"देशभक्ति -जनसेवा"
दरकार ,एक पत्रकार-वार्ताकी.......
एक
अरसा हो गया दिल और दिमाग दोनों ही तरस गए कि कलेक्टर और एसपी एक साथ बैठकर
पत्रकार वार्ता करें ,संयुक्त रूप से
पत्रकार वार्ता में खुली बहस भी हो सके। पूर्व में कभी यह दो महान शख्सियत जिले की
अक्सर साथ- साथ होकर पत्रकार वार्ता करती थी, शायद
पत्रकारों को भी इस बात की जरूरत थी और एसपी और कलेक्टर को भी।
अब
समय बीत गया है पत्रकारिता के साथ मीडिया, मल्टी-मीडिया, पोर्टल -चैनल ,इलेक्ट्रॉनिक जर्नलिस्ट आदि -आदि स्वरूप में पत्रकारिता ने स्वयं जाकर अफसरों की सुविधा के
हिसाब से संवाद बना लेते हैं। इससे दोनों ही पक्षों को सुविधा रहती है...। नतीजतन
पत्रकारिता के लिए सामूहिक संवाद
------त्रिलोकीनाथ------------------
,पत्रकार-वार्ता के
हालात तभी पैदा होते हैं जब कभी खासतौर से पुलिस विभाग में ,जब कभी कोई पुलिस के अनुसार बड़ा क्राइम हो गया होता है ...? जरूरी नहीं है पत्रकारिता के हिसाब से वह बड़ा क्राइम हो।
किंतु सुविधा का संतुलन पुलिस की पत्रकारिता को कवर करती है ।
बहरहाल
शहडोल आदिवासी संभाग का मुख्यालय भी है और जिला मुख्यालय भी, इसलिए खासतौर से चुनाव के वक्त पुलिस विभाग को या पुलिस के
अफसरों को पत्रकार वार्ता करनी ही चाहिए अगर लोकतंत्र में ऐसी पत्रकार वार्ताएं
कानून व्यवस्था के मद्देनजर नहीं की जाती हैं ,लोकहित
की पूर्ति गुलामी की व्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है और यह गुलामी कम से कम
पुलिसिया आंकड़ों में प्रदर्शित ही होते हैं....। जोभौतिक रूप से गैर कानूनी आदतन या नियमित रूप से होने वाले
अपराधों को ही कानून और व्यवस्था बना देती है, जिससे; प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की भाषा में "काला धन" का
जमावड़ा होता है और यह प्रधानमंत्री जी की सोच के हिसाब से उचित नहीं है । यह अलग
बात है की पूरी की पूरी व्यवस्था ही इस काला -धन या ब्लैक-मनी से ही कंट्रोल हो
रही है। दुर्भाग्य से कानून और व्यवस्था भी कहीं ना कहीं इस ब्लैक मनी से
नियंत्रित होती दिख रही है।
शहडोल
मुख्यालय ,हो सकता है आदिवासी क्षेत्र हो, हो
सकता है महाकौशल विंध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का किसी का हिस्सा ना हो , बल्कि इनका संगम हो और यहां पर भारत के समस्त प्रकार की
विविधता पूर्ण जातियां व जनजातियां पाई जाती हों, इसलिए
ब्लैक-मनी कंट्रोल -माइंड का मॉडल शहडोल में फल -फूल रहा है।
बावजूद
इसके यह बड़ी कड़वी सच्चाई है कि हम सब स्वतंत्र भारत में रह रहे हैं और यहां
संविधान के अनुरूप कार्य करने की व्यवस्था की गई है इसलिए भी अगर जिला प्रशासन
गाहे-बगाहे नियमित रूप से पत्रकार वार्ता, कम
से कम चुनाव के वक्त तो करते ही हैं तो पुलिस को भी अपना प्रदर्शन पत्रकारों के
साथ दिखाना चाहिए कि किस प्रकार से वह जिले में अथवा संभाग में कानून व्यवस्था
नियंत्रित करने में सफल भी है अथवा प्रयास कर रही है...।
श्री कुमार सौरभ |
किंतु
नंबर एक जैसे दिखने वाले दिन रात अलग अलग नदियों और खदानों में हो रहे अवैध रेत
परिवहन ,
जी हां ,सिर्फ
रेत परिवहन,
पत्थर-कोयला-लकड़ी-लोहा आदि के अवैध
परिवहन की बात नहीं कर रहा हूं.. सिर्फ रेत परिवहन भारी संख्या में जो कम से कम 100 से ऊपर ही है प्रतिदिन परिवहन कार्य हो रहा है। और जिला पुलिस
प्रशासन खनिज के अवैध परिवहन पर मूक बधिर रहे क्योंकि उसका मानना है यह जिम्मेदारी
खनिज विभाग की है...?
