शनिवार, 23 जुलाई 2022

डॉक्टर लोहिया की नजर में श्री कृष्ण-2

 

राममनोहर

 लोहिया के

    कृष्ण -2

डॉ राममनोहर लोहिया अपने समय के प्रखर राजनीतिज्ञ थे । देश की तात्कालिक राजनीति की उनकी अपनी मौलिक निरपेक्षता थी । श्रीकृष्ण के चरित्र का उनका यह एक भि्न्न ही मुल्यांकन है । कुछ विलक्षण अवधारणाएँ भारतीय एकता के विषय में कृष्ण-चरित्र की पृष्भूमि को लेकर लोहिया के मन में थीं। अपने को लोहिया के मानस पुत्र बताने वाले इन दिनों के कुछ राजनेता वस्तुतः लोहिया के मौलिक विचारों से कितनी दूर भटक गये हैं, यह भी इस लेख से उजागर होगा / लम्बे लेख को स्थान के अभाव से अपरिहायतःसंक्षिप्त करना पड़ा है। - सम्पादक]


यह आलेख 
वेद मंजरी वाराणसी से निकलने वाली पुस्तक से श्री कृष्ण विशेषांक का हिस्सा है। इसमें अपनी तरफ से कुछ भी नहीं जोड़ा गया है और हम इसे क्रम से चलाने का प्रयास करेंगे ताकि लोग जाने किताब जब राम आधुनिक राजनीति की रसमलाई नहीं बन रहे थे तब धर्म और आध्यात्म को लेकर राजनेता की राष्ट्रीय चिंतन क्या कहता था अब धर्म के राम और कृष्ण सिर्फ एक दुकान बनते जा रहे हैं 

बड़ी रसीली लीला है कृष्ण की, इस राधा-कृष्ण या द्रौपदी - सखा और रुक्मिणी- रमण की कहीं चर्म-सीमित शरीर में,प्रेमानन्द और खून की गरमी और तेजी में, कमी नहीं । लेकिन यह सब रहते हुए भी कैसा  निरापना ?      (जारी पिछले शेष से आगे)

