शनिवार, 19 जनवरी 2019

उत्कृष्ट वैभव का प्राचीन इतिहास विलुप्त होने की कगार पर


 उत्कृष्ट वैभव का प्राचीन इतिहास विलुप्त होने की कगार पर
======(त्रिलोकीनाथ)========
मित्रों ठीक ठीक तो नहीं मालूम किंतु 1983 में एक लेखक श्री देवशरण मिश्र की पुस्तक सोन के पानी का रंग  को पढ़ने से महसूस होता है कि 70 या 80 के दशक में लेखक  स्वयं सोन के उद्गम स्थान सोनवनचाचर  (मध्यप्रदेश) से बिहार के सोनभद्र जिले तक की पदयात्रा की और जो कुछ पाया उसका वर्णन उन्होंने इस पुस्तक में किया है. करीब 48 वर्ष बाद हम यह टटोलने का प्रयास करेंगे कि श्री मिश्र ने जिन चीजों का उल्लेख पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक जैवविविधता को समझने का प्रयास किया था, आज वह किस हालत में है. इससे हमें शहडोल के विकास क्रम का एक झलक भी मिलेगा कि, विकास वास्तव में किस दिशा में और कैसा हुआ है...?


 तो सबसे पहले मैं यह बताऊंगा कि सोन नदी जो हमारी लिए शहडोल संभाग के लिए जीवन रेखा थी या फिर है वास्तव में लोकतंत्र ने उसका कैसा उपयोग या उपभोग किया है. अपनी पहली श्रृंखला में शहडोल संभाग मुख्यालय, जो कभी वर्तमान में दिख रहे उमरिया, अनूपपुर और शहडोल जिले का जिला मुख्यालय भी कहलाता था. उससे कोई 13-14 किलोमीटर की दूरी पर सोननदी के तट पर बसा रोहनिया गांव को केंद्र में रखकर हमने विश्लेषण करने का प्रयास किया है. रोहनिया गांव दीयापीपर सोनपुल के बगल में बसा हुआ गांव है .सोननद शहडोल के दो विकासखंडों को यानी सुहागपुर विकासखंड और गोहपारू विकासखंड को अलग-अलग करता है. दीयापीपर जो मुसलमान बहुल क्षेत्र है तो दूसरी तरफ सोहागपुर विकासखंड का  रोहनिया गांव है जिसका वर्णन विशेषरूप से श्री मिश्र ने अपनी पुस्तक में किया है.

तो सबसे पहले हम बताते हैं कि 48 वर्ष पहले श्री देवशरण मिश्रा ने क्या कहा अथवा क्या लिखा.

