000 एमटेक छात्र हैं। 
ड्रॉपआउट कम करने के लिए लिया गया फैसला? 
तर्क दिया गया आईआईटीज में एमटेक प्रोग्रामों में सुधार की काफी समय से मांग उठ रही थी। मांगों को देखते हुए सुधार के लिए एक तीन सदस्यीय कमिटी का गठन किया गया। फिर कमिटी ने जो सुझाव दिए, उनके आधार पर ये प्रस्ताव तैयार किया गया है। ऐसा महसूस किया गया कि फीस बढ़ने और स्टाइपेंड बंद होने से बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों की संख्या में कमी आएगी। एमबीए जैसे ज्यादा फीस वाले प्रोग्राम और आईआईटी सिस्टम में भी ज्यादा फीस वाले प्रोग्राम में बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों की संख्या काफी कम होती है। 

तो यह प्रश्न भी गंभीर होता जा रहा है क्या ऐसी व्यवस्थाएं अयोग्य लोगों को सत्ता में स्थायित्व देने का काम होगा या फिर योग्य लोगों को गुलाम वनकर रहना पड़ेगा जैसे कि कई प्राइवेट सेक्टर के सीओ को भारतीय प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा कराया गया है क्या उसी सोच के अनुरूप कॉर्पोरेट जगत पूरी प्रशासन तंत्र को कारपोरेट की तरह एकमात्र लाभ और लाभ और ज्यादा लाभ लूटने का साधन बन रहा है बेहतर होता शासन अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर उच्चतम शिक्षा में घटिया प्रयोग न करती बल्कि ज्यादा से ज्यादा उच्च गुणवत्ता की प्रतियोगिता के अवसर सुनिश्चित करते ।
  • (टाइम्स न्यूजनेटवर्क28Sep2019)

सोमवार, 23 सितंबर 2019

शहडोल की अधिमान्यता कमेटी ना बनाया जाना कॉर्पोरेट-कल्चर का प्रमाण...( त्रिलोकीनाथ)

कॉरपोरेट, हम और पत्रकारिता (2)

शहडोल संभाग की अधिमान्यता कमेटी ना बनाया जाना कॉर्पोरेट-कल्चर का प्रमाण.....

    (त्रिलोकीनाथ)
भारतीय पत्रकारिता में या मीडिया मे एफडीआई आया, तो यहां समझना ज्यादा आवश्यक है की पत्रकारिता  का व्यवसाय से या व्यवसायिक लाभ के लिए कोई संबंध नहीं था।  यह पूरी तरह से "मिशन" पर लोकहित के लिए मात्र नियत है। यानी "लाभ-हानि रहित एक संस्था" किंतु कॉरपोरेट तो सिर्फ लाभ, और लाभ..,और ज्यादा लाभ  का गिरोह है।
  अगर यह किसी भी सेक्टर में काम करेगा  तो लाभकी कीमत पर ही होगा..,अन्यथा काम ही नहीं करेगा। 


