शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

कविता - साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से ........

साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से  ..........

श्री गोपाल प्रसाद मानिकपुरी 
साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से। और आज भीड़ में तन्हा , महफ़िलो में तन्हा शामिल से ।।
पूंछता हूँ .....
 इन रात की तन्हाइओ से ,
इन ठंडी हवाओ से ,
की ये वक़्त और मौसम बदलते क्यों है ??
और तन्हाई बस यही कहती है  ..
तुम  भी हो इन वक़्त और मौसमो में शामिल से ।।
टूट चूका हूँ मोती मालाओ की तरह , अब इन्हे  पिरोने का हौसला मुझमे नहीं। 

ऐ वक़्त गुज़र क्यों नहीं जाता हंसी ख्वाब की तरह,अब तुझे सम्हालने का हौसला मुझमे नहीं। 
क्यूंकि आज भीड़ में तन्हा , महफ़िलो में तन्हा शामिल से। साथ थे वो तो हम भी हुआ करते थे काबिल से ।।





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