....................सोहागपुर शहडोल से लगभग 15 किलोमीटर उत्तर है,  सोनतटीय रोहनिया. यही 19वीं शदी का बना यही मत 19वीं शताब् का बना सोन का पक्का पुल है... .रोहनिया एक साधारण गांव में अधिकांश रूप में आदिवासियों की बस्ती से घर वालों के हैं 8-10 गोणों के हैं, 4-5 घरों अहीरों के और 3 घर ठाकुरों के. राजकीय आवास योजना के अंतर्गत पास में एक नई बस्ती बसाई जा रही है धर्मपुरी, जहां बस गए हैं उनके लिए तो धर्मपुरी ही है लेकिन जो वहां नहीं गए हैं उन्होंने उसका नामकरण किया है, यमपुरी. यमपुरी क्योंकि वहां पानी कोई व्यवस्था नहीं है. आसपास के स्रोतों के निकट में गंदा पानी मिलता है उसी से धर्मपुरी में बसे लोगों का काम चलता है.
 यमपुरी हो या धर्मपुरी रोहनिया रोहनिया अत्यंत प्राचीन स्थान है. इसमें संदेह नहीं है. वहां पूरा-पाषाण काल के उपकरण पाए गए हैं और भी मध्य-पाषाण काल के भी. अर्थात सोनतट का लाभ उठाते हुए पाषाणकालीन मानव आहार संग्रह की चिंता में व्यस्त घुमंतु प्राणी रहा होगा और यहां और उसके पास-पड़ोस में शरण अवश्य लेता रहा लेता था. इसके बाद की स्थिति अंधकार में लिपटी है. लेकिन इतिहास के मध्यकाल की अनेक मूर्तियां कि बतलाती हैं कि रोहनिया के वे दिन उत्कर्ष के अवश्य रहे होंगे. यद्दपि इतिहास में उसका नाम हमें कहीं पढ़ने को नहीं मिलता.
 वास्तव में रोहनिया के उत्कर्ष कालीन दिनों का आभास गांव के ठाकुर के चौधरी की किनारी देखकर हुआ था. यह किनारी भी अलंकरण बड़े पूर्वमध्यकालीन पत्थर की है. यह पत्थर घिस गया था अवश्य, लेकिन अपनी बुलंदी के दिनों का उपयुक्त उदाहरण था. पास पड़ोस में पाई गई मूर्तियों को दिखाने जब शुक्ला जी शाला में कुछ दूर झुरमुट के खंडहर-जैसे दिखने वाले स्थान पर ले गए तो रहा-सहा  संदेह भी जाता रहा . एक निहायत मामूली झोपड़ी में बाहर भी एक अनेक देव मूर्तियां, गणेश और गणिकाओ की, रखी हुई थी. हवन-कुंड, धूपदीप, पूजा किए जाने के समस्त चिन्ह. एक देव मूर्ति विष्णु की भी थी; लेकिन शुक्ल जी ने बताया, स्थानीय जनों के द्वारा विष्णुमूर्ति को पूजा देवीमूर्ति मानकर की जाती है. वहां अनेक उत्कीर्ण  शिलाखंड तो है ही, कई स्थान यहां ऐसे भी हमने देखे जहां गड्ढे खोदे गए हैं, यानी खुदाई करके मूर्तियां निकाली गई है बची खुची यह मूर्तियां पूर्व मध्ययुगीन तक्षण कला के उत्कृष्ट उदाहरण है.
 पूर्व माध्यमिक पाठशाला के प्रधानाध्यापक राधेश्याम शुक्ल ने हमें वही एक पक्का फर्श भी दिखाया बार-बार उस पर पैर पटकते और कहते- आवाज पहचानिए. भद-भद की आवाज; नीचे खोखली जमीन है. मालूम होता है यहां पहले कोई गुफा रही होगी. यह खंडहर और मूर्तियां जो देवी देव-देवी और गणिकाओ की हैं, प्राचीन देवालय के अंग मालूम होते हैं. स्थानीय ऋषि ईसी नीचे गुफा में विश्राम करते रहे होंगे अथवा योग साधन .”
शुक्ल जी और भी कुछ दिखाने चले. चलिए, सोनतट पर चलें. वहां देखी गई सोन की पैट से काफी ऊंची, लेकिन तट के सीध से अधिक गहरी जमीन के भीतर घुसी ही जगह- गलीदार गहरी भूमि, जिसे हम लोग खरोह कहते हैं. इस खरोह में घनी हरियाली छाई हुई थी, मझोले कद की. उस खरोह में एक गुफा जैसी खोखली जगह थी. शुक्ल जी बोले ऋषि लोग जून के स्नान करके कुछ समय यही ध्यान चिंतन करते रहे होंगे. बड़ी शांत जगह है चारों ओर फैली हरि वनस्पति एकांत प्रिय व्यक्ति के योग साधन के बिल्कुल उपयुक्त है.”
 कहां पूर्व मध्यकालीन मूर्तियां कहां पर अनेक विषयों का योग हमें उनकी बात में रस नहीं रहा था लेकिन उस समय क्या पता था कि ठीक इसी तरह दृश्य हम पुणे दो दिनों बाद देखेंगे रोहन इया सोन के पार भी वह हमें ले गए वहां भी अनेक उत्कीर्ण शीला खंड पड़े हैं उत्तर अलंकरण तो है ही अपने चिट्ठे डीलडोल के कारण वे रनिया की मूर्तियां से भिन्न जान पड़ती हैं रोहनिया की देवी मंदिर के मूर्तियों में जो शुगर पान है चिकन है सफाई है तराश का परिश्रम है वह रोहनिया सोनपाल की उन मूर्तियों या प्रस्तर अलंकरण में नहीं है पत्थर विभिन्न प्रकार के हैं दिया पीपा पुल के पार की बलुआ पत्थर वाली मूर्तियां तत्कालीन भारत की लोक कला का प्रतिनिधित्व करती हैं संभवत मौर्योत्तर काल की जवनिया झोपड़ी देवी मंदिर की मूर्तियां उसमें प्रवर्तित काल की जान पड़ती हैं उससे परवर्ती काल की जान पड़ती है दो कला शैलियों के उदाहरण बिल्कुल पास पड़ोस में प्राप्त होने के कारण यह भी संदेह होता है कि दोनों सहेलियां समकालीन थी और समानांतर रूप से सांप सांप रही थी इस तरह की तक ला के दो भिन्न रूपों के उदाहरण हमें बाद में वर्दी में भी देखने को मिले संभव है रोहनिया में प्राप्त काले पत्थर की पूर्व मध्यकालीन कलचुरी कालीन मूर्तियां बाहर से लाई गई हूं इस कारण भी ऐसे विश्वास की पुष्टि मिलती है कि पूर्व काल में रोहनिया एक महत्वपूर्ण स्थान रहा होगा . डुमरिया का घोर जंगल पठार की ऊंची नीची जमीन जगह-जगह सोन के सहायक नाले इन डुमरिया जंगल के बीच कुछ ही दूर जाने के बाद एक पक्का मकान मिला संभवत पहले यह वन विभाग का डाक बंगला था अच्छे मनोरम और शांति स्थल पर बना था जिसके सामने बरसात में चौड़े सोन हिलोरे लेता होगा. लेकिन आजकल इस परित्यक्त डाक बंगले की छत उजड़ गई है दीवार ध्वस्त हो गई है.
 इस दुर्दशा का कारण ही है सोन का वर्तमान रूप, जिसका विषाक्त-जल पीने के काम नहीं आ सकता यह मनोरम स्थल जिसे पहले तपोभूमि कहा जाता था आज भूतों के रहने लायक जगह बन गया है ..................

