बुधवार, 3 अप्रैल 2019


 डॉन की राजनीति
बबुआ बनाम  निरहुआ

======त्रिलोकीनाथ=========

उत्तर भारत में  जब  देवकी नंदन बहुगुणा के खिलाफ  कांग्रेस ने अमिताभ बच्चन को उतारा था  तो शायद पहला अवसर था  जब किसी  सीने माई कलाकार को  उसकी नाटक नौटंकी के लिए  वोट मिला था  यह अलग बात है  कि नैतिक रूप से अमिताभ बच्चन ने  राजनीति की धरातल को  जल्द ही बाय बाय कर लिया  और अपनी दुनिया में वापस चले गए  और सदी के महानायक कहलाए
1942 के आंदोलन में इनामी क्रांतिकारी थे, यूपी की राजनीति में नामी नेता बने हेमवती नंदन बहुगुणा
1919 को तत्कालीन पौड़ी जिले के बुधाणी गांव में हेमवती नंदन का जन्म हुआ था. 1936 से 1942 तक हेमवती नंदन छात्र आंदोलनों में शामिल रहे थे. वो वक्त ही ऐसा था कि जिससे जितना हो सकता था, वो करता था. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हेमवती के काम ने उन्हें लोकप्रियता दिला दी. अंग्रेजों ने हेमवती को जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर 5 हजार का इनाम रखा था. आखिरकार 1 फरवरी 1943 को दिल्ली के जामा मस्जिद के पास हेमवती गिरफ्तार हुए थे. पर 1945 में छूटते ही फिर बैंड बजा दी थी अंग्रेजों की. तुरंत ही देश भी आजाद हो गया.
विपक्ष के दिग्गज पूर्व मुख्यमंत्री चन्द्रभानु गुप्ता की छल-बल लगाकर ज़मानत भी ज़ब्त करवा दी थी. किंवदंतियां हैं कि चन्द्रभानु गुप्ता उनसे पूछते थे- रे नटवर लाल, हराया तो ठीक, लेकिन ज़मानत कैसे ज़ब्त करायी मेरी, ये तो बता. बहुगुणा का जवाब था- आपकी ही सिखाई घातें हैं गुरु देव. (वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी राजीव नयन बहुगुणा की फेसबुक वॉल से)



इमरजेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के खिलाफ जंग छेड़ दी थी. इसी सिलसिले में वो लखनऊ भी गये. बहुगुणा ने उनको रोका नहीं. बल्कि रेड कारपेट वेलकम दिया. जयप्रकाश नारायण इतने प्रभावित हुए कि यूपी सरकार के खिलाफ एक भी प्रदर्शन नहीं किया. वापस हो गये. पर इंदिरा बहुगुणा से नाराज हो गईं.


इंदिरा का बदला लेने का अनूठा तरीका था. एकदम अपमानित कर देना. छह महीने के अंदर ही बहुगुणा ने कांग्रेस पार्टी के साथ ही लोकसभा की सदस्यता भी छोड़ दी. 1982 में इलाहाबाद की इसी सीट पर हुए उपचुनाव में भी जीत हासिल की थी. लेकिन 1984 का चुनाव उनके लिए काल बनकर आया. राजीव गांधी ने अमिताभ बच्चन को खड़ा कर दिया. पर बहुगुणा का राजनीतिक कद बहुत बड़ा था. बहुगुणा ने अमिताभ के खिलाफ दबा के प्रचार भी किया था-
हेमवतीनंदन इलाहाबाद का चंदन.
दम नहीं है पंजे में, लंबू फंसा शिकंजे में.
सरल नहीं संसद में आना, मारो ठुमका गाओ गाना.

