गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस
आया राम-गया राम
(त्रिलोकीनाथ)

 सर्वप्रथम उपभोक्ता अधिकार अधिनियम 1986 बनाया गया, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 भी लागू किया गया आदि आदि नियम कानून श्रुति में यह लिखित ज्ञान है। किंतु वास्तव में क्या उपभोक्ताओं विभिन्न प्रकार की विषय सामग्री को क्रय करने की क्षमता और बिल से भुगतान की कार्यप्रणाली के साथ ही उस पर विकसित विहित वैधानिक स्वरूप जिससे क्रेता के हितों का संरक्षण के साथ शासन की राजस्व की बढ़ोतरी की गारंटी भी है , नहीं तो शायद इन अधिनियम का बनाने की पीछे संपूर्ण मंसा और संकल्प यही रहा होगा।
 क्योंकि यदि संकल्प सही रहा तो उद्देश्य प्राप्त क्यों नहीं किए गए। यह बात सुनिश्चित है कि किसी भी कार्य का उद्देश्य की प्राप्ति ही किए गए प्रस्ताव व संकल्प का परिणाम होता है ।
 137 करोड़ की आबादी में और उसके बाद प्रतिपल जन्म लेने वाले नागरिक की क्रय क्षमता के आधार पर उपभोक्ताओं का हित सुरक्षित करने की गारंटी उपभोक्ता दिवस हमको देता है, फिर चाहे वह विषय सामग्री की क्रय प्रणाली या विनिमय प्रणाली में हितों की सुरक्षा हो अथवा सेवाओं में हितों की सुरक्षा हो। इनके अलावा भी हम सब संविधान की पांचवी अनुसूची में अधिसूचित आदिवासी विशेष क्षेत्र के निवासी हैं, तो हमें एक और सुरक्षा चक्र संविधान की गारंटी देता है। किंतु क्या पांचवी अनुसूची में शामिल होने के सुरक्षा चक्र हमारी सुरक्षा कर पाए....? यह बात उपभोक्ता दृष्टिकोण से हमें बार बार सोचना चाहिए।

उपभोक्ता  
धर्मनिरपेक्ष-नागरिक का 
साकार स्वरूप 
 क्योंकि उपभोक्ता की कोई जाति नहीं होती ।देखा जाए तो उपभोक्ता ही धर्मनिरपेक्ष-नागरिक का साकार स्वरूप है और आदिवासी नागरिक एक वर्गीकृत सुरक्षा का अधिकारी है। जो संविधान में निहित व्यवस्था का उपभोक्ता भी है। किंतु आदिवासी उपभोक्ता चिन्हित है, उसके हितों की सुरक्षा क्यों नहीं हो पा रही....?

 हाल में उसके लिए समर्पित आरक्षित नौकरियां में यह बात खुलकर आई है कि अकेले शहडोल संभाग में 84 फर्जी जनजाति का प्रमाण पत्र लेकर लोग शासकीय नौकरी कर रहे हैं, यह उसके लिए समर्पित सेवाओं का शोषण है जो सरकारें करा रही हैं, यदि वे इसे पारदर्शी कर नहीं पाई हैं ।

इसी प्रकार पांचवी अनुसूची क्षेत्र की चाहे नदियां हो, जल हो, जंगल हो अथवा जैव विविधता की सुरक्षा की गारंटी देने वाले तमाम विषय सामग्री हो, वह भी असफल हो गए। नदियों में खनिज माफिया, जंगल में यूकेलिप्टस का प्लांटेशन अब तो किसानों के यहां भी घुसपैठ प्रशासन की मदद से हो गई है अथवा प्रदूषण नियंत्रण विभाग की असफलता के कारण खराब होता शहडोल का पर्यावरण या फिर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से मालामाल यह क्षेत्र विद्युत उपलब्धता के लिए अक्सर संघर्षरत दिखता है, अलग-अलग प्रकार के शोषण यह बतलाते हैं कि हम उपभोक्ताओं के 1 प्रकार आदिवासी उपभोक्ताओं की सुरक्षा चक्र को भी बचाकर नहीं रख पाए हैं। तो फिर करोड़ों उपभोक्ताओं सुरक्षा चक्र तो सिर्फ औपचारिकता है।

