अहम् ब्रह्मास्मि
धन-संग्रह की कुपात्रता का आरक्षण.....
एक व्यथा की बर्बाद कथा
( त्रिलोकीनाथ )
जब भी कभी आर्यावर्त भारत के सामाजिक विकास में वर्ण व्यवस्था का प्रावधान हुआ होगा तो हजारों साल पहले आरक्षण की व्यवस्था ब्राह्मणों ने पहले पहल की होगी, यकीनन तार्किक आधार पर यह प्रमाणित होता है कि ब्राह्मणों ने जब आरक्षण का प्रावधान लागू किया तो वर्ण व्यवस्था में यह सुनिश्चित किया गया होगा की आरक्षण का पहला लाभ ब्राह्मण वर्ण को "चतुर-वर्ण-व्यवस्था" में मिलेगा| किंतु यह शर्त सुनिश्चित की जाती है कि आरक्षण पद पर चतुर वर्ण व्यवस्था में याने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में ब्राह्मण सर्वोच्च पदधारी परा-मनोविज्ञान का विशेषज्ञ होगा और इस पद के लिए यह शर्त लागू की गई आरक्षण इस बात का होगा कि ब्राह्मण धन संग्रह के लिए कुपात्र होगा | सभी सुविधाएं उसे अन्य वर्णों से प्राप्त होंगी तो वह सिर्फ परा मनोविज्ञान के जरिए सामाजिक सुधार, लोकतांत्रिक मर्यादाओं का नीति निर्धारक सूत्र बनेगा| कुल मिलाकर ब्राह्मण आरक्षण का पहला अधिकारी स्वयं को व्यवस्था में सुनिश्चित किया कि वह" धन संग्रह के लिए कुपात्र आरक्षित वर्ग" का व्यक्ति होगा |
यह बात यूं ही किसी कल्पना में अथवा निराधार या फिर किसी ईर्ष्या के आधार पर नहीं है, बल्कि यदि यह सुनिश्चित किया गया था कि ब्राह्मण चतुर वर्ण व्यवस्था का शीर्ष पद पदाधिकारी है तो धन संग्रह की कुपात्रता ब्राह्मण को हमेशा रहेगी.. ,क्योंकि उसको इस चीज की जरूरत नहीं है, ब्राह्मण का मान-सम्मान, रहने-खाने की और उसके सुरक्षा की गारंटी समाज के तीन वर्णों की नैतिक जिम्मेदारी रही| बावजूद इसके कि वह समाज का संपूर्ण राज्य का प्रमुख होता था, वह चाहता तो जमीन ,धन ,संपदा, वैभव कर लेता जो वर्तमान में राजा महाराजाओं के पास रही......?
किंतु हजारों साल बाद वर्तमान में ऐसा दिख नहीं रहा... तो यह सिद्ध होता है कि आरक्षित परिवेश में ब्राह्मण समाज का अगुआ रहा, बिना उसकी अनुमति के सामाजिक विकास क्रम, शुचिता पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का नहीं हो | वर्तमान में कई ब्राह्मण धन संपदा से बहुत गरीब हैं, किंतु सामाजिक विकास में जो उसने ग्रहण किया.., लोक कल्याण, दैनिक सामाजिक कल्याण हेतु था| उसका निजी संग्रह उसे प्रदूषित कर सकता था.....? उसके परा-मनोवैज्ञानिक कार्यों में अपेक्षित शिक्षा व सुचिता हेतु जो जरूरी था| इसलिए विद्वान ब्राह्मण हमेशा धन संग्रह से तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था में प्रायः दूर रहते थे|
क्योंकि जब देश स्वतंत्र हुआ तो इन्हें स्वाभाविक रूप से माना गया कि ब्राह्मण राष्ट्रीय मुख्यधारा के वाहक रहे किंतु स्वतंत्रता के बाद जब अन्य नागरिकों को आरक्षण देने की बात हुई तो उन्हें राष्ट्रीय मुख्य धारा में लाने का संकल्प कुछ अवधि के लिए किया गया था| जिसके अनेकानेक साधन व संसाधन है, आर्थिक स्वाबलंबन भी एक तरीका था नौकरी में आरक्षण भी| अजीबका के जरिए राष्ट्रीय मुख्यधारा का मानक रहा| स्वतंत्रता के बाद इस पहलू पर शायद विचार ही नहीं किया गया तथाकथित मनुवादी वर्ण व्यवस्था के जरिए भारत के आदर्श सामाजिक विकास में ब्राह्मणों का आरक्षण हजारों साल से इस बात के लिए सुनिश्चित था कि वह धन संग्रह अथवा संपत्ति संग्रह के लिए कुपात्र रहेगा और वहीं उसके मनोविज्ञान की सुचिता और उसके प्रगति के लिए एक आवश्यक संसाधन रहा जिसका तत्कालीन राज तांत्रिक व्यवस्था ने अनुपालन किया और इस कारण मुख्यधारा में भलाई ब्राह्मण-समाज प्रगतिशील मापदंड में भौतिक रूप से फिट बैठता था..., आर्थिक रूप से वह हजारों साल से दूसरों के भरोसे याने तीन-वर्णों के भरोसे ही था.......?|