पुरातत् संरक्षण भी होगा और वर्तमान समस्या का समाधान भी

उत्कृष्ट प्राचीन इतिहास कला का केंद्र रहा सोन नद के तटवर्ती गांवों में वर्तमान  रोहनिया गांव और बताई गई  स्थानों पर जब हम गए तो हालात तो बताते थे कि यहां कुछ है किंतु सिर्फ खंडहर के अलावा और पुरातत्व संपदा की भारी लूटपाट के अलावा गत 48 सालों में कोईविकास नहीं हुआ. रोहनिया की

प्राचीन मंदिर संरक्षण नहीं किया गया बल्कि बगल में रेत खदान की लीज मंजूर कर दिए जाने के कारण, अवैध रेत खनन के कारण रही-सही पुरातत्व संपत्तियां भी रातों रात गायब हो गई . सोन के इस बार याने शहडोल की दिशा में जहां रेत खदान के भंडारण और  अवैध रेत परिवहन को खनिज विभाग ने खुला संरक्षण दिया, गैरकानूनी तरीके से वहीं दूसरी तरफ  कभी शराब कारखाने की डिशलरी के लिए बने बिल्डिंग के पीछे एक शिव मंदिर के आसपास तमाम पुरातत्व की संपत्तियां पत्थर बाउंड्री वाल के रूप में देखे गए हैं. जबकि अन्य पुरातत्व लगभग आज भी इतिहास को दबाए हुए बैठा है की कोई उसकी खोज खबर करें....?

चपरासी के भरोसे संग्रहालय..?

 यहीं पर देखने को मिला एक अवैध निर्माण ,प्राचीन मंदिर के ऊपर करने के लिए गड्ढे खोदे गए थे जो शायद स्थानीय लोगों ने अथवा किसी विशिष्ट व्यक्ति ने अपनी नींहित भावना  के लिए बनवा रहे है भलाई निर्माण कर्ता की मनसा खराब ना हो किंतु उनकी इस कार्यवाही से दवि-कुची ही सही, पुरातत्व संपदा को क्षति पहुंच रही  है और शायद वे इसके महत्व को समझ  ना पा रहे हो..? और समझें भी तो कैसे.. क्योंकि इसके लिए जिम्मेदार तबका खासतौर से पुरातत्व अनुसंधान व संग्रहण का शहडोल स्थित संग्रहालय को एक चपरासी के भरोसे छोड़ दिया गया है. जिससे कुछ भी आशा करना स्वयं को मूर्ख बनाना ही है.?


              “विषाक्त-जल ; 36 गांव के पीने के पानी पर जल निगम का बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर
और इसीलिए उत्कृष्ट वैभव का प्राचीन इतिहास जाने अनजाने विलुप्त होने की कगार पर है. हां.. इसी के ऊपर और गुफा वाले प्राचीन मंदिर जो विष्णु का अथवा सूर्य का मंदिर है उसके बीच में अचानक नवगठित संस्था सरकारी संस्था मध्य प्रदेश जल निगम मर्यादित को लगा कि आदिवासी अंचल में पीने के पानी की सुलभता देने की क्षमता सोन नद में है और इसलिए 36 गांव के लिए यहां पर एक बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर 2019 तक कराए जाने की संभावना पर आधारित बांध का निर्माण हो रहा है. अब यह अलग बात है कि इस बांध के निर्माण से पुरातत्व की संपदा को कोई नुकसान होता भी है या नहीं....? जिसके लिए यदि संबंधित संस्थान चाहेगा तो सोच सकता है क्योंकि जब हम बताए गए दृष्टांत स्थल पर पहुंचे तभी जान पाए कि देवशरण मिश्र की बताए स्थान पर कभी विषाक्त-जल का भंडार था.. जिस कारण सोन नदी के पानी को कोई व्यक्ति नहीं पीता था. अब 48 साल बाद हमारे जल निगम के इंजीनियर इस पानी को ही 36 गांव के पानी में पेयजल योग्य बनाकर सप्लाई करेंगे. किंतु यह देखने और सोचने की भी बात होगी कि अवैध खनिज परिवहन जो खनिज विभाग की कृपा पर चल रहा है और जल निगम की पेयजल योजना के  "सब का साथ-सबका विकास" की गति में पुरातत्व संपदा जल्द विलुप्त होती है अथवा उसके लिए जिला प्रशासन अपने रहम दिल से कोई संरक्षण पूर्ण कदम उठाएगा....?
                       समीक्षा का आश्वासन






हालांकि वर्तमान  शहडोल कलेक्टर श्रीमती अनुभा श्रीवास्तव के संज्ञान में इन हालातों को लाया गया तो उन्होंने  पुरातत्व संपदा के संरक्षण की दिशा में समीक्षा का आश्वासन दिया है, जिससे आशा किया जाना चाहिए की पुरातत्व की संरक्षण भी होगा और वर्तमान समस्या का समाधान भी.


 
 








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