कोरोना पार्ट-3
वो सात वचन....2
किस-किस को रोना...
वो सात वचन....2
किस-किस को रोना...
वाह रे, कोरोना.
((त्रिलोकीनाथ))
निश्चित तौर पर मानव-मन होने के कारण जब नरेंद्र मोदी अपने "सप्तपदी सिद्धांत" का मंथन करते रहे होंगे तो सर्वप्रथम बुजुर्गों के संरक्षण का सिद्धांत पढ़ते वक्त उन्हें अपनी वयोवृद्ध मां का ख्याल आया होगा। जो सर्वथा उचित भी है। कम से कम हम किसी भी पद पर चले जाएं इतना तो याद रखना ही चाहिए किंतु यह एक विचार मात्र है, उनके हिसाब से.... । इसका क्रियान्वयन कैसे हो इस पर कुछ ज्यादा प्रकाश नहीं डाला गया.... मेरे घर में भी मेरी एक वयोवृद्ध मां हैं, जिनकी उम्र करीब 93 वर्ष की है। वे आंशिक तौर पर पक्षाघात से प्रभावित हैं, कभी भारत के प्रधानमंत्री किसान नेता चौधरी चरण सिंह को मेरी मां ने भी रोटी भिजवाई थी , अपने हाथों से बनाकर..., जब वे शहडोल आए थे।
उस दौर के नैतिक-कार्यकाल में हम भी प्रधानमंत्री के आभा मंडल के नीचे रहे हैं। तो समझ सकते हैं, बावजूद इसके; जैसे नरेंद्र मोदी का भरापूरा परिवार है, वैसे मेरा भी परिवार है। किंतु मैं प्रधानमंत्री नहीं हूं...., कि सिर्फ मंथन कर किसी सिद्धांत का निर्माण करूं... और उस पर भाषण कर मुक्त हो जाऊं।
क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री ने शायद यही किया है उनकी मां तो है किंतु वे प्रधानमंत्री आवास में नहीं रहती.... गुजरात में अपने परिवार के बीच में रहते हैं । इस तरह कोई भी प्रत्यक्ष दायित्व नरेंद्र मोदी के ऊपर लागू नहीं होता ।यदा-कदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी उन्हें दुनिया के सामने प्रस्तुत करते हैं, पिछली बार जब इस कोरोना महामारी की तरह ही एक आपात हालात नोटबंदी के पैदा हुए थे...., तब भी उनकी मां को लाइन में लगकर बैंक से पैसा लेते हुए दिखाया था
क्योंकि वे प्रधानमंत्री की मां है इसलिए बैंक में लगना उस उम्र में कुछ अति जैसा लगा। क्योंकि जब इलाहाबाद में कुंभ का मेला लगा था, यह संयोग है जब मैं गया था मुझे और मेरे परिवार तथा मेरी सभी से यात्रियों सदस्यों को कड़ी धूप में बेहद प्रताड़ना के साथ गंगा स्नान करना पड़ा। वह हमेशा स्मरणीय रहेगा ।तब जब पुलिस की कड़ी व्यवस्था थी हमें कड़ी धूप में रोक दिया गया यह कहकर कि प्रधानमंत्री के भाई स्नान करने आने वाले हैं। इसलिए प्रोटोकॉल के तहत आप किनारे हो जाए। वे हेलीकॉप्टर से सीधे गुजरात से इलाहाबाद आ रहे थे। ऐसे में यदि कोई भाई, प्रधानमंत्री का भाई हो सकता है तो मां.., प्रधानमंत्री की ही मां है....।
क्योंकि वे प्रधानमंत्री की मां है इसलिए बैंक में लगना उस उम्र में कुछ अति जैसा लगा। क्योंकि जब इलाहाबाद में कुंभ का मेला लगा था, यह संयोग है जब मैं गया था मुझे और मेरे परिवार तथा मेरी सभी से यात्रियों सदस्यों को कड़ी धूप में बेहद प्रताड़ना के साथ गंगा स्नान करना पड़ा। वह हमेशा स्मरणीय रहेगा ।तब जब पुलिस की कड़ी व्यवस्था थी हमें कड़ी धूप में रोक दिया गया यह कहकर कि प्रधानमंत्री के भाई स्नान करने आने वाले हैं। इसलिए प्रोटोकॉल के तहत आप किनारे हो जाए। वे हेलीकॉप्टर से सीधे गुजरात से इलाहाबाद आ रहे थे। ऐसे में यदि कोई भाई, प्रधानमंत्री का भाई हो सकता है तो मां.., प्रधानमंत्री की ही मां है....।
