" भारत माता की जय "
और थाना-अधिकारी की हत्या
मॉब-लिंचिंग का सबसे सफल हथियार.....?
अब जबकि कलयुग
में संपूर्ण व्यवस्था अर्थव्यवस्था मशीनरी व्यवस्था पर आ टिकी है. पशुओं की उपयोगिता जिस समाज के लिए जिस प्रकार
से थी वैसी नहीं रह गई है ? वर्तमान अर्थव्यवस्था दुनिया में क्षेत्रीय न होकर वैश्विक हो गई है.
दुनिया के जिस भाग में कोई पशु-पूज्य हो वही पशु दूसरे भाग में मांसाहार का
खाद्य-सामग्री के
अलावा कुछ भी नहीं. ऐसी स्थिति में
धार्मिक-सद्भावना मैं
स्वाभाविक रूप से विरोधाभास पैदा होता है. यदि पशुओं की उपयोगिता अर्थव्यवस्था के हिसाब
से प्राथमिक क्रम पर सही नहीं है तो वह दूसरे समाज के लिए सिर्फ मांसाहार के अलावा
कुछ भी नहीं.
अगर गोवंश पर सरकार ने बंदिश लगा दी है तो
ऐरा-प्रथा के जरिए फसल के नुकसान इन्हीं जानवरों के कारण होती रहगी .
संभव है बुलंदशहर
में गोकशी हुई हो और उससे पैदा हुई मॉब-लिंचिंग ने अंतत: पुलिस थाना को जला दिया व पूरी संपत्ति में आग लगा दी तथा एक पुलिस
अधिकारी, एक नागरिक भी हत्या
का शिकार हो गया. शहडोल में भी एक सच
सामने आया है गोवंश संरक्षण के लिए युवकों ने कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा है की कई
गायों को लगी बीमारी के चलते हुए ट्यूमर का इलाज नहीं हो पा रहा है. कलेक्टर
ने भी उपसंचालक पशु चिकित्सा को इस संबंध में निर्देश दिए. किंतु यह तय है कि शहडोल में गोवंश के ऑपरेशन के
लिए कोई व्यवस्था नहीं है.
तो
हमारा लोकतंत्र किस व्यवस्था के लिए, क्या कर रहा है..? हमारी धार्मिक
आस्था में प्रत्येक जीव-जंतु
किसी देवी देवता के रूप में स्थापित है. उसका कारण भी है कि हमारी धारणा है,कण-कण में यानी
सर्वत्र ईश्वर की सत्ता विद्वान होने पर हम विश्वास करते हैं. ऐसा नहीं हैं
कि इस्लाम सर्वत्र अल्लाह की सत्ता को स्वीकार नहीं करता. बावजूद इसके
प्रकृति ने मांसाहार की दुनिया में सभी जीवो को एक दूसरे के लिए खाद्य सामग्री के
रूप में बना रहा है.
निश्चित तौर पर मानव सभ्यता विकसित हुई है .बावजूद इसके यदा-कदा एक मानव को
दूसरे मानव के मांसाहार के रूप में उपयोग किए जाने की खबरें अपवाद के रूप में
सुनाई देती रही. शो
मांसाहार की दुनिया में मनुष्य सभी जीव जंतुओं को अपने भोजन में शामिल किए हुए हैं. जिसमें कई जीव-जंतु हैं, धार्मिक दृष्टि
से पूज्य श्रेणी में भी रखे हैं. अब सवाल यह है मानव सभ्यता ने यदि गोवंश को या
दुधारू पशुओं पशुपालन कर अपनी अर्थव्यवस्था के रूप में चिन्हित किया और अंगीकार
किया है तो उस पर आर्थिक का निर्भरता क्या हम निरंतर बना कर रख पाए हैं.. ? शायद नहीं. हजारों लाखों
बरस कृषि के लिए,
दूध के लिए पशुपालन
हमारी आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में अहम भूमिका निभाता चला आया है. गाय, भैंस कुत्ता और
बकरियां ,
हाथी,
बंदर, सांप
सभी कहीं ना कहीं हमारी अजीबका पालन में हम सब एक दूसरे के साथ ही रहे.
अब जबकि कलयुग में संपूर्ण व्यवस्था
अर्थव्यवस्था मशीनरी व्यवस्था पर आ टिकी है. पशुओं की उपयोगिता जिस समाज के लिए जिस प्रकार
से थी वैसी नहीं रह गई है
? वर्तमान अर्थव्यवस्था दुनिया में क्षेत्रीय न होकर वैश्विक
हो गई है. दुनिया के जिस भाग में कोई पशु पूज्य हो वही पशु
दूसरे भाग में मांसाहार का खाद्य-सामग्री के अलावा कुछ भी नहीं. ऐसी स्थिति में
धार्मिक-सद्भावना
मैं स्वाभाविक रूप से विरोधाभास पैदा होता है. यदि पशुओं की
उपयोगिता अर्थव्यवस्था के हिसाब से प्राथमिक क्रम पर सही नहीं है तो वह दूसरे समाज
के लिए सिर्फ मांसाहार के अलावा कुछ भी नहीं. इसे इस प्रकार से भी समझा जाए की पूरी दुनिया को
बचाने के लिए जैव विविधता विलुप्त होती प्रजाति बाघ, दुनिया बचाने
में लगी है.