देश की स्वतंत्रता के बाद इस विषय पर सोचने का काम आजादी के नेताओं ने शायद इसलिए नहीं किया| क्योंकि तमाम प्रकार के सामाजिक पतन और प्रदूषण के लिए ब्राह्मण को उनकी नीतियों को दोषी ठहराया गया| यह कोई नई बात नहीं है.... जब भी कोई परंपरा या व्यवस्था प्रथा के रूप में परिवर्तित होती है और वह प्रथा बन जाती है.., तो उसका पतन होने लगता है... कभी विवाह में कन्या के विदाई के साथ दहेज की परंपरा महान परंपरा मानी जाती थी.., क्योंकि इसमें ब्राह्मणों का बनाया परा-मनोविज्ञान की सभी व्यवस्थाएं थी किंतु निहितपरा-मनोविज्ञान सुनिश्चित उद्देश्य पूर्ति के साथ सामाजिक विकास का अनदेखा किया गया और सिर्फ दहेज धन-संपदा कुप्रथा की आवश्यक शर्त के साथ जोड़ दिया गया,यह स्वार्थी समाज की सोच थी...... ब्राह्मणों की बिल्कुल नहीं....|
यही कारण है कि दहेज कि दान का भाव.., दान में छुपी तमाम प्रकार के मानवी त्याग की प्रेरणा का भाव पतित होता चला गया तथा सिर्फ धन-संपत्ति की लालच ने दहेज व दया-दान की प्रवृत्ति को इतना प्रदूषित कर दिया की तमाम प्रकार की सामाजिक हत्याएं, परिवार का विनाश का कारण बन गया |और समाज पतित हुआ.., बदनाम हुआ वह अलग| अतः यह विचार क्योंकि ब्राह्मणों ने परा-मनोविज्ञान लोक कल्याण और मानव कल्याण समदर्शी दर्शन हेतु चुना था |अब तो ब्राह्मणों के परा-मनोविज्ञान की तो बहुत दूर की बात हो गई... देश में स्वतंत्रता के बाद नए संविधान में वर्ण व्यवस्था की कानूनी अनुपालन खत्म हो गया| इस हालत में नए संविधानओं को बार-बार लोक हितों का ध्यान रखना चाहिए|
निश्चित तौर पर भारत के संविधान में ब्राह्मणों के हजारों सालों से चले आए धन-संपत्ति की कुपात्रत् का आरक्षण या कहना चाहिए धन-संपदा के त्याग और उसे पर्याप्त दूरी के जरिए बनाए गए कानून का जरा भी वर्तमान संविधान में प्रावधान या सोच भी नहीं डाली गई है......? और यही कारण है वर्तमान राज्य सत्ता परा-मनोविज्ञान की धार्मिक प्रतीकों मंदिरों-मठों आदि में ब्राह्मण इतर पुजारियों के बारे में सोचते हैं| किंतु हजारों साल से आरक्षण प्राप्त ब्राह्मण के हितों के बारे में उनकी आर्थिक संभलता के बारे में नहीं सोच पाते....?
दूसरा उदाहरण लें परामनोविज्ञान के जरिए सती-प्रथा कभी मानवीय संबंधों की अग्नि परीक्षा हुआ करती थी, सती का सम्मान भारत के लोक पुराण वगैरा मैं आज भी पूजनीय है... किंतु सती होना एक अलग बात है, वह जब तक की स्वयं की अग्नि प्रज्वलन के जरिए ना हो..., सतीत्व के अभाव को दर्शाता है.. किंतु कालांतर में स्वार्थीजन, वर्ण-व्यवस्था ने लोक भ्रम के जरिए सत्ता में बने रहने आदि अनेक प्रकार के प्रदूषित वातावरण में महिलाओं को जला देना, पति के मौत के साथ पहले परंपरा बनाया, बाद में प्रथा के रूप में महिमामंडित किया..... और इस प्रदूषित प्रथा का अंत भी हुआ| क्योंकि कोई ना कोई समाज सुधारक प्रदूषण के खिलाफ व्यवस्था परिवर्तन करता ही है|
देश में आजादी के बाद क्योंकि, परामनोविज्ञान और वर्ण व्यवस्था के जरिए.., लोक कल्याण लोकतंत्र की कल्पना में ही नहीं है सिर्फ समतामूलक समाज में एकमात्र बाजारवाद ने आर्थिक पैमाने पर तमाम व्यवस्थाओं और सुविधाओं को तोलना चालू कर दिया ,जिससे लोकहित की बजाए भ्रष्टाचार का प्रोत्साहन हुआ| यह दुर्भाग्य ही है की जहां न्यायपालिका का जज बैठता है..., निर्णय देता हो.. न्याय के प्रति, उसके ठीक नीचे छोटे-छोटे भ्रष्टाचार कुकुरमुत्ता की तरह संरक्षित होते रहते हैं.... औरचूंकि संपूर्ण समाज में भ्रष्टाचार एक आवश्यक उपक्रम के रूप में स्थापित हो गया है.., नए शिष्टाचार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है| क्योंकि भारत की आजादी के बाद आर्थिक विकास क्रम ही व्यक्ति के सामाजिक विकास क्रम का पैमाना बन गया है| जोकि भारत में ब्राह्मणवादी उस दर्शन के विरुद्ध है जो व्यक्ति को अहम् ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म.., के समक्ष रखते हुए उसे ब्रह्म बनने का दर्शन देता था... अब तो ब्रह्म की बात कल्पना मैं भी शायद सोची जाती हो.....? अब तमाम भ्रम ., मंदिर-मस्जिद-जाति और उप-जातियों की अजीबका फर्क व्यवस्था के इर्द-गिर्द आर्थिक आधार पर बनाए और बिगाड़े जाते हैं..... क्योंकि हजारों साल से अहम् ब्रह्मास्मि के अवसर सबको प्राप्त थे... इसलिए भावनाओं का संसार पूंजीवादी व्यवस्था और आर्थिक भ्रष्टाचार के जरिए खरीदा और बेचा जाने लगा है और यही प्रगति की पहचान भी बनती जा रही है..?
