और
निर्वाचन-प्रक्रिया
------आफ्टर-साक्स------
भारतीय-पत्रकारिता में
प्रदूषण और चुनाव-चंदे की
“बदनाम-मुन्नी ”
बहुसंख्यक पत्रकार समाज का दलित-संघर्ष ( त्रिलोकीनाथ )
चुनाव आयोग ने निर्वाचन की प्रक्रिया के लिए कई
प्रयास किए.
पारदर्शिता इसका अहम पहलू है किंतु माफिया नुमा राजनीतिक दलों ने पारदर्शिता से
परहेज किया और यही कारण है कि पार्टियों के राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता से बचा
गया है. चंदे की
प्रक्रिया “बदनाम-मुन्नी” की तरह है उसी तरह व्यय की प्रक्रिया भी बदनाम मुन्नी का ही हिस्सा है. पारदर्शिता को पूंजीवादीव्यवस्था या
माफिया ने हाईजैक कर लिया है,केंद्रीकृत
कर लिया है.
उसे जमीनी धरातल में औपचारिकता की तरह ही पूरा किया जा रहा है किंतु वह अब “मुन्नी बदनाम हुई” के तर्ज पर जगह-जगह नाच-कर अपना मनोरंजन करते हुए समाज को अस्वस्थ करती प्रतीत होती है.
दरअसल सच बात यह है कि जिस प्रकार से लोकतंत्र
में चतुर्थ स्तंभ कहे जाने वाले पत्रकार को आजादी के बाद आज तक मान्यता नहीं
मिल पाई है या यूं कहें कि अपने ही कुछ दलालनुमा अखबारी-माफियाओं के आदमियों को मीडिया में
अधिमान्यता दी गई है और
पत्रकारिता में एक बहुसंख्यक भारतीय पत्रकार समाज आज भी इस तथाकथित अधिमान्यता के
प्रमाण-पत्र से अछूता
है, जिनके लिए गैर-अधिमान्य-पत्रकार या फिर गैर-पत्रकार की श्रेणी का विभाजन करके रखा
गया है. जिसमें बहुसंख्यक-पत्रकार-समाज के लोगों को नजरअंदाज करके रखा गया है उन्हें अपने मुख्यधारा
में आने का वैसा ही संघर्ष लगातार करना पड़ रहा है जैसा कि दलितों को राष्ट्रीय
मुख्यधारा में आने का संघर्ष आज भी करना पड़ रहा है.
पूंजीवादी व्यवस्था या माफिया
यह कहा
जाए कि पत्रकार समाज में दलित-पत्रकार-वर्ग लोकतंत्र ने पैदा किया है तो गलत
नहीं होगा.
बहराल विषय भटक ना
जाए इसलिए सिर्फ निर्वाचन की प्रक्रिया के दौरान पत्रकार-समाज में घटित होने वाले परिणामों पर
ही फोकस करना ज्यादा जरूरी है.
बताते चलें कि लोकसभा मध्य-अवधि
चुनाव में सत्ताधारी पार्टी ने जमकर पत्रकारों को “सम्मान-निधि” या यूं कहें एक प्रकार का ऐसा “सेवा के बदले पारितोषिक” या फिर मिलने वाले विज्ञापन की राशि
को पत्रकार समाज में वितरित उनका हिस्सा देना अथवा निम्न-भाषा में कहा जाए ‘घूस’ दिया जाता रहा है.
मुझे याद है कि कभी यह सम्मान-निधि, पत्रकार-वार्ता पश्चात सांसद श्रीमती राजेशनंदनी
द्वारा भोज के बाद दिए गए “दक्षिणा” की तरह तब लिफाफे में 500/- उपहार स्वरूप सभी पत्रकारों को एक
होटल में दिया गया.
किंतु अखबारी-माफिया
के दलाल जो इसकी भाषा को नहीं समझ पाए, इसे ‘घूस’ के रूप में देखते हुए बिफर पड़े, की हम बड़े अखबार के दलाल हैं इसलिए ज्यादा ‘घूस’ हमारा हक है..? इस
नजरिए से उसे अखबार में प्रकाशित कर दिया था. जिसकी आलोचना और प्रत्यआलोचना भी हुई.
