कलेक्टर हो राजा नहीं...
हाईकोर्ट के इस नजीर से क्या भ्रष्टाचार के ठंडे बस्ते
नींद से जागेंगे ..?
शहडोल में भी लागू होता है तत्कालीन कलेक्टर पर टिप्पणी
जब पत्रकारिता में अपने 75 साल के पतन का सर्वाधिक बड़ा संक्रमण काल चल रहा है तब यह हमारे संविधान की ही ताकत है कि वह पत्रकारिता की जिम्मेदारी न्यायपालिका के मंच से अपनी ताकत को निभा पा रही है। इसलिए भारत जल्द गुलाम हो जाएगा अभी कहना जल्दबाजी होगी..
हाल में उच्च न्यायालय ने भारत के निर्वाचन आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति को लेकर जिस प्रकार की कड़ी टिप्पणी सरकार पर की है वह अपने आप में इस बात पर भरोसा दिलाता है कि इतना सहज नहीं है कि भारत की स्वतंत्रता को आप कुचल देंगे।
एक ओर उच्चतम न्यायालय ने हड़बड़ाहट में निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति पर गंभीर टिप्पणी की और उसका जवाब केंद्र शासन से मांगा है जिस पर निर्णय निश्चित ही बड़ा ही रोचक होगा।
तो दूसरी ओर आज सुबह ही एक खबर में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने शिवपुरी कलेक्टर के मामले में जिस
भाषा का इस्तेमाल किया है कि "आप कलेक्टर हो राजा नहीं..." वह कार्यपालिका की कार्यप्रणाली मे दमन चक्र को प्रमाणित करता है कि किस तरह कलेक्टर के पद पर बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति अपने आप को राजा से कम नहीं समझता है और कानून और संविधान को अपनी पैर की जूती के तले दबाकर रखना चाहता है।
कलेक्टर शिवपुरी के मामले पर जिस आदिम जाति कल्याण विभाग में गैर कानूनी नियुक्ति को अंततः कलेक्टर ने निरस्त कर दिया क्योंकि मामला हाईकर्ट के समक्ष जा पहुंचा किंतु शहडोल के तत्कालीन कलेक्टर ने जब एक तृतीय वर्ग कर्मचारी एमएस अंसारी को नियम विरुद्ध तरीके से शहडोल आदिवासी विभाग में सहायक आयुक्त के पद पर प्रभार दे दिया, इतना ही नहीं उसे करोड़ों रुपए गैरकानूनी आहरण करने के मामले पर दी हरी झंडी दिखाते रहे और आदिवासियों के हित में जारी करोड़ों रुपए का बंदरबांट होता रहा।
हलां पत्रकारिता के माध्यम से यह बात सामने भी आई बावजूद इसके हमारी कार्यपालिका अथवा विधायिका से जुड़े तमाम मंत्री और विधायक इस भ्रष्टाचार को मौन सहमति देते नजर आते रहे। यह अपने आप में आश्चर्यजनक रहा ।
किंतु जिस प्रकार से ठंडे बस्ते में रखे गए विशेषकर एक प्राइवेट स्कूल को 8 करोड़ रुपए से ज्यादा लंबित भुगतान किसी तृतीय वर्ग कर्मचारी के हस्ताक्षर से आहरित करके बंदरबांट कर दिया और इस पर कोई कार्यवाही ना होना, एक भी व्यक्ति को दंडित नहीं किया जाना शहडोल के आदिवासी विभाग मे भ्रष्टाचार के ताकत को सिद्ध करता है।
उस दौर में यदि लगभग ठीक इसी प्रकार शिवपुरी के कलेक्टर द्वारा राजा की तरह मनमानी प्रभार देकर गलत नियुक्ति कर दिए ने पर हाईकोर्ट ग्वालियर ने जब कड़ी टिप्पणी की है तब क्या शहडोल में भी इसी आदिवासी विभाग में सिर्फ भ्रष्टाचार की उद्देश्य के लिए एक तृतीय वर्ग के कर्मचारी को सहायक आयुक्त के पद पर नियुक्त करके भ्रष्टाचार के करोड़ों रुपए के खुले खेल को अभी भी क्या जायज ठहराया जाएगा...?