और यही कारण है  कि भारत में आज भी 70 साल बाद  अधिमान्यता जैसी "भीख"  जमीनी पत्रकारों को दे पाने में  हमारा शासन और प्रशासन  और पत्रकार जगत के लोग  जो स्वयं को ठेकेदार  दिखाते हैं सिर्फ एक नपुंसक  व्यवस्था दे पाए...। पत्रकार अपने सेवा कार्यकाल  में मरने के कगार पर आ गए,  उनका अधिमान्यता भी नहींं मिली हो....?, यह बेहद शर्मनाक और घटिया दर्जे का कृत्य रहा..। 
जो संस्था लोकतंत्र में रहकर सुव्यवस्थित तरीके से अधिमान्यता भी मुट्ठी भर लोगों को  नहीं दे पाई हो, उसे प्रबंध नहीं कर पाई हो... वह लोकहित के कार्यों के लिए कैसेे समर्पित होगी.....?, वहां.. जहां की कोई दो परसेंट एससी वर्ग के लिए भारतीय प्रधानमंत्री उच्चतम न्यायालय के आदेश के खिलाफ जाकर संसद में बिल ले आते हैं ....वहां जहां की जूनियरटी और सीनियरिटी के वरिष्ठता के वेतनमान के लिए न्यायालयों में न्याय की अपीले लंबित हो, ऐसे स्थान पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में "चौथे स्तंभ का अघोषित दर्जा" देने का "ढपोल-शंख" लगातार गूंजता रहता हो... बावजूद इसके पूरी की पूरी पीढ़ी खत्म हो जाए और उसे अनुसूची न किया जाए... वरिष्ठता और कनिष्ठता का सम्मान ना हो.... छोटे छोटे लड़के और लड़कियां टीवी डिबेट में बैठकर सीनियर जर्नलिस्ट से वकायदे नाम लेकर तू-तड़ाक की भाषा में मीडिया का प्रतिनिधित्व करें ..... यह पतन की गिरावट नहीं तो क्या है.....
 चलिए कुछ लोग लिहाज भी करते हैं.., अच्छा है क्योंकि भारतीय संस्कार के कीटाणु उनमें जीवित हैं...
 मैग्सेसे अवार्ड प्राप्त हिंदी पत्रकारिता का चंद्रयान रवीशकुमार ने कहा "एक डरी हुई पत्रकारिता, मरा हुआ नागरिक पैदा करती है....," किंतु शहडोल जैसे पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों की जमीनी हकीकत बताती है कि इससे आगे चलकर कहना चाहिए की "एक गुलाम पत्रकारिता, सड़ा हुआ नागरिक पैदा करती है" जो सिर्फ डेकोरेशन करके बदबू देने का काम करता है और ऐसा लोकतंत्र गंध मारने लगता है.... क्या हम इसी प्रदूषण में नहीं जी रहे हैं......?
 जहां नरेंद्र मोदी की भाषा में समझे तो  कोई 130 करोड़ नागरिक आजादी के सपनों के हकदार हो...,जब मुट्ठी भर लोगों को इस बात पर सरकारी पेंशन दी जाती है  कि वह 60 साल का हो गया..  तो उसे जितनी सम्मान निधि दी जाएगी और पूरे पत्रकारिता की जीवन में इतनी तनख्वाह भी नहीं पाया...?
  इस कारपोरेट-कल्चर में तो यह समझना सहज है...  जब पत्रकार की सेवा-अवधि बाद मरता है उसको  जीवित रहने के लिए  "पेशन" दिया जाता है..। 
एक अजीबोगरीब प्रस्ताव पत्रकारिता क्षेत्र में आया की वेतन के नाम पर नाम मात्र का तनख्वाह लेकिन अधिमान्यता सूची में नाम जरूर डलवा दिया जाएगा.... ताकि 60 साल बाद सरकारी पेंशन इस प्रकार तनख्वाह और पेंशन मिलाकर एक बड़ी रकम पत्रकार को मिल सकती है...। यह सोच अचानक नहीं आई..., कॉर्पोरेट-कल्चर में 70 साल के दमन व शोषण के विकास से इसे रचा है..., ।
यही है,  कॉर्पोरेट-जगत का नियंत्रण । जो एक वास्तविक पत्रकार को लाचार  और बिचारा  बनाकर  अधिमान्यता  के जरिए  उसकी सेवाकाल के जीवन  की बजाए,  उसके मरने  यानी 60 वर्ष के बाद  उसे "जूठन का टुकड़ा"  जीवन के लिए देता है।  इसी को  कम से कम  पत्रकारिता में कॉर्पोरेट की सफलता का प्रमाण पत्र मानना चाहिए, क्योंकि इसी "भीख" के लिए जिम्मेदार पत्रकार  शायद त्रासदी का जीवन जीता है...., फिर भी यह सहज भीख सिर्फ उन गुलाम-पत्रकारों को ही मिलती है ।जिसमे कई लोग पत्रकारिता की अधिमान्यता से प्रमाणित होते हैं। 
पत्रकारिता  के चौथे स्तंभ में  एक लोकहित में समर्पित अघोषित संस्था के उन गैरअधिमान्यता प्राप्त पत्रकारों या फिर पत्रकारिता की संस्था में काम कर रहे गैर पत्रकार चाहे वह मशीन-मैन हो... हाकर हो, या बंडलमैन हो, चपरासी हो, क्लर्क हो, उनके लिए पत्रकारिता का कॉरपोरेट्स यह जूठन नहीं दे सकता। जो उनके "सेवाकाल  से मरने" के बाद उन्हें दिया जाए। क्योंकि वे उनकी लाभ कमाने की मशीन का हिस्सा नहीं है....?
 एक और रोचक बात जैसे अधिमान्यता की भीख कॉर्पोरेट-जगत कुछ पत्रकारों के लिए पंजीरी जैसे बांटे हैं, कुछ राजनीतिक दलों ने भी पत्रकारिता का नकाब पहना कर यह अधिमान्यता का जूठन अपने लोगो को दे रखी है।
 वैसे ही हमारे पांचवी अनुसूची क्षेत्र शहडोल में कारपेट का सपना देखने वा कुछ अखबार मालिक अपने नौकरोंं को.., अपने व्यवसाय के लाभ के लिए पत्रकारिता का नकाब पहना दिए और अधिमान्यता भी दिला दी। क्योंकि उन्हें अपने ऐसे ही नौकरों से लाभ मिलता है ।इन्हें कोई मतलब नहीं। यह तो कारपोरेट के उस कचरे का हिस्सा हैं जिसका प्रदूषण आदिवासी क्षेत्र में फैला रहे हैं। कैसे लोग कारपोरेट बने...,।
 हाल में जिस प्रकार से अलग-अलग संभागों में अधिमान्यता देने की समितियों का गठन हुआ है,उसमें आदिवासी संभाग शहडोल  को  संभाग का दर्जा देने से इनकार कर दिया।  क्यों की  इन्हें नियंत्रित करने वाला सायद कॉर्पोरेट खौफज़दा था...., प्रदेश में  रीवा संभाग कि चयनित कमेटी में  शहडोल संभाग को विलुप्त करते हुए.... जिन सदस्यों की  सूची जारी की गई  वह एक प्रकार का फतवा है। जो आश्चर्यचकित करता है? अनूपपुर में  कोई "फतवा" अखबार भी है जिनके एक पत्रकार डल्लू सोनी जी इस "कॉर्पोरेट-जगत" के नजर में माननीय पत्रकार है।
 व्यक्तिगत मेरेे लिए यह खुशी की बात है  कि कोई  गैर-पत्रकार  अधिमान्यता में  सफलता से प्रवेश किए हुए हैं।  किंतु  उसे चयन सूची में रखा जाना  उन पत्रकारों का  बड़ा अपमान है..  जो अभी तक अधिमान्यता की गुलामों की सूची में शामिल नहीं किए गए हैं ।  तो क्या कॉर्पोरेट  अपने गुलामों में भी "जूठ की भीख" देने में भी  चयन प्रक्रिया अपनाए हुए हैं....  आदि आदि।
  यह सब चिंतन  और मंथन का विषय है इसे व्यंग अथवा मजाक में नहीं लेना चाहिए । यह सब सोची समझी  आदिवासी क्षेत्रों में  गुलाम पा लेने का प्रबंध है।इसे इसी रूप में ही लिया जाना चाहिए ।
यह पत्रकारिता में  "आरक्षण"  की व्यवस्था का  दुरुपयोग ही है... कि कोई एक गुलामों की जाति  ही  लोक प्रतिनिधित्व के लिए  सुनिश्चित रहेगी...  कोई बैगा, कोई भरिया  कभी शहडोल का  प्रतिनिधित्व नहीं करेगा...  जब आप आरक्षण की बात करते हैं तो यदि  जनसंख्या बल पर कोई जनप्रतिनिधि नहीं आ पा रहा है  तो उसे विशेषाधिकार से जनप्रतिनिधि क्यों नहींं बनाया गया.... तो यह एक प्रकार का पत्रकारिता में  भरिया, बैगा जनजातियों के समूह में मुख्य मुख्यमंत्री का आकर समूह नृत्य करना ही है ।
और कोई अवसर मिले तो किसी पत्रकार को खुश होकर कुछ पुरस्कृत कर देना है। किसी भ्रष्ट धनराशि और क्याहै...?
 यही है कॉर्पोरेट का गौरवमई इतिहास जो सिर्फ और सिर्फ लाभ के लिए  लोकतंत्र में चौथे स्तंभ में सक्रिय है... इस बात को  जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना बेहतर है।

