शनिवार, 8 दिसंबर 2018

हार की जीत



                           हार की जीत
                यानी एग्जिट-ऐस्टीमेट ऑफ पॉलीटिकल-इंडस्ट्री
गुलाबी-ठंड का 
शबनमी अंदाज


                                                                            ( त्रिलोकीनाथ )
महत्वपूर्ण यह है की मरी-पड़ी कांग्रेस में जानडालने के लिए जनता ने वोट किया है. और उसे उस सीमा तक पहुंचा दिया है कि, वह सपना देख सकती है ताकि सत्ता पर आ सके. अगर वह धोखे से आ ही जाती है तो मान के चलना चाहिए की जनता भाजपाइयों के कृत्य और कुकृत्य से त्राहि-त्राहि कर चुकी थी. तभी उसने नकारा-कांग्रेस को अंततः वोट किया .
 7 तारीख दिसंबर को अंतिम चरण का मतदान होने के साथ ही टी-वी चैनल के एग्जिट पोल वाले उसी तरह अपने उपभोक्ताओं दर्शकों के लिए टूट पड़े, जैसे मोबाइल खोलते ही व्हाट्सएप-मैसेज भरभरा कर गिर पड़ते हैं. बहरहाल मध्यप्रदेश के लिए अलग-अलग नो एग्जिट-पोल वालों ने जो वातावरण मध्यप्रदेश में शासन परिवर्तन या कहें,  मध्यप्रदेश की जनता के लिए जो त्रिशंकु का स्वर्ग दिखाया है, उससे कम से कम यह तो साबित ही हो गया है कि कांग्रेस चुनाव हारे या जीते वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है.
महत्वपूर्ण यह है की मरी-पड़ी कांग्रेश में जानडालने के लिए जनता ने वोट किया है. और उसे उस सीमा तक पहुंचा दिया है कि, वह सपना देख सकती है ताकि सत्ता पर आ सके. अगर वह धोखे से आ ही जाती है तो मान के चलना चाहिए की जनता भाजपाइयों के कृत्य और कुकृत्य से त्राहि-त्राहि कर चुकी थी. तभी उसने नकारा-कांग्रेस को अंततः वोट किया . हम यूं ही नहीं कह रहे हैं बल्कि कार्डर-बेस पार्टी भारतीयजनतापार्टी मध्यप्रदेश में जबरदस्त तरीके से फैल चुकी थी.
 उसे इस कामयाबी को इस अंदाज में नहीं देखना चाहिए जैसे कांग्रेसी अपनी हैसियत से ज्यादा सीटे पा रही है. बल्कि उसके पीछे भाजपा का सुनियोजित तथाकथित अनुशासित स्किल-डेवलपमेंट का कार्य वोट-बैंक के लिए जमीनी तौर पर सुनिश्चित किया जा रहा था. अब यह एक अलग बात है की जमीनी तौर पर जो भी नेता है या कार्य-कर्ता है. उनका पेट उनकी औकात से ज्यादा भर गया है. और वह इससे ज्यादा अपनी हैसियत भी नहीं मानता. शासन की रस-मलाई चखने के लिए 15 वर्ष पहले जिस कार्यकर्ता की हैसियत, प्रशासन के द्वार के सामने खड़े होनेवाली लाइन में अंतिम-पंक्ति में भी जगह न रही होगी, वह प्रशासन को दिशा-निर्देशक के रूप में खड़ा भाजपा का प्रशासन को संभालने की अंदाज में काम कर रहा था. और उसके काम से जनहित तो कम से कम नहीं सुनिश्चित हो रहा था. भाजपा एक तरफ से मान बैठी थी कि मेरा आम कार्यकर्ता अगर मजबूत हो गया तो उसकी सल्तनत को कोई डिगा ना पाएगा. किंतु नहीं मालूम था कि जिसे भाजपा ने अपना एजेंट बनाया वह दरअसल सिर्फ एक माफिया-एजेंट से ज्यादा हैसियत न रखने वाला व्यक्ति था. जिसका न तो जनहित से सरोकार था, ना ही सामाजिक हित से. अपने नेताओं की चापलूसी और चाटुकारिता ही उसकी ऊंचाई का पैमाना बन गया था. जिसका खामियाजा शीर्ष-नेतृत्व को भोगना ही चाहिए था. और यही परिणाम कांग्रेस के लिए वरदान साबित हुआ.
 क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने 15 वर्षों में कभी भी अपने संगठन को मजबूत करने में कभी कोई रुचि नहीं दिखाई. उसमें भी चाटुकार-पसंद सामंती-ताकतों की पूरी की पूरी फौज खड़ी थी. जो स्थानीय हितों को चिन्हित करने का भी हैसियत नहीं रखती थी. क्योंकि उसका जनहित कम सामंती-संगठन के लिए काम करने में ज्यादा विश्वास था. इसलिए स्पष्ट तौर पर जाने अन-जाने भलाई हम यह मान ले एक सामंतवादी सोच ने चाहे वह प्रशासनिक स्तर पर हो या विधायिका स्तर पर शहडोल जिले की सुहागपुर विधानसभा सीट भलाई नाम से बदलकर आदिवासी कर दी गई हो.
किंतु जिस बुलंदी में उसका चरम अंदाज पहुंचा था, विश्व का अजूबा इतिहास, बड़े लोकतंत्र में बन गया था. जब अनूपपुर मैं निवासरत थर्ड-जेंडर की शबनम मौसी सुहागपुर विधानसभा सीट से विधायक इसलिए बन पाई थी, क्योंकि आम जनमानस की एक पूरी की पूरी पीढ़ी विधायिका का नकाब पहनकर सामंत शाही का उदाहरण बन गई थी. जिनका जनमानस से कोई सरोकार नहीं रहा. और यही कारण है कि लोकतंत्र की ताकत ने तब मौका मिलते ही वोट की ही भाषा में राजनीतिज्ञों को यह संदेश दिया की  विधायिका में शबनम मौसी को ही भेजकर जवाब दे सकता है..?
 शबनम मौसी भी अपने चुनावी प्रचार में खुलेआम अपने व्यक्तित्व पर वोट मांगती थी . जिसे तब जनता ने स्वीकारा भी था. उस वक्त तो हमारा संविधान, नोटा की व्यवस्था भी नहीं कर पाया था. तब सुहागपुर की जनता ने नोटा के रूप में एक जैविक-करैक्टर को अपना प्रतिनिधित्व दिया था. कि शायद विधायिका को समझ आवे कि आपकी एक जिम्मेवारी है ..? यह पुरानी कथा इसलिए स्मरणीय है क्योंकि तब भारत के चुनाव-आयुक्त ने सुहागपुर की जनता को उसकी ताकत को पहचानने के लिए धन्यवाद दिया था और बधाई भी. यह अलग बात है कि शातिर-राजनीति और प्रशासनिक अमला सुहागपुर विधानसभा को ही नष्ट कर दिया. जिसका अव स्वरूप जैसीनगर आरक्षित विधानसभा सीट है.
इतनी कहानी बताने का मतलब यह है की अकेले कांग्रेसी नहीं है, जो बिना कुछ किए धरे सिर्फ नकारात्मक वोटों से जीत जाती है. शबनम मौसी उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. नकारात्मकता कहां तक जवाब दे सकती है. विधायिका को विधायिका की भाषा में ही बोला और कहा जा सकता है. तो इससे ज्यादा हो भी नहीं सकता. इसलिए अगर एग्जिट पोल यह बता रहे हैं की गुट-बंदी और अपने कबीलाई संस्कार में सामंत वादियों के बीच में फंसी प्रदेश-कांग्रेस का नेतृत्व बिना कुछ किए धरे सत्ता के इर्द गिर्द बैठ पाने के सपने देख रहा है तो वह नया नहीं है. बल्कि सकारात्मक-शबनमी-अंदाज है.
 सत्ता और संगठन चलाने की पुरुषार्थ, आजादी के 70 वर्षों बाद भी कांग्रेस के नेताओं में नहीं पनप पाई है. जिसका अर्थ है कि हम एक शबनम-मौसी को ही सत्ता में लाने का काम कर रहे हैं. जिसमें शासन चलाने की योग्यता का मतलब सामंती-व्यवस्था को बरकरार रखना है. इससे ज्यादा लोकतंत्र के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए काम करना उसकी मानसिकता में यह संस्कार में जीवित ही नहीं है; इसी-लिए भारतीय जनता पार्टी का जन्म होता है और राजनीति महज एक पॉलीटिकल-इंडस्ट्री बन जाती है और इसी पॉलीटिकल इंडस्ट्री का ऐस्टीमेट, एग्जिट पोल शासन चलाने का स्टीमेट कहलाता है. जिसके अनुसार कोई नेता हिसाब-किताब कर  अपने गुलामों को मंत्री बनाते हैं. और यदि ऐसे हालात पैदा होते हैं, तो यह लोकतंत्र की हार होती है. जिसे जनता अपनी जीत मानकर सत्ता-परिवर्तन का जश्न मनाती है.









