सोमवार, 21 सितंबर 2020

"जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है।"

तानाशाही में पारित "कृषि-बिल" एक चुनौती

 डॉ0 लोहिया ने कहा था "जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है।"

(त्रिलोकीनाथ)


क्या सच में पीएम केयर्स फंड जैसी विवादित विषयों पर चर्चा ना हो, इसलिए संसद में विवाद पैदा करने और प्रोपेगेंडा इंडस्ट्री को खड़ा करने का काम हो रहा है ताकि किसान जमीन पर विवाद में उलझा रहे, तो कॉर्पोरेट जगत सत्ता पर कब्जा बनाए रखें....?

क्या विश्व के सबसे बड़े लोकप्रिय नेता होने का दावा इसी ढपोलशंख विवाद पर आधारित है....

क्या कल राज्यसभा एक समाजवादी सभापति के नेतृत्व में आवारा हो गई थी....


यह प्रश्न इसलिए उठता है कि डॉ राम मनोहर लोहिया के विचारधारा से निकला हुआ कोई हरिवंश  जब राज्यसभा की संसद में सभापति होता है तो वह मानसिक तौर पर इतना गुलाम भी हो जाता है कि उसे यह ज्ञात नहीं रहता की संसद की मर्यादा एक सदस्य की मांग पर टिकी होती है..? और यदि कई सदस्य कृषि बिल पर अगर मत विभाजन की मांग कर रहे थे तो बजाय मत विभाजन करने के शॉर्टकट के जरिए कृषि बिल क्यों पारित करवा दिया ...? यह जानकर के भी की एक कृषि मंत्री हरसिमरत कौर ने इसी मुद्दे पर असहमति जताते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था...

हम या यह आजाद देश गांधी की भी विरासत है जिन प्राक्कथन  बहुत साफ था आजादी तब तक नहीं  जब तक  देश की  अंतिम पंक्ति के  अंतिम नागरिक  को आजादी नहीं....

 क्या हरिवंश विवेकहीन हो गए थे...?


कि सिर्फ पौने तीन सौ संसद सदस्यों का भय उन्हें सता रहा था। अथवा उपसभापति हरिवंश की निष्ठा कॉर्पोरेट घरानों से हो चली थी...? आखिर प्रत्येक "असहमति" पर उन्होंने सम्मान का नजरिया क्यों नहीं अपनाया..? हो सकता है कॉर्पोरेट सिस्टम से चलने वाली मोदी सरकार द्वारा  प्रस्तावित कृषि बिल कॉर्पोरेट घराने का होने के बाद भी आंशिक सुधार के बाद सहमति के साथ पारित हो जाता ....

क्या कोरोना की महामारी में ही किसानों के आंदोलन को भीड़ इकट्ठा करके किसानों में बीमारी फैलाने का तरीका अपनाया गया ....? अगर यह राजनीति थी ...? तो बहुत ही निंदनीय निकृष्ट वा पतित राजनीति है।

 तो क्या समझे, क्या राज्यसभा कि संसद आवारा हो गई थी, क्या डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने इसी दिन के लिए कहा था कि "जब सड़कें सूनी हो जाते हैं तो संसद आवारा हो जाती है।

 आवारा संसद क्यों हुई यह जानने के लिए एक व्हाट्सएप मैसेज को समझना चाहिए हो सकता है यह एक पक्ष हो किंतु इस प्रश्न का भी सम्मान क्यों नहीं हुआ....? क्या सरकार की मंशा कोरोनावायरस से भी ज्यादा खतरनाक लक्ष के लिए काम कर रही है उसे जल्दबाजी क्या थी अब जो प्रधानमंत्री पूरे विपक्ष को किसानों के बरगलाने का आरोप लगाकर संसद की आवारगी को जायज ठहरा रहे हैं बेहतर होता हरवंश समाजवादी पृष्ठभूमि के ना होकर आर एस एस के पृष्ठभूमि के होते हैं तब उनसे कोई शिकायत ना होती....!


किसानों को लेकर जिन तीन बिलों पर आज राज्यसभा में बहस हो रही है, उसे सरल भाषा में समझिये।

कृषि संबंधी विधेयक पर मचा है बवाल

सोमवार को लोक सभा में तीन बिल पेश किए गए, मंगलवार को उनमें से एक बिल पास हो गया और बाकी दो विधेयक कल यानी गुरुवार को पारित हुए लेकिन इस पर हंगामा मच गया।

ये हैं वो 3 बिल

  • पहला बिल है : कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) बिल
  • दूसरा बिल है : मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण बिल)
  • तीसरा बिल है : आवश्यक वस्तु संशोधन बिल

किसानों के लिए वरदान है ये विधेयक: केंद्र सरकार

  • सरकार के मुताबिक ये विधेयक किसानों के लिए वरदान है।
  • इस विधेयक का उद्देश्य किसानों को उपज के लिए लाभकारी मूल्य दिलाना है जो कि खुद किसान सुनिश्चित करेंगे।
  • नए विधेयकों के मुताबिक अब व्यापारी मंडी से बाहर भी किसानों की फसल खरीद सकेंगे।
  • पहले फसल की खरीद केवल मंडी में ही होती थी लेकिन अब मंडी के बाहर भी खरीद-फरोख्त हो पाएगी।
  • केंद्र ने अब दाल, आलू, प्याज, अनाज और खाद्य तेल आदि को आवश्यक वस्तु नियम से बाहर कर दिया है।
  • केंद्र ने कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग (अनुबंध कृषि) को बढ़ावा देने पर भी काम शुरू किया है।

