स्वतंत्रता, गणतंत्र की तरह क्यों नहीं बना संविधान दिवस
शहडोल के लिए क्या मायने हैं
संविधान दिवस के..
--------------------(त्रिलोकी नाथ )--------------------------
जिस प्रकार गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस का अपना एक महत्व है ठीक उसी क्रम में आखिर संविधान दिवस के उत्सव को क्यों नहीं मनाना चाहिए...? क्योंकि यही वह पवित्र पुस्तक है जिसके जरिए "आर्यावर्ते जम्मू दीपे..." की कल्पना को आधुनिक स्वरूप में जमीन पर उतारा गया था
तमाम विरोधाभास के बावजूद इस पवित्र पुस्तक में अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कठिन प्रयास किए हैं ।कई भटकाव के बाद भी यह पुस्तक प्रासंगिक अभिलेख है जिससे स्वतंत्रता के मायने बार-बार परखे जाते हैं। यह अलग बात है इस पुस्तक में गुलाम भारत से यात्रा करके लौट रहे अहम संस्थागत यात्री पत्रकारिता एक अज्ञात ताकत के रूप में विद्यमान है उसका साकार स्वरूप इसमें कम देखने को मिलता है। किंतु मूल रूप से निराकार सत्ता के रूप में पत्रकारिता जगह जगह पुस्तक को प्रकट करती है। भारत के संविधान सभा का स्वरूप आज जो दिखाई देता है यह जिसे चेहरा बनाकर प्रकट किया जाता है उससे हटकर वास्तविक रूप से पूरा संविधान सभा कुछ इस प्रकार का था
बहरहाल आज संविधान दिवस में हम शहडोल के संदर्भ में पुस्तक को क्यों नहीं देखते कि हमारा योगदान किस प्रकार का था।
वर्तमान 21वीं सदी के भारत में भारत की आजादी के बाद भारत के निर्माण में जिन महत्वपूर्ण व्यक्तियों की चर्चा होती है उसमें शहडोल के पंडित शंभूनाथ शुक्ला को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। विंध्य प्रदेश से चार व्यक्ति संविधान सभा के सदस्य थे
शहडोल के लिए संविधान दिवस जब भी हम शहडोल के आजाद भारत के निर्माण की भूमिका में किसी चेहरे को पाते हैं तो संविधान सभा के सदस्य पंडित शंभूनाथ शुक्ला को ही हम देख पाते हैं क्योंकि शहडोल के निवासी पंडित शंभूनाथ शुक्ला जी शहडोल से एकमात्र भारत की संविधान सभा के सदस्य थे। वह विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और फिर बने मध्यप्रदेश में मंत्री रहे।
बेहतर होता हमारे विश्वविद्यालय चाहे अमरकंटक विश्वविद्यालय हो अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय हो अथवा शंभूनाथ शुक्ला विश्वविद्यालय आज के दिन क्षेत्रीय सहभागिता के साथ भारत के संविधान दिवस को बार-बार याद करने के लिए बड़े सेमिनार करते , उसमें आम नागरिकों को जोड़ने का काम करते हैं। ताकि संविधान के तहत निर्मित हमारी स्वतंत्रता के दायरे में आदिवासी विशेष क्षेत्र शहडोल सुरक्षित रहने की रास्ते तलाश करता रहता अन्यथा हम माफिया गिरी की गुलामी को तो जी ही रहे हैं तो क्या हमारे विश्वविद्यालय भी एक कर्तव्यनिष्ठ गुलाम होकर जीने का प्रयास कर रहे हैं अगर वह संविधान दिवस पर शंभूनाथ शुक्ला के योगदान क्षेत्रीय भूमिका को उत्सव के रूप में नहीं मनाते....?
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