 तब जब वह एक एक सेकंड में उद्योगपतियों का घर भर रहा हो, तब वह जब 1 साल में एक लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा की आमदनी अंबानी ग्रुप के फायदे का कारण और उनके विकास की गारंटी देता हो.... तब जबकि ठीक इसी समय भारतीय मुद्रा रुपया , डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर होती जा रही है......
 तो लगता है कि भारत भी एक व्यापक उपभोक्ता मात्र है जिसका शोषण हो रहा है..। और वह कुछ नहीं कर पा रहा, तो फिर आदिवासी उपभोक्ता का शोषण क्यों नहीं होना चाहिए.... क्योंकि विकास का पैमाना ही गलत है तो यह सब एक भ्रम जाल है।
 कम से कम उपभोक्ता दिवस में ही प्रशासन की प्रतिबद्धता यह होनी चाहिए कि कुल कितने प्रकरण जिला स्तर पर अथवा संभाग स्तर पर या फिर राज्य स्तर पर प्राप्त किए गए? कुल कितने प्रकरण निराकृत किए गए अथवा निराकृत नहीं किए गए? इससे यह तो कम से कम तय होता कि उपभोक्ताओं के शोषण का वर्गीकरण किस प्रकार का, किस क्षेत्र में ज्यादा है....?, सेवा के क्षेत्र में ज्यादा है अथवा विनिमय में के क्षेत्र में ज्यादा है या
फिर पर्यावरण क्षेत्र में ज्यादा है...? इसी प्रकार अन्य क्षेत्र भी हैं, तो शायद इसमें भी प्राथमिकताएं पैदा हो सकती थी ।

 और इनमें विद्वान योग्य अधिकारी यह सुनिश्चित कर पाते कि ज्यादा शोषण वाले क्षेत्रों को प्राथमिकता से निराकृत कर उसमें उपभोक्ताओं के हितों को सफलता पूर्ण तरीके से संभावना देख कर गारंटी दी जा सकती थी किंतु वह सब नहीं किया गया...? सिर्फ एक दिन 24 दिसंबर को उपभोक्ता दिवस मना कर क्यों हम अपने आईने से झूठ बोलते हैं...?
 जैसे पत्रकारिता का जीवन आजादी के बाद एक भ्रामक परिस्थितियां हैं...., वैसे ही उपभोक्ता नाम का विषय-वस्तु और उसके संरक्षण का विषय-वस्तु सिर्फ उपभोक्ता दिवस के नाम पर "आयाराम गयाराम" ही बनकर रह गया है।
 "ऊंट के मुंह में जीरा" के अंदाज पर हमारे न्यायालय सिर्फ उन्हीं को हित दे पा रहे हैं जो उनके द्वार को खटखटा लेते हैं.... अन्यथा उपभोक्ता हितों के अधिनियम मृत पड़े शवों के समान हैं। और मोटी पुस्तकों में कुछ लोगों के लिए मनोरंजन के लिए आधार मात्र हैं ।
बेहतर होता जिस प्रकार राजस्व आय प्राप्ति के लक्ष्यों का निर्धारण होता है उसी प्रकार उपभोक्ताओं, विशेषकर आदिवासी उपभोक्ताओं, शहडोल की नजर से देखे तो प्रकरणों को ज्यादा से ज्यादा चिन्हित कर बढ़ोतरी देकर विकास पूर्ण लक्ष्य तय किए जाने चाहिए... ताकि उपभोक्ता नियम जागरूक नागरिक के चर्चा के विषय बन सकें... किंतु फिलहाल "दिल्ली दूर दिखती है।
 इसलिए उपभोक्ता दिवस हमारे और आपके लिए पिछले 25 साल से एक स्मारक की तरह श्रद्धांजलि के काम ही आ रहे हैं ।ऐसे "आयाराम और गयाराम" को हमारी भी श्रद्धांजलि☹

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