  अन्यथा  अमरकंटक में नर्मदा नदी  कैसे सूख जाती है और  ची.. से ..चू...  तक नहीं होता.... तो निष्कर्ष में यह तय है कि हमारे लोकतंत्र को और उससे संबंधित जिम्मेदार तबके को। जब, यदि शासन और प्रशासन का प्रवक्ता विभाग, जनसंपर्क विभाग है तो उसे कौन याद दिलाएगा शहडोल एक "घोषित संभागीय मुख्यालय" है  यहां पर उपसंचालक स्तर के कर्मचारी अधिकारी का कार्यालय है, यह अलग बात है कि अधिकारी हमारे आदिवासी भाई हैं, किंतु उन्हें इस प्रकार से नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। उनकी अपनी एक अधिमान्यता कमेटी होनी ही चाहिए। जो अपनी स्वतंत्रता से अपने गुलाम सुनिश्चित करें.... ताकि सेवा कॉल मैं मरने के बाद उसे पेंशन मिल सके। इसे कॉर्पोरेट-जगत सम्मान निधि कहता है। किंतुुु जीते उसे अपेक्षित  स्वास्थ्य सुविधाएं  या अन्य सुविधाएं भी मिल सके। लोकतंत्र के कॉरपोरेटर्स को शहडोल संभाग को लेकर इतना भयभीत नहीं होना चाहिए थोड़ा विश्वास तो करिए
  फिर यह एक अलग बात है कि यह चयनित कमेटी किसी रामराज,  किसी बलराज,  किसी धनराज,  किसी  माफिया राज  का चयन करती है....  यह उसका हक होना ही चाहिए ...।
यही तो महात्मा गांधी की एक लाइन भी थी  की अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति  याने  भरिया, बैगा, कोल  आदि... आदि,  सभी का विकास हो । पत्रकारिता में भी ऐसी जातिि समूहों के प्रतिनिधि मरने की कगार में खड़े हैं फिर चाहे वे दिनेश अग्रवाल हो, रघुवंश मिश्रा हो,त्रिलोकीनाथ हो, एसएन त्रिपाठी हो, अखिलेश पांडेे हो, अजय जायसवाल हो, विजय गुप्ता सूरज प्यासी सनत शर्मा रवि नारायण गौतम मोहन नामदेव अन्य कई नाम शहडोल संभाग में वर्षों से चौथे स्तंभ की सेवा कर रहे या फिर गैर पत्रकारों में गणेश गुप्ता , महेश कुशवाहा हो आदि आदि आखिर शहडोल के संभाग कमेटी चयन का अधिकार  स्वतंत्रता का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए.... ।  आखिर अधिमान्यता की भीख  सिर्फ रीवा संभाग के "भिखारियों" को  क्यों दी जानी चाहिए... जबकि प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण शहडोल संभाग जागरूकता और रोजगार के अवसर आदि में भी रीवा संभाग से कहीं बड़ा योगदान रखता है..। हम में से कई लोगों को यह मालूम है ऑनलाइन कई आवेदनों को आज तक रीवा की चयन समिति ने कैसे गायब कर दिया..... या उनकी नजर में "आवेदन-कर्ता लोगच कारपोरेट का जूठ पाने के अधिकारी नहीं थे....  यह बात जनसंपर्क विभाग और उसे नियंत्रित करने वाला  लोकतंत्र का कॉर्पोरेट क्योंं नही सोच पाया..... यह बेहद शर्म की बात है।
 लेकिन इस शर्मा और हया तथा गुलामी की जिंदगी जीने वाला  शहडोल क्षेत्र का  पत्रकार  भी क्या सोच पाता है..... यह भी देखना होगा  ......। 
पत्रकारिता  के शहडोल संभाग की  समूची पीढ़ी के लिए  यह  जीने और मरने का एक सबक भी है ... और चुनौती भी...!  अधिमान्यता की भी और गुलामी की सूची में क्या कॉर्पोरेट जगत से  अपना हक  मांगने का साहस करता है ..?
तो मंगलम ... और शुभम,  पत्रकार  और गैर पत्रकार बंधुओं .......?        (समाप्त)

(यह लेख पूरी तरह से स्वयं की संतुष्टि के लिए लिखा गया है ताकि पत्रकारिता में काम करने की तकलीफ का दबाव कम हो सके किसी को बुरा लगे तो क्षमा करिएगा)











शनिवार, 21 सितंबर 2019

कॉरपोरेट, हम और... अधिमान्यता की भीख ( त्रिलोकीनाथ ) प्रथम भाग

कॉरपोरेट, हम और...
अधिमान्यता की भीख (भाग-1) 
मीडिया में एफडीआई
विदेशी निवेश का समावेश .....
 यानी  खुली गुलामी की घोषणा।

