शनिवार, 14 दिसंबर 2019



सीएबी और एनआरसी ने 
असम में  लगाई आग
कर्फ्यू का अवज्ञा-आंदोलन
 अथवा
सविनय अवज्ञा आंदोलन 2019 

    ( त्रिलोकीनाथ )

उधर आसाम में कर्फ्यू लागू है कर्फ्यू प्रशासन का चरम अनुशासनिक शस्त्र है जिससे नियंत्रण कर कानून व्यवस्था को बनाने का प्रयास किया जाता है इसके बावजूद कर्फ्यू को नजरअंदाज कर और सभी प्रकार के जान की बाजी लगाकर नागरिकों ने कर्फ्यू की व्यवस्था को नहीं माना है हजारों की संख्या में नागरिक खुले मैदान में आकर शांतिपूर्ण तरीके से एकत्र होते हुए नागरिकता कानून का बहिष्कार कर रहे हैं, तो क्या माने कि कानून व्यवस्था को थोपने की कयावद को आसाम के नागरिक ने, 1942 के अवज्ञा-आंदोलन की तरह अपनी बात रखने का जरिया बना लिया है.....।

 एक तरफ सरकार है की धमकीनुमा अंदाज में सीएबी और एनआरसी को लागू करने का मन बनाया है तो दूसरी तरफ नागरिकों ने अवज्ञा-आंदोलन का ऐलान कर दिया है। और बगावत के अंदाज पर अपनी बात को रखने का मन बना दिया है। सच बात तो यह है कि तथाकथित हिंदुत्व राष्ट्र के ब्रांड में मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए भारत का बड़ा बाजार खोल दिया गया है। उससे होने वाले नुकसान से भारत की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से लड़खड़ा गई है। बेकारी, बेरोजगारी आम समस्या होती जा रही है ....पर्यावरण संरक्षण की नई नई चुनौतियां खड़ी होती जा रही हैं.... और शासन को इन सब से समाधान निकालने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है....
 क्योंकि यह या तो मल्टीनेशनल कंपनियां की गुलामी के लिए अपना वक्त दें..... अथवा भारत की आजादी और उसकी संपूर्ण स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए.... या संविधान की रक्षा के लिए काम करें।
 इन हालातों में सबसे ज्यादा सरल उपाय है कि आम नागरिक को आपस लड़ा दिया जाए । वह भावनाओं के बाजार में बिक जाए। किंतु 70 साल की आजादी के बाद संभवतः हिंदू हो या मुस्लिम अथवा अन्य कोई नागरिक यह तो समझ ही गया है की लड़ाई हिंदू-मुस्लिम की कम है, लोकतंत्र को बचाने की ज्यादा है....