कभी संत और महात्मा का मतलब मात्र ऍकवस्त्र में अथवा अत्यावश्यक संसाधन में जीने का संदेश था.., अब वह वैभव के साथ बाजार का उत्पाद बन गया है... और यही कारण है की लोकतांत्रिक समाज में अगुआ दिखने वाला बाजारवादी संत महात्मा जेलों की सलाखों में अपने अपराधों के लिए दंडित किए गए .........
जबकि ब्राह्मणों वर्ण व्यवस्था में यह पहली सुनिश्चित का कायम की थी, की परमनोविज्ञान का व्यक्ति या अधिकारी धन संग्रह के लिए कुपात्र होगा..... फिर देश की आजादी के बाद जितने भी संत महात्मा या साधु बाजारवादी लोग हैं वे सब ज्यादा से ज्यादा धन संग्रह के प्रतीक बनते जा रहे हैं और उसका परिणाम भी सिर्फ 60-70 साल में हमें देखने को मिला की करोड़ों लोगों के आस्था के केंद्र बने आसाराम राम रहीम रामपाल या फिर फलाहारी प्रपन्नाचार्य अनेकानेक आदि आदि लोक चरित्र हनन हत्या और अन्य अपराधों के लिए न्यायालयों से दंडित होकर जेल की सलाखों पर बंद जो यह प्रतीक बन जाता है
हम हजारों साल की वर्ण व्यवस्था के मुखिया होने के बाद, अपवादों को छोड़ दें तो बहुतायत ब्राह्मण आज भी आर्थिक रूप से उतना ही कमजोर है जितना की कोई दलित, इस प्रकार आरक्षण का पहला पदधारी अधिकारी ब्राह्मण स्वतंत्रता के बाद उसी प्रकार से संघर्षरत है जैसे कि कोई अन्य आर्थिक रूप से कमजोर समाज|
यह कहना पूरी तरह से तर्कसंगत, वर्तमान का दृष्टांत भी है की जो संघर्ष दलितों का, आरक्षित अनुसूची में शामिल व्यक्तियों का, राष्ट्रीय मुख्य धारा में आने का है ...,उससे कहीं ज्यादा संघर्ष ब्राह्मणों का अपनी परामनोविज्ञान की विशेषज्ञता को वहन करते हुए... राष्ट्रीय आर्थिक मुख्यधारा मैं आने का है..
तो यह, आप चाहे या ना चाहे स्वतंत्रता का कड़वा सत्य है की ..दलितों और उपेक्षित वर्ग के नागरिकों का तथा ब्राह्मणों का संघर्ष एक जैसा है.... ऐसे में ब्राह्मण नागरिकों को उनके आरक्षण से अलग करके, उन्हें संविधान में ईमानदारी पूर्ण जीवन-पद्धति के अवसर, उनकी स्वतंत्रता जो मौलिक अधिकार है.., के साथ जीने का अधिकार ना देना लोकतंत्र की संविधान की मूल भावनाओं का अपमान है..., यह बात बार-बार सोचनी चाहिए
की ब्राह्मणों का त्याग हजारों साल का सिर्फ लोक कल्याण के लिए ही था..., मात्र कुछ अपवाद हो और वहीं उदाहरण बने यह लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए सिर्फ पतन का कारण होगा...... देश और संविधान क्या करता है.., क्या सोचता है और पतित-आरक्षित-नीतियां जो सिर्फ आरक्षण की परंपरा के चलते "बोट-राजनीति" ने प्रथा बना दिया है..., इतनी प्रदूषित हो गई है| ब्राह्मणों को वर्तमान संघर्ष में अपनी संभावनाओं को तलाश करना पड़ेगा....... "धन संग्रह की कुपात्रता" में रहा.., अचानक जायज और नाजायज तरीके से अपनी योग्यता के जरिए धनसंपदा हासिल कर लिया है..,तो उससे विकास.. खासतौर से परामनोविज्ञान का विकास शायद ही कर पाए....... तो कुछ ना करें , आर्थिक विकास क्रम में... वह कैसे राष्ट्रीय मुख्य धारा मैं बना रहे...?, उसे बार-बार सोचना चाहिए..|
अन्यथा, क्योंकि ब्राह्मण हजारों साल से
