गुरुवार, 9 जनवरी 2020



सीएए,एनपीआर  का सच  और
 उसकी परछाई 

आजादी का एक 

अर्ध-सत्य


(त्रिलोकीनाथ)

 सतत संघर्ष के बिना लोकतंत्र बीमार, सड़ा हुआ और कैंसर युक्त होने वाला खतरा ले सकता है, इसमें कैंसर के कीटाणु पनप सकते हैं, वे उसे ब्लैक होल्स की तरह वे नष्ट भी कर सकते हैं ।



इसलिए सतत संघर्ष लोकतंत्र के लिए "जीवनदायिनी अवयव" की तरह  है। भलाई भारत में सत्ता पर स्थापित अमित, मोदी और उनके भाजपा की सरकार हो अथवा उसे तथाकथित रूप से नियंत्रित करने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का झूठा अभिमान, भाजपा की सरकार होने का दंभ करता हो अथवा आधुनिक बाजारवादी "हिंदुत्व" की अवधारणा का प्रदर्शन "मल्टीनेशनल कंपनियों" के जरिए नियंत्रित होते हो...., इन सबके बावजूद सत्ता पर ऐसी व्यवस्था कोई हमारी अनुभवहीनता का विषय नहीं है।

 जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी आई तो व्यवसाई कंपनी के जरिए कब वह भारत के साम्राज्यवादी सोच का व्यवसाय करने लगी...., यह हमें पता ही नहीं चला और जब उनका..., शोषण उनकी औकात से जितना हो सकता था, उन्होंने किया। तब हमें पता चला कि वह हमारे शासक हैं ।जिसमें शोषण और दमन, अन्याय निहित है ।


इस तरह 200 वर्ष की गुलामी के बाद स्वतंत्रता का संघर्ष 1857 में पहली बार जागा, हालांकि उसे 90 साल बाद 1947 में सफलता मिली इसके बावजूद हमने जो स्वतंत्रता के मायने अपने संविधान के रूप में चिन्हित किए और उन्हें मानने का शपथ लिया, वह 70 साल में ही इतना कमजोर हो जाएगा, अंदाज नहीं था। यानी संविधान की लिखावट में कहीं कोई चूक हो गई किंतु इसके बावजूद भी अलग अलग तरीके पर स्वतंत्रता की नई नई रोशनी आ खड़ी होती रहती हैं।, यह हमारे संविधान और अनेकता में एकता की ताकत भी है।

 19 दिसम्बर19 के बाद2020 मे लगातार चल रहे नई दिल्ली में शाहीन बाग पर कड़क ठंड में जो महिलाएं और बच्चे स्वतंत्रता की अलख जगाने में लगे हैं उन्हें हमें सलाम करना चाहिए। उनका अभिनंदन करना चाहिए, यह अलग बात है कि उनकी ताकत कितना निचोड़ ले आती है..... किंतु वह गुमराह सत्ता को आंख दिखाने का काम तो कर ही रही है ।कि आप संविधान से भटक रहे हैं..... उसके व्याकरण से, उसकी परिभाषा से और उसे बाजारवाद में झोंकने के चक्कर में स्वतंत्रता आंदोलन के बाद लिए गए सपनों से हम भटक रहे.....।
 इसलिए स्वतंत्रता के लिए सतत-संघर्ष जरूरी है, चाहे वे झूठे हो..., प्रायोजित हों... अथवा व्यवसायिक।
 संघर्षों का प्रतिपल होना स्वतंत्रता की गारंटी है...., अन्यथा गुलामी आपकी नियति है। इतना तो तय है।

