गांधी की ताकत को
कमजोरी में बदलता
आज का लोकतंत्र..
(त्रिलोकीनाथ )
प्रसिद्ध गाने के बोल
"100 साल पहले मुझे तुमसे प्यार था , आज भी है और कल भी रहेगा ..."
महात्मा गांधी के साथ कुछ इसी प्रकार का प्रेम बरकरार है लेकिन लगता है कुछ लोग उनकी भावनाओं मैं निहित लोकतांत्रिक ताकत को कमजोरियों मैं बदल कर देश को गुलाम बनाने का काम कर रहे हैं
बहरहाल इसके ठीक पहले संकलनकर्ता ने उनकी पत्रिका "हरिजन" के 18 जनवरी 1948 को तब ऐसा वातावरण नहीं रहा होगा जैसा अभी है। उन्होंने लिखा
" सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए 20 आदमी नहीं चला सकते वह तो नीचे से हर एक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए"
देश की आजादी के बाद उनकी यह विचार तत्कालिक और दूरदर्शी थे। उन्होंने भीड़ के राज्य पर विस्तार से प्रकाश डाला है। 28 जुलाई 1920 यंग इंडिया में लिखते हुए उन्होंने कहा
"मैं खुद को सरकार की नाराजगी का इतनी परवाह नहीं करता जितनी भी कि भीड़ नाराजी का। भीड़ की मनमानी राष्ट्रीय बीमारी का लक्षण है। और इसलिए सरकार की नाराजगी की- जो अल्पकाय संघ तक ही सीमित होती है -तुलना में उससे निपटना ज्यादा मुश्किल है। ऐसी किसी सरकार को, जिसने अपने को शासन के लिए अयोग्य सिद्ध कर दिया हो अपदस्थ करना आसान है लेकिन किसी भीड़ में शामिल अनजाने आदमियों का पागलपन दूर करना ज्यादा कठिन है।"(28.7.1920)
उन्होंने यंग इंडिया में ही 8 सितंबर 1920 को इस पर और प्रकाश डाला, गांधी कहते हैं
" भीड़ को अनुशासन सिखाने से ज्यादा आसान और कुछ नहीं है। कारण सीधा है। भीड़ कोई काम बुद्धि पूर्वक नहीं करती है, उसकी कोई पहले से सोची हुई योजना नहीं होती ।भीड़ के लोग जो कुछ करते हैं सो आवेश में करते हैं। अपनी गलती के लिए पश्चाताप भी वे जल्दी करते हैं। मैं असहयोग का उपयोग लोकशाही का विकास करने के लिए कर रहा हूं।"(8.9.1920)
"हमें इन हजारों लाखों लोगों को, जिनका हृदय सोने का है, जिन्हें देश से प्रेम है, जो सीखना चाहते हैं और यह इच्छा रखते हैं कि कोई उनका नेतृत्व करें, सही तालीम देनी चाहिए।"
"केवल थोड़े से बुद्धिमान और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की जरूरत है। यह मिल जाए तो सारे राष्ट्र को बुद्धि पूर्वक काम करने के लिए संगठित किया जा सकता है तथा भीड़ की अराजकता की जगह सही प्रजातंत्र का विकास किया जा सकता है। "(22.9.1920)
" सरकार की ओर से या प्रजा की ओर से आतंकवाद चलाया जा रहा हो तब लोकशाही की भावना की स्थापना करना असंभव है। और कुछ अंशों में सरकारी-आतंकवाद की तुलना में प्रजाकीय-आतंकवाद, लोकशाही की भावना के प्रसार का ज्यादा बड़ा शत्रु है । कारण, सरकारी-आतंकवाद से लोकशाही की भावना को बल मिलता है जबकि प्रजाकीय-आतंकवाद तो उसका हनन करता है ।"(23.2.1921)
इस तरह महात्मा गांधी अपने अनुभवों को आज से 100 साल पहले लिपिबद्ध कर रहे थे जैसे उन्हें भारत की आजादी दिख गई थी जैसे वर्तमान सत्ता का अद्यतन 100 साल पहले दिख गया था। किंतु वे उसे संभालेंगे कैसे इस पर उनका चिंतन और मनन लगातार जारी था।प ठीक आज से 100 साल पहले मोहनदास करमचंद गांधी अपनी पत्रकारिता के सहारे कभी यंग इंडिया में तो कभी हरिजन में अपनी भावनाओं को और काल्पनिक आजाद भारत के लिए ताना-बाना रचते रहते थे। और पत्रकारिता तथा महात्मा गांधी का यह संयोग भारत की आजादी के कपाट क्रम से संघर्ष पूर्ण तरीके से खोल रहा था। देश की आजादी के 20 वर्ष पहले महात्मा गांधी ने आजाद भारत खुद देख लिया था उसकी बुराइयां भी उन्हें नजर आ गई थी इसीलिए उनकी हर बातें लगभग लिपिबद्ध हो रही थी।
"ताकि लिख दिया वक्त में काम आवे" के अंदाज पर उन्हें कोई गलत साबित न कर सके। और यह उनका ही कॉन्फिडेंस था, आत्मविश्वास रहा कि 20 वर्ष पहले वे आजाद भारत कैसा रहना चाहिए इस पर काम प्रारंभ कर दिए थे।
फिर कभी "तेरा तुझको अर्पण" में गांधी जी की बातें किसी ने विषय पर लेकर प्रकट होंगे। तब तक आप गांधी को मंथन करते रहिए उन्हें गुथते रहिए.., क्योंकि गांधी से गुथने का मतलब संपूर्ण स्वतंत्रता है और लाखों लोगों की बलिदान से निकली आजादी है अभी आपके ऊपर है कि आप तय करें आप गुलाम रहना चाहते हैं या स्वतंत्र...., अथवा स्वतंत्र भारत नामक स्थान पर गुलाम नागरिक.....
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