अन्यथा धन-संपत्ति का संग्रह की प्रवृत्ति और इससे एकत्रित होने वाला प्रदूषण सिर्फ ब्राह्मणों की पतन की गैरेंटी होगा.... या , जैसे ही ब्राह्मण करोड़पति होगा.., अरबपति होगा तो उसका विकास इस बात पर सुनिश्चित होगा कि वह उसने इस पतित समाज या निम्न कर्म-रत व्यक्ति के समाज या गैर-परामनोविज्ञान वाले समाजों से जुड़ जाएगा .... उस से रिश्तेदारी करेगा और उसे ही अपना आदर्श व विकास मानेगा...... जैसा कि हम वर्तमान में कई परिवारों में होता देख रहे हैं.... याने हजारों साल का विकास और त्याग हम अपनी गलतियों के कारण..... आजादी में आर्थिक दौड़ की गुणवत्ता ही व्यवस्था में फंसकर पतित हो जाते हैं....... और अक्सर यह देखा भी गया है यहां बताना बहुत जरूरी होगा कि मुझे भारत में बहुत कम संख्या में रहने वाला जैन समाज के एक व्यक्ति ने कहा की चूकी उनके समाज में लड़कियां का अनुपात घटता जा रहा है पुरुषों की अपेक्षा, इसलिए अब जैन मुनियों ने यह संदेश दिया है की वह जैन समाज से हतकर ब्राह्मण, क्षेत्रीय ,वैश्य परिवार की लड़कियों से शादी करें ताकि उनका समाज आगे चल सके| दूसरी बात हमने देखा है हाल में ही शहडोल में पढ़ा-लिखा ब्राह्मण समाज अपने योग्य पढ़े लिखे लड़के और लड़कियों को पूरी सामाजिक मान्यता के साथ दूसरे समाज यने आर्थिक रूप से संपन्न समाज में शादी करने में कोई झिझक नहीं रखते... किंतु ऐसा करके वे अपने ब्राह्मण समाज के अवसरों को कम कर रहे हैं..., जहां उत्कृष्ट बौद्धिक ब्राह्मण परिवार देख सकें.. बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर करने में भी बुद्धिमानी का गर्व अनुभव करते हैं.. ऐसे लोग वास्तव में अहम् ब्रह्मास्मि की अवधारणा से पतित हो कर मात्र कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी के लिए काम कर रहे होते हैं...., इसमें कोई शक नहीं| अपवादों को छोड़ दें तो आर्थिक मुख्यधारा में सामाजिक विकास क्रम में अपनी भूमिका तय करने का यह एक अवसर भी है साथ ही समाज के गद्दार या फिर भीतरघात करने वाला अवसर भी......
मुझे कोल्हापुर में शंकराचार्य मठ के मुखिया ने एक प्रश्न रखा की " ........आप यह जरूर प्रश्न करें 'यदि शेरों और बाघों के संरक्षण के लिए व्यवस्था है.., तो ब्राह्मणों की संरक्षण का क्या .....?"
यह शासन से बार बार पूछना चाहिए और यह बात मुझे जायज भी लगती है, की हजारों साल से संपदा की संग्रह के त्याग की प्रवृत्ति कर लोक कल्याण का फरा मनोविज्ञान का विशेषज्ञ समाज ब्राह्मण स्वयं के साथ कैसे न्याय कर पाता है इसलिए ब्राह्मणों को ही अपनी व्यथा और अवस्था पर सहज विकास क्रम की धारा सुनिश्चित करना चाहिए, अन्यथा तत्कालिक माया यानी धन-संपदा के प्रति हमारा आकर्षण हमें पतित समाज के समकक्ष गौरव हीन और कीड़े-मकोड़े की जीवन हेत विवस करेेगा....? अब यह एक अलग बात है कि आपका ब्राह्मण परिवार किसी दलित की नाली का कीड़ा बनेगा या फिर 5 स्टार, 7 स्टार होटल की गटर का.....?
आपको ठीक है क्योंकि जातिवादी आरक्षण की प्रथा किसी सती प्रथा या दहेज प्रथा से भी ज्यादा खूंखार व खतरनाक है..., जो दिखेगी तो नहीं किंतु आप को नष्ट कर देगी.. यह उस आरक्षण के खिलाफ भी है जो ब्राह्मणों ने धन संग्रह के लिए कुपात्र से जुड़ती थी... तो सोचिए और बार-बार सोचिए कि आप धन कमा ही लिए हैं तो यह कैसे लोकहित का.., ट्रस्ट का कारण बने.., कम से कम पति-पत्नी, परिवार-हित का.., समाज हित का...., फिर देश हित का..., इस प्रकार से लोकहित मात्र का...|
यह बार-बार याद रखना चाहिए कि हम ब्राह्मण तभी ब्रह्मास्मि हैं जब तक हम ट्रस्टी हैं..., हमारा ट्रस्ट खत्म.., हम भी खत्म.| फिर चाहे छुपकर करें या फिर खुलकर... यह आपको तय करना है... यदि आपने सही निर्णय लिया तो आप कह सकेंगे अहम् ब्रह्मास्मि... ( शेष भाग 2 में....)