 "पत्रकारिता एक मिशन"......
 बीतेे कल की बात।
            
             (  त्रिलोकीनाथ  )
...आजादी केे 70 वर्ष बाद भी गुलामी से छटपटाहट कितना दुखद है, यह कुछ उसी प्रकार का है जैसे आजादी तो मिली किंतु गुलामी की कीमत पर। यह कुछ उसी प्रकार का है जैसे आरक्षण तो मिला किंतु गुलामी की कीमत पर।
 स्वतंत्रता की बुनियाद पर आरक्षण के सिद्धांत लोकहित की तिलांजलि क्यों दे गए.... आरक्षित वर्ग में सबके लिए आरक्षण, सर्वांगीण विकास सर्वदलित समाज का उत्थान क्यों नहीं हुआ.....?, मुट्ठी भर इस आरक्षण से, "कॉर्पोरेट" क्यों निकल आए, और वे अपनेेे ढंग से आरक्षण का कॉर्पोरेट कैसे चलाने लगे....?
 यह जानना है तो आइए "स्वतंत्र-दलित-समाज" याने पत्रकारिता की जमीनी हकीकत को समझने का प्रयास करें, हम भारत की संविधान में प्रावधानित पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र शहडोल के निवासी हैं, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण मोहताजी की  और लाचारगी  से भी बहुत दूर सर्व प्राकृतिक संसाधन की सत्ता पर विराजमान होने के बावजूद, देश की आजादी की मुख्यधारा में उसी प्रकार से नहीं जुड़ पाए हैं जैसे आरक्षण के जरिए पूरा समाज  सिर्फ भीख पाने की कोशिश करता नजर आता है। 
और पूरी कोशिश  इस बात की होती है  कि "भ्रष्टाचार की जूठन" में  कितना जूठ हासिल कर सका...?, क्या  विरासत में प्राप्त  प्राकृतिक संसाधन  खनिज, जल-संसाधन  या फिर  प्राकृतिक गैस सीबीएम  अथवा वन संसाधन का  उत्पादन का  कितना हिस्सा जो राष्ट्रीय मुख्यधारा की विकास के लिए  निकाला गया,  उसका "कितना-प्रतिशत"  स्थानीय विकास  में प्रगट हो रहा है....?  यह सोचा गया....  शायद नहीं..?,बिल्कुल भी नहीं। "राष्ट्रीय-विकास" एक संज्ञा बन गया जैसे राजनीति में "हिंदुत्व" एक संज्ञा है या फिर एक "ब्रांड" है "व्यवसायिक ब्रांड" जिससे कॉर्पोरेट सिर्फ अपना विकास करता है और मल्टीनेशनल कंपनी का फ्रेंचाइजी बन जाता है। उसके हितों के लिए  संपूर्ण हिंदुत्व  किसी भी स्थानीय शब्द को  या संसाधन को  पूरी ताकत से  लाभ कमाने का  सिर्फ मशीन बनाता है याने एक कारपोरेट बनाता है तो चलिए,  समझ ले... कारपोरेट माने क्या होता है...?  हिंदी में  मूल रूप से यह शब्द सिर्फ व्यवसायिक हितों का प्रतिनिधित्व करता। जैसे कि इसका संबंध सिर्फ लाभ कमाने वाली उद्योगों एक कंपनियों के लिए ही था। तो जब यह बात होती है, भारतीय पत्रकारिता में या मीडिया  मैं एफडीआई आया, तो यहां समझना ज्यादा आवश्यक है की पत्रिकारिता  का व्यवसाय से या व्यवसायिक लाभ के लिए कोई संबंध नहीं था।  यह पूरी तरह से मिशन पर लोकहित के लिए मात्र नियत है। यानी "लाभ-हानि रहित एक संस्था" किंतु कॉरपोरेट तो सिर्फ लाभ, और लाभ..,और ज्यादा लाभ  का गिरोह है।
  अगर यह किसी भी सेक्टर में काम करेगा  तो लाभकी कीमत पर ही होगा..। अन्यथा काम ही नहीं करेगा। कल्पना कीजिए भारत की आजादी में कारपोरेट, पत्रकारिता केेेे लिए काम करते तो क्या गांधी,  नेहरू, लोहिया, तिलक आजादी के लिए काम करते..., शायद बिल्कुल नहीं ... वे जेल भी जाते,  तो अंग्रेजों के हित में जाते....  और वहां से माफी मांगते...  और आजादी के आंदोलन को खत्म करते ।  क्योंकि यही कॉर्पोरेट का कल्चर है।
  ऐसे में कारपोरेट को  आजाद भारत में पत्रकारिता के लिए आवश्यक बताना,  शिवाय एक बड़ी धूर्तता  के कुछ भी नहीं है....।
  हम कह रहे है,अरबों-खरबों रुपए  का कोयला निकालने वाली बुढार नगरी में 70-80 के दशक में जब यह क्षेत्र  कोयला उत्पादन का केंद्र बन रहा था... अमलाई चौराहा।, जिसका प्रभाव मनेंद्रगढ़ तक ,एसईसीएल केेेे बहुत बड़े क्षेत्र में था, तब वहां जो खपड़े लगे, कच्चे मकान और दलित किस्म के ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया-शुद्र भी... जिसे वर्तमान तंत्र ने एकमात्र दलित घोषित कर रखा है... वे जैसे थे, आज भी उसमें से कई  वैसे ही हैं..।  अरबों-खरबों रूपयो का  खनिज प्राकृतिक संसाधन निकलने  के बाद  इनमें कोई परिवर्तन नहीं आया, यानी "स्थानीय विकास" नहीं  हो पाया ।
 हां ज्यादा से ज्यादा  डॉ राम मनोहर लोहिया की मूर्ति  इस अमलाई चौक बुढार में  उन्हें चुनौती देती हुई जैसे  लगा दी गई।
  
 तब कारपोरेट-जगत, खुलेआम स्वीकार नहीं था बुर्का ओड़कर पांचवी अनुसूची क्षेत्र मे विकसित था। आज भी लोहिया-चौक बुढार में एक खंडहर नुमा लाज, दलित... दिखने वाला यह भवन क्षेत्र के समृद्धि ठाकुर की हकीकत को दर्शाताा है। एक लोक कहावत है कि "हाथी दुबलाएगा तो क्या पड़वा को नहीं पाएगा"अगर यह पतन का प्रमाण है तो दलितों का पतन कितना पतित हुआ है.... थोड़ा अंदर बस्ती में जाकर देखें, जिनकेेे कच्चे मकान आज भी  पक्के न हो सके...  आप कह सकते हैं कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब यह आश्वासन दे दिए है, हो भी सकता है.. धोखे से यह पक्के मकान बन जाए..  किंतु  यह स्वाभाविक विकास नहीं है।
  यह किसी कॉर्पोरेट के  फलते-फूलते उद्योग में  खाते-पीते लोगों की  जूठन का  फेंका हुआ जूठ है.., या फिर जो क्षेत्रीय प्राकृतिक संसाधन को लूट कर उस पर लीपापोती करने का प्रयास है।
 अब बात करतेे हैं पत्रकारिता के पतन मे कॉरपोरेट के योगदान की..., हमारे ही शहडोल से निकले कई पत्रकार दिल्ली और भोपाल मैं कॉर्पोरेट जगत की पत्रकारिता के नौकर रहे। और वे इसी पत्रकारिता को आदर्श बनाकर पत्रकारिता का ताना-बाना बनाते हैं.. ।

 दिल्ली और भोपाल की पत्रकारिता में कॉरपोरेट-जगत के लोग स्वयं को कारपोरेट बनाने में इतने व्यस्त रहे, ज्यादा सेे ज्यादा शासन, प्रशासन और लोगों को मूर्ख बनाकर स्वयं कारपोरेट बनने को एक गौरवपूर्ण उपलब्धि के रूूप में पाने का काम करते रहे। और भ्रष्टाचार ऐसे कारपोरेट को जमकर बढ़ावा दिया..।
जिसमें लोकहित की भावना स्वयं के लाभ मात्र पर निहित थी, और इसलिए वे दूर आदिवासी अंचलों पर कस्बाई, ग्रामीण क्षेत्रों मे  काम करनेे वाली पत्रकारिता के लिए कुुुछ नहीं किया। कई लोग उसमें मर गए.. ,  कई लोग चोर और बदमाश बन गए, कई पत्रकार आज भी फरार हैं...  करोड़ों-अरबों रुपए  का भ्रष्टाचार करके...  ऐसे कॉर्पोरेट जगत के लोगों की जूठन के रूप में जो नए कॉर्पोरेट  का कचरा  या प्रदूषण  स्वयं को  कारपोरेट कल्चर का  हिस्सा बताने में शर्म नहीं करता वह पत्रकारिता के मायने कैसे गढ़ने का काम कर सकता है....? 
(जारी भाग 2 में...)