 तो चलिए पहचानने का काम करें की "नागरिकता संशोधन कानून" में चूक कहां हुई....? अथवा षड्यंत्र कहां हुआ....? आजादी को खत्म करने के कैंसर के बीज कैसे रोपे गए...? और कैंसर का डॉक्टर इसमें क्या धंधा कर रहा है...? ताकि कैंसर का कारोबार भी चले और आजादी भी खत्म हो जाए।
 याने संविधान में लिए गए गैरेंटी भी खत्म हो जाए। देर से ही सही अखबार की इस कतरन को समझना चाहिए ।जिसमें संविधान विशेषज्ञ ने कहा भाषा का संधि विच्छेद किया है....
 आज यह बात गुलाम  मीडिया के माफिया के बीच से धोखे से ही सही निकल आई..., किंतु इसकी सच्चाई या इसका प्रचार जिस जागरूकता के साथ होना चाहिए उसे समझने की या जो साहस सत्ता को दिखाना चाहिए उसे सुधारने की जो कयाबद सत्ता को करनी चाहिए या विपक्ष को जिस पर हंगामा खड़ा करना चाहिए, वह काम नहीं हो रहा है....?
 अगर नागरिक संशोधन कानून का व्याकरण अशुद्ध है तो परिणाम प्रदूषित होगा...., इतना  तो तय है। किंतु गर षड्यंत्र के अनुरूप विद्रोह का वह मनुष्यता- विद्वेष का लक्ष्य, अपेक्षा के अनुसार नहीं प्रकट हो पा रहा है तो उसे लगातार जागरूकता के नाम पर घर घर जाकर बहस का विषय बनाने पर तुले हमारे नेता शायद भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता की शक्ति को पहचानने में भूल कर रहे हैं..., उन्हें और षड्यंत्र करने की जरूरत है। तब मानसिक-गुलामी का बाजार विकसित हो पाएगा।
 जो शायद अभी उनके अपने फ्रेंचाइजी-होल्डर्स, कार्यकर्ताओं के जरिए ही सीमित रह गए हैं। जिनमें "हिंदुत्व-ब्रांड" का किंगफिशर का शराब या हवाई जहाज के जरिए उड़ान की सोच ढह सकती है ।क्योंकि कोई शराब कारोबारी विजय माल्या कितने दिन मूर्ख बनाकर भारत की संसद की सदस्यता के जरिए संसद में घुसा रह सकता है...., उसे देश छोड़कर भागना ही होगा अथवा लूटने के नए षडयंत्रों का बाजार विकसित करना पड़ेगा।

 000000 शाहीन बाग में नागरिक संशोधन कानून( सी ए ए )हो या फिर उसके बाद एनपीआर, इनमें व्याकरण संशोधन के जरिए भ्रम का वातावरण फैलाने के कारण जिसे वे "विपक्ष का हथियार" प्रचारित करते हैं , ही सही यदि भ्रम का वातावरण फैला है तो यह सत्ता की जिम्मेदारी है कि वह भ्रम के वातावरण से निकालने का काम करें....?

 अन्यथा भारत की अबलाएं चाहे वे मुसलमान हो या हिंदू अथवा मजदूर या मजबूर गरीब वर्ग हो, वह उसकी समस्या है..... आरोप लगाकर कि विपक्ष झूठ बोल रहा है आप किसी झूठ को थोप नहीं सकते.....?
 इतना तो तय है कि अगर  नागरिक कानून के संविधान प्रस्ताव में शब्द विदेशों में "प्रताड़ित अल्पसंख्यक को नागरिकता देने" का जो दर्द था उसे नागरिकता की दवाई देनी थी... "प्रताड़ित अल्पसंख्यक" अचानक हिंदू ,सिख ,जैन, ईसाई वगैरा-वगैरा करने की क्या जरूरत थी.....? यदि विशेषज्ञ मानते हैं  "प्रताड़ित अल्पसंख्यक" से विदेशों के रहने वाले बहुसंख्यक समुदाय का हक स्वाभाविक रूप से खत्म हो जाता है, जो संविधान सम्मत भी था। और आम समझ में आने वाली बात भी थी।
 जैसे कि पाकिस्तान में मुसलमान धर्म के मानने वाले बहुसंख्यक हैं, बांग्लादेश व अथवा अफगानिस्तान वहां भी बहुसंख्यक वर्ग में मुसलमान हैं उन्हें आप भी चाहते हैं कि हमारे यहां किसी भी प्रकार की नागरिकता ना मिले, तो वहां रह रहे अल्पसंख्यक गैर मुसलमान वर्ग हिंदू सिख अथवा कोई भी हो..., वह स्वाभाविक रूप से हमारी नागरिक संशोधन कानून का पात्र हो जाता। किंतु आपने इस "प्रताड़ित अल्पसंख्यक" शब्द की जगह धार्मिक संज्ञा से जोड़ दिया जिससे भ्रम का जन्म हो गया..... और धर्म के आधार पर "भ्रम का बाजार पर पलने वाले कैंसर के कीटाणु" भारतीय लोकतंत्र में पनप गए..., उन्होंने अपने-अपने तरीके से वोट की राजनीति में अपना धंधा देखना चालू किया.... किंतु उनका भलाई, विकास हो गया हो या वे किस हद तक सफल हैं ..., यह तो परिणाम बताएगा...? लेकिन जितना भी कैंसर के बीज फैल गए वह कुछ सालों के लिए असुरक्षा और आंतरिक कटुता के लिए पर्याप्त हैं..... जो बीते 70 साल में भुलाने के बाद भी नहीं भुलाए जा सके थे।
 क्योंकि आपका लक्ष्य पाकिस्तान परस्त अथवा आतंकवाद परस्त मौलाना के सोच और समझ की दुकान के जरिए ही, अपनी दुकान ठीक करने का लक्ष्य रहा ....?
इसलिए "प्रताड़ित अल्पसंख्यक" शब्द की जगह उसे "धार्मिक संज्ञा" के आधार पर बिल का प्रस्ताव लिखने का काम हुआ और उसे जानबूझकर पारित भी कराया ।शायद यही एक सोच थी, अंग्रेजों की, हमारे विदेशी हुक्मरानों की, जो भारत की स्वस्थ लोकतंत्र से नफरत करते थे.... जिन्होंने हिंदू मुस्लिम का कैंसर विकसित करके देश की आजादी का स्वाभाविक विकास होने पर बाधाएं खड़ी कर दी.. और धार्मिक आधार पर राष्ट्र चाहे पाकिस्तान हो, अफगानिस्तान और बांग्लादेश अंततः बन गए।

