मोहवश कन्या-धन आदि से जीवन चलाते हैं,
वे अधोगति को प्राप्त होते हैं...
विवाह सम्बन्धी तत्त्वों का निरूपण, आठ प्रकार के विवाह,
-देवउठनी एकादशी के बाद से विवाह केलिए रास्ते खुल गएvऔर विवाह होने के गुण तत्व कोvहम सामाजिक दृष्टिकोण से सामाजिक विकास क्रम में ही देखते हैं लेकिन इसका एक संपूर्ण आध्यात्मिक पक्ष है और सामाजिक विकास इस आध्यात्मिक पक्ष से प्रवाहित होता है अन्यथा मनुष्य होने की परिस्थिति में भी हम उसे सामाजिक विकास क्रम कोआगे नहीं बढ़ा रहे होते हैं वास्तव में जो मनुष्यता की परिधि में ईश्वर ने अवसर दिया है अन्यथा हम तमाम कीड़े-मकोड़े और पशुओं की भांति सिर्फ देह संबंधों का निर्वहन करने की परंपरा कर रहे होते हैं.और अलग-अलग प्रकार के पशु के रूप में मनुष्य होते हुए भी सिर्फ पशुता का व्यवहार करते हैं.वह किसी भी स्थिति में हमारे, विशेष कर ब्राह्मणों की विकास परउचित नहीं कहा जा सकता है और इसीलिए विवाह के बाद भी वैवाहिक संबंध अपने आधार के बिना अशांति तथा आधुनिक रूप से पशुता के प्रत्येक चिन्ह बन चुके दहेज और धन-प्रधान होने के कारण वैवाहिक संबंध नरक तुल्य हो जाते हैं तथा अशांति के कारण बन जाते हैं जबकि आध्यात्मिक पक्ष यदि प्रधान होता है तो यही जीवन सुख परिणत भी देता है जो वर तथा वधू पक्ष दोनों लिए वरदान साबित हो सकता है तो हम आध्यात्मिक पक्ष को समझने का प्रयास करें कि उन्होंने क्या निर्देश दिए हैं और उसे पर चलने का प्रयास करें क्योंकि आखिर हम इस परंपरा पर ही चल रहे हैं मूल स्थिति को क्यों न समझा जाए...? शायद इससे हमारे विवाह में किस चीज की प्रधानता होनी चाहिए इसको हम समझ सकें...?किंतु वर्तमान समय कल और परिस्थिति में इसका तालमेलहमारे ऊपर ही निर्भर करता हैकिंतु मूल धर्म कोसमझने में कोई हर्ज नहीं है.....
ब्रह्मावर्त, का वर्णन
ब्रह्माजी बोले- मुनीश्वरो। जो कन्या माता की सपिण्ड अर्थात् माता की सात पीढ़ीके अन्तर्गत को न हो तथा पिता के समान गोत्र की न हो, वह द्विजातियों के विवाह सम्बन्ध तथा संतानोत्पादनके लिये प्रशस्त मानी गयी है। जिस कन्या के भाई न हो और जिसके पिताके सम्बन्धमें कोई जानकारी न हो ऐसी कन्या से पुत्रि का धर्मकी आशंकासे बुद्धिमान् पुरुषको विवाह नहीं करना चाहिये। धर्म साधन के लिये चारों वर्णोंvको अपने-अपने वर्णकी कन्यासे विवाह करना श्रेष्ठ कहा गया है।
चारों वर्णो कि इस लोक और पर लोकमें हिता-हित के साधन करने वाले आठ प्रकार के विवाह कहे गये हैं, जो इस प्रकार हैं-ब्राह्म, दैव, आर्प, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पैशाच.
1-अच्छे शील स्वभाव वाले उत्तम कुल के वर को स्वयं बुलाकर उसे अलंकृत और पूजित कर कन्या देना 'ब्राह्य-विवाह' है।ब्राह्म-विवाहसे उत्पन्न धर्माचारी पुत्र दस पीढ़ी आगे और दस पीढ़ी पीछेके कुलोका तथा इक्कीसवाँ अपना भी उद्धार करता है।
2- यश में सम्यक् प्रकार से कर्म करते हुए ऋत्विको अलंकृत कर कन्या देने को 'दैव-विवाह' कहते हैं।दैव-विवाहसे उत्पन्न पुत्र सात पीढ़ी आगे तथा सात पीढ़ी पीछे इस प्रकार चौदह पीढ़ियोंका उद्धार करनेवाला होता है।
3- वर से एक या दो जोड़े गाय-बैल धर्मार्थ लेकर विधिपूर्वक कन्या देनेको 'आर्प-विवाह' कहते हैं।आर्प-विवाहसे उत्पन्न पुत्र तीन अगले तथा तीन पिछले कुलोंका उद्धार करता है
4- 'तुम दोनों एक साथ गृहस्थ-धर्मका पालन करो यह कहकर पूजन करके जो कन्यादान किया जाता है, वह 'प्राजापत्य-विवाह' कहलाता है।प्राजापत्य-विवाहसे उत्पन्न पुत्र छः पीछेके तथा छः आगेके कुलोंको तारता है।
5- कन्या के पिता आदि को और कन्या को भी यथाशक्ति धन आदि देकर स्वच्छन्दता पूर्वक कन्या का ग्रहण करना 'आसुर विवाह' है।
6-कन्या और वर की परस्पर इच्छा से जो विवाह होता है, उसे 'गान्धर्व विवाह' कहते हैं।
7-मार-पीट करके रोती-चिल्लाती कन्याका अपहरण करके लाना 'राक्षस विवाह' है।
8- सोयी हुई, मद से मतवाली या जो कन्या पागल हो गयी हो उसे गुप्तरूपसे उठा ले आना यह 'पैशाच' नामक अघम कोटिका विवाह है।
ब्राह्मादि आद्य चार विवाहों से उत्पन्न पुत्र ब्रह्मतेजसे सम्पन्न, शीलवान्, रूप, सत्त्वादि गुणोंसे युक्त, धनवान्, पुत्रवान्, यशस्वी, धर्मिष्ठ और दीर्घजीवी होते हैं। शेष चार विवाहोंसे उत्पन्न पुत्र क्रूर-स्वभाव धर्मद्वेषी और मिथ्यावादी होते हैं। अनिन्दित विवाहोंसे संतान भी अनिन्द्य ही होती है और निन्दित विवाहोंकी संतान भी निन्दित होती है। इसलिये आसुर आदि निन्दित विवाह नहीं करना चाहिये। कन्या का पिता वर से यत्किंचित् भी धन न ले।
वर का धन लेने से वह अपत्यविक्रयी अर्थात् संतान का बेचने वाला हो जाता है। जो पति या पिता आदि सम्बन्धी वर्ग मोह वश कन्या के धन आदि से अपना जीवन चलाते हैं, वे अधोगतिको प्राप्त होते हैं। आर्प-विवाह में जो गो-मिथुन लेने की बात कही गयी है, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि चाहे थोड़ा ले या अधिक, वह कन्याका मूल्य ही गिना जाता इसलिये वर से कुछ भी लेना नहीं चाहिये। जिन कन्याओं के निमित्त वर पक्ष से दिया हुआ वस्त्राभूषणादि पिता प्राता आदि नहीं लेते, प्रत्युत कन्याको ही देते हैं, वह विक्रय नहीं है। यह कुमारियों का पूजन है, इसमें कोई हिंसादि दोष नहीं है।
(उपरोक्त तत्व "ब्रह्मावर्त" से प्राप्त हुए हैं जिसे श्री निखिल कुमार त्रिपाठी ने उपलब्ध कराया है)
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