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019


एसडीओ सोहागपुर का एक आदेश से बच गया  दो तालाब 
जय स्तंभ के तालाब बनेंगे आकर्षण के केंद्र....?

( त्रिलोकीनाथ )

 यूं तो शहडोल में तालाबों के विनाश के लिए भू माफिया कब्जाधारी फर्जी अभिलेख दर्ज करा कर भूसत्त्व दिखाने वालों का दबदबा है। इस दबदबे को सबसे पहले संभागायुक्त हीरालाल त्रिवेदी ने एक झटके में बड़ा निर्णय लेकर तोड़ दिया और तमाम तालाबों को जलस्रोतों को लगे हाथ झुग्गीझोपड़ी के जंगलों को भी उन्होंने शासकीय अभिलेख/ तालाब अभिलेख में दर्ज करा दिया।
 हो सकता है, प्रक्रिया गलत रही हो या कहीं कोई चूक हो गई हो जिसकी वजह से कई लोगों को इसमें लाभ मिला और वे तालाब मेढ़ पर या तालाब में उच्च न्यायालयों से स्थगन पाने और अपना स्वत दर्जा करवाने में सफल रहे हो।
 जहां तकनीकी त्रुटियां विद्यमान हैं तकनीकी त्रुटियां वहां तालाबों का संरक्षण कर पाने में शहडोल का प्रशासन फेल रहा है। क्योंकि कोई बड़ी योजना तालाबों को लेकर अभी तक सामने नहीं आई है ।

कहां गाय हो गई राष्ट्रीय नदी संरक्षण में सोन नदी का संरक्षण योजना....?

2004 के आसपास राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना में सोन नदी संरक्षण योजना मैं एक संभावना दिखी किंतु जल्द ही भारतीय जनता पार्टी की सरकार पूरी   संभावना को बिना सांस लिए पी गई .....? राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के मध्य प्रदेश में कुल 11 नदियों पर होने वाले करोड़ों की परियोजना में शहडोल की सोन नदी भी शामिल थी, जो अचानक जड़ से कैसे गायब हो गई ....?आज 15 साल बाद भी वह लापता है ! 
बहराल अगर यह नदी संरक्षण योजना बनती तो शहडोल की मुड़ना नदी और नगर के जल संरक्षण पर बड़े काम होने वाले थे.... जो भाजपा के रामराज में खत्म हो गए।

एसडीओ के फैसले ने बचाया तालाब को

 किंतु प्रशासन अगर थोड़ा सा भी सजग है तो वह देर से ही सही कुछ बेहतर कर जाता है। ऐसा ही एक बड़ा फैसला न्यायालय अनुविभागीय अधिकारी सोहागपुर के पारित आदेश दिनांक 27जुलाई 19 में राजस्व प्रकरण क्रमांक 400/ अपील /2016-17 मुन्सा कुंंम्हार बनाम मध्यप्रदेश शासन मे एसडीओ सोहागपुर द्वारा शहडोल कलेक्ट्रेट के ठीक सामने, पुलिस महानिरीक्षक कार्यालय के ठीक पीछे.. 2 तालाबों सोहागपुर अराजी  खसरा नंबर 1817 रकवा 1.11 एकड़ तथा खसरा नंबर 1816 रकवा 98 डिसमिल कुल रकबा करीब 2.9 एकड़ शहर के हृदय स्थल पर तालाबों में किस तरह फर्जी भू अभिलेख तैयार हो गए और कैसे उस तालाब को जो कि आज भी पुरातत्व महत्व के पत्थरों को विरासत में लिए बैठा है। बावजूद मुंसा कुंंम्हार पिता ललुआ द्वारा अवैध रूप से इस पर अधिपत्य पाने की सपने देखने लगा ।और मनमानी तरीके से तालाब को नष्ट भ्रष्ट करने का काम भी किया । विवाद तब सामने आया जब इस तालाब के मेड़ पर बसे कई अतिक्रमणकारियों ने मुंसा कुंंम्हार का स्वत्व मानने से इंकार कर दिया।
 अंततः मामला तहसीलदार के समक्ष आया जहां उसे सफलता नहीं मिली ।वह तालाब मैं अधिपत्य पाने के लिए अपीलीय कोर्ट एसडीओ सुहागपुर के समक्ष प्रकरण लाया जिसमें भी उसे सफलता हासिल नहीं हुई। 27.6.2019 को पारित आदेश में स्पष्ट कहा गया अधीनस्थ न्यायालय द्वारा आराजी खसरा नंबर 1816 की 98 डिसमिल मध्यप्रदेश शासन खुली नजूल तालाब भीठा-मेड़  दर्ज होने के कारण तथा 1817 रकवा 1.11 एकड़ खसरा पंचसाला 1983-84 में मध्यप्रदेश शासन नजूल दर्ज अभिलेख हैं। मुंशा कुम्हार द्वारा उक्त भूमियों का किस प्रकार से पट्टा प्राप्त किया है उसके द्वारा किस प्रकार का दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया है। अधिकारी द्वारा मध्यप्रदेश शासन नजूल भूमि पर अतिक्रमण किया गया है। मुंसा कुम्हार के पट्टे की भूमि पर अतिक्रमण नहीं किया गया है। अतः अधीनस्थ न्यायालय द्वारा पारित आदेश विधि संगत होने के कारण इससे रखा जाता है। वह मुंशा कुम्हार आवेदक की अपील खारिज की जाती है।

 इस प्रकार 2 तालाबों को शासकीय स्वरूप देकर बचा लिया गया ।इसमें कोई शक नहीं है कि जयस्तंभ चौक के पेट्रोल पंप के पीछे 2 तालाब नहीं बल्कि तीसरा एक तालाब और भी है जिसे बचाया जाना था। जिसका अस्तित्व अभी भी है किंतु वोट बैंक की राजनीति के चलते उस तालाब के अंदर ही सड़क बन गई और बस्ती व  शेष बचा-कुचा तालाब उसी प्रकार से दम तोड़ रहा है जिस प्रकार सेंट्रल अकैडमी विद्यालय, एसपी बांग्ला के पीछे का तालाब भी अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। क्योंकि उस पर भी लगभग कब्जा कर लिया गया है।