 
इसलिए दिसंबर माह के गुलाबी
-ठंड का कम से कम एग्जिट पोल के जरिए मतगणना तक शबनमी अंदाज में आनंद ले सकते हैं . हम यह इसलिए भी कह रहे हैं की  230 विधानसभा सीटों वाली मध्यप्रदेश विधानसभा के बटुआ में पकने वाला भात का एक दाना जैसीनगर-विधानसभा के रूप में हमने भी चखा है. और देखा है कि कैसे स्थानीय नेतृत्व के अभाव में बाहरी माफिया, नेतागिरी का नकाब पहनकर विशेषकर बिहारी-माफिया, शहडोल में चाहे कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ही प्रत्याशियों को अपने अपने स्तर पर हराने का काम कर रहे थे.  कहा जा सकता है कि चाहे जयसिंह हो या फिर ध्यान सिंह दोनों ही चुनाव हारने के लिए संघर्ष रखे. अब यह संविधान की व्यवस्था है कि हार की दौड़ में भी किसी एक को जितना होता है. शो एक जीत जाता है. और ऐसे जीतवाले नेतृत्व पर हम क्या आसरा रख सकते हैं...? क्योंकि यह तो एक मोहरा है किसी एक माफिया का जिसके लिए वह जीतकर गुलामों की तरह काम करेगा और यही कारण रहा, शहडोल प्राकृतिक-संसाधनों से भरा शहडोल खनिज संसाधनों की लूट का खुला मंच बन गया. जिसमें ना शासन और ना ही प्रशासन कुछ कर पाने की यह दखल भी दे पाने की हैसियत रखती दिखाई देती है. तो जिस प्रकार से लोकतंत्र अपने शबनमी अंदाज में गुलाबी ठंड का आनंद ले रहा है, हमें भी इंडियन-पॉलीटिकल-इंडस्ट्री में एग्जिट-पोल में हार की जीत का आनंद लेना चाहिए. और यही हमारी नियत भी है.  तो 11 रिजल्ट आने तक आप भी, एक और एक दो की बजाए एक और एक 11 की गणना पर ही भरोसा रखें, जैसा कि हमारे सभी मीडिया-गिरी-करने वाले बता रहे हैं.

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