शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

तो क्या कॉलोनाइजर्स छोड़ेंगे आदिवासियों की जमीन

क्या पेसा एक्ट एक नया  ढपोल शंख है  ..?

कौन छोड़ रहा है तालाब ,जंगल और

आदिवासियों की जमीन को

    --------------( त्रिलोकी नाथ )------------------

  तो कॉलोनाइजर्स जो जमीन पर मकान बनाकर बेच रहे हैं क्या उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े नहीं होते जब आए दिन यह स्पष्ट होता है कि संबंधित कॉलोनी की जमीन जिसमें कई लोगों ने जमीन खरीदी है मकान बना लिए हैं दरअसल में जमीन किसी आदिवासी की है ।और वह आदिवासी अब अपनी जमीन पाने के लिए धारा 170 की कार्यवाही के तहत आवेदन लगाकर जमीन हथिया सकता है। जबकि गलती मकान क्रेता की कहीं भी नहीं होती है। अगर उसे वकायदे कालोनाइजर्स के जरिए सरकारी तमाम अनुमति यों को प्राप्त करने के बाद तमाम प्रकार के नगरपालिका की अनुमतियों को प्राप्त करने के बाद उस पर मकान बनाकर कॉलोनाइजर्स अपने मकानों को बेचते हैं ।

तो आखिर यह जिम्मेदारी किसकी है कि जिन कॉलोनाइजर्स कालोनियों में मकान बनाकर बेच रहे हैं और उस पर अगर 170 का आदिवासियों की भूमि होने के प्रमाण नजर आते हैं तो उस पर कार्यवाही किन व्यक्तियों पर होनी चाहिए ...? उन व्यक्तियों पर या उन अधिकारियों पर क्यों नहीं होनी चाहिए जो आम जनता को उनकी जीवन भर की कमाई के जरिए खरीद की गई जमीन पर उनके अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। क्योंकि संबंधित जमीन कभी तालाब है की  जंगल रहा है अथवा आदिवासियों की भूमि रही है।

 तालाब वाले भूमियों पर स्पष्ट तौर पर कई कालोनियां बन गई हैं शासन और प्रशासन संबंधित तत्कालीन पदाधिकारी क्या एक बड़े अपराधी की तरह नहीं देखा जाना चाहिए जिनके कार्यकाल में तालाबों को नष्ट किया जा रहा है  ..?बावजूद इसके की तमाम कानूनी तथ्यों को छुपाकर ऐसी कालोनियों को खड़ा करने में भ्रष्टाचार का बंदरबांट "ना खाऊंगा ना खाने दूंगा" के पारदर्शी सिद्धांतों के खिलाफ रहा है। यह अलग बात है कि दोनों ही पक्ष मिलकर यह जोर से बोलते हुए कि मैं ना खाऊंगा ना खाने दूंगा जमकर उसे परिभाषित करते हैं कि जमकर खाओ और खाने दो । 

हाल में जिस प्रकार से मुख्य मार्गों से लगी हुई शहडोल क्षेत्र की जमीनों में कॉलोनाइजर्स अथवा व्यक्ति विशेष नव धनाढ्य वर्ग आदिवासियों की जमीन खरीद कर जानबूझकर के भ्रामक तरीके से जमीनों को बेचने का काम करता है अथवा उस पर कमर्शियल कंपलेक्स का निर्माण करता है और पकड़े जाने पर बजाय इसके कि वह आदिवासियों को कोई निर्णायक निराकरण करें उस पर भ्रष्टाचार के अवसर  ढूंढता है बल्कि जमकर भ्रष्टाचार की बीमारी को पैदा करता है इसी श्रेणी में कई एनजीओ को जमीने फ्री में मिल जाती हैं। कई तालाबों नष्ट हो जाते हैं और कई व्यवसाई उलझ कर रह जाते हैं।

 इस दौर में देखा गया है कि जमुआ, गोरतरा ,सौखी, कोटमा, बलपुरवा, कुदरी, चांपा, पुरानी शहडोल, पचगांव व नगर के आसपास इसी तरह शहडोल संभाग के अन्य नगरों के आसपास आदिवासियों की जमीनों पर गैरकानूनी कब्जे की बढ़त हो रही है। और उसमें आदिवासियों को राहत दिलाने में सरकारी कर्मचारियों की सांस फूल जाती है।