बच्चन ने बहुगुणा को 1 लाख 87 हजार वोट से हराया. बहुगुणा कांग्रेस छोड़कर लोकदल में आये थे. यहां देवीलाल और शरद यादव ने उन पर गंभीर आरोप लगाने शुरू कर दिये, जिससे वो अंदर से टूट गये थे.
 इस हार के बाद बहुगुणा ने राजनीति से संन्यास ले लिया. पर्यावरण संरक्षण के कामों में लग गये.
3 साल बाद अमिताभ ने सीट छोड़ दी, राजनीति से संन्यास ले लिया.और उसी दौरान हेमवती नंदन बहुगुणा की मौत हो गई.
 किंतु यह स्वस्थ भारत में राजनीतिज्ञों की आत्महत्या का ही एक प्रकार था लेकिन  अद-कचरे  क्षेत्री कलाकार  इतनी  समझ ले कर  जीवन नहीं जीते . वह तो बस अजीबका के लिए  राजनीत को चुनते हैं  क्योंकि उन्हें मालूम होता है  कि नाटक-नौटंकी की दुनिया  सफलता की गारंटी  नहीं देती है..?  उसका भविष्य  अस्थाई है,  सपने जैसा है..  इसलिए जल्द ही  एक मुकाम में पहुंचने के बाद  किसी  पेड़ की छाया में  अपना भविष्य में देखते हैं  और राजनीति का पेड़  उन्हें  स्थाई जान पड़ता है | मनोज तिवारी , भोजपुरी कलाकार  एक बड़ा उदाहरण है  जो  भोजपुरी क्षेत्र से निकल कर  दिल्ली की राजनीति में हाथ पैर मार रहे हैं  फिलहाल भाजपा ने उन्हें  हीरो बना कर रखा है|
 अब तो राजनीति में भी वे दिन लद गए हैं,  कभी कोई डॉन  आएगा और  किसी  लौहपुरुष  लालकृष्ण आडवाणी को  घर बैठा देगा  बिना बताए,  बिना समझाएं , बिना  किसी विनम्रता के जैसे  राजतंत्र में  अक्सर हुआ करता था  कि राजे-महाराजे  अपने  बाप-चाचा या परिवार को  नजर बंद कर देते थे  या फिर जेल में भेज देते हैं  और ज्यादा परेशानी हुई तो हत्या करवा देते थे | अब लोकतंत्र में  ना रजवाड़े हैं,  ना राजमहल ;  जहां नजरबंद  घोषित तौर पर किया जाए .., हत्या  एक अपराध है .. इसलिए  किसी अन्य तरीके से फिलहाल जो चल रहा है  उसके जरिए  राजनीतिक-संस्था  को उसके घर बैठाया जाता है,  जैसे लालकृष्ण आडवाणी , मुरली मनोहर जोशी,  शत्रुघ्न सिन्हा, अरुणशौरी, यशवंत सिन्हा , जसवंत सिंह  और कितने ही नाम  गिनाए जा सकते हैं  हालांकि कांग्रेस ने  भी यही किया है  किंतु उसने जब किसी को नेता ही नहीं बनाया..? तो घर कैसे बैठाते | जो चेहरे आए भी, हेमवती नंदन बहुगुणा से लेकर अर्जुनसिंह, माधवरावसिंधिया  आदि.. आदि  वे या तो  नाराज होकर पार्टी छोड़ दिए या फिर  पार्टी में शामिल होकर दिल-दिमाग से काम किया | कम से कम नजरबंद तो कभी नहीं रहे|