आज भी इस भयानक आपातहालात में जो कोविड-19 की वजह से शहडोल जैसे कोरोना मुक्त क्षेत्र होने के बावजूद आपातकाल को महसूस कर रहा है, प्रधानमंत्री का "सप्तपदी प्रथम बुजुर्गों का संरक्षण का सिद्धांत" एक नैतिक आदर्श वाक्य के अलावा कुछ नहीं लगता क्योंकि इसके क्रियान्वयन पर कोई रोडमैप प्रस्तुत नहीं किया गया।
बेहतर होता प्रधानमंत्री के भाषण में ही यह घोषित होता कि भारत की जितनी भी बुजुर्ग हैं उन्हें बिना अमीर और गरीब का भेदभाव किए..., बिना वोट-बैंक की तरह इस्तेमाल किए, पूरी ईमानदारी के साथ इस भीषण कार्यकाल में तत्काल हर प्रकार के आर्थिक, चिकित्सीय पर्यवेक्षण में रखने का रोड मैप तैयार करने का काम करना चाहिए था..। चाहे वह दिखावे मात्र का ही क्यों ना हो ।क्योंकि कई ऐसे परिवार हैं जो घोषित तौर पर, तो बहुत से अघोषित तौर पर शोषण और दमन के शिकार हैं। जिनके यहां आर्थिक समस्याओं के कारण बुजुर्गों को पर्याप्त चिकित्सा सेवा उपलब्ध नहीं हो पा रही है। यही हालात उनके पोषण आहार को भी सुनिश्चित करके, अगर बताया गया होता ...किसी रोडमैप की तहत.., तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का यह बुजुर्ग संरक्षण का सिद्धांत खोखला भाषण बाजी नहीं कहलाता...
किंतु शायद एक संयोग है कि हमारे प्रधानमंत्री आवास में उनकी निजी परिवार में महिला सदस्य नहीं है... इसलिए बुजुर्ग महिलाओं को होने वाली तमाम प्रकार की परेशानी का ज्ञान भी उन्हें शायद नहीं है...?
या फिर वह यह सोचकर शांत हो जाते हैं कि परिवार उस जिम्मेदारी को निर्वहन करेगा.... क्योंकि भारत मेरा परिवार है, अन्यथा इस प्रकार भारत के सांख्यिकी में बुजुर्गों के आंकड़ों को वर्गीकृत करके प्राथमिकता के आधार पर इस क्रूरत्तम आपातकाल वैश्विक महामारी के दौरान सर्वोच्च प्राथमिकता का रोड मैप सहयोग के साथ प्रस्तुत किया गया होता तो शायद बेहतर होता।
और हमें भी गर्व होता कि हम भारतवासी हैं। फिलहाल 25 दिन बीतने के बाद इस बुजुर्गों के संरक्षण के सिद्धांत पर दृष्टिकोण से ऐसा कोई गर्व नहीं हो रहा ।
जिस प्रकार मुंबई में 23 दिनों बाद भूखे प्यासे करीब करीब इस प्रचंड गर्मी में झोपड़ पट्टियों में चींटी मकोड़ो की तरह रह रहे प्रवासी भारतीय नागरिक मजदूर, दूरदर्शी नीतियों अभाव के कारण मारपीट के शिकार हुए प्रताड़ना के शिकार हुए यह भी हमें सिर्फ शर्मसार करने वाली अथवा बुजुर्गों के समतुल्य प्रताड़ना वाली परिस्थितिकी कही जा सकती है। क्योंकि वहां भी प्रधानमंत्री की मां के स्तर के लोग नहीं रहते। वे जब नोटबंदी में बैंक में लाइन लगाते हैं तो उनके मरने तक की भी हालात होती है.... जैसे आज भी कोई ना कोई गारंटी उनके साथ खड़ी है... कम से कम प्रताड़ना की गारंटी को वह मजदूर प्रतिपल महसूस कर रहे हैं....
