रविवार, 12 अप्रैल 2020

वन मैन आर्मी की टेली कॉन्फ्रेंसिंग पत्रकारों को राहत नहीं.

ऐसे बीता सत्रहवां दिन


वन मैन आर्मी की टेली कॉन्फ्रेंसिंग पत्रकारों को राहत नहीं....
प्रतिनिधि पत्रकारों की तृप्ति को बधाई....

(त्रिलोकीनाथ)

हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपने शुरुआती कोरोना की 21 दिन के महायुद्ध में कहा था कि  महाभारत का युद्ध जो 18 दिन का था और यह युद्ध 21 दिन का है ।बहराल मध्यप्रदेश में शक्तिमान की सरकार चल रही है। वनमैन आर्मी सत्ता परिवर्तन में पूरी फोर्स रही या यूं कहें की मध्य प्रदेश की सत्ता परिवर्तन के नंगे-नाच में कोरोना ने उसी तरह प्रवेश किया भारत में जैसे कि अक्सर भारी बर्फबारी और आंधी तूफान याने प्राकृतिक आपदा के दौर में विदेशी दुश्मन किसी राष्ट्र में हमला कर देते हैं। क्योंकि तब राष्ट्र असहाय होता है। भारत में नकली आपदा थी जिसे राजनीतिक आपदा कहा जाना चाहिए था। पर होनी को कौन टाल सकता है......
 आपदा आ गई और बाद में शायद नासमझी के कारण यह आयात भी की गई...... बचा कुचा भारत की राजधानी मैं निजामुद्दीन के आधुनिक औलिया संत दिखने वाले लोगों ने मरकज से तबलीगी जमात के जरिए इसे देश के कोने कोने में पहुंचाने का काम किया........ क्योंकि यह कानून अनुशासन और मानवता को भी नहीं मानते थे, बहरहाल कानून और नैतिक आचार संहिता को ना मानने के कारण ही भारत इस नकली आपदा का शिकार हो गया। जिसे भारत की सीमाओं में और आंतरिक सुरक्षा पर रोका जा सकता था।
 हम विषयांतर हो जाएंगे अगर विलाप करने लगेंगे....  तो हम कह रहे थे कि मध्यप्रदेश की राजनीति एक मरकज रही है जहां की जमात ने हमें तकलीफ दी है... चाहे वह किसी भी दल की हो, चुंकी लोकतंत्र है इसलिए सत्ता परिवर्तन हुआ। 
 वन-मैन-आर्मी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी ने लॉकआउट के 17 में दिन तेरी कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संभाग स्तरीय चौथे स्तंभ के प्रतिनिधियों से कोरोना संकट पर चर्चा कर अंदर की समस्या को समझना चाहा...., क्योंकि टेली कॉन्फ्रेंसिंग के लिए जगह कम होती है ऐसे मैं चिन्हित लोगों को बुलाया जाता है। मुझे बताया गया की भोपाल से ही चिन्हित लोगों की सूची आई थी, कि किन्हे  बुलवाना है। शायद पूरे मध्यप्रदेश में यही प्रक्रिया अपनाई के रही होगी....?

 इसमें सच या झूठ से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है क्या पहुंचे चिन्हित लोग पत्रकारिता के दर्द को मुख्यमंत्री जी तक पहुंचा पाए....? शायद नहीं, या तो ज्ञान नहीं था या विवेक नहीं था या फिर उन्हें इस बात की खुशी थी और तृप्ति थी कि इस महा आपदा में महायुद्ध में वे सैनिकों की तरह अपने राजा के इर्द-गिर्द बैठने का सौभाग्य पा रहे थे और तृप्त हो रहे थे.....,