 वैसे तो ढेर सारे तालाबों की यही कहानी है।। किस-किस की लिखें किस-किस की कहें... हर कहानी के पीछे यही एक पुरानी, घिसी-पिटी कहानी अब बोर करती हुई प्रतीत होती है। यह सही है की शहडोल के तालाबों का कोई रोड-मैप नहीं होने से उसे नगर पालिका भी बचा पाने में स्वयं को लाचार दिखाती रही है ।यह अलग बात है कि उसके पीछे भ्रष्टाचार और सिर्फ भ्रष्टाचार काम करता रहा है और तब यह ज्यादा खतरनाक हो गया कि भारतीय जनता पार्टी की सत्ता में बाहरी लोगों ने नगरपालिका पर कब्जा कर लिया । वोट बैंक की राजनीति के चलते मनमाने तरीके से तालाबों को नष्ट करने का जो नंगा नाच हुआ उसके परिणाम विनाश होते टूटते तालाबों के रूप में देखे जा सकते हैं । 
बहरहाल शहडोल में तालाबों की गिरोह बनाकर हत्या करने के बीच यह बड़ी सुखद और संतोषजनक खबर तालाबों को बचाए रखने की संभावना के लिए बड़ा वरदान दिखता नजर आ रहा है। आज ही राज्य शासन का यह निर्णय मील का पत्थर साबित होगा जल स्रोतों को नष्ट करने पर अपराध दर्ज किए जाएंगे ।शहडोल के राजस्व अधिकारियों को तालाब बचाए जाने के लिए अपनी योग्यता और विद्वता के लिए  बहुत बधाई के पात्र हैं। बेहतर होगा कि जल्द से जल्द अब तो दो तालाबों में संरक्षण पूर्ण योजना बनाकर अपनी आंखों के सामने उच्च राजस्व अधिकारियों द्वारा तालाब संरक्षण का बड़ा उदाहरण प्रस्तुत किया जाए।



"संभाग बनने के बाद तालाबों के प्रति हमारा नजरिया खासतौर से नगर में सभ्य नागरिक की तरह दिखना चाहिए ।क्योंकि तालाब ही हमारी धरोहर है। अब तो शासन ने भी  जल स्रोतों  को नष्ट करने पर  अपराधिक  प्रकरण दर्ज करने की बात कही है। कलेक्टर महोदय के परामर्श से जय स्तंभ के पास के तालाब को आकर्षित और लोकहित में बनाने के लिए एक रोडमैप तैयार किया जाएगा जो मॉडल बन सके कि तालाब कैसे संरक्षित हो। इसमें पालिकापरिषद के लोगों को लेकर आकर्षक काम किया जाएगा ।"

धर्मेंद्र मिश्रा अनुविभागीय अधिकारी सोहागपुर

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

क्या सूदखोरों के लिए काम करती है हमारी पुलिस......?

मामला नौरोजाबाद थाना सूदखोरी का सोहागपुर में भी नहीं हुआ था न्याय...

( त्रिलोकीनाथ )