क्या भारत में रहकर उन्हें किसी रोड मैप के तहत वहां से बाहर नहीं निकाला जा सकता था..... तब जबकि विदेशों से नीतियां बनाकर हवाई जहाज के द्वारा कोरोना प्रभावित अमीर-भारतीयों को आयात करके भारत में कोरोना विस्तार का कारण बनाने का काम किया गया ...?
यदि वे प्रवासी पलायन का शिकार मजदूर हैं सिर्फ यही एकमात्र कारण उनकी प्रताड़ना अथवा विलाप कीअभिव्यक्ति के अधिकार को वर्तमान हालात में कैसे छीन लेती है.....?
यदि वे प्रवासी पलायन का शिकार मजदूर हैं सिर्फ यही एकमात्र कारण उनकी प्रताड़ना अथवा विलाप कीअभिव्यक्ति के अधिकार को वर्तमान हालात में कैसे छीन लेती है.....?
एक प्रश्न यह भी पैदा होता दिख रहा है.. यदि हमारा लोकज्ञान यह समझ प्रवृत्त नहीं कर पा रहा है कि जितना अधिकार परिवहन का कोरोना कार्यकाल में अमीरों को है उतना ही मजदूरों को भी सुनिश्चित हो..... अन्यथा यह साबित होता है कि यह की यह कौम सिर्फ जनसंख्या बढ़ाने और मर जाने के लिए संरक्षित करके रखी गई है.... सिर्फ वोट बैंक है। जो वक्त जरूरत पर उपयोग हो जाती है। इससे ज्यादा कुछ.....।
नहीं तो, मुंबई में मजदूरों के साथ मारपीट की जहालत ने मुझे शहडोल में बैठे यह महसूस करने का अधिकार दिया कि जैसे वह मुझे ही मार रहे हैं.... दुखद बेहद दुखद... बेहद निंदनीय.... किंतु सत्ता का नशा कुप्रबंधन अथवा दूरदर्शिता या फिर सब कुछ प्रायोजित होता है, क्या यही सच है।
क्योंकि जबसे कोविड-19 का लॉकआउट चालू हुआ है तब से सिर्फ और सिर्फ प्रवासी भारतीय मजदूरों का दमन शोषण और उनके कीड़े मकोड़ों की जिंदगी के हालात का प्रदर्शन तमाम मीडिया माध्यमों की कड़वी सच्चाई बन कर रह गई है। आखिर बंद कमरों के अंदर नीति बनाने वाले इस पर नीतियां या रोडमैप क्यों नहीं बन पाए....? अथवा उनका यानी सत्ताधारियों का कुछ और रणनीति चल रही है...? जो हमारी आम समझ से परे है... आखिर क्यों आम आदमी के लिए भारत में सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार किसी भी आपातकाल में कैसे खत्म हो जाता है चाहे वह कोविड-19 की महामारी ही हो तब जबकि हवाई जहाज और अन्य परिवहन के साधन जरूरी चिकित्सा व्यवस्था तथा अत्यावश्यक पर्याप्त समय समस्या निवारण के लिए उपलब्ध रहा हो....?
अन्यथा उन्हें देखना तो चाहिए था, अगर वह लोक हितकारी रही हो....
किंतु जो दिख रहा है वह सिर्फ.... अलोकतांत्रिक....,
अमर्यादित..............,
अनैतिक और बेहद अभद्र........
(...जारी)
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