 अब बदलाव का दौर है , लालकृष्ण आडवाणी की उम्र के लोग  के बारे में  बीता हुआ कल  कहा जा सकता है  कि नए दौर में  नई राजनीति का  चलन चल पड़ा है  किंतु  एक प्रकार के राजनीतिक संस्था भी थी  जिससे युवा पीढ़ी को बहुत कुछ सीखना था,  राजनीति के लिए|  किंतु राजनीति ही वैसी नहीं रही  इसलिए राजनीति का नकाब पहनकर कोई भी नाटक-नौटंकी वाला  राजनीति क्षेत्र में अतिक्रमण करने के लिए कहीं भी भेज दिया जाता है|  राजनीतिक परिवार के उत्तराधिकारी  अखिलेश यादव  युवा राजनीति की  एक प्रकार है  और क्योंकि मुख्यमंत्री रह चुके हैं  तो एक अनुभवी  भी | ऐसे में  यह लोकतांत्रिक  जिम्मेवारी होती  तो युवा के प्रति किसी युवा राजनीति को को  ही  प्रतियोगिता में भेजा भेजा जाता 
 किंतु ऐसा नहीं हुआ,  उन्हें बबुआ बनाकर,  निरहुआ को  सामने खड़ा कर दिया गया ....? इसके पहले भी  डॉन की राजनीति ने  पप्पू के सामने टीवी-स्टार स्मृतिईरानी को राजनीत का नकाब पहना कर  प्रतियोगिता में खड़ा किया था और  इस तरह  युवा राजनीतिज्ञों के खिलाफ  एक ऐसी नाटक-नौटंकी वाली मंडली  को प्रतियोगिता में खड़ा किया जा रहा है ताकि यह दिखाया या भ्रामक वातावरण बनाया जा सके  कि राजनीतिज्ञ अब पैदा ही नहीं होते  या उनका निर्माण ही नहीं हो रहा है  अथवा भी  नाटक-नौटंकी वालों से पहले जीते, बाद में संसद पहुंचे....?
 यह  घटना  ठीक उसी प्रकार की है जैसे शहडोल के  तब सुहागपुर विधानसभा क्षेत्र में  राजनीतिज्ञों  से  थक-हारकर  निराशा और हताशा के हालात में  जनता  ने जैसे ही मौका मिला  शबनम मौसी  एक-किन्नर को  चुनाव जीता दिया|  किंतु  यह एक प्रकार का मोटा को वोट करने जैसा  कार्य था..?  लेकिन अगर  राहुलगांधी के खिलाफ  स्मृति ईरानी  अथवा  अखिलेश यादव के खिलाफ  निरहुआ  को खड़ा किया जाता है  ते यह  उसी प्रकार की राजनीतिक कार्य प्रणाली है जैसे कि लालकृष्ण आडवाणी  या मुरलीमनोहर जोशी जैसे नेताओं को  उनके घर में  नजर बंद कर दिया जाए ...? यह एक अलग बात है  कि वे आडवाणी अपनी राजनीति के बंधुआ मजदूर हैं  तो  छुप कर रह गए...? अपनी विचारधारा के कारण..,
 प्रतियोगिता में  दूसरी विचारधारा है  तो कौन किस को पटका नहीं देता है भोजपुरी कलाकार दिनेशयादव निरहुआ को बीजेपी ने पूर्वी यूपी की आज़मगढ़ लोकसभा सीट से प्रत्याशी घोषित किया है. इसी सीट से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष व यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं. 
कहते है।भोजपुरी स्टार दिनेश निरहुआ सपा के लिए चुनाव प्रचार भी कर चुके हैं. लेकिन अब वक्त का पहिया कुछ यूं घूमा कि दिनेश लाल यादव उसी नेता के ख़िलाफ़ चुनावी मैदान में उतर रहे हैं, जिनके लिए कभी वोट मांगा करते थे . हालांकि  ये सीट सपा की परंपरागत सीट मानी जाती है. फिलहाल आज़मगढ़ लोकसभा सीट से मुलायम सिंह यादव सांसद हैं. पूर्वांचल में आज़मगढ़ को समाजवादियों का गढ़ भी कहा जाता है.
निरहुआ के सामने दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी के स्थानीय नेता होंगे. पिछली बार रमाकांत यादव आज़मगढ़ से लोकसभा का चुनाव लड़े थे और हार गए थे. रमाकांत का आज़मगढ़ में अच्छा दबदबा है. इस बार भी रमाकांत आज़मगढ़ से चुनाव लड़ना चाह रहे थे लेकिन बीजेपी ने रमाकांत को टिकट नहीं दिया. रमाकांत की नाराज़गी निरहुआ पर भारी पड़ सकती है. कांग्रेस अखिलेश यादव के ख़िलाफ़ अपना प्रत्याशी नहीं उतारेगी, इससे मुस्लिम वोटों में बंटवारा नहीं होगा. 2017 के विधानसभा चुनाव में आज़मगढ़ की 10 विधानसभा सीट में से सपा- 5, बीएसपी- 4 और बीजेपी सिर्फ 1 सीट जीती थी. आज़मगढ़ लोकसभा सीट का जातीय समीकरण देखें तो यह सीट यादव-मुस्लिम बाहुल्य मानी जाती है. यह देखने लायक होगा कि भारत में किस वीं सदी की राजनीति और संसदीय प्रणाली किस तरफ जा रही है क्या हम स्वस्थ राजनीतिक प्रणाली को विकसित करने में असफल सिद्ध हो रहे हैं.......?


यह अलग बात है कि तब डॉन की राजनीति कुछ समय के लिए इंदिरा गांधी ने की और अब डॉन की राजनीति कोई और कर रहा है लेकिन जब भी राजनीति में डॉन की हरकत देखी गई, उसने अपने महफिल में नाटक-नौटंकी वालों को अपने दरबार में हमेशा रखना चाहा और शायद यही राजनीति का पतन भी है......



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