अगर यह मामला स्वत हाई कोर्ट ने संज्ञान में लिया होता तो शायद हाई कोर्ट की टिप्पणी इससे भी ज्यादा कड़क और गंभीर होते हुए तत्काल दोषी व्यक्तियों को पहली नजर में दंडित करते हुए आदेश पारित करती। किंतु पत्रकारिता के पतन के दौर में उसकी उठाई गई आवाज विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में दबकर आखिर क्यों रह जाती है..? यह भी बड़ा सवाल है। और तब जबकि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह भी बार-बार चिल्ला कर यह घोषणा करते हैं कि प्रत्येक समाचार पर कार्यवाही होना ही चाहिए तो क्या मान ले कि शहडोल जैसे आदिवासी पर भ्रष्टाचार एक खुला सिस्टम है तब तक जब तक कि हाईकोर्ट स्वयं संज्ञान नहीं लेता है ।क्योंकि अगर हाई कोर्ट का आदेश नजीर बनता है तो निश्चित तौर पर शहडोल आदिवासी विभाग में तृतीय वर्ग कर्मचारी अंसारी को नियुक्त करके किए गए खुले भ्रष्टाचार पर सेवानिवृत्त होने वाले तमाम अधिकारी और कर्मचारियों पर क्या दंड सुनिश्चित होगा यह भी बड़ा सवाल है।
निर्वाचन आयोग की क्यों नहीं होनी चाहिए निगरानी
क्योंकि चाल चरित्र और चेहरे के पतन के हालात इस कदर पतित हो गए हैं कि कार्यपालिका मे इसी शिक्षा विभाग में बैठे हुए एक लगभग प्रमाणित भ्रष्टाचारी को कोतमा विधानसभा चुनाव क्षेत्र से कथित तौर पर प्रचारित भारतीय जनता पार्टी टिकट देने जा रही है और उसे करोड़ों रुपए का सरकारी फंड भी परचेजिंग के लिए आवंटित कर दिया जाता है ऐसे में प्रशासन को क्या गारंटी मिल पा रही है कि वह इस राशि का उपयोग भ्रष्टाचार में नहीं करेगा...? क्योंकि आख़िर वह चुनाव की तैयारी कर ही रहा है और यह चुनाव 50 करोड़ से कम का होगा यह समझ पाना मुश्किल है। इसके बावजूद की उसके विभाग में कराए गए अब तक के करोड़ों रुपए के कई कार्य प्रश्नचिन्ह के घेरे में हैं। और कई जांच ठंडे बस्ते में कुछ ब्यूरोक्रेट्स ने दबा कर रखा है । तभी तो यह शिक्षा शास्त्री दंभ के साथ "भ्रष्टाचार मेव जयते" का नारा को सिस्टम बताते हुए सत्य की परिभाषा को नए सिरे से परिभाषित करता है।
क्या निर्वाचन आयुक्त या निर्वाचन आयोग से जुड़ा अमला आगामी कोतमा विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ऐसे भ्रष्टाचारी व्यक्तियों को उसके विभाग में आवंटित सरकारी धन की पारदर्शी तरीके से निगरानी कर पाएगा अथवा वह भी मौन सहमति देता नजर आएगा..?
क्योंकि हाईकोर्ट की यह टिप्पणी अब भी पतित लोकतंत्र में यह तो प्रमाणित करती है की आप कलेक्टर हो राजा नहीं। याने संविधान की मान और मर्यादा रखने की जिम्मेदारी कलेक्टर की भी होती है और उच्चतम न्यायालय की माने तो भारत सरकार की भी होती है तो क्या इस दौर में भी चाहे कोतमा विधानसभा चुनाव से लड़ने का प्रचार करने वाले किसी शिक्षा विभाग के कर्मचारी की बात हो अथवा आदिम जाति कल्याण विभाग में शहडोल के तत्कालीन कलेक्टर द्वारा राजा की तरह किसी तृतीय वर्ग कर्मचारी को गैरकानूनी प्रभार देकर उस के माध्यम से करोड़ों रुपए का आहरण कर भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के मामले में क्या कोई कदम की निगरानी होगी, यह भी देखना होगा ।
फिलहाल यह संतोष की बात है कि पत्रकारिता के पतन के दौर में भारत की न्यायपालिका गौरवशाली संविधान को लागू कराने पर सख्त नजर आ रही है तो देखते हैं आगे आगे होता है क्या....?
---------------------(त्रिलोकीनाथ )---------------------
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