 शहडोल । मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने आदिवासियों में सुरक्षा व स्वावलंबन तथा शोषण के विरुद्ध  सूदखोरी के उन्मूलन के लिए नई कानूनी व्यवस्था का निर्माण किया है और सूदखोरी को आदिवासी क्षेत्रों में पुनः प्रतिबंधित  किया है। पुनः प्रतिबंध का मतलब, वैसे ही आदिवासी क्षेत्रों में विशेषकर पांचवी अनुसूची में शामिल आदिवासी विशेष क्षेत्रों में सूदखोरी के सभी तथाकथित लाइसेंस निरस्त हो गए हैं। इसके बावजूद भी आदिवासी विशेष क्षेत्रों में जहां प्राकृतिक संसाधन कोयला खनिज, वन संपदा भरपूर हैं वहां पर सूदखोरों का विशेषकर बिहार और उत्तर प्रदेश से आए सूदखोरों का जमावड़ा है। इसमें धनपुरी और बूढ़ार के कई सिंधी भी शामिल है जो भाजपा केेे बड़े नेताओं के रूप में स्थापित है। वे पुलिस के साथ तालमेल करते हुए एक अघोषित शोषण की व्यवस्था को कायम किए हुए हैं, जिसमें पुलिस के भ्रष्ट अफसरों के लिए "एक अघोषित नियमित बैंकिंग प्रणाली स्वनिर्मित व्यवस्था" का हिस्सा बन गई है और इसी कारण पुलिस चाह करके भी इस "अघोषित व्यवस्था" को खत्म नहीं करना चाहती..।
 यह कम से कम नौरोजाबाद कॉलरी कर्मचारी विशेषकर आदिवासी कर्मचारियों के साथ प्रमाणित होता दिखता है...।
 एक सूचना की माने तो नौरोजाबाद के केवल सिंह जब 2002 में  कर्मचारी के रूप में कार्यरत थे तो करीब 30हजार रुपये, बिहार से आकर कथित तौर पर ट्रांसपोर्ट का काम और मूल रूप से ब्याज पर पैसा चलाने का कारोबार करने वाला उमेश सिंह से 10-10000 करके तीन बार उधार लिया । केवल सिंह की माने तो यह राशि हर माह ब्याज सहित उसे कुछ ही महीने में पटा दी गई। बावजूद इसके पूरे क्षेत्र का प्रशासनिक वातावरण इस प्रकार का रहा कि यह राशि शोषण और दमन की चरम स्थिति में 2011 तक केवल सिंह के रिटायरमेंट और उससे मिलने वाली समस्त राशि जो करीब पौनेसत्रह लाख रुपये थी जब उसके खाते में आई तो उमेश सिंह ने केवल सिंह का एटीएम उससे ले लिया। ताकि ब्याज की राशि वसूली जा सके और फिर शोषण और दमन का दबाव इस प्रकार का था कि 1 साल के अंदर यह राशि उसने 20-20 हजार करके निकाल ली। क्षेत्र के बैंककिंग कर्मचारी भी इसमें शामिल रहते हैं इसलिए इस प्रकार की निकासी पर वह कभी प्रश्न नहीं खड़ा करते ....? और यह संज्ञान में आने के बाद कि उसकी राशि निकल गई है।
 केवल सिंह शोषण की प्रक्रिया से दावाव से  गुजरते हुए अंततः 7 वर्ष बाद थाना और पुलिस के पास न चाहते हुए भी शिकायत करता  है, केवल अकेला नहीं है, इस प्रकार की शिकायत करने वालों में, कई लोग हैं जो शिकायत करते हैं और उनकी शिकायतें दबी रह जाती हैं। ऐसे थानों में....। कहते हैं उमेश सिंह की कई शिकायतों को पाली और नरोजाबाद थानों में इसी प्रकार से कचरे में फेंक दिया गया....?
 तो केवल सिंह की भी शिकायत दबी रह गई। लिखा पढ़ी होने के बाद सबसे पहले अगस्त 2018 में एक प्रतिवेदन पुलिस अधीक्षक उमरिया को भेजा जाता है। जिस पर तत्कालीन थाना प्रभारी अनूप सिंह द्वारा यह प्रदर्शित किया जाता है की केवल सिंह और उमेससिंह के अच्छे संबंध थे और वे आपस में लेनदेन करते थे। उल्टा केवल सिंह को पूंजीपति साबित करते हुए प्रतिवेदन में जानकारी दी गई कि उमेश सिंह के पास पैसा नहीं था इसलिए वह पौने तीनलाख करीब केवल सिंह से लिया था और उसमें ₹2,25,000 लेना बाकी रह जाता है। विवाद ना हो इसलिए थाना ने अपराध क्रमांक 529/ 18 में 107/116 की महान कार्यवाही करते हुए प्रकरण बाउंड ओवर करने का काम किया।यह पहला अवसर है।
 केवल सिंह जो आदिवासी होने के साथ बहुत सजग नहीं है उससे लिखा पढ़ी और समझौता कराकर के पुलिस मैटर को क्लोज करती है। यह पुलिस की कॉलरी क्षेत्रों में एक व्यवस्था है.... जो सूदखोरी के "अघोषित बैंकिंग प्रणाली" को बनाए रखती है ।
जबकि केवल सिंह प्रमाणित रुप से एक हिसाब भी देता है कि किस प्रकार से लाखों रुपए का लेनदेन सूदखोर के साथ रहा। बहरहाल पुलिस और सूदखोर की भ्रष्ट व्यवस्था में एक समझौता भी कराया जाता है, किंतु वह ठीक से पालन नहीं  हो पाता क्योंकि सूदखोर को मालूम होता है कि पुलिस अंतत उसका अघोषित स्टाफ है जो उसके लिए काम करता है ।आदिवासी संरक्षण के लिए कतई नहीं ...? और यह गलतफहमी उस वक्त टूट जाती है जब पुन: एक अन्य शिकायत का प्रतिवेदन पुलिस अधीक्षक को एसडीओपी द्वारा करीब 10 महीने बाद 2019 में पुणे भेजा जाता है ।जिसमें कमोबेश बातें तो वही रहती हैं किंतु पुलिस के साथ यह समक्ष में बैठकर अघोषित बैंकिंग प्रणाली में एक समझौता नामा पुन: बनता है, उपनिरीक्षक रमाकांत त्रिपाठी के समक्ष आए तथ्यों के अनुरूप एक पुरानी टाटा सुमो को ₹240000 मैं उमेश सिंह से खरीदने का नई कहानी गढ़ी जाती है अतीत रूप से बोलेरो गाड़ी बताई गई थी....? उस पर भी सूदखोर को गरीब दर्शाया गया और पैसे की कमी के कारण केवल सिंह से तीन लाख रुपये उधार लेना बताया गया।
 जबकि केवल सिंह आदिवासी लगातार बताता रहा और हिसाब देता रहा कि किस प्रकार से लाखों रुपए जब उसके खाते में आए तब उसका एटीएम सूदखोर उमेश सिंह अपने पास रख लिया और 1 साल उससे लगातार राशि निकालता रहा। इस प्रकार करीब पौने 17 लाख रुपये वह निकाल लिया और पूरा लेनदेन इसी हिसाब का है। जिसका हिसाब पत्रक भी वकायदे थाना प्रभारी को दिया गया है। और थाने में जमा भी है। फिर भी थाना प्रभारी और पुलिस की व्यवस्था केवल सिंह को ही पूंजीपति मानते हुए और उमेश सिंह को उधार लेना लेने वाला घोषित करते हुए उच्चाधिकारियों को भ्रमित करने वाला प्रतिवेदन भेजती रही।
 बजाय इसके कि, अगर पांचवी अनुसूचित क्षेत्र में सूदखोरी बंद है तो एक चिन्हित हो रहे हो रहे सूदखोर को प्रमाणित करते हुए वह उसके तथाकथित प्रचारित "ब्याज के लाइसेंस" को निरस्त कराते हुए संबंधित दांडिक  प्रकरण दर्ज किया जावे.... किंतु ऐसा करने से बिहार या उत्तर प्रदेश से आए सूदखोरों का अघोषित जाल टूट जाता और यही थाना नौरोजाबाद की अघोषित बैंकिंग प्रणाली जिसमें दिखने में सब शामिल दिखते हैं चाहे वह बैंक हो या थाना पुलिस हो अथवा सूदखोर इस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अंतत: प्रयास बनाए रखे जाते हैं।
 बहरहाल अब मामला पुलिस अधीक्षक उमरिया जिला से हटकर संवेदनशील पुलिस महानिरीक्षक शहडोल के समक्ष प्रस्तुत हुआ जिसका निराकरण फिलहाल 1 माह बाद भी न कर पाने की वजह भ्रामक तरीके से पुन: करीब 17लाख रुपए की हेराफेरी के मामले में औपचारिकता पूरी की जा रही .....?

सोहागपुर थाना में भी हुई थी लीपापोती "बेनामी माफिया" को मिली जमानत..?

यहां उल्लेख करना उचित होगा कि ऐसे ही एक मामले में सुहागपुर थाना शहडोल में गोरतरा की सनसतिया बैगा का मामला अंततः पुलिस और प्रशासनिक उच्चाधिकारियों के संज्ञान में आया। इसके बावजूद भी थाना सोहागपुर के लोगों ने सूदखोर के साथ मिलकर उसकी करीब 2 एकड़ जमीन में बेनामी संपत्ति का मामला दर्ज न कर, जातिसूचक गाली गलौज आदि का मामला दर्ज कर प्रकरण को पटाक्षेप करने का काम किया...। यह सही है सुहागपुर पुलिस सूदखोर और बेनामी संपत्ति का माफिया को जेल में बंद करने में कायम रहे और कानून का डर भी दिखाया बावजूद इसके वह यहां भी नौरोजाबाद थाना की पुलिस की तरह सूदखोर और बेनामी संपत्ति के माफिया के हित में काम करती प्रमाणित हुई ।क्योंकि यह अपराध की काली दुनिया में "अघोषित बैंकिंग प्रणाली" को बचाकर रखने का एक प्रयास दिखा। क्योंकि यहां भी बार-बार सनसतिया कहती रही कि उसकी संपत्ति बेनामी तौर पर अभिषेक सोनी नामक एक भूमाफिया ने धोखाधड़ी करके हड़प ली है और वह जान से मारने की भय का वातावरण बनाए रखता है...? बहरहाल..,।

देखना होगा की शहडोल के संवेदनशील पुलिस महानिरीक्षक के संज्ञान में आने के बाद भी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ द्वारा घोषित आदिवासी हितों के लिए संरक्षित शुद्खोरी की नीति पर कोई कार्रवाई होती भी है या फिर सूदखोरी के इस कालरी क्षेत्र में और आदिवासी क्षेत्रों में अघोषित बैंकिंग प्रणाली से लूट का आलम जारी रहता है....? जिसने फिलहाल अभी तक तो सूदखोर को बचाकर रखने में थाना नौरोजाबाद कामयाब होता दिख रहा है...?

