कॉरपोरेट, हम और पत्रकारिता (2)
शहडोल संभाग की अधिमान्यता कमेटी ना बनाया जाना कॉर्पोरेट-कल्चर का प्रमाण.....
(त्रिलोकीनाथ)
शहडोल संभाग की अधिमान्यता कमेटी ना बनाया जाना कॉर्पोरेट-कल्चर का प्रमाण.....
(त्रिलोकीनाथ)
भारतीय पत्रकारिता में या मीडिया मे एफडीआई आया, तो यहां समझना ज्यादा आवश्यक है की पत्रकारिता का व्यवसाय से या व्यवसायिक लाभ के लिए कोई संबंध नहीं था। यह पूरी तरह से "मिशन" पर लोकहित के लिए मात्र नियत है। यानी "लाभ-हानि रहित एक संस्था" किंतु कॉरपोरेट तो सिर्फ लाभ, और लाभ..,और ज्यादा लाभ का गिरोह है।
और यही कारण है कि भारत में आज भी 70 साल बाद अधिमान्यता जैसी "भीख" जमीनी पत्रकारों को दे पाने में हमारा शासन और प्रशासन और पत्रकार जगत के लोग जो स्वयं को ठेकेदार दिखाते हैं सिर्फ एक नपुंसक व्यवस्था दे पाए...। पत्रकार अपने सेवा कार्यकाल में मरने के कगार पर आ गए, उनका अधिमान्यता भी नहींं मिली हो....?, यह बेहद शर्मनाक और घटिया दर्जे का कृत्य रहा..।
जो संस्था लोकतंत्र में रहकर सुव्यवस्थित तरीके से अधिमान्यता भी मुट्ठी भर लोगों को नहीं दे पाई हो, उसे प्रबंध नहीं कर पाई हो... वह लोकहित के कार्यों के लिए कैसेे समर्पित होगी.....?, वहां.. जहां की कोई दो परसेंट एससी वर्ग के लिए भारतीय प्रधानमंत्री उच्चतम न्यायालय के आदेश के खिलाफ जाकर संसद में बिल ले आते हैं ....वहां जहां की जूनियरटी और सीनियरिटी के वरिष्ठता के वेतनमान के लिए न्यायालयों में न्याय की अपीले लंबित हो, ऐसे स्थान पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में "चौथे स्तंभ का अघोषित दर्जा" देने का "ढपोल-शंख" लगातार गूंजता रहता हो... बावजूद इसके पूरी की पूरी पीढ़ी खत्म हो जाए और उसे अनुसूची न किया जाए... वरिष्ठता और कनिष्ठता का सम्मान ना हो.... छोटे छोटे लड़के और लड़कियां टीवी डिबेट में बैठकर सीनियर जर्नलिस्ट से वकायदे नाम लेकर तू-तड़ाक की भाषा में मीडिया का प्रतिनिधित्व करें ..... यह पतन की गिरावट नहीं तो क्या है.....
चलिए कुछ लोग लिहाज भी करते हैं.., अच्छा है क्योंकि भारतीय संस्कार के कीटाणु उनमें जीवित हैं...
मैग्सेसे अवार्ड प्राप्त हिंदी पत्रकारिता का चंद्रयान रवीशकुमार ने कहा "एक डरी हुई पत्रकारिता, मरा हुआ नागरिक पैदा करती है....," किंतु शहडोल जैसे पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों की जमीनी हकीकत बताती है कि इससे आगे चलकर कहना चाहिए की "एक गुलाम पत्रकारिता, सड़ा हुआ नागरिक पैदा करती है" जो सिर्फ डेकोरेशन करके बदबू देने का काम करता है और ऐसा लोकतंत्र गंध मारने लगता है.... क्या हम इसी प्रदूषण में नहीं जी रहे हैं......?
चलिए कुछ लोग लिहाज भी करते हैं.., अच्छा है क्योंकि भारतीय संस्कार के कीटाणु उनमें जीवित हैं...
