इवेंट,जनजाति गौरव दिवस
स्थानीय जनजाति के मर्म पर
मरहम कितना लगा पाएंगी
राष्ट्रपति मुर्मू की शहडोल यात्रा
................(त्रिलोकीनाथ)...................
वैसे तो कई महामहिम राष्ट्रपति जी शहडोल क्षेत्र में देश की आजादी के बाद से अब तक आए हैं। किंतु जो इवेंट में जश्न और उत्साह महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के आने पर दिखाया जा रहा है वह इसलिए भी जरूरी है की संविधान की पांचवी अनुसूची में अनुसूचित शहडोल संभाग और आसपास के आदिवासी विशेष क्षेत्र के जिलों में आजादी के बाद पहली बार कोई आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाला भारत का प्रथम नागरिक मध्य प्रदेश की बड़ी आबादी आदिवासी समाज से महामहिम राष्ट्रपति पद पर पहुंचने के बाद शहडोल मे श्रीमती मुर्मू के रूप में आ रही हैं।
निश्चित तौर पर जनजाति गौरव दिवस में जनजाति समाज के गौरव के रूप में उनका शहडोल आदिवासी विषय क्षेत्र होना शहडोल
संभाग के तमाम निवासियों के लिए हम सबके लिए गौरव का कारण है ,इसमें लेश मात्र भी शंका नहीं करनी चाहिए। लेकिन अगर वह राष्ट्रपति के रूप में आदिवासी समाज को भयमुक्त और सुरक्षित नागरिक होने का आश्वासन देने के संदेश के लिए आ रही हैं तो इसकी समीक्षा उनके आगमन के पहले आखिर क्यों नहीं होनी चाहिए थी...?
इसमें भी कोई शक नहीं कि झारखंड के आदिवासी समाज से निकले समाजसेवी बिरसा मुंडा को वर्तमान भाजपा सरकार ने भारत मे भगवान के रूप में प्रतिष्ठित करने का काम किया है। बिरसा मुंडा का संघर्ष तत्कालीन समस्याओं का प्रतीक था। लेकिन हम जब ऐसे गौरव दिवस पर अभिमान करने की बात सोचते हैं तो निश्चित तौर पर अपने आसपास के स्थानीय आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों को कम करके क्यों आंकने लग जाते हैं, उनका सामाजिक योगदान उनके प्रतिनिधित्व ने उनके संघर्ष को भुला देना आखिर कितना उचित होगा...? अथवा स्थानीय आदिवासी समाज के साथ अन्याय भी होगा.. ऐसा भी क्यों नहीं देखना चाहिए। क्योंकि आज तक इन नेताओं की पहचान को स्थापित करने में हम पिछड़े रहे हैं।
स्थानीय आदिवासी नेता की
पहचान विलुप्त क्यों..?
शहडोल संभाग में लंबे समय तक सांसद और विधायक के पदों पर रहे हमारे जनप्रतिनिधि पूर्व सांसद स्व. धनशाह प्रधान,कि स्वर्गीय दलबीर सिंह अथवा स्व. दलपत सिंह परस्ते या फिर ज्ञान सिंह की सामाजिक योगदान की चर्चा क्यों नहीं होती...? यह सही है कि यह नेता आजादी के पहले नहीं जन्मे थे इसलिए स्वतंत्रता की लड़ाई में उन्होंने कोई भूमिका अदा नहीं की थी। किंतु आजादी के विकास की धारा में इन नेताओं को आखिर सम्मान जनक रूप से प्रस्तुत क्यों नहीं करना चाहिए..? यह बार-बार उठने वाला बड़ा प्रश्न है । इन प्रश्नों का उत्तर भी अपने आप में एक बड़ा प्रश्न है वर्तमान कार्य प्रणाली में..?
बहरहाल हम महामहिम की उपस्थिति में आदिवासी समाज की परिस्थिति का उल्लेख क्यों नहीं करेंगे। ऐसे में आदिवासियों के चेहरे के रूप में बिरसा मुंडा के संघर्ष आज भी नरोजाबाद के केवल आदिवासी के रूप में जिंदा है,
जिसकी जमीन एसईसीएल कोल फील्ड में फंसने के कारण उसे नौकरी मिली थी और लंबे समय तक आजाद भारत में वह नौकरी में जो पैसा करीब 17लाख रुपए बचा पाया था उसे बिहार से आए किसी उमेश सिंह ने सूदखोरी के रूप में लूट लिया, जब वह थाना गया तो थाने वालों ने बजाये उसका हक उसे वापस दिलाने के, कुछ नाम मात्र ढाई-तीन लाख रुपए के करीब दिलवाकर उच्चाधिकारियों, यहां तक कि मध्य प्रदेश अनुसूचित जनजाति आयोग में भी भ्रामक जानकारियां भेज कर केवल आदिवासी को इतना थका दिया कि अंततः वह हार मान गया। आज भी उसका परिवार बिरसा मुंडा के संघर्ष में अपमान और गुलामी को उतना ही महसूस कर रहा है और शासन ,पुलिस और प्रशासन की व्यवस्था मे समझौता कर लिया कि शोषण और दमन ही उसकी नियत है।