माफिया ने किया हाई-जैक
माफिया ने किया हाई-जैक
उसका कारण था कि यह एक आवश्यकता है, क्योंकि अखबार-माफिया अपने जमीनी-पत्रकारों को मोहताज बना कर रखा है और वर्तमान
परिवेश में तो वह मीडिया-मैनेजमेंट
के नाम पर करोड़ों-अरबों
रुपए का सीधा विज्ञापन पार्टी मुख्यालयों से सौदा कर लेता है. जिसका एक रुपए भी शायद कोई अखबार-माफिया अपनी जमीनी रिपोर्टरों को देता हो...? जो नाममात्र की वेतन दे रहा है उससे
हटकर दिया जाने वाला “बोनस” निर्वाचन-उत्सव में विशेष अधिकार है. जो पत्रकारों को बांटना चाहिए. किंतु ऐसा नहीं होता. क्योंकि अखबार-माफिया और राजनीतिक-माफिया आपस में मिलकर लोकतंत्र के “निर्वाचन-निधि” का पक्षपातपूर्ण बंटवारा कर लेते हैं. जमीनी पत्रकारों के हकों पर डाका डालते हैं. जिसका परिणाम यह होता है कि जमीनी-पत्रकारों को दी जाने वाली “चुनावी-सम्मान-निधि”
इलेक्शन-अर्जेंट के 24
घंटा मानसिक-श्रम
का अधिकार होता है और यह सम्मान निधि अपारदर्शी तरीके से होने के कारण, अच्छे किस्म की राजनीति ना होने से
जमीन में यह बदनाम-मुन्नी
की तरह राजनीतिक
कचरे के रूप में अपात्र-नेताओं
के कारण दुरुपयोग होता है.
नेताओं के इर्द-गिर्द समाज , मूल-समाचार पहुंचाने का दायित्व भटका...?
उदाहरणार्थ शहडोल संभाग में विधानसभा चुनाव के
दौरान हाल
में सम्मान-निधि
के दुरुपयोग-वितरण
से पत्रकारिता-समाज
को अपमानित करने का भी काम हुआ है.
दोनों ही राजनीतिक दलों में स्थानीय-राजनेता पैदा ना होने से अप्रवासी; बिहारी (बिहार
निवासी,माफिया-नुमा) नेताओं का बोलबाला रहा और दोनों ही पार्टियों में सम्मान-निधि का अपने-अपने व्यवसायिक साझेदार को संतुष्ट
करने का कोरम पूरा किया गया.
जिससे पत्रकार-समाज
के लोग जो
निर्वाचन प्रक्रिया के दौर में प्रतिपल की खबर जनता तक पहुंचाने का कार्य करते थे, उनका पूरा समय इन मूर्ख-नेताओं के इर्द-गिर्द गुजरता देखा गया. मूल समाचार पहुंचाने का दायित्व भटक
गया...?
यह
प्रदूषित हो गई राजनीति का परिणाम रहा. जबकि वास्तव में इस प्रकार की सम्मान –निधि, सेवा के बदले परितोष या कहें दिया जाने वाला बोनस के अलावा कुछ भी
नहीं है. जो उसे उसके हक
के रूप में उसके कार्य स्थल पर प्राप्त होना चाहिए. अथवा अक्सर जैसा होता है किसी पत्रकार वार्ता में पूरे सम्मान के
साथ दिया जाना चाहिए.
जैसे किसी साहित्यकार को,
किसी सम्मान में नारियल का फल अथवा साल का या टीका लगा कर किया जाता है. क्योंकि पत्रकार-समाज जैसा भी है, वह अपने सेवा के बदले अधिकार चाहता ही
है. यह लोकतंत्र की
नैतिक जिम्मेवारी भी है.
यह
आश्चर्यजनक है की विधायिका,
कार्यपालिका ने निर्वाचन-प्रक्रिया
के दौरान अपने सेवकों के लिए विशेष-फंड
के जरिए निर्वाचन-जागरूकता
का कार्य करते हैं. प्रशासकीय
क्षेत्र मे “स्वीप-प्लान” व विधायिका में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करोड़ों रुपए फंडिंग होती
है. इसमें कोई शक
नहीं की पहली बार कई दशकों बाद सरकारी नजर में पत्रकार-समाज की लिस्टिंग हुई है. और यदि लिस्टेड-पत्रकार भी इलेक्शन-अर्जेंट, सेवा के बदले अपना परितोष
नहीं प्राप्त करते तो यह लोकतांत्रिक-निर्वाचन-प्रक्रिया का चतुर्थ स्तंभ में
सर्वाधिक प्रदूषण-कारी
कृत्य है.
इलेक्शन-अर्जेंट, विशेष-फंड;
क्यों ना, मीडिया का हिसाब जमा करावे, आयोग..?