मैग्सेसे अवार्ड प्राप्त हिंदी पत्रकारिता का चंद्रयान रवीशकुमार ने कहा "एक डरी हुई पत्रकारिता, मरा हुआ नागरिक पैदा करती है....," किंतु शहडोल जैसे पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों की जमीनी हकीकत बताती है कि इससे आगे चलकर कहना चाहिए की "एक गुलाम पत्रकारिता, सड़ा हुआ नागरिक पैदा करती है" जो सिर्फ डेकोरेशन करके बदबू देने का काम करता है और ऐसा लोकतंत्र गंध मारने लगता है.... क्या हम इसी प्रदूषण में नहीं जी रहे हैं......?
जहां नरेंद्र मोदी की भाषा में समझे तो कोई 130 करोड़ नागरिक आजादी के सपनों के हकदार हो...,जब मुट्ठी भर लोगों को इस बात पर सरकारी पेंशन दी जाती है कि वह 60 साल का हो गया.. तो उसे जितनी सम्मान निधि दी जाएगी और पूरे पत्रकारिता की जीवन में इतनी तनख्वाह भी नहीं पाया...?
इस कारपोरेट-कल्चर में तो यह समझना सहज है... जब पत्रकार की सेवा-अवधि बाद मरता है उसको जीवित रहने के लिए "पेशन" दिया जाता है..।
एक अजीबोगरीब प्रस्ताव पत्रकारिता क्षेत्र में आया की वेतन के नाम पर नाम मात्र का तनख्वाह लेकिन अधिमान्यता सूची में नाम जरूर डलवा दिया जाएगा.... ताकि 60 साल बाद सरकारी पेंशन इस प्रकार तनख्वाह और पेंशन मिलाकर एक बड़ी रकम पत्रकार को मिल सकती है...। यह सोच अचानक नहीं आई..., कॉर्पोरेट-कल्चर में 70 साल के दमन व शोषण के विकास से इसे रचा है..., ।
यही है, कॉर्पोरेट-जगत का नियंत्रण । जो एक वास्तविक पत्रकार को लाचार और बिचारा बनाकर अधिमान्यता के जरिए उसकी सेवाकाल के जीवन की बजाए, उसके मरने यानी 60 वर्ष के बाद उसे "जूठन का टुकड़ा" जीवन के लिए देता है। इसी को कम से कम पत्रकारिता में कॉर्पोरेट की सफलता का प्रमाण पत्र मानना चाहिए, क्योंकि इसी "भीख" के लिए जिम्मेदार पत्रकार शायद त्रासदी का जीवन जीता है...., फिर भी यह सहज भीख सिर्फ उन गुलाम-पत्रकारों को ही मिलती है ।जिसमे कई लोग पत्रकारिता की अधिमान्यता से प्रमाणित होते हैं।
एक अजीबोगरीब प्रस्ताव पत्रकारिता क्षेत्र में आया की वेतन के नाम पर नाम मात्र का तनख्वाह लेकिन अधिमान्यता सूची में नाम जरूर डलवा दिया जाएगा.... ताकि 60 साल बाद सरकारी पेंशन इस प्रकार तनख्वाह और पेंशन मिलाकर एक बड़ी रकम पत्रकार को मिल सकती है...। यह सोच अचानक नहीं आई..., कॉर्पोरेट-कल्चर में 70 साल के दमन व शोषण के विकास से इसे रचा है..., ।
यही है, कॉर्पोरेट-जगत का नियंत्रण । जो एक वास्तविक पत्रकार को लाचार और बिचारा बनाकर अधिमान्यता के जरिए उसकी सेवाकाल के जीवन की बजाए, उसके मरने यानी 60 वर्ष के बाद उसे "जूठन का टुकड़ा" जीवन के लिए देता है। इसी को कम से कम पत्रकारिता में कॉर्पोरेट की सफलता का प्रमाण पत्र मानना चाहिए, क्योंकि इसी "भीख" के लिए जिम्मेदार पत्रकार शायद त्रासदी का जीवन जीता है...., फिर भी यह सहज भीख सिर्फ उन गुलाम-पत्रकारों को ही मिलती है ।जिसमे कई लोग पत्रकारिता की अधिमान्यता से प्रमाणित होते हैं।
पत्रकारिता के चौथे स्तंभ में एक लोकहित में समर्पित अघोषित संस्था के उन गैरअधिमान्यता प्राप्त पत्रकारों या फिर पत्रकारिता की संस्था में काम कर रहे गैर पत्रकार चाहे वह मशीन-मैन हो... हाकर हो, या बंडलमैन हो, चपरासी हो, क्लर्क हो, उनके लिए पत्रकारिता का कॉरपोरेट्स यह जूठन नहीं दे सकता। जो उनके "सेवाकाल से मरने" के बाद उन्हें दिया जाए। क्योंकि वे उनकी लाभ कमाने की मशीन का हिस्सा नहीं है....?