और यह हालात तब हैं जबकि उसके गांव के पास में सांसद रहे और आदिवासी मंत्री रहे ज्ञान सिंह का और वर्तमान आदिवासी विभाग की मंत्री मीना सिंह से उसका नजदीकी रिश्ता है जिसे बताने में उसे जनजाति समाज का गौरव होता है। किंतु इस गौरवपूर्ण स्थिति में वह आदिवासी समाज का लगभग लूट लिया गया केवल आदिवासी है। इसके अलावा उसकी कोई पहचान नहीं है।
ऐसे में जनजाति गौरव दिवस पर उसे क्यों गौरव होना चाहिए कि वह आदिवासी है..? सवाल सिर्फ केवल आदिवासी का नहीं है, सवाल संभाग शहडोल में उन तमाम आदिवासियों का है जिनकी पुश्तैनी आराजी पर गैर आदिवासी समाज, विभिन्न सामाजिक संगठन, स्वतंत्र भारत में अपने शासन और प्रशासन में बैठे हुए कुछेक भ्रष्ट और धूर्त और शातिर लोगों की मदद से लूट रहा है... आए दिन शहडोल संभाग में आदिवासियों की तमाम जमीनों पर भू माफियाओं के कब्जे की और उस पर करोड़ों अरबों रुपए कमा कर धनाढ्य बनते हुए अपराधी समाज की कहानियां समाचार पत्रों में मीडिया के जरिए आती हैं इसी तरह उनकी जीवन शैली की स्वतंत्रता को विभिन्न गैर जनजाति समाज के लोग षड्यंत्र करके सिर्फ जमीनी लूटने के उद्देश्य से उन पर कब्जा कर लेते हैं और वह आदिवासी शासन और प्रशासन में पेशी व पेशी धक्के खाते हुआ अंततः नरोजाबाद का केवल आदिवासी बनकर रह जाता है ।जिसे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता है कि मैं थक गया हूं अब मैं यह लड़ाई नहीं लड़ सकता।
तो फिर ऐसे केवल आदिवासी जैसे लोगों को स्वतंत्र भारत के 75 साल बाद भी शहडोल में महामहिम पद के रूप में आ रही अपने प्रतिनिधि के जनजातीय होने पर गर्व क्यों होना चाहिए..? यह प्रश्न भी जनजाति समाज का अनुत्तरित प्रश्न है ..?
तो क्या जब महामहिम पद पर पदस्थ किसी लगभग आम सभा के रूप में लालपुर में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू उपस्थित होंगी तो क्या वह संदेश की गारंटी होगा की सभी आदिवासियों की तमाम दुखों का निवारण पर शुरुआत हो जाएगी..? शायद नहीं क्योंकि यह पहली बार होगा कि कोई राष्ट्रपति पद पर पदस्थ महामहिम द्रोपती मुर्मू जी सिर्फ संकेतिक संदेश देने के लिए पहुंच रही हैं...
अन्यथा उनके आने के पहले उन तमाम फाइलों को हर स्तर पर खंगार लेना चाहिए दो शहडोल क्षेत्र से केंद्रीय अथवा राज्य स्तर पर जनजाति आयोग तक पहुंची और उन पर क्या न्याय हो पाया था...? यह सुनिश्चित करना था ताकि वे जब संदेश देती तब हर आदिवासी समाज का पीड़ित और आज भी दलित आदिवासी होने के आभा से कम से कम स्थानीय आदिवासी चेतना मे होकर गौरव का अनुभूत करता।
अन्यथा पहले भी अंग्रेज आते ही थे और चले भी जाते थे उनकी आभामंडल से चकाचौंध स्थानीय भारतीय नागरिक आश्चर्यचकित देखता रह जाता था। तो क्या यह आश्चर्यचकित परिस्थिति केवल आदिवासियों के लिए आज भी बनी हुई है, उनकी अपनी विनष्ट होती वैभवशाली प्राकृतिक विरासत के प्रमाण के रूप में जहां वह सिर्फ लूटपाट रहा है कभी औद्योगीकरण के रूप में तो कभी अनेक प्रकार के षडयंत्रों के रूप में अब तक तो यही देखने को मिला है.. क्योंकि उनके कृषि सिंचाई कार्यों के लिए बनाए जाने वाले कई बांधों को सिर्फ इसलिए ठंडे बस्ते में डाल दिया गया ताकि औद्योगीकरण आदिवासी प्राकृतिक संसाधनों पर भारत के विकास में अपनी भूमिका के लिए नष्ट भ्रष्ट हो जाए या बलिदान हो जाए। और इस षड्यंत्र पूर्ण हालात के लिए उस सहज व सरल स्थानीय गैरआदिवासियों को बदनामी का और अपमान का कारण बनना पड़ता है। क्योंकि वोट-बाजार में और अपराधिक होती वाणिज्य व्यवस्था में यह बाजार की मांग भी होती है।
ऐसे में पता नहीं जनजाति समाज को गौरव दिवस में कितना गौरव होगा...? किंतु बौद्धिक चिंतन करने वाला समाज भारत की प्रथम जनजाति महिला आदिवासी के राष्ट्रपति के रूप में महामहिम श्रीमती द्रोपती मुर्मू के शहडोल की उपस्थिति में ढेर सारी आशाएं लेकर उनके होने के अर्थ को तलाशेगा ।
तो देखेंगे की स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी आदिवासी जनजाति समाज का गौरव सिर्फ वोट बैंक तलाशने का क्या सिर्फ एक इवेंट है अथवा उसके जमीनी मायने भी कुछ निकल कर आते हैं..?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें