उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के पास का एक कस्बा
है जहाँ 4 फ़रवरी 1922 को भारतीयों ने
बिट्रिश सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी थी, जिससे उसमें
छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी जिन्दा जल के मर गए थे।तब 1922 में महात्मा गांधी ने अपने आजादी के महत्वपूर्ण
असहयोग-आंदोलन को तत्काल निरस्त कर दिया था. उन्हें लगा देश की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण है कार्य में
हिंसा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ऐसी आजादी, गुलामी से भी बदतर होगी.
चाहिए तो यह की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तत्काल इस घटना के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से इस्तीफा ले लेना चाहिए, ताकि लोकतंत्र में संवेदनशील प्रशासन और उससे ज्यादा अहम अहिंसा पूर्ण व्यवस्था को जगह मिल सके
( त्रिलोकीनाथ )
चौरी-चौरा (विकिपीडिया,51218)
उत्तर
प्रदेश में गोरखपुर के पास का एक कस्बा
है जहाँ 4 फ़रवरी 1922 को भारतीयों ने बिट्रिश
सरकार की एक पुलिस चौकी को आग लगा दी थी, जिससे उसमें छुपे
हुए 22 पुलिस कर्मचारी
जिन्दा जल के मर गए थे। इस घटना को चौरीचौरा काण्ड के नाम से जाना जाता
है। चौरी-चौरा की इस घटना से महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गये असहयोग
आन्दोलन को आघात पहुँचा, जिसके कारण उन्हें असहयोग आन्दोलन को स्थागित करना पड़ा, जो बारदोली, गुजरात से शुरू किया
जाने वाला था
. इस घटना
के तुरन्त बाद गांधीजी ने असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने की घोषणा कर दी। बहुत से
लोगों को गांधीजी का यह निर्णय उचित नहीं लगा। विशेषकर
क्रांतिकारियों ने इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष विरोध किया। गया कांग्रेस
में रामप्रसाद बिस्मिल और उनके
नौजवान सहयोगियों ने गांधीजी का विरोध किया। १९२२ की गया कांग्रेस में खन्नाजी ने व उनके
साथियों ने बिस्मिल के साथ कन्धे से कन्धा भिड़ाकर गांधीजी का ऐसा विरोध किया कि
कांग्रेस में फिर दो विचारधारायें बन गयीं - एक उदारवादी या लिबरल और दूसरी
विद्रोही या रिबेलियन। गांधीजीजी विद्रोही विचारधारा के नवयुवकों को कांग्रेस की
आम सभाओं में विरोध करने के कारण हमेशा हुल्लड़बाज कहा करते थे।
चिंगरावठी पुलिस चौकी
5 दिसम्बर, 2018 (ndtv
india)बुलंदशहर के थाना कोतवाली क्षेत्र के गांव महाव के जंगल में रविवार की रात
अज्ञात लोगों ने कथित तौर पर गोवंश के अवशेष मिले थे. यह सूचना मिलने पर लोगों में
आक्रोश फैल गया. गुस्साए लोग घटनास्थल पर पहुंचे और कथित तौर पर गोवंश अवशेषों को
ट्रैक्टर ट्रॉली में भरकर सोमवार सुबह चिंगरावठी पुलिस चौकी पर पहुंचे.
सूत्रों के अनुसार गुस्साई भीड़ ने
बुलंदशहर-गढ़ स्टेट हाईवे पर ट्रैक्टर ट्रॉली लगाकर रास्ता जाम कर दिया और पुलिस
प्रशासन के खिलाफ जोरदार नारेबाजी शुरू कर दी.बेकाबू भीड़ ने पुलिस के कई वाहन
फूंक दिए. साथ ही चिंगरावठी पुलिस चौकी में आग लगा दी. पुलिस जब भीड़ को नियंत्रित
करने का प्रयास कर रही थी, तभी इंस्पेक्टर सुबोध कुमार को सिर में गोली मार दी
गई थी, जबकि एक युवक भी मारा गया.
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में गोकशी की ख़बर
पर भीड़ की हिंसा के मामले में 27 लोगों को
नामज़द किया गया है. इन पर 17 धाराओं में
मुक़दमा दर्ज किया गया है. यानी भीड़ की
हिंसा के मामले में योगेश राज के साथ-साथ करीब 80 से 90 लोगों के
खिलाफ एफआईआर दर्ज है. इनमें से 27 लोग नामजद हैं, वहीं 50 से 60 लोग अज्ञात हैं. भीड़ की हिंसा मामले में पुलिस ने अभी तक 4 लोगों को गिरफ्तार किया है और 4 को हिरासत में लिया है. इस मामले में सब इंस्पेक्टर सुभाष चंद्र
ने एफआईआर दर्ज कराई है.
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पहली बार जब चोरी-चोरा थाने को घेरकर आजादी के दीवानों ने आग लगा दी थी, जिसमें 22 पुलिस कर्मचारी मारे गए थे. यह 19वीं सदी की मॉब-लिंचिंग ही थी. हम 2018 में रह रहे हैं, देश आजाद हो गया है अब उसी गोरखपुर के निवासी धार्मिक-मठ के मुखिया मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी के रहते उत्तरप्रदेश में ही थाने में आग लगा दी गई, एक इंस्पेक्टर और एक नागरिक की हत्या हो गई.