एक और रोचक बात जैसे अधिमान्यता की भीख कॉर्पोरेट-जगत कुछ पत्रकारों के लिए पंजीरी जैसे बांटे हैं, कुछ राजनीतिक दलों ने भी पत्रकारिता का नकाब पहना कर यह अधिमान्यता का जूठन अपने लोगो को दे रखी है।
वैसे ही हमारे पांचवी अनुसूची क्षेत्र शहडोल में कारपेट का सपना देखने वा कुछ अखबार मालिक अपने नौकरोंं को.., अपने व्यवसाय के लाभ के लिए पत्रकारिता का नकाब पहना दिए और अधिमान्यता भी दिला दी। क्योंकि उन्हें अपने ऐसे ही नौकरों से लाभ मिलता है ।इन्हें कोई मतलब नहीं। यह तो कारपोरेट के उस कचरे का हिस्सा हैं जिसका प्रदूषण आदिवासी क्षेत्र में फैला रहे हैं। कैसे लोग कारपोरेट बने...,।
हाल में जिस प्रकार से अलग-अलग संभागों में अधिमान्यता देने की समितियों का गठन हुआ है,उसमें आदिवासी संभाग शहडोल को संभाग का दर्जा देने से इनकार कर दिया। क्यों की इन्हें नियंत्रित करने वाला सायद कॉर्पोरेट खौफज़दा था...., प्रदेश में रीवा संभाग कि चयनित कमेटी में शहडोल संभाग को विलुप्त करते हुए.... जिन सदस्यों की सूची जारी की गई वह एक प्रकार का फतवा है। जो आश्चर्यचकित करता है? अनूपपुर में कोई "फतवा" अखबार भी है जिनके एक पत्रकार डल्लू सोनी जी इस "कॉर्पोरेट-जगत" के नजर में माननीय पत्रकार है।
व्यक्तिगत मेरेे लिए यह खुशी की बात है कि कोई गैर-पत्रकार अधिमान्यता में सफलता से प्रवेश किए हुए हैं। किंतु उसे चयन सूची में रखा जाना उन पत्रकारों का बड़ा अपमान है.. जो अभी तक अधिमान्यता की गुलामों की सूची में शामिल नहीं किए गए हैं । तो क्या कॉर्पोरेट अपने गुलामों में भी "जूठ की भीख" देने में भी चयन प्रक्रिया अपनाए हुए हैं.... आदि आदि।
यह सब चिंतन और मंथन का विषय है इसे व्यंग अथवा मजाक में नहीं लेना चाहिए । यह सब सोची समझी आदिवासी क्षेत्रों में गुलाम पा लेने का प्रबंध है।इसे इसी रूप में ही लिया जाना चाहिए ।
यह पत्रकारिता में "आरक्षण" की व्यवस्था का दुरुपयोग ही है... कि कोई एक गुलामों की जाति ही लोक प्रतिनिधित्व के लिए सुनिश्चित रहेगी... कोई बैगा, कोई भरिया कभी शहडोल का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा... जब आप आरक्षण की बात करते हैं तो यदि जनसंख्या बल पर कोई जनप्रतिनिधि नहीं आ पा रहा है तो उसे विशेषाधिकार से जनप्रतिनिधि क्यों नहींं बनाया गया.... तो यह एक प्रकार का पत्रकारिता में भरिया, बैगा जनजातियों के समूह में मुख्य मुख्यमंत्री का आकर समूह नृत्य करना ही है ।
और कोई अवसर मिले तो किसी पत्रकार को खुश होकर कुछ पुरस्कृत कर देना है। किसी भ्रष्ट धनराशि और क्याहै...?