वहीं बाघ को या शेर को खाने-पीने की सामग्री औषधी-सामग्री के रूप
में मारने वाला एक तबका भी सक्रिय है. जिससे कानूनी तौर पर लड़ा भी जा रहा है.
किंतु यदि यह मामला गोवंश पर टिकता है, पूजनीय, धार्मिक आस्था
का कारण है जो हजारों साल से हमारी सामाजिक व्यवस्था में माता का दर्जा भी लिए हुए
हैं. जब
तक की गोवंश को वर्तमान अर्थव्यवस्था के बाजार में उपयोगी रूप से समाज में
स्वीकार्य स्वीकृति दे दी जाए. तब उसे यदि राष्ट्रीय-पशु का भी दर्जा
दे दिया जाएगा, तो
भी शायद ही उसके मांसाहार का पर रोक लगा पाना बड़ा मुश्किल होगा. भारत जैसे देश
में ही अलग अलग जगह पर गोवंश को लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं. इसके बावजूद भी
इसे वोट बैंक की सांप्रदायिक राजनीतिक ध्रुवीकरण के रूप में एक खतरनाक खेल की तरह
खेला जा रहा है. बेहतर
होता इस पर गोवंश पर भारत सरकार को अपनी समझ और नीति स्पष्ट करनी चाहिए अन्यथा मॉब
लिंचिंग का यह सबसे शानदार और सफल प्रयोग के रूप में कहीं भी किसी भी वक्त हथियार
के इस्तेमाल किया जाएगा. यह
सही है कि नेताओं के प्रति,
व्यवस्था के प्रति आम-जनमानस
में असंतोष है. वह
स्वाभाविक रूप से सद्भाव होने के बावजूद भी संतुष्ट नहीं है. किंतु उसकी
उग्रता और हिंसा को माब-लिंचिंग के रूप
में प्रयोग करने वाला तबका इस खतरनाक खेल को अंजाम देता है. मॉब-लिंचिंग यानी
भीड़ को उग्रता में बदलकर हिंसा के लिए उपयोग की जाने वाली प्रक्रिया, यदि इसी प्रकार
से घटित होती रही या उसे नियंत्रित नहीं किया गया तो उसके शिकार हो जाएं..? यह
कोई बड़ी घटना नहीं कहलाएगी..?
बेहतर होता मॉब-लिंचिंग का उपयोग करने वाली विचारधारा पर नियंत्रित करने
के लिए और धार्मिक आस्था वाले सभी विषय-वस्तु पर संजीदगी से विचार किए जाएं. जिले और शहरों में चिन्हित-धार्मिक-आस्था वाली विषय-वस्तु जो मंदिर,मस्जिद सम्मान करने की धारणा को बल दिया जाए. बुलंदशहर में यदि किसी इस्लामिक जलसे में
मांसाहार के लिए गोकशी माब-लिंचिंग का कारण बन गई है, तो लोकतंत्र में शहडोल में गोवंश में फैलते
ट्यूमर की बीमारी और ऐसे पशुओं से चल रही, दूध-डेरीओं पर क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था कोई
स्पष्टीकरण दे पाने में सक्षम भी हैं....? या चुप होकर ठीक उसी तरह उसी तरह से समस्याओं को
किनारा करती हैं. जैसे किसी मरीज को
रिफर कर के स्थानी डॉक्टर अपने को मुक्त कर लेता है और एक कदम बुद्धि दौड़ा कर
उसका भी कमीशन खा लेता है .
समाज का जो तबका
मांसाहार से नहीं जुड़ा है और प्रयोजन भी नहीं रखता है, उसे नहीं मालूम कि चुनाव के दौरान जब 1000 करीब
पशुधन बैल रीवा शहडोल सड़क मार्ग से कोतमा की तरफ ले जाने के लिए लाए जा रहे थे तो
वह कोई खेती के लिए नहीं थे..? यह भी साफ है कि वह सभी जंगलों से होकर बड़ी दूर
से खरीद कर लाए जा रहे थे. इतना तो तय है कि मार्ग पर जो कथित तौर पर चित्रकूट आदि से खरीद कर
लाए जा रहे थे, पुलिस /ग्राम पंचायत ना रही हो, जब हमें दिख गया तो उन्हें भी दिख गया होगा...? पशुधन कृषि अर्थव्यवस्था के लिए तो कतई नहीं लाए
जा रहे थे..? स्वाभाविक है यह मांसाहार के लिए सड़क-मार्ग से पदयात्रा के जरिए इसलिए जा रहे थे
क्योंकि ट्रकों से लाए जाने पर थाना पुलिस और कथित हिंदूवादी संगठन ज्यादा रहे
होंगे. यह भी तय है अगर
गोवंश पर सरकार ने बंदिश लगा दी है तो ऐरा प्रथा के जरिए फसल के नुकसान इन्हीं
जानवरों के कारण होती रही होगी .जैसे हरियाणा में हमने सुना कि नील-गायों को गोली मारने का आदेश शासन ने ही दे दिया
था..? इससे यह स्पष्ट
होता है कि जब तक पशुधन हमारी अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पाएगा, यह सिर्फ सांप्रदायिकता, वोट-बैंक की राजनीति में हिंसक माब-लिंचिंग का कारण बनता रहेगा.
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