तब 1922 में महात्मा गांधी ने अपने आजादी के महत्वपूर्ण
असहयोग-आंदोलन को
तत्काल निरस्त कर दिया था. उन्हें लगा
देश की आजादी से ज्यादा महत्वपूर्ण है कार्य में हिंसा नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ऐसी आजादी, गुलामी से भी बदतर होगी. 1922 के बाद इस
घटना से एक नई हिंदू-संगठन आर एस
एस का जन्म हुआ 1924 में. और उससे संबंधित सभी अलग-अलग शाखाएं के समर्थक
और फिर उससे जुड़ने वालेभारतीय
जनता पार्टी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उसके ही हिंदूवादी विचारधारा से
संबंधित लोगों ने मिलकर अपनी ही प्रशासनिक पुलिस-प्रशासनिक व्यवस्था के को घेरकर एक
भीड़-तंत्र के जरिए थाना में आग लगा दिए. इस भीड़
तंत्र में जिसे 21वीं सदी
में मॉब-लिंचिंग भी कहा जाता है. 2 लोगों की हत्या कर दी गई, सूबे के
मुखिया मुख्यमंत्री पहले तेलंगाना और बाद में राजस्थान में हनुमान जी की जात बताने
में व्यस्त थे. घटना के दौरान और बाद में जब अपने
सूबे में लौटे तो थाने जल जाने और माब-लिंचिंग से हुई हत्याओं को नजरअंदाज
करते हुए पहले गोरखपुर गए कुछ कार्यक्रम किए बाद में कबड्डी के खेल को भी आनंद से
देखा फिर जब फुर्सत मिली , थाना जलाए जाने और उससे हुए बवाल पर
एक बैठक लखनऊ में की. बाद मे दूसरे कार्यों में व्यस्त हो
गए. उन्हें ना तो अपने बहादुर-पुलिस के
शहीद होने पर और ना ही अपने राज्य के नागरिक की हत्या हो जाने और कोई संवेदना जताने
की जरूरत महसूस हुई.
1922 चौरी चौरा थाना हत्याकांड के बाद थाना
जलाए जाने की गंभीर हत्याकांड के बाद 1924 में जन्मे आर एस एस की विचारधारा वाली
आजाद भारत की सरकार के मुखिया की कार्यप्रणाली को बताता है. गांधीवादी
विचारधारा उस वक्त आजादी के दौरान अहिंसा-वादी
विचारधारा के खिलाफ किसी संगठन और उसके
उत्पाद के रूप में कट्टर हिंदू की छवि वाले मुख्यमंत्री द्वारा थाना जलाए जाने की संवेदनहीनता को भी प्रदर्शित
करता है.
क्या माना
जाए हिंदू धर्म और उसकी संवेदन शीलता जो भगवावस्त्र पहले किसी व्यक्ति के रूप में
भी अगर स्थापित है, त इतनी हिंसक विचारधारा के समर्थन में
मूक बधिर बनी रहती है. क्या मुख्यमंत्री को अपने नागरिक और
अपने कर्मचारी के शहीद हो जाने पर नाम मात्र का भी गम नहीं रहा. ट्विटर
के जरिए चहकन वाले प्रधानमंत्री भी थाना जलाए जाने पर जरा भी ट्वीट नहीं किए. शासन और
प्रशासन के यह परिणाम दायक कार्यवाही का प्रदर्शन किस प्रकार के भारत के निर्माण
को चिन्हित करती है.. गंभीर प्रश्न है? किसी भी
मुख्यमंत्री के लिए इस प्रकार की संवेदनहीनता चीनी सरकार के द्वारा अपने ही
नागरिकों की सामूहिक हत्या, अपने सैनिकों द्वारा कराए गए हिंसा से
कम नहीं आंकना चाहिए. यह ठीक है कि उस संख्या में नागरिकों
की और पुलिस की हत्या नहीं की गई है जिस संख्या में सैनिक-भीड़ के
द्वारा किसी छोटी भीड़ को हत्या की जाती है.
घटनाएं तो और भी हुई होंगी किंतु देश की आजादी के पहले और देश की आजादी के
बाद थाना जलाए जाने और घटना के बाद नेतृत्व में संवेदनहीनता के पतन की कहानी किस
प्रकार के लोकतंत्र की पतन की कहानी बनती जा रही है.... बावजूद इसके कि गांधीवादी अहिंसा की विचारधारा का बखान प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी सिर माथे रखते हुए, उसे अपना आदर्श बताते हैं. उनके ही
चयनित मुख्यमंत्री द्वारा आजाद देश के नागरिकों की हत्या किस प्रकार के हिंसा को
संरक्षण देती है...? क्या यह भी अहिंसा का नकाब पहनकर
हिंसा का नंगा नाच की अनुमति देता प्रतीत नहीं होता है...? शायद हां
.
इसलिए भारतीय
नागरिकों की जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ गई है कि वे अपने दायित्वों को गंभीरता से
समझाएं नहीं तो पॉलीटिकल-इंडस्ट्री के “प्रोडक्ट” ऐसे नेता, भारतीय
नागरिकों को किसी बाजारी वस्तुओं की तरह या तो वोट-बैंक में या फिर नोट-बैंक में
बदलते रहेंगे. कम से कम यह तो संविधान में सुनिश्चित
नहीं है. बावजूद इसके ना तो भारत के
प्रधानमंत्री और ना ही भारत के राष्ट्रपति इस घटना पर प्रत्यक्ष रूप से कुछ कहते
नजर आए हैं. हां मुख्यमंत्री जब चुनाव प्रचार में
व्यस्त हो गए तब राज्यपाल ने अपनी जिम्मेदारी जरूर दिखाई, किंतु वह
नाकाफी थी... चाहिए तो यह की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तत्काल इस घटना के लिए
जिम्मेदार ठहराते हुए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से इस्तीफा ले लेना चाहिए, ताकि लोकतंत्र में संवेदनशील प्रशासन और उससे ज्यादा
अहम अहिंसा पूर्ण व्यवस्था को जगह मिल सके
तब और जब प्रधानमंत्री यह कहते हो या
सुप्रीम कोर्ट यह कहता हो कि माव-लिंचिंग
को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा..
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