यही है कॉर्पोरेट का गौरवमई इतिहास जो सिर्फ और सिर्फ लाभ के लिए लोकतंत्र में चौथे स्तंभ में सक्रिय है... इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना बेहतर है।
अन्यथा अमरकंटक में नर्मदा नदी कैसे सूख जाती है और ची.. से ..चू... तक नहीं होता.... तो निष्कर्ष में यह तय है कि हमारे लोकतंत्र को और उससे संबंधित जिम्मेदार तबके को। जब, यदि शासन और प्रशासन का प्रवक्ता विभाग, जनसंपर्क विभाग है तो उसे कौन याद दिलाएगा शहडोल एक "घोषित संभागीय मुख्यालय" है यहां पर उपसंचालक स्तर के कर्मचारी अधिकारी का कार्यालय है, यह अलग बात है कि अधिकारी हमारे आदिवासी भाई हैं, किंतु उन्हें इस प्रकार से नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। उनकी अपनी एक अधिमान्यता कमेटी होनी ही चाहिए। जो अपनी स्वतंत्रता से अपने गुलाम सुनिश्चित करें.... ताकि सेवा कॉल मैं मरने के बाद उसे पेंशन मिल सके। इसे कॉर्पोरेट-जगत सम्मान निधि कहता है। किंतुुु जीते उसे अपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाएं या अन्य सुविधाएं भी मिल सके। लोकतंत्र के कॉरपोरेटर्स को शहडोल संभाग को लेकर इतना भयभीत नहीं होना चाहिए थोड़ा विश्वास तो करिए
फिर यह एक अलग बात है कि यह चयनित कमेटी किसी रामराज, किसी बलराज, किसी धनराज, किसी माफिया राज का चयन करती है.... यह उसका हक होना ही चाहिए ...।
यही तो महात्मा गांधी की एक लाइन भी थी की अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति याने भरिया, बैगा, कोल आदि... आदि, सभी का विकास हो । पत्रकारिता में भी ऐसी जातिि समूहों के प्रतिनिधि मरने की कगार में खड़े हैं फिर चाहे वे दिनेश अग्रवाल हो, रघुवंश मिश्रा हो,त्रिलोकीनाथ हो, एसएन त्रिपाठी हो, अखिलेश पांडेे हो, अजय जायसवाल हो, विजय गुप्ता सूरज प्यासी सनत शर्मा रवि नारायण गौतम मोहन नामदेव अन्य कई नाम शहडोल संभाग में वर्षों से चौथे स्तंभ की सेवा कर रहे या फिर गैर पत्रकारों में गणेश गुप्ता , महेश कुशवाहा हो आदि आदि आखिर शहडोल के संभाग कमेटी चयन का अधिकार स्वतंत्रता का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए.... । आखिर अधिमान्यता की भीख सिर्फ रीवा संभाग के "भिखारियों" को क्यों दी जानी चाहिए... जबकि प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण शहडोल संभाग जागरूकता और रोजगार के अवसर आदि में भी रीवा संभाग से कहीं बड़ा योगदान रखता है..। हम में से कई लोगों को यह मालूम है ऑनलाइन कई आवेदनों को आज तक रीवा की चयन समिति ने कैसे गायब कर दिया..... या उनकी नजर में "आवेदन-कर्ता लोगच कारपोरेट का जूठ पाने के अधिकारी नहीं थे.... यह बात जनसंपर्क विभाग और उसे नियंत्रित करने वाला लोकतंत्र का कॉर्पोरेट क्योंं नही सोच पाया..... यह बेहद शर्म की बात है।
लेकिन इस शर्मा और हया तथा गुलामी की जिंदगी जीने वाला शहडोल क्षेत्र का पत्रकार भी क्या सोच पाता है..... यह भी देखना होगा ......।
पत्रकारिता के शहडोल संभाग की समूची पीढ़ी के लिए यह जीने और मरने का एक सबक भी है ... और चुनौती भी...! अधिमान्यता की भी और गुलामी की सूची में क्या कॉर्पोरेट जगत से अपना हक मांगने का साहस करता है ..?