 क्योंकि सच्चाई तो यही है कि इन्हीं सरकारी कर्मचारियों के संरक्षण में और विभिन्न कानूनों का पालन करके तालाबों की झुग्गी झोपड़ी जंगलों की और आदिवासियों की जमीनों को नष्ट करने का काम किया गया था ।ग्राम जमुआ में बहुचर्चित बैगा परिवार के जमीन पर ज्ञानी गुप्ता, राजेश गुप्ता ,शिव मोटर्स ,संजय जैन, गुड्डू रस्तोगी, और वकीलों की एक बड़ी जमात समेत सत्ताधारी दलों के तमाम लोगों की ऐसी जमीनों विशेष पर कब्जा प्रमाणित हो रहा है ।कुछ मामलों में न्यायालय ने स्थगन भी जारी किया है। किंतु इससे मामले का निराकरण होता नहीं दिखाई देता है। बल्कि आदिवासी परिवार की गरीबी पर भार बढ़ जाता है। ऐसे में पेसा एक्ट कितना राहत देता दिखाई पड़ता है।

पिछले दिनों पूर्व शासकीय अधिवक्ता उठाई थी बातें


 हाल में पिछले दिनों पूर्व जिला शासकीय अधिवक्ता संदीप तिवारी ने पत्रकार वार्ता करके इस और शासन का ध्यान आकृष्ट किया था कि किस तरह से पावरफुल लोग शासकीय जमीन आदिवासियों की जमीनों पर और तालाबों  जो  झुड़पी जंगल पर अपना अधिपत्य बना रखा है। बावजूद इसके कि न्यायालय ने भी कुछ फैसले किए हैं उनका पालन कराए जाने पर कोई रुचि नहीं लेता दिखाई देता है। जिससे न्याय भी भटकता नजर आ रहा है।

 और लोकतंत्र की विशेषता खत्म होती दिख रही है कि कुछ शहडोल में स्थापित नव धनाढ्य पूंजीपति वर्ग के लिए कानून अलग है और गरीब परिवार आदिवासियों के लिए कानून अलग है।

 बहरहाल अब नए इवेंट के जरिए करीब 25 साल पहले बने पेशा कानून को क्रियान्वयन में लाने सरकारी पहल भी एक ढकोसला ना बन जाए इसके लिए जागरूकता भी चलाई जा रही है लेकिन उन मामलों में कैसे पहल होगी जिस मामले में कोई सरकारी पद पर बैठा हुआ व्यक्ति यह जानकर भी कि वह अवैध काम किया है उसने तालाब पर, आदिवासियों की जमीन पर गैरकानूनी तरीके से कब्जा बना रखा है इसका निराकरण जब तक प्राथमिक संदेश के रूप में जमीन पर नहीं जाता है तमाम जागरूकता के कार्यक्रम सिर्फ ढपोलसंख साबित होकर रह जाएंगे।

 इसलिए बेहतर होता कि संवैधानिक पदों पर जो लोग बैठे हैं चाहे वे साक्षी कर्मचारी अथवा शासकीय पदों पर कार्य कर रहे हो नगर पालिका के पार्षद अथवा सांसद विधायक को सबसे पहले उन्हें ही इस बात का शपथ पत्र देना चाहिए कि उनके द्वारा कहीं भी अवैध कार्य नहीं किया गया है और यदि ऐसा पाया जाता है तो उनके पद से उन्हें हटाने की कार्यवाही की जाए। यह कुछ इस प्रकार का ही जागरूकता कार्यक्रम होगा जैसे कि चुनाव आयोग, स्थानीय निर्वाचन आयोग के पहल पर इस प्रकार की शपथ ली गई थी कि यदि उन्होंने गलत शपथ देकर जानकारी छुपाई है तो उनके पद को उनके पद से हटा दिया जाएगा किंतु और इससे जागरूकता का बड़ा संदेश भी जाएगा की कार्यपालिका अथवा विधायिका या फिर न्यायपालिका के लोग कर्तव्यनिष्ठ होकर बनाए गए कानूनों का पूरा सम्मान कर रहे हैं।

 अन्यथा जागरूकता के नाम पर कोई खास प्रभाव पड़ता दिखाई नहीं देता है क्योंकि सब जानते हैं किशन ढोल नगर विशेष में आसपास बनने वाले तमाम कॉलोनाइजर्स इसी अवैध निर्माण के दायरे में काम कर रहे हैं ।और तमाम सरकारी कर्मचारी कई सरकारी कर्मचारी इन्हीं अवैध निर्माण पर निर्मित मकानों को खरीद कर चंगुल में फंस रहे हैं। 

हलांकि पेसा एक्ट लागू होने के बाद अभी तक कोई मामला प्रदर्शित नहीं हुआ है किंतु जब यह विस्फोटक तरीके से सामने आएगा तब ग्राम सभा के अशिक्षित ,  अर्धशिक्षित और कानून की पर्याप्त समझ न रखने वाले सिस्टम को इन मामलों में निराकरण करने में भारी परेशानी जाएगी। और दूसरा पक्ष भी लगातार प्रताड़ित और परेशानी से घिरा रहेगा तो यह किस प्रकार के समाज का निर्माण किया जा रहा है यह बड़ी चिंता की बात है



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