धन-संग्रह की कुपात्रता का आरक्षण.....
एक व्यथा की बर्बाद कथा
( त्रिलोकीनाथ )
जब भी कभी आर्यावर्त भारत के सामाजिक विकास में वर्ण व्यवस्था का प्रावधान हुआ होगा तो हजारों साल पहले आरक्षण की व्यवस्था ब्राह्मणों ने पहले पहल की होगी, यकीनन तार्किक आधार पर यह प्रमाणित होता है कि ब्राह्मणों ने जब आरक्षण का प्रावधान लागू किया तो वर्ण व्यवस्था में यह सुनिश्चित किया गया होगा की आरक्षण का पहला लाभ ब्राह्मण वर्ण को "चतुर-वर्ण-व्यवस्था" में मिलेगा| किंतु यह शर्त सुनिश्चित की जाती है कि आरक्षण पद पर चतुर वर्ण व्यवस्था में याने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में ब्राह्मण सर्वोच्च पदधारी परा-मनोविज्ञान का विशेषज्ञ होगा और इस पद के लिए यह शर्त लागू की गई आरक्षण इस बात का होगा कि ब्राह्मण धन संग्रह के लिए कुपात्र होगा | सभी सुविधाएं उसे अन्य वर्णों से प्राप्त होंगी तो वह सिर्फ परा मनोविज्ञान के जरिए सामाजिक सुधार, लोकतांत्रिक मर्यादाओं का नीति निर्धारक सूत्र बनेगा| कुल मिलाकर ब्राह्मण आरक्षण का पहला अधिकारी स्वयं को व्यवस्था में सुनिश्चित किया कि वह" धन संग्रह के लिए कुपात्र आरक्षित वर्ग" का व्यक्ति होगा |
यह बात यूं ही किसी कल्पना में अथवा निराधार या फिर किसी ईर्ष्या के आधार पर नहीं है, बल्कि यदि यह सुनिश्चित किया गया था कि ब्राह्मण चतुर वर्ण व्यवस्था का शीर्ष पद पदाधिकारी है तो धन संग्रह की कुपात्रता ब्राह्मण को हमेशा रहेगी.. ,क्योंकि उसको इस चीज की जरूरत नहीं है, ब्राह्मण का मान-सम्मान, रहने-खाने की और उसके सुरक्षा की गारंटी समाज के तीन वर्णों की नैतिक जिम्मेदारी रही| बावजूद इसके कि वह समाज का संपूर्ण राज्य का प्रमुख होता था, वह चाहता तो जमीन ,धन ,संपदा, वैभव कर लेता जो वर्तमान में राजा महाराजाओं के पास रही......?
किंतु हजारों साल बाद वर्तमान में ऐसा दिख नहीं रहा... तो यह सिद्ध होता है कि आरक्षित परिवेश में ब्राह्मण समाज का अगुआ रहा, बिना उसकी अनुमति के सामाजिक विकास क्रम, शुचिता पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का नहीं हो | वर्तमान में कई ब्राह्मण धन संपदा से बहुत गरीब हैं, किंतु सामाजिक विकास में जो उसने ग्रहण किया.., लोक कल्याण, दैनिक सामाजिक कल्याण हेतु था| उसका निजी संग्रह उसे प्रदूषित कर सकता था.....? उसके परा-मनोवैज्ञानिक कार्यों में अपेक्षित शिक्षा व सुचिता हेतु जो जरूरी था| इसलिए विद्वान ब्राह्मण हमेशा धन संग्रह से तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था में प्रायः दूर रहते थे|
क्योंकि जब देश स्वतंत्र हुआ तो इन्हें स्वाभाविक रूप से माना गया कि ब्राह्मण राष्ट्रीय मुख्यधारा के वाहक रहे किंतु स्वतंत्रता के बाद जब अन्य नागरिकों को आरक्षण देने की बात हुई तो उन्हें राष्ट्रीय मुख्य धारा में लाने का संकल्प कुछ अवधि के लिए किया गया था| जिसके अनेकानेक साधन व संसाधन है, आर्थिक स्वाबलंबन भी एक तरीका था नौकरी में आरक्षण भी| अजीबका के जरिए राष्ट्रीय मुख्यधारा का मानक रहा| स्वतंत्रता के बाद इस पहलू पर शायद विचार ही नहीं किया गया तथाकथित मनुवादी वर्ण व्यवस्था के जरिए भारत के आदर्श सामाजिक विकास में ब्राह्मणों का आरक्षण हजारों साल से इस बात के लिए सुनिश्चित था कि वह धन संग्रह अथवा संपत्ति संग्रह के लिए कुपात्र रहेगा और वहीं उसके मनोविज्ञान की सुचिता और उसके प्रगति के लिए एक आवश्यक संसाधन रहा जिसका तत्कालीन राज तांत्रिक व्यवस्था ने अनुपालन किया और इस कारण मुख्यधारा में भलाई ब्राह्मण-समाज प्रगतिशील मापदंड में भौतिक रूप से फिट बैठता था..., आर्थिक रूप से वह हजारों साल से दूसरों के भरोसे याने तीन-वर्णों के भरोसे ही था.......?|
