गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

टीआरपी चोरी ने पत्रकारिता की पुनः हत्या... (त्रिलोकीनाथ)



 मंजा कोल मारा गया, कोई नई बात नहीं...1
टीआरपी चोरी पर इलेक्ट्रॉनिक चैनल ने 
पत्रकारिता की पुनः  हत्या

(त्रिलोकीनाथ)

तो करीब 34 साल पहले मैंने यह  बड़ी रिपोर्टिंग की थी.... एक आदिवासी मंजा को कि ट्रक में दब जाने के कारण कोयला माफिया की राजनीति को उजागर करने का प्रयास किया था।

तब से लेकर आज तक पत्रकारों के लिए मध्यप्रदेश शासन द्वारा बनाई गई पत्रकारों के हित में  "गरीबी रेखा की सूची"  में  मेरा नाम  स्वाभाविक रूप से  दर्ज नहीं हुआ। हाल में हमारे एक वरिष्ठ पत्रकार का नाम इस "गरीबी रेखा की सूची" में दर्ज किया गया। उनकी उम्र करीब 64 साल की है। वे एक स्थानीय समाचार पत्र के लिए निष्ठावान तरीके से काम करते रहे। "गरीबी रेखा की सूची" में नाम आने के  बाद उन्होंने  60 वर्ष की उम्र हो जाने के पश्चात सरकारी सहायता कथित पेंशन राशि के लिए आवेदन किया, उन्हें जवाब आया कि उस गरीबी रेखाा की सूची में नाम दर्ज यानी "मान्यता" मिल जाने के बाद कि आप  अंधी सरकार की आंखों में  दिखने लगे हैं... ।प्रमाणित हो जाने के साथ 10 वर्ष बाद से आपको कथित पेंशन राशि दी जाएगी। इस तरह अगर वरिष्ठ पत्रकार  10 साल और जीवित रहे यानी जीवन की ग़ैरांटी के बाद  उन्हें  सरकारी सहायता मिलेगी।
 सरकार यह मानती है कि जो भी पैसा अखबार वालों को उनके तथाकथित "प्रसार संख्या सरकुलेशन" के आधार पर मिलते हैं वे पत्रकारों के और संस्था के लिए ही देने के लिए होते हैं।
 और कड़वा सच यह है की जमीनी पत्रकारों को यह पैसा कभी नहींं मिलता। चाहे वे अपना जीवन उस अखबार मेंं ही क्यों न गुजार दें। कम से कम आदिवासी क्षेत्रों में यह शपथ देकर भी बात कही जा सकती हैं। तो मध्यप्रदेश में पत्रकारिता का "मंजा कोल 34 साल पहलेे भी माफिया गिरी में मारा ही जाता रहा है, यह कोई नई बात नहीं...
 सरकुलेशन...
 अखबारी सरकुलेशन मे  शासन और प्रशासन के  माफिया गिरी में  भ्रष्टाचार का बड़ा  फंड रहा है। ठीक है इसी प्रकार  जैसे  आज मुंबई पुलिस कमिश्नर परमवीर ने  प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए  भारतीय पत्रकारिता की  विशेषकर  इलेक्ट्रॉनिक चैनल के पत्रकारिता की  रीढ़ की हड्डी में वार किया है।  कि किस प्रकार से  वे  टीआरपी के जरिए  420  का काम करते रहें । 





















यह कोई नई बात नहीं है  जब से  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का चलन हुआ है  वहां भ्रष्टाचार  के शॉर्टकट रास्ता आधार पर ही  विकसित होती चली आई है। तो आइए जानते हैं टीआरपी का धंधा क्या है






































और अब यह इसलिए सामनेे लाई गई क्योंकि बेहिसाब पैसा पत्रकारिता की सभी नैतिक मर्यादाओं को तोड़ कर पुलिस को उसकी औकात बताने लगा। तो यह एक प्रकार की वैसे ही हालात हैं जैसे कभी शहडोल मेंं कोल माफिया संरक्षण देने वाला राजनीतिज्ञ जब कमजोर हो गया तो उसे ही चुनौती मिलने लगी और मारा गया आदिवासी क्षेत्र का मंजा कोल.... ।
इस तरह महाराष्ट्र की राजनीति इलेक्ट्रॉनिक चैनल्स की माफिया गिरी मे टीआरपी का खेल का पर्दाफाश हो गया। और यह कोई नई बात नहीं है अखबारों की दुनिया में नेता और अधिकारी मिलकर ना जाने कितने ऐसे भ्रष्टाचारियों को बचाते रहे हैं और पत्रकारिता के संसाधन की खुली लूट कर उसकी हत्या करते ही रहे हैं यह कोई नई बात नहीं है... उसका एक अहम कारण यह है की पत्रकारिता नामक अदृश्य लोकतांत्रिक स्तंभ को अभी तक उसकी स्वतंत्रता पूर्ण पारदर्शी कार्यप्रणाली को माफियाओं ने चाहे वे राजनेताओं, कार्यपालिका हो या फिर विधायिका, न्यायपालिका उसे स्वतंत्र व निष्पक्ष स्थाई प्रशासन बनने ही नहीं दिया... जो विधि संगत तरीके से विनियमित हो ।
34 साल पहले क्षेत्र का आदिवासी मंजा कोल मारा गया था माफिया गिरी में, मुंबई पुलिस के  पर्दाफाश से पुन: पत्रकारिता का मंजा कोल मारा गया है कोई नई बात नहीं...        

      आजादी के 7 दशक बाद भी जहां 90% से ज्यादा पत्रकार समाज के लोग "गरीबी रेखा की सूची" में यानी "मान्यता" शामिल नहीं किए जा सके हैं वही मुट्ठी भर चोर पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारिता का नकाब पहनकर पत्रकारिता की हत्या करते हैं| और जवाब  दे लोग इसे ही अपनी ताकत समझते हैं  जो पत्रकार समाज को मित्र नहीं मानते, उनके लिए यह वरदान है|  वह सब लोकतंत्र के हत्या के आभासी लोग हैं, पत्रकार विहीन समाज में  लोकतंत्र की तानाशाही के कल्पना कार हैं..... टीआरपी की चोरी में पकड़ा गया एक शख्स भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पहला साक्षात्कार करने वाला योग्यतम पत्रकार चुना गया था.... रिपब्लिक टीवी  प्रधानमंत्री की पहली पसंद थी तो क्या पर्दाफाश किया गया है यह भी चिंता  की बात नहीं है...?
हम सब एक बेशर्म और बेहया लोकतंत्र के दर्शक दीर्घा में बैठे हुए लोग हैं |                    (  jaari-2)








 


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