शनिवार, 21 सितंबर 2019

कॉरपोरेट, हम और... अधिमान्यता की भीख ( त्रिलोकीनाथ ) प्रथम भाग

कॉरपोरेट, हम और...
अधिमान्यता की भीख (भाग-1) 
मीडिया में एफडीआई
विदेशी निवेश का समावेश .....
 यानी  खुली गुलामी की घोषणा।

 "पत्रकारिता एक मिशन"......
 बीतेे कल की बात।
            
             (  त्रिलोकीनाथ  )
...आजादी केे 70 वर्ष बाद भी गुलामी से छटपटाहट कितना दुखद है, यह कुछ उसी प्रकार का है जैसे आजादी तो मिली किंतु गुलामी की कीमत पर। यह कुछ उसी प्रकार का है जैसे आरक्षण तो मिला किंतु गुलामी की कीमत पर।
 स्वतंत्रता की बुनियाद पर आरक्षण के सिद्धांत लोकहित की तिलांजलि क्यों दे गए.... आरक्षित वर्ग में सबके लिए आरक्षण, सर्वांगीण विकास सर्वदलित समाज का उत्थान क्यों नहीं हुआ.....?, मुट्ठी भर इस आरक्षण से, "कॉर्पोरेट" क्यों निकल आए, और वे अपनेेे ढंग से आरक्षण का कॉर्पोरेट कैसे चलाने लगे....?
 यह जानना है तो आइए "स्वतंत्र-दलित-समाज" याने पत्रकारिता की जमीनी हकीकत को समझने का प्रयास करें, हम भारत की संविधान में प्रावधानित पांचवी अनुसूची में शामिल विशेष आदिवासी क्षेत्र शहडोल के निवासी हैं, प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण मोहताजी की  और लाचारगी  से भी बहुत दूर सर्व प्राकृतिक संसाधन की सत्ता पर विराजमान होने के बावजूद, देश की आजादी की मुख्यधारा में उसी प्रकार से नहीं जुड़ पाए हैं जैसे आरक्षण के जरिए पूरा समाज  सिर्फ भीख पाने की कोशिश करता नजर आता है। 
और पूरी कोशिश  इस बात की होती है  कि "भ्रष्टाचार की जूठन" में  कितना जूठ हासिल कर सका...?, क्या  विरासत में प्राप्त  प्राकृतिक संसाधन  खनिज, जल-संसाधन  या फिर  प्राकृतिक गैस सीबीएम  अथवा वन संसाधन का  उत्पादन का  कितना हिस्सा जो राष्ट्रीय मुख्यधारा की विकास के लिए  निकाला गया,  उसका "कितना-प्रतिशत"  स्थानीय विकास  में प्रगट हो रहा है....?  यह सोचा गया....  शायद नहीं..?,बिल्कुल भी नहीं। "राष्ट्रीय-विकास" एक संज्ञा बन गया जैसे राजनीति में "हिंदुत्व" एक संज्ञा है या फिर एक "ब्रांड" है "व्यवसायिक ब्रांड" जिससे कॉर्पोरेट सिर्फ अपना विकास करता है और मल्टीनेशनल कंपनी का फ्रेंचाइजी बन जाता है। उसके हितों के लिए  संपूर्ण हिंदुत्व  किसी भी स्थानीय शब्द को  या संसाधन को  पूरी ताकत से  लाभ कमाने का  सिर्फ मशीन बनाता है याने एक कारपोरेट बनाता है तो चलिए,  समझ ले... कारपोरेट माने क्या होता है...?  हिंदी में  मूल रूप से यह शब्द सिर्फ व्यवसायिक हितों का प्रतिनिधित्व करता। जैसे कि इसका संबंध सिर्फ लाभ कमाने वाली उद्योगों एक कंपनियों के लिए ही था। तो जब यह बात होती है, भारतीय पत्रकारिता में या मीडिया  मैं एफडीआई आया, तो यहां समझना ज्यादा आवश्यक है की पत्रिकारिता  का व्यवसाय से या व्यवसायिक लाभ के लिए कोई संबंध नहीं था।  यह पूरी तरह से मिशन पर लोकहित के लिए मात्र नियत है। यानी "लाभ-हानि रहित एक संस्था" किंतु कॉरपोरेट तो सिर्फ लाभ, और लाभ..,और ज्यादा लाभ  का गिरोह है।
  अगर यह किसी भी सेक्टर में काम करेगा  तो लाभकी कीमत पर ही होगा..। अन्यथा काम ही नहीं करेगा। कल्पना कीजिए भारत की आजादी में कारपोरेट, पत्रकारिता केेेे लिए काम करते तो क्या गांधी,  नेहरू, लोहिया, तिलक आजादी के लिए काम करते..., शायद बिल्कुल नहीं ... वे जेल भी जाते,  तो अंग्रेजों के हित में जाते....  और वहां से माफी मांगते...  और आजादी के आंदोलन को खत्म करते ।  क्योंकि यही कॉर्पोरेट का कल्चर है।
  ऐसे में कारपोरेट को  आजाद भारत में पत्रकारिता के लिए आवश्यक बताना,  शिवाय एक बड़ी धूर्तता  के कुछ भी नहीं है....।
  हम कह रहे है,अरबों-खरबों रुपए  का कोयला निकालने वाली बुढार नगरी में 70-80 के दशक में जब यह क्षेत्र  कोयला उत्पादन का केंद्र बन रहा था... अमलाई चौराहा।, जिसका प्रभाव मनेंद्रगढ़ तक ,एसईसीएल केेेे बहुत बड़े क्षेत्र में था, तब वहां जो खपड़े लगे, कच्चे मकान और दलित किस्म के ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया-शुद्र भी... जिसे वर्तमान तंत्र ने एकमात्र दलित घोषित कर रखा है... वे जैसे थे, आज भी उसमें से कई  वैसे ही हैं..।  अरबों-खरबों रूपयो का  खनिज प्राकृतिक संसाधन निकलने  के बाद  इनमें कोई परिवर्तन नहीं आया, यानी "स्थानीय विकास" नहीं  हो पाया ।
 हां ज्यादा से ज्यादा  डॉ राम मनोहर लोहिया की मूर्ति  इस अमलाई चौक बुढार में  उन्हें चुनौती देती हुई जैसे  लगा दी गई।
  