देश की स्वतंत्रता के बाद इस विषय पर सोचने का काम आजादी के नेताओं ने शायद इसलिए नहीं किया| क्योंकि तमाम प्रकार के सामाजिक पतन और प्रदूषण के लिए ब्राह्मण को उनकी नीतियों को दोषी ठहराया गया| यह कोई नई बात नहीं है.... जब भी कोई परंपरा या व्यवस्था प्रथा के रूप में परिवर्तित होती है और वह प्रथा बन जाती है.., तो उसका पतन होने लगता है... कभी विवाह में कन्या के विदाई के साथ दहेज की परंपरा महान परंपरा मानी जाती थी.., क्योंकि इसमें ब्राह्मणों का बनाया परा-मनोविज्ञान की सभी व्यवस्थाएं थी किंतु निहितपरा-मनोविज्ञान सुनिश्चित उद्देश्य पूर्ति के साथ सामाजिक विकास का अनदेखा किया गया और सिर्फ दहेज धन-संपदा कुप्रथा की आवश्यक शर्त के साथ जोड़ दिया गया,यह स्वार्थी समाज की सोच थी...... ब्राह्मणों की बिल्कुल नहीं....|
यही कारण है कि दहेज कि दान का भाव.., दान में छुपी तमाम प्रकार के मानवी त्याग की प्रेरणा का भाव पतित होता चला गया तथा सिर्फ धन-संपत्ति की लालच ने दहेज व दया-दान की प्रवृत्ति को इतना प्रदूषित कर दिया की तमाम प्रकार की सामाजिक हत्याएं, परिवार का विनाश का कारण बन गया |और समाज पतित हुआ.., बदनाम हुआ वह अलग| अतः यह विचार क्योंकि ब्राह्मणों ने परा-मनोविज्ञान लोक कल्याण और मानव कल्याण समदर्शी दर्शन हेतु चुना था |अब तो ब्राह्मणों के परा-मनोविज्ञान की तो बहुत दूर की बात हो गई... देश में स्वतंत्रता के बाद नए संविधान में वर्ण व्यवस्था की कानूनी अनुपालन खत्म हो गया| इस हालत में नए संविधानओं को बार-बार लोक हितों का ध्यान रखना चाहिए|
निश्चित तौर पर भारत के संविधान में ब्राह्मणों के हजारों सालों से चले आए धन-संपत्ति की कुपात्रत् का आरक्षण या कहना चाहिए धन-संपदा के त्याग और उसे पर्याप्त दूरी के जरिए बनाए गए कानून का जरा भी वर्तमान संविधान में प्रावधान या सोच भी नहीं डाली गई है......? और यही कारण है वर्तमान राज्य सत्ता परा-मनोविज्ञान की धार्मिक प्रतीकों मंदिरों-मठों आदि में ब्राह्मण इतर पुजारियों के बारे में सोचते हैं| किंतु हजारों साल से आरक्षण प्राप्त ब्राह्मण के हितों के बारे में उनकी आर्थिक संभलता के बारे में नहीं सोच पाते....?
दूसरा उदाहरण लें परामनोविज्ञान के जरिए सती-प्रथा कभी मानवीय संबंधों की अग्नि परीक्षा हुआ करती थी, सती का सम्मान भारत के लोक पुराण वगैरा मैं आज भी पूजनीय है... किंतु सती होना एक अलग बात है, वह जब तक की स्वयं की अग्नि प्रज्वलन के जरिए ना हो..., सतीत्व के अभाव को दर्शाता है.. किंतु कालांतर में स्वार्थीजन, वर्ण-व्यवस्था ने लोक भ्रम के जरिए सत्ता में बने रहने आदि अनेक प्रकार के प्रदूषित वातावरण में महिलाओं को जला देना, पति के मौत के साथ पहले परंपरा बनाया, बाद में प्रथा के रूप में महिमामंडित किया..... और इस प्रदूषित प्रथा का अंत भी हुआ| क्योंकि कोई ना कोई समाज सुधारक प्रदूषण के खिलाफ व्यवस्था परिवर्तन करता ही है|
देश में आजादी के बाद क्योंकि, परामनोविज्ञान और वर्ण व्यवस्था के जरिए.., लोक कल्याण लोकतंत्र की कल्पना में ही नहीं है सिर्फ समतामूलक समाज में एकमात्र बाजारवाद ने आर्थिक पैमाने पर तमाम व्यवस्थाओं और सुविधाओं को तोलना चालू कर दिया ,जिससे लोकहित की बजाए भ्रष्टाचार का प्रोत्साहन हुआ| यह दुर्भाग्य ही है की जहां न्यायपालिका का जज बैठता है..., निर्णय देता हो.. न्याय के प्रति, उसके ठीक नीचे छोटे-छोटे भ्रष्टाचार कुकुरमुत्ता की तरह संरक्षित होते रहते हैं.... औरचूंकि संपूर्ण समाज में भ्रष्टाचार एक आवश्यक उपक्रम के रूप में स्थापित हो गया है.., नए शिष्टाचार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है| क्योंकि भारत की आजादी के बाद आर्थिक विकास क्रम ही व्यक्ति के सामाजिक विकास क्रम का पैमाना बन गया है| जोकि भारत में ब्राह्मणवादी उस दर्शन के विरुद्ध है जो व्यक्ति को अहम् ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म.., के समक्ष रखते हुए उसे ब्रह्म बनने का दर्शन देता था... अब तो ब्रह्म की बात कल्पना मैं भी शायद सोची जाती हो.....? अब तमाम भ्रम ., मंदिर-मस्जिद-जाति और उप-जातियों की अजीबका फर्क व्यवस्था के इर्द-गिर्द आर्थिक आधार पर बनाए और बिगाड़े जाते हैं..... क्योंकि हजारों साल से अहम् ब्रह्मास्मि के अवसर सबको प्राप्त थे... इसलिए भावनाओं का संसार पूंजीवादी व्यवस्था और आर्थिक भ्रष्टाचार के जरिए खरीदा और बेचा जाने लगा है और यही प्रगति की पहचान भी बनती जा रही है..?
