चिथड़ा हुआ आमंत्रण पत्र
या
हिंदी की दुर्दशा का प्रमाण पत्र
(त्रिलोकीनाथ ) 14 सितंबर से ज्ञात हुआ कि आज हिंदी दिवस है और उसके साथ एक आमंत्रण पत्र भी देखा गया जो यह सिद्ध करने के लिए कम या ज्यादा हो सकता है की भारत में हिंदी की कितनी दुर्दशा है...? हिंदी भाषी क्षेत्रों में ।गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों में तो यह राष्ट्रद्रोह के रूप में भी स्थानीय लोग देखते हैं। राष्ट्रद्रोह की नई परिभाषा को यदि हम समझ सके तो।
तो हम कह सकते हैं की हिंदी की उतनी ही दुर्दशा है , जितनी की इस फटे हुए किंतु कला पक्ष में प्रस्तुत आमंत्रण पत्र की है ,क्योंकि ना तो हिंदी व्याकरण को लेकर किसी की रुचि रही ना शब्दों की गरिमा पर किसी का ख्याल रहा। जैसे "भगवान राम" एक ब्रांड-वेल्यू बन कर किसी एक राजनीतिक दल या स्थानीय स्तर पर अलग-अलग लोगों के धंधे के काम में आ रहे हैं। उसी तरह हिंदी सिर्फ सत्ता धारियों और प्रशासन के लिए ब्रांड वैल्यू के रूप में "टाइम-पास चने-भुने" आइटम की तरह दिखती है। क्योंकि हिंदी भाषा के जो भी स्वाभाविक प्रचार- प्रसार के माध्यम होते थे जैसे साहित्य सम्मेलन, कविता सम्मेलन या फिर अलग-अलग स्कूलों में अंताक्षरी के जरिए विभिन्न प्रकार के रचनात्मक रामायण या अन्य अन्य तरीकों से होने वाली प्रतियोगिताएं लगभग विलुप्त हो गई है।
उसका एक कारण भी है श्री गीता में कहा गया है कि बड़े लोगों को ऐसा व्यवहार का प्रदर्शन करना चाहिए ताकि समाज या अन्य लोग उसका अनुसरण उसके अनुरूप करें ,सामान्य समझ की बात है। किंतु जब से डिग्री-हीन नेता लोग राजनीतिक दलों में आए हैं वह अंग्रेजी को ज्यादा प्रोत्साहित करते रहे। जैसे पीपीपी मॉडल, टीटीटी ए ए ए कोड वर्ड से अपनी भाषा का सार्वजनिक रूप से संक्षिप्तीकरण करते थे। उस कारण उसकी पूर्णता को समझने के लिए सबसे पहले पीपीपी टीटीटी अथवा ए ए ए आदि शब्दों का अर्थ ढूंढना भारत की सामान्य समझ की जनता के लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी हो गया।
मुझे याद है कि संक्षिप्तीकरण में उमा भारती जब मुख्यमंत्री होकर आयीं तो उन्होंने पंच ज संक्षिप्त भाषा का उपयोग किया था। फिर उसका विस्तार
भी समझ में आया किंतु अब यह दिन खत्म हो गए ।साहित्य की बात करें तो सबसे पहला हमला साहित्य परिषद के पुरस्कारों पर हुआ और ऐसे अपमानजनक कार्टून भी आए जो साहित्य पुरस्कारों को कुत्तों के सामने हड्डी के टुकड़ों के रूप में पड़े हुए देखे गए। इससे भी हिंदी साहित्य साधना कारों को हिंदी मे रचना करने वालों के लिए अपमानजनक हुआ।
यह संयोग है शहडोल संभाग के सीतापुर के रहने वाले उपन्यासकार उदय प्रकाश पहले व्यक्तियों में थे जिन्हें हिंदी साहित्य सेवा से प्राप्त पुरस्कार को वापस करना पड़ा। फिर ऐसे ढेर सारे पुरस्कार कचरे की तरह वापस हो गए। किंतु शासन अथवा प्रशासन में बैठे लोगों ने इन साहित्यकारों के जो हिंदी व्याकरण की भाषा की समझ रखते थे उसकी गरिमा को उचित स्थान देते थे। उनके पुर्न व्यवस्थापन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। कई बार तो ऐसे साहित्यकारों को वामपंथी कहकर उनकी खिल्ली उड़ाई गई। इससे हिंदी के प्रति नजरिया पतित होने लगा। फिर कुमार विश्वास अथवा काव्य पाठ करने वाले महंगे कवियों का कवि सम्मेलनों का व्यवसायीकरण होने से हिंदी में जो जमीनी स्तर पर सेवा होनी चाहिए वह स्थापित नहीं हुई। वह एक महंगे स्कूल की तरह करोड़ों का कारोबार बन कर रह गई । इस तरह है जो दुर्दशा जमीनी स्तर पर हिंदी की विशेषकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में देखने को मिलती है उससे बहुत उत्थान की आशा करना बेमानी होगा।
आज भी प्रशासनिक हलकों पर जहां बड़े निर्णय लिए जाते हैं वह सब अंग्रेजी में होते हैं यह हालात हिंदी भाषी क्षेत्रों में है। हिंदी अपने ही देश अपने ही प्रदेश में सौतेली भाषा बन कर रह गई है, या गरीबों की भाषा बन कर रह गई है। क्योंकि अंग्रेजी में उत्तम-भ्रष्टाचार को ज्यादा समझा जाता है और हिंदी में भ्रष्टाचार पारदर्शी हो जाता है। जबकि हिंदी भाषी क्षेत्रों में अंग्रेजी का उपयोग तभी जरूरी होना चाहिए जब ऐसा महसूस हो।
किंतु वैकल्पिक रूप से हिंदी वहां उपस्थित होनी चाहिए जैसा कि अभी न्यायपालिका ने व्यवस्था बनाने का प्रयास किया है तभी हम हिंदी को अपने ही घर में सौतन के रूप में और हिंदी भाषी लोगों को हीन भावना से देखने की प्रवृत्ति से मुक्त पाएंगे ऐसा समझना चाहिए ।और शायद इसी समझ को शंभूनाथ शुक्ला विश्वविद्यालय के फटे हुए कलात्मक आमंत्रण पत्र से प्रदर्शित होता है बहराल हम सब शुभकामना प्रकट कर सकते हैं।
हां हिंदी भाषा को प्रोत्साहित करने वाले पत्रकारों की दुर्दशा के लिए भी शासन और प्रशासन ही जिम्मेदार है उन्होंने हिंदी भाषी पत्रकारिता के लिए जो अधिमान्यता के तर्क गढ़े हैं वह सिर्फ गरीबी रेखा की सूची की तरह तथाकथित पत्रकारों की भीड़ बढ़ती जा रही है उससे गुलाम पत्रकारिता, अधपढ़ या अनपढ़ पत्रकारिता को ही प्रोत्साहन मिलता है। यह भी एक बड़ा मूल कारण है अगर वह समझ सकते हैं तो... अन्यथा
राम की चिड़िया, राम का खेत..
चुग रे चिड़िया भर भर पेट..
वाले हालात भ्रष्टाचार की भूख मिटाते रहेंगे उसमें हिंदी दिवस भी एक कौर मात्र होगा...
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय...
जवाब देंहटाएंआपकी चिंता आपके विचार
तत्काल विचारनीय हैं...
स्थिति यहाँ तक पहुँच गई है
लोगों मे (लेखन संबोधन) दोनों मे
व का संबोधन ब करने लगे हैं...😴
सटीक आलेख
जवाब देंहटाएं