 तब कारपोरेट-जगत, खुलेआम स्वीकार नहीं था बुर्का ओड़कर पांचवी अनुसूची क्षेत्र मे विकसित था। आज भी लोहिया-चौक बुढार में एक खंडहर नुमा लाज, दलित... दिखने वाला यह भवन क्षेत्र के समृद्धि ठाकुर की हकीकत को दर्शाताा है। एक लोक कहावत है कि "हाथी दुबलाएगा तो क्या पड़वा को नहीं पाएगा"अगर यह पतन का प्रमाण है तो दलितों का पतन कितना पतित हुआ है.... थोड़ा अंदर बस्ती में जाकर देखें, जिनकेेे कच्चे मकान आज भी  पक्के न हो सके...  आप कह सकते हैं कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब यह आश्वासन दे दिए है, हो भी सकता है.. धोखे से यह पक्के मकान बन जाए..  किंतु  यह स्वाभाविक विकास नहीं है।
  यह किसी कॉर्पोरेट के  फलते-फूलते उद्योग में  खाते-पीते लोगों की  जूठन का  फेंका हुआ जूठ है.., या फिर जो क्षेत्रीय प्राकृतिक संसाधन को लूट कर उस पर लीपापोती करने का प्रयास है।
 अब बात करतेे हैं पत्रकारिता के पतन मे कॉरपोरेट के योगदान की..., हमारे ही शहडोल से निकले कई पत्रकार दिल्ली और भोपाल मैं कॉर्पोरेट जगत की पत्रकारिता के नौकर रहे। और वे इसी पत्रकारिता को आदर्श बनाकर पत्रकारिता का ताना-बाना बनाते हैं.. ।

 दिल्ली और भोपाल की पत्रकारिता में कॉरपोरेट-जगत के लोग स्वयं को कारपोरेट बनाने में इतने व्यस्त रहे, ज्यादा सेे ज्यादा शासन, प्रशासन और लोगों को मूर्ख बनाकर स्वयं कारपोरेट बनने को एक गौरवपूर्ण उपलब्धि के रूूप में पाने का काम करते रहे। और भ्रष्टाचार ऐसे कारपोरेट को जमकर बढ़ावा दिया..।
जिसमें लोकहित की भावना स्वयं के लाभ मात्र पर निहित थी, और इसलिए वे दूर आदिवासी अंचलों पर कस्बाई, ग्रामीण क्षेत्रों मे  काम करनेे वाली पत्रकारिता के लिए कुुुछ नहीं किया। कई लोग उसमें मर गए.. ,  कई लोग चोर और बदमाश बन गए, कई पत्रकार आज भी फरार हैं...  करोड़ों-अरबों रुपए  का भ्रष्टाचार करके...  ऐसे कॉर्पोरेट जगत के लोगों की जूठन के रूप में जो नए कॉर्पोरेट  का कचरा  या प्रदूषण  स्वयं को  कारपोरेट कल्चर का  हिस्सा बताने में शर्म नहीं करता वह पत्रकारिता के मायने कैसे गढ़ने का काम कर सकता है....? 
(जारी भाग 2 में...)

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