वैसे ही हमारे पांचवी अनुसूची क्षेत्र शहडोल में कारपेट का सपना देखने वा कुछ अखबार मालिक अपने नौकरोंं को.., अपने व्यवसाय के लाभ के लिए पत्रकारिता का नकाब पहना दिए और अधिमान्यता भी दिला दी। क्योंकि उन्हें अपने ऐसे ही नौकरों से लाभ मिलता है ।इन्हें कोई मतलब नहीं। यह तो कारपोरेट के उस कचरे का हिस्सा हैं जिसका प्रदूषण आदिवासी क्षेत्र में फैला रहे हैं। कैसे लोग कारपोरेट बने...,।
हाल में जिस प्रकार से अलग-अलग संभागों में अधिमान्यता देने की समितियों का गठन हुआ है,उसमें आदिवासी संभाग शहडोल को संभाग का दर्जा देने से इनकार कर दिया। क्यों की इन्हें नियंत्रित करने वाला सायद कॉर्पोरेट खौफज़दा था...., प्रदेश में रीवा संभाग कि चयनित कमेटी में शहडोल संभाग को विलुप्त करते हुए.... जिन सदस्यों की सूची जारी की गई वह एक प्रकार का फतवा है। जो आश्चर्यचकित करता है? अनूपपुर में कोई "फतवा" अखबार भी है जिनके एक पत्रकार डल्लू सोनी जी इस "कॉर्पोरेट-जगत" के नजर में माननीय पत्रकार है।
व्यक्तिगत मेरेे लिए यह खुशी की बात है कि कोई गैर-पत्रकार अधिमान्यता में सफलता से प्रवेश किए हुए हैं। किंतु उसे चयन सूची में रखा जाना उन पत्रकारों का बड़ा अपमान है.. जो अभी तक अधिमान्यता की गुलामों की सूची में शामिल नहीं किए गए हैं । तो क्या कॉर्पोरेट अपने गुलामों में भी "जूठ की भीख" देने में भी चयन प्रक्रिया अपनाए हुए हैं.... आदि आदि।
यह सब चिंतन और मंथन का विषय है इसे व्यंग अथवा मजाक में नहीं लेना चाहिए । यह सब सोची समझी आदिवासी क्षेत्रों में गुलाम पा लेने का प्रबंध है।इसे इसी रूप में ही लिया जाना चाहिए ।
यह पत्रकारिता में "आरक्षण" की व्यवस्था का दुरुपयोग ही है... कि कोई एक गुलामों की जाति ही लोक प्रतिनिधित्व के लिए सुनिश्चित रहेगी... कोई बैगा, कोई भरिया कभी शहडोल का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा... जब आप आरक्षण की बात करते हैं तो यदि जनसंख्या बल पर कोई जनप्रतिनिधि नहीं आ पा रहा है तो उसे विशेषाधिकार से जनप्रतिनिधि क्यों नहींं बनाया गया.... तो यह एक प्रकार का पत्रकारिता में भरिया, बैगा जनजातियों के समूह में मुख्य मुख्यमंत्री का आकर समूह नृत्य करना ही है ।
और कोई अवसर मिले तो किसी पत्रकार को खुश होकर कुछ पुरस्कृत कर देना है। किसी भ्रष्ट धनराशि और क्याहै...?