बुधवार, 11 सितंबर 2019


कट पेस्ट जाने किन को मिला

रमन मैगसेसे पुरस्कार
 (Ramon Magsaysay Award) 
भारत में जहां पुरस्कार अपनी छवि को रहे हैं वही फिलिपिंस का यह पुरस्कार जब भी दिया जाता है दुनिया में चर्चा का विषय बन जाता है हिंदी पत्रकारिता को संघर्ष की याद बनाने वाला पत्रकार रवीश कुमार को यह पुरस्कार मिला तो मानो फिलीपींस भारत की दिल में राज करने लगा
 एशियाके व्यक्तियों एवं संस्थाओं को उनके अपने क्षेत्र में विशेष रूप से उल्लेखनीय कार्य करने के लिये प्रदान किया जाता है। इसे प्राय: एशिया का नोबेल पुरस्कार भी कहा जाता है। यह रमन मैगसेसे पुरस्कार फाउन्डेशन द्वारा फ़िलीपीन्स के भूतपूर्व राष्ट्रपति रमन मैगसेसे की याद में दिया जाता है।

इतिहाससंपादित करें

यह पुरस्कार न्यूयॉर्क स्थित "रॉकफेलर ब्रदर्स फण्ड" के ट्रस्टियों द्वारा सन् १९५७ में स्थापित किया गया। फिलिपिन्स की सरकार की सहमति से वहाँ के भूतपूर्व राष्ट्रपति रमन मैगसेसे की स्मृति में यह पुरस्कार आरम्भ किया गया ताकि उनकी आम जनता की साहसपूर्वक सेवा, लोकतांत्रिक समाज में व्यावहारिक आदर्शवादिता एवं निर्मल सरकारी चरित्र की याद को ताजा रखा जा सके

भारतीय विजेताओ की सूचीसंपादित करें

वर्षप्राप्तकर्ता का नामक्षेत्र
2019रविश कुमारपत्रकारिता
2018भरत वाटवानी (मनोवैज्ञानिक)समाज सेवा
2018सोनम वांगचुक(अभियंता)समाज सेवा
2016बेज़वाडा विल्सनजनसेवा
2016टी. एम. कृष्णासामाजिक एकजुटता
2015संजीव चतुर्वेदीभ्रष्टाचार के विरुद्ध
2015अंशु गुप्तासामाजिक कार्य
2012कुलांदेई फ्रांसिससामाजिक कार्य
2011नीलिमा मिश्रासामाजिक कार्य
2011हरीश हांडे
2009दीप जोशीसामाजिक कार्यकर्ता
2008मंदाकिनी आम्टेआदिवासी कल्याण कार्य
2008प्रकाश आम्टेआदिवासी कल्याण कार्य
2007पालागुम्मि साईनाथसाहित्य, पत्रकारिता तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
2006अरविंद केजरीवालआपातकालीन नेतृत्व
2005वी. शांताजनसेवा
2004लक्ष्मीनारायण रामदासशांति और अंतर्राष्ट्रीय समझौता
2003शांता सिन्हासामुदायिक नेतृत्व
2003जेम्स माइकल लिंगदोहशासकीय सेवा
2002संदीप पांडेयआपातकालीन नेतृत्व
2001राजेन्द्र सिंहसामुदायिक नेतृत्व
2000जॉकिन अर्पुथमशांति और अंतर्राष्ट्रीय समझौता
2000अरुणा रॉयसामुदायिक नेतृत्व
1997महेश चन्द्र मेहताजनसेवा
1997महाश्वेता देवीसाहित्य, पत्रकारिता तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1996टी. एन. शेषणशासकीय सेवा
1996पांडुरंग अठावलेसामुदायिक नेतृत्व
1994किरण बेदीशासकीय सेवा
1993बानू कोयाजीजनसेवा
1992पंडित रविशंकरपत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1991के. वी. सुबन्नापत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1989लक्ष्मीचंद जैनजनसेवा
1985मुरलीधर देवीदास आमटेजनसेवा
1984आर के लक्ष्मणपत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1982चण्डी प्रसाद भट्टसामुदायिक नेतृत्व
1982मनीभाई देसाईजनसेवा
1982अरुण शौरीपत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1981गौर किशोर घोषपत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1981प्रमोद करण सेठीसामुदायिक नेतृत्व
1979राजनकांत अरोलसामुदायिक नेतृत्व
1979माबेला अरोलसामुदायिक नेतृत्व
1977इला रमेश भट्टसामुदायिक नेतृत्व
1976शम्भु मित्रापत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1975बी. जी. वर्गीज़पत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1974एम एस सुब्बुलक्ष्मीजनसेवा
1971एम. एस. स्वामीनाथनसामुदायिक नेतृत्व
1967सत्यजीत रेपत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संप्रेषण कला
1966कमला देवी चटोपाध्यायसामुदायिक नेतृत्व
1965जयप्रकाश नारायणजनसेवा
1963डी. एन. खुरोदेसामुदायिक नेतृत्व
1963त्रिभुवनदास कृषिभाई पटेलसामुदायिक नेतृत्व
1963वर्गीज कुरियनसामुदायिक नेतृत्व
1962मदर टेरेसाअंतर्राष्ट्रीय सद्भाव
1961अमिताभ चौधरीपत्रकारिता, साहित्य तथा सृजनात्मक संवाद कला
1959सी. डी. देशमुखशासकीय सेवा
1958विनोबा भावेसामुदायिक नेतृत्व

पुरस्कार की श्रेणियाँसंपादित करें

  • सरकारी सेवा (Government Service)
  • सार्वजनिक सेवा (Public Service)
  • सामुदायिक नेतृत्व (Community Leadership)
  • पत्रकारिता, साहित्य एव सृजनात्मक संचार कलाएँ (Journalism, Literature and Creative Communication Arts)
  • शान्ति एवं अन्तरराष्ट्रीय सद्भावना (Peace and International Understanding)
  • उभरता हुआ नेतृत्व (Emergent Leadership)



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