 इसलिए बहुत ही शांत पूर्ण तरीके से अहिंसा के रास्ते पर इस  विभाजनकारी  कानून के लिए आंदोलन की बातें हो रही हैं।
 आम नागरिकों में समझ विकसित  हो रही है कि यह ठीक है कि कांग्रेस पार्टी के लिए नेता उतने फिट नहीं थे जितना फिट एक स्वतंत्र राष्ट्र की रफ्तार के लिए चाहिए था, बावजूद इसके वे इस बात के लिए भी मन ही मन बहुत परेशान हैं कि क्या बंदर के हाथ में छुरा पकड़ा दिया गया है.... अब नए सिरे से सोचने की कयावद होने लगी है ।
  अर्ध-विकसित राजनीतिज्ञों की यही समस्या है कि वे जो भी काम करते हैं उसके पीछे कोई ना कोई साजिश पल्लवित होती रहती है, निश्चित तौर पर दिखनेवाली साजिश "विभाजन की साजिश" काफी प्रभाव डाल रही है किंतु इसके मूल में वास्तविक साजिश व्यक्तिगत राजनीतिज्ञों की हितों को प्रभावित करता होगा। जिसे ढूंढना विषय-विशेषज्ञों का अहम काम है...
 एक नजरिया यह भी  कि, देश में नोटबंदी के जरिए एकत्र हुए बैंक भंडार के बावजूद भी  पूरा कोष  क्यों खाली है....
  क्या कारण है कि जीडीपी  समुद्र में रहकर भी प्यासे मछली की तरह तड़प रही है...., 
नोटबंदी के जरिए  एकत्र की गई भारी-भरकम राशि  विदेशों में किन लोगों के हित में  या कर्ज माफी के हित में खर्च हो रही है.. उसके बदले  उन विदेशी नागरिकों  कि जो कि राजनीतिज्ञों के नाते-रिश्तेदार हैं अथवा  व्यापारी हैं जिनके हित में सरकार आज काम कर रही है,  कल उन्हें हो सकता है  की कर्ज माफी के लिए चुना जाए.... तब  विदेशों में बैठे अपने नाते-रिश्तेदारों  से कैसे  संपर्क बना पाएगी ...
शायद  नागरिकता संशोधन कानून  के जरिए वे अपने नियंत्रण में इन नाते-रिश्तेदारों को भारत की नागरिकता के नाम पर नियंत्रित कर ले....
  क्या यही  सच की परछाई है  जो इतनी जल्दबाजी में  विदेश में रहे गैर मुस्लिम भारतीय उपजाति के नागरिकों को संरक्षण देने का काम हो रहा है.....?
 यह बात भी शंके के दायरे में स्पष्ट होती है... इसमें कोई शक नहीं की हम अगर विश्वगुरु बन रहे हैं तो पूरी दुनिया हमारा घर है.... ऐसे में भारत को ही घर बनाना कहां तक जायज है.... और जिन लोगों ने बीते 70 साल में जिस देश की नमक रोटी हवा पानी के प्रति वफादारी की निष्ठा पैदा नहीं कर पाए हैं वे किस मुंह से भारत की नागरिकता और उसके निष्ठा के प्रति ईमानदार होंगे....?.
 निश्चित तौर पर वे कभी ना होंगे....।
 हाल में राजनीतिक मोहरे की तहत कश्मीर की धारा 370 में बदलाव हुआ, क्या आज कोई पूछेगा कि कश्मीरी पंडितों को जब इस हिंदूवादी तथाकथित पार्टी के संरक्षण में कश्मीर में रहने की गारंटी नहीं मिल पा रही है, वे अभी भी भयभीत हैं.... इसी प्रकार से तथाकथित वोट की राजनीति किंतु वास्तव में मल्टीनेशनल इंडस्ट्रीज के हित में भारत को बाजार बनाने के लिए और कब्जा कराने के लिए लोगों का दिमाग सांप्रदायिकता के लिए मोड़ने के बहस में छोड़कर अपने छुपे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बिना पांचवी अनुसूची वा छठवीं अनुसूची के विशेष राज्य के हितों के विचार विमर्श को सोचे-समझे, नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी बखेड़ा खड़ा किया गया है... जो किसी भी हालत में देश के हित में नहीं है।
 जिसका अपने-अपने नजरिए का उद्देश्य पूर्ति के लिए आंदोलन भी होने चालू हो गए हैं.... किंतु इन सब आंदोलनों आंदोलनों के पीछे भारत के संविधान के रक्षा के लिए एक मत होना अनिवार्य दिखता है...।
 तो क्या हम देश की आजादी के दौर में लौट गए हैं , क्या 1947 के बाद भारत के संविधान को लिखने जैसा काम किया जाना शेष है......?
 दुनिया आगे जा रही है और भारत पीछे.... यह है सनातन धर्म के परंपरा वादी स्वयं को ठेकेदार बताने वाले हिंदुत्व राष्ट्र के धरोहरों की असफलता है। कि हिंदुत्व एक "कट्टरपंथी-तानाशाह-सोच" का परिणाम मात्र है...?

 यह तो बहुत शानदार रहा कि समय रहते कट्टर हिंदुत्व का ब्रांड बन चुका महाराष्ट्र की शिवसेना, सरकार के अगुआ इस बात पर इन तथाकथित हिंदुओं से विमुख हो गए कि अगर आप कश्मीर में पीडीपी के साथ हाथ मिला सकते हैं तो मैं मेरे मराठी  के साथ क्यों हाथ नहीं मिला सकता.... यही सोच अब भारत के तमाम वर्ग के लोगों के लिए नियत बन चुका है।

 कि यदि आप मल्टीनैशनल कंपनीज के साथ हाथ मिला सकते हैं तो भारत का तमाम नागरिक विभिन्न धर्मों मतों और विभिन्न वर्गों के लोग देश की आजादी के लिए एक क्यों नहीं रह सकते...?
 देखेंगे कि क्या भारतीय जनमानस विचार मंथन में सफल होता है या फिर कथित हिंदुत्व ब्रांड के झंडे के तले पल रहे मल्टीनेशनल कंपनी के और उनके हितों के चाहनेवाले .....? फिलहाल तो भारत के सभी बॉर्डर में आग लग रही है पूर्वोत्तर अपने कारणों से सीएबी और एनआरसी से व्यथित है तो अन्य राज्यों के अपने-अपने कारण हैं पांचवी अनुसूची क्षेत्र के अपने कारण हैं
 कहीं ऐसा ना हो कि कट्टर हिंदुत्वराष्ट्र के कल्पनाकार; उन्हें प्रोपेगंडा के तहत फ्री में मिली विरासत की  धरोहर-राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े न कर दें....
 उनके अपने शब्दों में, उनकी ही "किसी टुकड़े-टुकड़े गैंग" की तरह।

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