 चलिए सीएबी में त्रुटियां हो गई...? आपको समझ में भी आ गया...? किंतु आप इसका समाधान नहीं चाहते, कम से कम शाहीन बाग में रह रही इस्लाम धर्म परस्त महिलाएं और बच्चे या उनके साथ खड़े पुरुष जो विकसित होकर अब दलित मजदूर वर्ग और अन्य स्वतंत्रता के विरुद्ध चल रहे आंदोलनकारियों का केंद्र बनता जा रहा है..., उन्हें नजरअंदाज करना शायद आपकी मजबूरी हो....?
 क्योंकि आपका बाजार छीन सकता है...? किंतु सच यह है कि इस प्रकार के आंदोलनों को भी "सतत स्वतंत्रता" के लिए बनाए रखना बहुत जरूरी है, अन्यथा आप अपने कैंसर में खत्म हो जाएंगे... इससे लोकतंत्र भी नष्ट हो सकता है।
इसका अपना असर गुजरात में किस स्तर पर है इस  साहिबा के समझ से समझने का प्रयास कीजिए


 नागरिक संशोधन कानून (सी ए ए )अथवा एनपीआर मैं लिखी उद्देश्यपरक मूल भावनाओं के व्याकरण में मनमानी षडयंत्र पूर्ण उद्देश्यों को समाहित करने के पीछे अगर लक्ष्य फेल हो रहा है... तो उसे जिस प्रकार से संगठन के जरिए पार्टी के प्रचार और जागरूकता का अस्त्र बनाकर "हिंदुत्व-ब्रांड" का बाजार सुरक्षित करने का जो काम हो रहा है, उससे बेहतर पूरी ऊर्जा स्वस्थ लोकतंत्र के लिए समर्पित होना चाहिए....
 किंतु यह साहस किसी गांधी किसी विनोवा या विवेकानंद का हो सकता था.... शायद उसकी नकल करने वाले लोग इसको समझ नहीं पाए....
 कहते हैं "नकल को भी अकल" चाहिए अन्यथा हम बंदर ही हैं और बंदरों के हाथ  सत्ता की बागडोर से जो हो सकता है वह हो ही रहा है....?
 इसलिए आंदोलन होते रहना चाहिए... शाहीन बाग का आंदोलन जालियांवाला बाग की तरह का रास्ता दिखाता  है..। क्या भविष्य में याद किया जाएगा...? ईश्वर ना करें, उसका रूप जालियांवाला बाग के अंदाज पर हो...?
 मानसिकता चाहे वह सत्ता कि हो अथवा सत्ता की दौड़ पर काम कर रहे अन्य मल्टीनेशनल कंपनियों की। या फिर मानसिकता आधुनिक ईस्ट इंडिया कंपनी के जनरल डायर की हो..., बेहतर होता समय रहते, भगवान या अल्लाह भारत की स्वतंत्रता आंदोलन की कीमत को बचा रख पाते....? क्योंकि सच तो यही रहा है कि अज्ञात शक्तियां ही हमें ताकत देती रही हैं ... फिर चाहे वह महात्मा गांधी के रूप में हूं या फिर विवेकानंद के रूप में...।

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