गुरुवार, 7 मई 2020

वक्त के मिजाज की सीख... भाग-2 चौराहे में व्यवस्था, व शैक्षणिक गुणवत्ता एक चिंतन--- (त्रिलोकीनाथ)

वक्त के मिजाज की सीख... भाग-2
सनातन विकास की रफ्तार
से क्यों हैं हम अछूत  .... 
अभी न जागे तो
कब जागेगें लोग.....
क्या भ्रष्ट सिस्टम,बाजारवाद
के बन गए गुलाम...



तो यह भी कि संभागीय मुख्यालय शहडोल मैं बीते 40 दिनों से गांधी चौक मैं बैठी हमारी प्रशासनिक व्यवस्था की पंचायत से हम क्या कुछ सीख पाए कि हम आज चौराहे में क्यों हैं
क्या इसके निष्कर्ष हैं इसे कैसे पर्यावरणीय दृष्टिकोण से संपूर्ण संपन्न और सत्यता के साथ धीरे से गतिमान करने की दिशा में हम आगे बढ़े क्योंकि परिस्थितियों ने अगर हमें चौराहे पर बैठाया है तो कुछ चिंतन के लिए हां यह वही चौराहा है जहां भारत के शीर्ष स्तर के नेताओं ने अपनी बात रखने का काम किया है नागरिकों को मार्गदर्शन करने का काम किया है फिर भी विजयाराजे सिंधिया रही अर्जुन सिंह रहे हो अथवा इसी प्रकार के हर छोटे-बड़े दिग्गज यही कई बार शरद यादव जैसे नेताओं ने लोगों से बात करने का अवसर पाया कोरोना कॉल मैं कई दिन से बैठा पुलिस और प्रशासन क्या जनप्रतिनिधियों के साथ तालमेल कर नए समाज को गतिमान करने का सोच रखता है यह भी एक चिंतन है
... तो दूसरी तरफ हमारे ब्यूरोक्रेट्स याने कार्यपालिका और विधायिका जो बंद चारदीवारी में रहकर अपने साम्राज्य का सपना देखती है उसके लिए भी एक अवसर है, कि वर्तमान परिस्थितियों में भविष्य के लिए क्या इन्होंने कोई सपना देखा है.... कम से कम जिसमें फिजूलखर्ची के कम अवसर हो, सामाजिक पर्यावरणीय समरसता का प्रवाह..., जो अभी उपलब्ध है, उसे कैसे अजीबका परक और सौंदर्य साली बनाकर रखने का कोई सोच, यह दोनों तंत्र मिलकर भी कुछ निष्कर्ष दे पाएंगे यह भी इन दोनों तंत्रों के लिए एक बड़ी चुनौती है.....? स्वयं को साबित करना और पर्यावरण संरक्षण जो धोखे से एक महामारी के चलते 21वीं सदी की पीढ़ी को देखने को मिला है।, उसे बचाकर कैसे रखा जाए और इसमें ही जीवन शैली में बेहतर आजीविका के अवसरों को कैसे तलाश किया जाए...?
क्या यह चिंतन की विषय सामग्री, इन दोनों तंत्र द्वारा    स्वस्थ अद्यतन पर्यावरण को बरकरार बनाए रखने की कोई सोच प्रकट कर पाएंगे...? 

यह भी देखना होगा अथवा श्रमिकों  के महापलायन के दौर में, महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो, भारत की अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्तियों के लिए, जो बीते 7 दशक के बाद आज भी उतना ही भयभीत आक्रांत  और अनजान आतंक से हजारों किलोमीटर पैदल भूखो चलकर अपने घर की ओर निकल पड़ा ......   

और हम और हमारा सिस्टम जो विकास के साथ 7 दशक पार कर चुका वह लगभग मूक और बधिर किंकर्तव्यविमूढ़ के हालात में अतिदलित अवस्था में स्वयं को खड़ा पाया..।
 और इस महापालायन में भूख तो भूख, प्रताड़ना और लगातार पैदल चल रही मानवीय आपदा का दौर जैसे एक अघोषित बना दी गई व्यवस्था भी है, अगर आज का संपूर्ण लोकतंत्र भी चाहे तो यह इस महापालायन की मानवीय आपदा को अपने वीडियो कैमरे में रिकॉर्ड नहीं कर सकता । 

क्योंकि लोग लगातार सिर्फ चल रहे हैं उन्हें उनके लोकतंत्र पर कोई भरोसा नहीं, उन्हें वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था होती संवेदनहीन औद्योगिकरण समाज से कोई राहत नहीं मिली.... हां कतिपय राजनीतिज्ञ
अपने अपने तरीके से लाखों करोड़ों रुपए के बड़े-बड़े कोष का निर्माण कर समाज सेवा का, अपने जीवन रक्षा के लिए बंद कमरे में बैठकर प्रयास करते दिखे....

. क्योंकि मजदूरों के पलायन में हम असफल और पूरी तरह से असफल रहे यह हमारे विश्व गुरु बनने के मार्ग पर हिमालय की तरह बाधा है यह भी एक चिंतन है।

 यह भी एक बड़ा विषयसामग्री है। वर्तमान चिंतन के लिये और यही विषयसामग्री हमारे शहडोल क्षेत्र जैसे हालात में जहां की अरबों-खरबों रुपए इस भारत को विकास के लिए अपना सीना चीर कर दिया है, बल्कि आज भी अपने अपने-तरीके से षड्यंत्र कर छोटा से छोटा माफिया और बड़ा से बड़ा उद्योगपति माफिया, प्राकृतिक संपदा को सिर्फ लूट रहा है और भ्रष्टाचारी समाज इनकी चाटुकारिता व्यस्त होकर स्वयं को स्वस्थ व निष्ठावान भारतीय नागरिक के दायित्व के रूप में पहचानने का प्रयास करता नहीं दिखा....? यह भी एक बड़ा विषय सामग्री है।
 अब सवाल यह है कि यदि संपूर्ण प्राकृतिक संसाधन अरबों-खरबों की संपदा से परिपूर्ण होने के बाद भी अगर शहडोल क्षेत्र में एक स्थिर विकास, विशुद्ध पर्यावरणीय परिस्थितियों के निर्माण में जो उसे वर्तमान में परिस्थिति-बस मिल गया है, उसमें आगे बढ़ने की रूपरेखा नहीं बना पा रहा है तो सभी घटक जो विकास क्रम से जुड़े हैं वे सिर्फ मानसिक रूप से अतिदलित, बेहद गुलाम और एक कायर समाज के अलावा शायद कुछ भी नहीं है....। यही हमारा आज का सत्य है। क्या हम इस सत्य से उबर कर अब तक कालिख लग चुके मानवीय समाज के चेहरे को कलंक मुक्त करने का काम करेंगे अथवा यूं ही फिर से निकल पड़ेंगे.....
 उस श्मशान से बाहर, जहां की हमारे नायकों ने लिपिबद्ध कर छोड़ा है कि,
माली आवत देखकर, 
कलियन करी पुकार..... 
फूले-फूले चुन लिए,
काल्हि हमारी बार.....


क्या हम सिर्फ एक हिंसक पशुतुल्य मानव समाज से मुक्त कम से कम दिखने वाले भ्रष्टाचार युक्त परिवेश से मुक्त, स्वस्थ मानव समाज की दिशा में आगे बढ़ने का रोड मैप तैयार नहीं कर सकते ....? यही कोरोना कॉल मैं आई आपदा की श्मशानी खामोशी का संदेश भी है।
(त्रिलोकीनाथ ,पर्यावरण मंच शहडोल)

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