यही है कॉर्पोरेट का गौरवमई इतिहास जो सिर्फ और सिर्फ लाभ के लिए लोकतंत्र में चौथे स्तंभ में सक्रिय है... इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना बेहतर है।
अन्यथा अमरकंटक में नर्मदा नदी कैसे सूख जाती है और ची.. से ..चू... तक नहीं होता.... तो निष्कर्ष में यह तय है कि हमारे लोकतंत्र को और उससे संबंधित जिम्मेदार तबके को। जब, यदि शासन और प्रशासन का प्रवक्ता विभाग, जनसंपर्क विभाग है तो उसे कौन याद दिलाएगा शहडोल एक "घोषित संभागीय मुख्यालय" है यहां पर उपसंचालक स्तर के कर्मचारी अधिकारी का कार्यालय है, यह अलग बात है कि अधिकारी हमारे आदिवासी भाई हैं, किंतु उन्हें इस प्रकार से नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। उनकी अपनी एक अधिमान्यता कमेटी होनी ही चाहिए। जो अपनी स्वतंत्रता से अपने गुलाम सुनिश्चित करें.... ताकि सेवा कॉल मैं मरने के बाद उसे पेंशन मिल सके। इसे कॉर्पोरेट-जगत सम्मान निधि कहता है। किंतुुु जीते उसे अपेक्षित स्वास्थ्य सुविधाएं या अन्य सुविधाएं भी मिल सके। लोकतंत्र के कॉरपोरेटर्स को शहडोल संभाग को लेकर इतना भयभीत नहीं होना चाहिए थोड़ा विश्वास तो करिए
फिर यह एक अलग बात है कि यह चयनित कमेटी किसी रामराज, किसी बलराज, किसी धनराज, किसी माफिया राज का चयन करती है.... यह उसका हक होना ही चाहिए ...।
यही तो महात्मा गांधी की एक लाइन भी थी की अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति याने भरिया, बैगा, कोल आदि... आदि, सभी का विकास हो । पत्रकारिता में भी ऐसी जातिि समूहों के प्रतिनिधि मरने की कगार में खड़े हैं फिर चाहे वे दिनेश अग्रवाल हो, रघुवंश मिश्रा हो,त्रिलोकीनाथ हो, एसएन त्रिपाठी हो, अखिलेश पांडेे हो, अजय जायसवाल हो, विजय गुप्ता सूरज प्यासी सनत शर्मा रवि नारायण गौतम मोहन नामदेव अन्य कई नाम शहडोल संभाग में वर्षों से चौथे स्तंभ की सेवा कर रहे या फिर गैर पत्रकारों में गणेश गुप्ता , महेश कुशवाहा हो आदि आदि आखिर शहडोल के संभाग कमेटी चयन का अधिकार स्वतंत्रता का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए.... । आखिर अधिमान्यता की भीख सिर्फ रीवा संभाग के "भिखारियों" को क्यों दी जानी चाहिए... जबकि प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण शहडोल संभाग जागरूकता और रोजगार के अवसर आदि में भी रीवा संभाग से कहीं बड़ा योगदान रखता है..। हम में से कई लोगों को यह मालूम है ऑनलाइन कई आवेदनों को आज तक रीवा की चयन समिति ने कैसे गायब कर दिया..... या उनकी नजर में "आवेदन-कर्ता लोगच कारपोरेट का जूठ पाने के अधिकारी नहीं थे.... यह बात जनसंपर्क विभाग और उसे नियंत्रित करने वाला लोकतंत्र का कॉर्पोरेट क्योंं नही सोच पाया..... यह बेहद शर्म की बात है।
लेकिन इस शर्मा और हया तथा गुलामी की जिंदगी जीने वाला शहडोल क्षेत्र का पत्रकार भी क्या सोच पाता है..... यह भी देखना होगा ......।
पत्रकारिता के शहडोल संभाग की समूची पीढ़ी के लिए यह जीने और मरने का एक सबक भी है ... और चुनौती भी...! अधिमान्यता की भी और गुलामी की सूची में क्या कॉर्पोरेट जगत से अपना हक मांगने का साहस करता है ..?
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