दो
महिला कर्मचारियों, साहित्यिक भाषा में
बोले तो अबलाओ और नाम मात्र के पुरुष कर्मचारी के भरोसे सैकड़ों की संख्या में
अवैध परिवहन सिर्फ इसलिए हो पा रहा है क्योंकि वे असहाय हैं ..और उन्होंने अपनी आ
सहायता के चलते ही अवैध-खनिज-परिवहन के कारोबार को "सुविधा
के संतुलन"
के हिसाब से स्वयं को ढाल लिया है
क्योंकि उन्हें जीने का भी अधिकार है, क्योंकि
वे जानते हैं कि पुलिस , अवैध
शराब को तो पकड़ सकता है किंतु खनिज विभाग के अवैध परिवहन को पकड़ने की क्षमता
शायद उसेम इसलिए भी नहीं है , क्योंकि
रे कार्टून में बोतल मेंं जिंद तरह बंद नहीं हैं बल्कि या 16 ,
20 चकिया हैवीवाहन, पोकलेन आदि में होने वाले कारोबार हैं। जिनका सिर्फ "सुविधा के संतुलन" के
हिसाब से व्यवस्थापन करना होता है और इसलिए भी पुलिस विभाग पत्रकार वार्ता से दूरी
बनाए रखता है ...? वह भी चाहता है कि
पत्रकार जगत के अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग लोगों से मिले और "सुविधा के संतुलन" में
शामिल हो जाएं ।
इसलिए
पत्रकार वार्ता जिला पुलिस की चाहत नहीं होती
दिख रही ..?
किंतु
लोकतंत्र में ऐसा नहीं चलता ,यदि
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए "देश-भक्ति
जन-सेवा"
की निष्ठा नाममात्र की भी स्वयं में
जीवित होने का ख्याल पुलिस विभाग को हो तो उसे सामूहिक पत्रकार वार्ता कम से कम
लोकतंत्र के चुनाव के वक्त करना ही चाहिए । वैसे तो उन्हें ठीक उसी प्रकार से करना
चाहिए जैसे जिला प्रशासन अपने कर्तव्य का निर्वहन करता है। हो सके तो जिला प्रशासन
के साथ ही जिला पुलिस प्रमुख को पत्रकारों के साथ बैठना चाहिए। और हर शंकाओं का या
उठ रहे लोकप्रतिनिधी प्रश्नों का चाहे वे अनपढ़ ,आदिवासी
क्षेत्र के
स्तरीय प्रश्न ही क्यों ना हो ,उन्हें समाधान करके एक सकारात्मक बड़े प्रश्न की खोज भी करनी
चाहिए। हो सकता है इसमें कई बड़े अपराधों पर स्वस्थ बहस हो सके ...?और घर और परिवारों में कानून और व्यवस्था की सुकून की गारंटी
लोगों को मिल सके ...?
अन्यथा "दुल्हा बिकता है, बोलो
खरीदोगे"
के अंदाज में थाने और चौकी चल ही रहे
हैं ....?
क्या इसमें सुधार की संभावनाओं को नहीं
तलाशना चाहिए.....?
किंतु
यह तब सुनिश्चित किया जा सकता है जब पवित्र मंंसा, लोकतंत्र
के प्रति समर्पित हो ...?
अन्यथा "चलती का नाम गाड़ी" होता
ही है और लोकतंत्र की गाड़ी चल भी रही है.... पुलिस विभाग के खासतौर से "सुविधा के संतुलन" की
भाषा में समझें तो शानदार.... प्रधानमंत्री जी के सपनों की "बुलेट-एक्सप्रेस" की
तरह.........
आशा
की जानी चाहिए हम सब लोकतंत्र के प्रति जवाबदेही; दिखने-वाले-सच
के साथ और आंशिक रूप से होने-वाले-सच के साथ भी अपने आजीविका, काम के प्रति
"देशभक्ति
-जनसेवा के नारा को बुलंद कर सकें ...?
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