1. पहला बिल- जिस पर सबसे अधिक बात हो रही है कि अब किसानों की उपज सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बिकेगी, उसे बड़े व्यापारी भी खरीद सकेंगे। 

यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि आखिर ऐसा कब था कि किसानों की फसल को व्यापारी नहीं खरीद सकते थे। बिहार में तो अभी भी बमुश्किल 9 से 10 फीसदी फसल ही सरकारी मंडियों में बिकती है। बाकी व्यापारी ही खरीदते हैं।

क्या फसल की खुली खरीद से किसानों को उचित कीमत मिलेगी? यह भ्रम है। क्योंकि बिहार में मक्का जैसी फसल सरकारी मंडियों में नहीं बिकती, इस साल किसानों को अपना मक्का 9 सौ से 11 सौ रुपये क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल था।

चलिये, ठीक है। हर कोई किसान की फसल खरीद सकता है, राज्य के बाहर ले जा सकता है। आप ऐसा किसानों के हित में कर रहे हैं। कर लीजिये। मगर एक शर्त जोड़ दीजिये, कोई भी व्यापारी किसानों की फसल सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत में नहीं खरीद सकेगा। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर हां, तभी माना जायेगा कि वह सचमुच किसानों की हित चिंतक है।

2. दूसरा बिल- कांट्रेक्ट फार्मिंग। जिस पर उतनी चर्चा नहीं हो रही है। इसमें कोई भी कार्पोरेट किसानों से कांट्रेक्ट करके खेती कर पायेगा। यह वैसा ही होगा जैसा आजादी से पहले यूरोपियन प्लांटर बिहार और बंगाल के इलाके में करते थे। 

मतलब यह कि कोई कार्पोरेट आयेगा और मेरी जमीन लीज पर लेकर खेती करने लगेगा। इससे मेरा थोड़ा फायदा हो सकता है। मगर मेरे गाँव के उन गरीब किसानों का सीधा नुकसान होगा जो आज छोटी पूंजी लगाकर मेरे जैसे नॉन रेसिडेन्सियल किसानों की जमीन लीज पर लेते हैं और खेती करते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर भूमिहीन होते हैं और दलित, अति पिछड़ी जाति के होते हैं। वे एक झटके में बेगार हो जायेंगे। 

कार्पोरेट के खेती में उतरने से खेती बड़ी पूंजी, बड़ी मशीन के धन्धे में बदल जायेगी। मजदूरों की जरूरत कम हो जायेगी। गाँव में जो भूमिहीन होगा या सीमान्त किसान होगा, वह बदहाल हो जायेगा। उसके पास पलायन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा। 

3. तीसरा बिल- एसेंशियल कमोडिटी बिल।

इसमें सरकार अब यह बदलाव लाने जा रही है कि किसी भी अनाज को आवश्यक उत्पाद नहीं माना जायेगा। जमाखोरी अब गैर कानूनी नहीं रहेगी। मतलब कारोबारी अपने हिसाब से खाद्यान्न और दूसरे उत्पादों का भंडार कर सकेंगे और दाम अधिक होने पर उसे बेच सकेंगे। हमने देखा है कि हर साल इसी वजह से दाल, आलू और प्याज की कीमतें अनियंत्रित होती हैं। अब यह सामान्य बात हो जायेगी। झेलने के लिए तैयार रहिये।

कुल मिलाकर ये तीनों बिल बड़े कारोबरियों के हित में हैं और खेती के वर्जित क्षेत्र में उन्होने उतरने के लिए मददगार साबित होंगे। अब किसानों को इस क्षेत्र से खदेड़ने की तैयारी है। क्योंकि इस डूबती अर्थव्यवस्था में खेती ही एकमात्र ऐसा सेक्टर है जो लाभ में है। अगर यह बिल पास हो जाता है तो किसानी के पेशे से छोटे और मझोले किसानों और खेतिहर मजदूरों की विदाई तय मानिये। मगर ये लोग फिर करेंगे क्या? क्या हमारे पास इतने लोगों के वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था है? 

होना तो यह चाहिए था की प्रस्तावित बिल की एक-एक प्रति किसी भी तरीके से ग्रामसभा के जरिए ग्राम पंचायत से प्रस्ताव पारित कराकर आम सहमति लिया जाना चाहिए। आखिर जिसके लिए आप बिल बना रहे हैं उसे बिना जानकारी दिए उसके अजीबका पर आप कैसे निर्णय ले सकते हैं ...?


सिर्फ इसलिए की एन-केन-प्रकारेण आपने भारतीय संसद पर अपना एकाधिकार कर लिया है...? यह भारतीय संसद की खुली अवमानना है किंतु इससे भी बड़ा सवाल कि भारत का शोषित दलित और पीड़ित कृषक समाज गांव किसान देहात मजदूर क्या अपने अधिकारों के लिए जागरूकता के साथ खड़ा होकर इस बिल में बहस करने के लिए जरा भी सतर्क है अथवा वह भीख में दी हुई अनुदान ऊपर गुलामी के साथ जीना सीख लिया है...?

अथवा कोई महान किसान नेता महेंद्रसिंह टिकैत जैसा व्यक्ति दिल्ली की गलियारों में या जिला मुख्यालयों में किसानों का हुजूम लेकर आगामी 25 तारीख को धरना आंदोलन का बड़ा संदेश देगा काश ऐसा होता तो एक आशा जीवित होती कि देश वैचारिक मंथन पर गुलाम बनने को तैयार नहीं



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