 जब व्यक्ति, व्यक्तिगत-तृप्ति में लग जाता है तो उसे पत्रकारिता, जैसी भी है उसकी वास्तविक समस्याओं को अपने राजा के सामने रखने में या तो हिम्मत नहीं होती.... या फिर वह प्रायोजित तरीके से इस हेतु बुलाया जाता है कि वह कुछ ना बोले.....
 कल "रामायण" में लंका में राम का प्रवेश हो चुका और युद्ध की तैयारी प्रारंभ हो गई थी तब रावण की सभा में पहला काम यह हुआ की आपदा की स्थिति पैदा कर दी गई... तमाम सभासदों को हटाकर सुनिश्चित लोग युद्ध के लिए तैयार किए गए... जिनका मुखिया महाराजा रावण ने अपने पुत्र मेघनाथ और अन्य लोगों को बनाया.... जो रावण की हां में हां मिलाते थे। राक्षस संस्कृति के बाद पतित-राजतंत्रों में हजारों साल यही होता है।
 और देश कभी मुगलों का गुलाम रहा तो कभी अंग्रेजों का। अब लोकतंत्र है, अलग प्रकार के राजभाठों का युग है....
 शायद मध्यप्रदेश के पत्रकारों से हमारे वन मैन आर्मी मुख्यमंत्री जी ने अवसर तो दिया, ताकि यह दिखे कि वे लोकतंत्र का पूरा पालन कर रहे हैं.... अब जब पत्रकारिता में  ताकत ही नहीं है, कि वह पत्रकारों की मूलभूत समस्याओं को उन्हें राहत पहुंचाने के लिए जिसने पत्रकार समाज आता है...।
 वह पत्रकार जोकि 70 साल से शोषण का शिकार है, वह पत्रकार जिसके बारे में हमारा लोकतंत्र यह मानता है कि किसी विधायक को सेवा के बदले मानदेय की सीमा लोकतंत्र के सबसे ज्यादा लाखों रुपए की धनराशि के रूप में की जानी चाहिए.... किंतु पत्रकारों को नहीं दिया तथाकथित भाचावत आयोग जैसे झुनझुना जरूर बजता रहा, क्योंकि पत्रकारों के ना तो पेट होता है, और ना ही प्यास लगती है, ना उन्हें संसाधन की जरूरत है, ना उनके पास मोटरसाइकिल है ना उनके पास पेन स्याही है ना सही सोचते हैं। और पत्रकार समाज हवा और पानी खाकर इस लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए भगवान हैं....?
 शायद इसी अवधारणा में जब टेली कॉन्फ्रेंसिंग में बात हो रही थी तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी यह झूठ सुनना चाहते थे कि समस्त  पत्रकारों की कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं है.... और संभाग स्तरीय टेली कॉन्फ्रेंसिंग में बैठे प्रतिनिधि पत्रकार भी उन्हें यह समझा पाने में सफल रहे कि पत्रकार हवा और पानी में जिंदा रहने वाला "कोरोना" से ज्यादा खतरनाक जीव है.... वह कहीं भी पनप सकता है, उन्हें किसी भी प्रकार की राहत की कोई आवश्यकता नहीं है... उसे किसी संसाधन की भी जरूरत नहीं है... कि वह बीते 70 साल बल्कि की आजादी के पहले जब कभी महात्मा गांधी ने हरिजन जैसा अखबार निकाल कर के समाज में अपने लोक ज्ञान के जरिए देश को आजाद देश बनाने तक का काम किया तब भी जरूरत नहीं थी.....?
 अब तो देश आजाद हो गया है किसी चीज की जरूरत नहीं है... कुछ इसी अंदाज में पत्रकार लोग समझा रहे थे और मुख्यमंत्री समझ रहे थे.....
 ठीक ही कहा है एक कवि ने  कि जब झूठ बोलने और सुनने वाले एक एक साथ अपनी बात कहें तो वह झूठ झूठ नहीं रहता वह सच हो जाता है। दिहाड़ी मजदूरों के जैसे जीवन यापन करने वाला आम पत्रकार समाज अपनी चित्त-वृत्तियों के कारण परेशान हैं.... चुकी वह पेशा भी इसी प्रकार से अपना लेता है इसलिए भी परेशान है... यह बात मुख्यमंत्री के सामने इसलिए नहीं रखी गई .....?
क्योंकि पत्रकारिता में शोषण करने वाला एक प्रकार का "कोरोना" स्थापित है ।
 और यही कारण है कि देश की आजादी के बाद से आज तक इस अज्ञात और विलुप्त "अदृश्य-चतुर्थ-स्तंभ" का अपना इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। और उसका शोषण आजादी के बाद एक सतत प्रक्रिया है ।