कभी संत और महात्मा का मतलब मात्र ऍकवस्त्र में अथवा अत्यावश्यक संसाधन में जीने का संदेश था.., अब वह वैभव के साथ बाजार का उत्पाद बन गया है... और यही कारण है की लोकतांत्रिक समाज में अगुआ दिखने वाला बाजारवादी संत महात्मा जेलों की सलाखों में अपने अपराधों के लिए दंडित किए गए .........
जबकि ब्राह्मणों वर्ण व्यवस्था में यह पहली सुनिश्चित का कायम की थी, की परमनोविज्ञान का व्यक्ति या अधिकारी धन संग्रह के लिए कुपात्र होगा..... फिर देश की आजादी के बाद जितने भी संत महात्मा या साधु बाजारवादी लोग हैं वे सब ज्यादा से ज्यादा धन संग्रह के प्रतीक बनते जा रहे हैं और उसका परिणाम भी सिर्फ 60-70 साल में हमें देखने को मिला की करोड़ों लोगों के आस्था के केंद्र बने आसाराम राम रहीम रामपाल या फिर फलाहारी प्रपन्नाचार्य अनेकानेक आदि आदि लोक चरित्र हनन हत्या और अन्य अपराधों के लिए न्यायालयों से दंडित होकर जेल की सलाखों पर बंद जो यह प्रतीक बन जाता है
हम हजारों साल की वर्ण व्यवस्था के मुखिया होने के बाद, अपवादों को छोड़ दें तो बहुतायत ब्राह्मण आज भी आर्थिक रूप से उतना ही कमजोर है जितना की कोई दलित, इस प्रकार आरक्षण का पहला पदधारी अधिकारी ब्राह्मण स्वतंत्रता के बाद उसी प्रकार से संघर्षरत है जैसे कि कोई अन्य आर्थिक रूप से कमजोर समाज|
यह कहना पूरी तरह से तर्कसंगत, वर्तमान का दृष्टांत भी है की जो संघर्ष दलितों का, आरक्षित अनुसूची में शामिल व्यक्तियों का, राष्ट्रीय मुख्य धारा में आने का है ...,उससे कहीं ज्यादा संघर्ष ब्राह्मणों का अपनी परामनोविज्ञान की विशेषज्ञता को वहन करते हुए... राष्ट्रीय आर्थिक मुख्यधारा मैं आने का है..
तो यह, आप चाहे या ना चाहे स्वतंत्रता का कड़वा सत्य है की ..दलितों और उपेक्षित वर्ग के नागरिकों का तथा ब्राह्मणों का संघर्ष एक जैसा है.... ऐसे में ब्राह्मण नागरिकों को उनके आरक्षण से अलग करके, उन्हें संविधान में ईमानदारी पूर्ण जीवन-पद्धति के अवसर, उनकी स्वतंत्रता जो मौलिक अधिकार है.., के साथ जीने का अधिकार ना देना लोकतंत्र की संविधान की मूल भावनाओं का अपमान है..., यह बात बार-बार सोचनी चाहिए
की ब्राह्मणों का त्याग हजारों साल का सिर्फ लोक कल्याण के लिए ही था..., मात्र कुछ अपवाद हो और वहीं उदाहरण बने यह लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए सिर्फ पतन का कारण होगा...... देश और संविधान क्या करता है.., क्या सोचता है और पतित-आरक्षित-नीतियां जो सिर्फ आरक्षण की परंपरा के चलते "बोट-राजनीति" ने प्रथा बना दिया है..., इतनी प्रदूषित हो गई है| ब्राह्मणों को वर्तमान संघर्ष में अपनी संभावनाओं को तलाश करना पड़ेगा....... "धन संग्रह की कुपात्रता" में रहा.., अचानक जायज और नाजायज तरीके से अपनी योग्यता के जरिए धनसंपदा हासिल कर लिया है..,तो उससे विकास.. खासतौर से परामनोविज्ञान का विकास शायद ही कर पाए....... तो कुछ ना करें , आर्थिक विकास क्रम में... वह कैसे राष्ट्रीय मुख्य धारा मैं बना रहे...?, उसे बार-बार सोचना चाहिए..|
अन्यथा, क्योंकि ब्राह्मण हजारों साल से