इसे और मजबूत और पारदर्शी इस तरह किया जाना चाहिए, जमीनी पत्रकारों को उनका हक सुनिश्चित
तरीके से प्राप्त हो सके. एक
तरीका यह भी हो सकता है कि निर्वाचन-आयोग निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान प्राप्त विज्ञापनओं की प्राप्त आय-व्यय लेखा पत्रकार जगत से उसी प्रकार
जमा करने को कहे जैसा प्रत्याशी से हिसाब मांगा जाता है, ताकि सुनिश्चित हो सके की जमीनी स्तर
पर अखबार- क्या आय का
वितरण कर पाया..?
अथवा वह राजनीतिक माफिया के साथ मिलकर लोकतंत्र के सम्मान निधि को निर्वाचन में
प्रदूषण फैलाने का काम किया...?
किंतु यह चुनाव-आचार संहिता की तरह ही व्यावहारिक विषय
है. जो फिलहाल
तो बहुत कम दिखता है किंतु नहीं हो सकता, ऐसा भी नहीं है.
कभी माना जाता था,
चुनावी शोरगुल और प्रदूषणकारी प्रचार-प्रक्रिया हमारे चुनाव में असंभव सी समस्या
है. किंतु चुनाव
आयुक्त ने कुछ इस प्रकार से उसे लागू कर दिखाया कि दिल्ली में बैठकर किस प्रकार
शहडोल के किसी दूर अंचल गांव में किसी की दीवार पर बिना उसके अनुमति के चुनावी
प्रचार, लिखा-पढ़ी या पोस्टर,बैनर नहीं लगाया जा सकता है. जो काफी कुछ हुआ भी. यह अलग बात है कि बाद में इसमें ढिलाई
हो गई.
क्योंकि पत्रकारिता 7 दशक बीत जाने के बाद भी
अभी तक जमीनी स्थित पर लोकतंत्र के परिपक्व-पत्रकारिता से मोहताज है.यह स्थिति आज पत्रकार-समाज
के अगुआ कहे जाने वाले अखबारी-लोगों
ने जानबूझकर बना रखी है.
ठीक वैसे ही जैसे विधायिका या कार्यपालिका के लोगों ने अपनी योग्यता की गुणवत्ता
का दुरुपयोग लोकतंत्र को चलाने में किया है. यह अलग बात है की प्रदूषित विधायिका व कार्यपालिका के कारण कोई मोदी
या विजय माल्या या इसके जैसे लोग लोकतंत्र की पूंजी को लेकर लोकतंत्र के साथ ही गद्दारी
का काम करते हैं. य
तो कारपोरेट-जगत
के लिए योजनाएं बनाते हैं, जो
देखने में जनहित का ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन मूल उद्देश कारपोरेट-जगत की गुलामी को सिद्ध करते हैं.
यह इसलिए होता है क्योंकि देश की आजादी के पहले
जिस पत्रकारिता के सहारे महात्मा गांधी व अन्य लोग आजाद देश बना पाए वह पत्रकारिता, जमीनी हालात पर पारदर्शी स्वतंत्रता
के लिए मोहताज हैं. उसमें गुणवत्ता का निर्माण इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि माफिया
बना बैठा विधायिका,
कार्यपालिका ने पत्रकारिता के लिए इमानदारी से कोई काम नहीं किया. सिर्फ तुष्टीकरण के अलावा. जिसके कारण आजादी के बाद पत्रकारिता दब गई और
अखबार-माफिया या
मीडिया-माफिया खड़ा हो
गया. जो हर 5 साल
में चुनाव को हो-हल्ले
में खत्म करने का काम करता है. और
मूल-मुद्दे जस-के-तस शोषणकारी व्यवस्था में छुप जाते हैं।
लोकतंत्रके लिए गंगा...,
भारतीय-पत्रकारिता में पनप रहे प्रदूषण
तो---. आशा किया जाना चाहिए, लोकतंत्र के लिए गंगा-नदी की तरह बहने वाली भारतीय-पत्रकारिता में पनप रहे प्रदूषण और “बदनाम-मुन्नी ” को नचाना बंद किया जाए अन्यथा मतदान के जरिए जमीन से परिपक्व नेता
निकालने का काम एक ढकोसला के अलावा और कुछ नहीं रह जाएगा जो लोकतंत्र के मुखिया के
निर्माण में कभी गुणवत्तापूर्ण भूमिका अदा नहीं करेंगे.
अन्यथा.. लोकतंत्र, चलती का नाम... गाड़ी, चल ही रही है...
🙏🙏🙏👍👍👍
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