क्योंकि कोरोना महायुद्ध के 17 में दिन मुख्यमंत्री के टेलीकॉन्फ्रेंसिंग से यही सिद्ध हुआ है ....और कुछ नहीं।
 किंतु क्या एक मुख्यमंत्री को सिर्फ अपने राजभाट  पर मात्र भरोसा करना चाहिए  .... नहीं, यह दुनिया में आपदा का सर्वाधिक क्रूरतम काल है..., यदि स्थितियां हाथ में नियंत्रित नहीं रही तो तथाकथित चीन का "जैविक रासायनिक हथियार कोविड-19" डायनासोर युग की तरह ही मानवता की एक बड़े समाज को नष्ट कर देगी...? ऐसे कार्यकाल में भी यह दिन लोकतंत्र में वास्तविक पहचान करके जरूरतमंद पत्रकार, गैरपत्रकार और पत्रकारों के सूत्र, जो पत्रकारों के भरोसे काम करते थे... उस समाज को राहत नहीं पहुंचाई गई.., जो उसके कीमती मनोवैज्ञानिक चित्तवृत्ति को पोषण करने की गारंटी दे... विशेष तौर से पूंजीवादी होती व्यवस्था में पत्रकारिता की सुरक्षा के लिए लिए गए कर्ज में फंसे पत्रकार समाज को राहत पहुंचाने का काम क्या हमारे वन मैन आर्मी मुख्यमंत्री जी कर पाएंगे ....?   
अगर नहीं, कर पाते हैं तो बुहान का वायरस हमारे समाज को तो खत्म कर ही रहा है.. हमारे मुख्यमंत्री भी उसके साथ कदम से कदम मिलाकर अप्रत्यक्ष रूप में पत्रकार समाज को खत्म करने का काम करेंगे .... ऐसी मेरी कोरी कल्पना है। और एक झूठी सोच भी  ईश्वर करें ऐसा ही हो ।अन्यथा जब टेली-कॉन्फ्रेंसिंग हो रही थी तो एक भी पत्रकार मुख्यमंत्री को यह बताने में क्यों फेल हो गया कि पत्रकार समाज को राहत की जरूरत है..., उसे आर्थिक पैकेज की जरूरत है ... कम से कम 6 माह के लिए ....ताकि पत्रकारिता का जो मनोवैज्ञानिक चिंतन है वह बचा रहे जाए ....अन्यथा सब गुलाम हो जाएंगे। देश भी...
 हो सकता है टेली कॉन्फ्रेंसिंग पर मुख्यमंत्री से बातचीत कर रहे पत्रकार प्रतिनिधिगण सर्व संपन्न हो. इसके बावजूद भी इस झूठ पर मुख्यमंत्री को यकीन करना चाहिए और यह निर्णय लेना चाहिए, समस्त प्रतिनिधि पत्रकारों को छोड़कर... क्योंकि वे तृप्त है...?, अन्य पत्रकार समाज को तत्काल राहत पहुंचाने के कदम उठाने चाहिए.... ऐसी इस महायुद्ध में हमारी सोच है।
 किंतु यह हम सोच रहे हैं... क्या मुख्यमंत्री अपने नागरिकों के हित में सोच पा रहे हैं...? खासतौर से एक अज्ञात शक्ति रखने वाला पत्रकार समाज के पारिवारिक परिस्थितियों के हित में सोच पा रहे हैं....? या फिर उन्हें किसी बैगा, किसी दलित की तरह पेट मात्र भरने के लिए थोड़ा सा पेट भरने के लिए देकर तृप्त हो जाना चाहते हैं।

 1947 के बाद यदि न्यायपालिका की तरह है पत्रकारिता भी अपने इंफ्रास्ट्रक्चर में होती, तो कोई जरूरी नहीं है उसमें एकत्रित विशाल धनराशि जैसे आज जरूरतमंद जमीनी वकीलों को राहत पहुंचाने के लिए किसी काम नहीं आ रही है...... वैसे शायद पत्रकारिता का फंड भी किसी काम में नहीं आता.........?
 कम से कम मुख्यमंत्री की टेली-कॉन्फ्रेंसिंग से उपस्थित प्रतिनिधि पत्रकारों ने यही साबित किया है। बधाई हो इन सभी राजभाठों को क्योंकि उन पर
देश के इकलौते वनमैन आर्मी, मुख्यमंत्री जी की कृपा दृष्टि बरसती रही..... और उनकी तृप्ति के लिए भी बहुत बधाई।

क्योंकि मुझे भी 34 साल की धोखे घड़ी की पत्रकारिता के पीछे में एक आर्थिक राहत की जरूरत है... इसलिए अपना एक बैंक खाता नंबर जारी करूंगा... ताकि क्योंकि समाज भारतीय नागरिक ही पत्रकारिता को प्रोत्साहित करता रहा है... बचाता रहा है... शायद वह पुनः अपनी जिम्मेदारियों को समझें ....और पत्रकार समाज के लिए भी... और मेरे पत्रकारिता विचारों के लिए भी चंदा देने का काम करें....
  पत्रकारिता चंदे पर आश्रित धंधा है इसे लोगों ने पूंजी पतियों की अय्याशी का साधन बना दिया है इसलिए हम परेशान हैं... हमें पुनः आजादी के पीछे की डोर पर चलना चाहिए, जहां नागरिक ही पत्रकारिता के चंदे को वहन करता था ....टेली कॉन्फ्रेंसिंग में पत्रकारिता कि विवेक शून्यता से लोकज्ञान हमें आया। शायद हमारे पत्रकार साथी इसे समझ सकें... क्योंकि मेरा अनुभव अभी तक यही रहा।

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