अन्यथा धन-संपत्ति का संग्रह की प्रवृत्ति और इससे एकत्रित होने वाला प्रदूषण सिर्फ ब्राह्मणों की पतन की गैरेंटी होगा.... या , जैसे ही ब्राह्मण करोड़पति होगा.., अरबपति होगा तो उसका विकास इस बात पर सुनिश्चित होगा कि वह उसने इस पतित समाज या निम्न कर्म-रत व्यक्ति के समाज या गैर-परामनोविज्ञान वाले समाजों से जुड़ जाएगा .... उस से रिश्तेदारी करेगा और उसे ही अपना आदर्श व विकास मानेगा...... जैसा कि हम वर्तमान में कई परिवारों में होता देख रहे हैं.... याने हजारों साल का विकास और त्याग हम अपनी गलतियों के कारण..... आजादी में आर्थिक दौड़ की गुणवत्ता ही व्यवस्था में फंसकर पतित हो जाते हैं....... और अक्सर यह देखा भी गया है यहां बताना बहुत जरूरी होगा कि मुझे भारत में बहुत कम संख्या में रहने वाला जैन समाज के एक व्यक्ति ने कहा की चूकी उनके समाज में लड़कियां का अनुपात घटता जा रहा है पुरुषों की अपेक्षा, इसलिए अब जैन मुनियों ने यह संदेश दिया है की वह जैन समाज से हतकर ब्राह्मण, क्षेत्रीय ,वैश्य परिवार की लड़कियों से शादी करें ताकि उनका समाज आगे चल सके| दूसरी बात हमने देखा है हाल में ही शहडोल में पढ़ा-लिखा ब्राह्मण समाज अपने योग्य पढ़े लिखे लड़के और लड़कियों को पूरी सामाजिक मान्यता के साथ दूसरे समाज यने आर्थिक रूप से संपन्न समाज में शादी करने में कोई झिझक नहीं रखते... किंतु ऐसा करके वे अपने ब्राह्मण समाज के अवसरों को कम कर रहे हैं..., जहां उत्कृष्ट बौद्धिक ब्राह्मण परिवार देख सकें.. बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर करने में भी बुद्धिमानी का गर्व अनुभव करते हैं.. ऐसे लोग वास्तव में अहम् ब्रह्मास्मि की अवधारणा से पतित हो कर मात्र कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी के लिए काम कर रहे होते हैं...., इसमें कोई शक नहीं| अपवादों को छोड़ दें तो आर्थिक मुख्यधारा में सामाजिक विकास क्रम में अपनी भूमिका तय करने का यह एक अवसर भी है साथ ही समाज के गद्दार या फिर भीतरघात करने वाला अवसर भी......
मुझे कोल्हापुर में शंकराचार्य मठ के मुखिया ने एक प्रश्न रखा की " ........आप यह जरूर प्रश्न करें 'यदि शेरों और बाघों के संरक्षण के लिए व्यवस्था है.., तो ब्राह्मणों की संरक्षण का क्या .....?"
यह शासन से बार बार पूछना चाहिए और यह बात मुझे जायज भी लगती है, की हजारों साल से संपदा की संग्रह के त्याग की प्रवृत्ति कर लोक कल्याण का फरा मनोविज्ञान का विशेषज्ञ समाज ब्राह्मण स्वयं के साथ कैसे न्याय कर पाता है इसलिए ब्राह्मणों को ही अपनी व्यथा और अवस्था पर सहज विकास क्रम की धारा सुनिश्चित करना चाहिए, अन्यथा तत्कालिक माया यानी धन-संपदा के प्रति हमारा आकर्षण हमें पतित समाज के समकक्ष गौरव हीन और कीड़े-मकोड़े की जीवन हेत विवस करेेगा....? अब यह एक अलग बात है कि आपका ब्राह्मण परिवार किसी दलित की नाली का कीड़ा बनेगा या फिर 5 स्टार, 7 स्टार होटल की गटर का.....?
आपको ठीक है क्योंकि जातिवादी आरक्षण की प्रथा किसी सती प्रथा या दहेज प्रथा से भी ज्यादा खूंखार व खतरनाक है..., जो दिखेगी तो नहीं किंतु आप को नष्ट कर देगी.. यह उस आरक्षण के खिलाफ भी है जो ब्राह्मणों ने धन संग्रह के लिए कुपात्र से जुड़ती थी... तो सोचिए और बार-बार सोचिए कि आप धन कमा ही लिए हैं तो यह कैसे लोकहित का.., ट्रस्ट का कारण बने.., कम से कम पति-पत्नी, परिवार-हित का.., समाज हित का...., फिर देश हित का..., इस प्रकार से लोकहित मात्र का...|
यह बार-बार याद रखना चाहिए कि हम ब्राह्मण तभी ब्रह्मास्मि हैं जब तक हम ट्रस्टी हैं..., हमारा ट्रस्ट खत्म.., हम भी खत्म.| फिर चाहे छुपकर करें या फिर खुलकर... यह आपको तय करना है... यदि आपने सही निर्णय लिया तो आप कह सकेंगे अहम् ब्रह्मास्मि... ( शेष भाग 2 में....)
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