 कृष्ण है कौन ? गिरधारी, गिरधर, गोपाल । वैसे तो मुरलीधर और चक्रधर भी हैं, लेकिन कृष्ण का गुह्यतम रूप तो गिरधर गोपाल में ही निखरता है। कान्हा को गोवर्धन पर्वत अपनी कानी उँगली पर क्यों उठाना पड़ा था ? इसलिये न कि उसने इन्द्र
की पूजा बन्द करवा दी और इन्द्र का भोग खुद खा गया, और भी खाता रहा। इन्द्र ने नाराज होकर पानी, ओला, पत्थर बरसाना शुरू किया, तभी तो कृष्ण को गोवर्धन उठाकर अपनी गो और गोपालों की रक्षा करनी पड़ी ।
 कृष्ण ने इन्द्र का भोग खुद क्यों खाना चाहा ? यशोदा और कृष्ण का इस सम्बन्ध में गुह्य विवाद है । माँ इन्द्र को भोग लगाना चाहती है, क्योंकि वह बड़ा देवता है । सिर्फ वास से ही तृप्त हो जाता है और उसकी बड़ी शक्ति है, प्रसन्र होने पर बहुत वर देता है और नाराज होने पर तकलीफ । बेटा कहता है।  इन्द्र से भी बड़ा देवता है, क्योकि वह तो वास से तृप्त नहीं होता और बहुत खा सकता है और उसके खाने की कोई सीमा नहीं। यही है कृष्ण-लीला का गुह्य रहस्य ।
वास लेने वाले देवताओं से खाने वाले देवताओं तक की भारत-यात्रा ही कृष्ण-लीला मे कृष्ण जो कुछ करता था, जम कर करता था । खाता था जम कर, प्यार करता था जम कर, रक्षा भी जम कर करता था । पूर्ण भोग, पूर्ण प्यार, पूर्ण रक्षा। कृष्ण
की सभी क्रियाएँ उसकी शक्ति के पूरे इस्तेमाल से ओत-प्रोत रहती थीं। शक्ति का कोई अंश बचा कर नहीं रखता था । कंजूस बिल्कुल नहीं था । ऐसा दिलफेंक, ऐसा शरीरफेंक चाहे मनुष्यों में सम्भव न हो, लेकिन मनुष्य ही हो सकता है मनुष्य का आदर्श, चाहे जिसके पहुँचने तक हमेशा एक सीढ़ी पहले रुक जाना पड़ता हो ।
 कृष्ण ने खुद गीत गाया है स्थितप्रज्ञ का, ऐसे मनुष्य का जो अपनी शक्ति का पूरा और जम कर इस्तेमाल करता हो। 'कूमोंऽङ्गानीव' बताया है ऐसे मनुष्य को। कछुए की तरह यह मनुष्य अपने
अंगों को बटोरता है। अपनी इन्द्रियों पर इतना सम्पूर्ण प्रभुत्व है इसका  इन्द्रिया्थों से उन्हें पूरी तरह हटा लेता है। कुछ लोग कहेंगे कि यह तो भोग का उलटा हुआ। ऐेसी बात नहीं। जो करना, जम कर भोग भी, त्याग भी। जमा हुआ भोगी कृष्ण
जमा हुआ योगी तो था ही । शायद दोनों में विशेष अन्तर नहीं। फिर भी कृष्ण ने एकांगी परिभाषा दी, अचल स्थितप्रज्ञ की, चल स्थितप्रज्ञ की नहीं । उसकी परिभाषा तो दी जो इन्द्रियार्थों से इन्द्रियों को हटाकर पूर्ण प्रभुता निखारता हो, उसकी नहीं , जो इन्द्रियों को इंद्रियाथों में लपेटकर, घोलकर । कृष्ण खुद तो दोनों था, परिभाषा में एकांगी रह गया।
        जो काम जिस समय कृष्ण करता था, उसमें अपने समग्र अंगों का एकाग्र प्रयोग करता था, अपने लिए कुछ भी नहीं बचाता था । अपना तो था ही नहीं कुछ उसमें ।    'कूमोंऽङ्गानीव' के साथ-साथ 'समग्र अंग-एकाग्री' भी परिभाषा में शामिल होना चाहिए था । जो काम करो, जम कर करो, अपना पूरा मन और शरीर उसमें फेंक कर । देवता बनने की कोशिश में मनुष्य कुछ कृपण हो गया है, पूर्ण आत्मसमर्पण वह कुछ भूल-सा गया है । जरूरी नहीं है कि वह अपने आपको किसी दूसरे के समर्पण करे । अपने ही कामों में पूरा


आत्मसमर्पेण करे । झाड़ लगाये तो जम कर, या अपनी इन्द्रियों का पूरा प्रयोग कर,युद्ध में रथ चलाये तो जम कर, श्यामा मालिन बन कर राधा को फूल बेचने जाये तो जम कर, जीवन का दश्शन ढूँढ़े और गाए तो जम कर। कृष्ण ललकारता है मनुष्य को अकृपण बनने के लिए, अपनी शक्ति को पूरी तरह और एकाग्र उछालने के लिए। करता कुछ है, ध्यान कुछ दूसरी तरफ रहता है । झाडू देता है, फिर भी कूड़ा कोनों में पड़ा रहता है । एकाग्र ध्यान न हो तो सब इन्द्रियों का अकृपण प्रयोग कैसे हो। कूमोंऽङ्गानीव' और 'समग्र - अंग -एकाग्र' मनुष्य को बनना है। यही तो देवता की
मनुष्य बनने की कोशिश है ।
 देखो माँ ! इन्द्र खाली वास लेता है, मैं तो खाता हूँ । आसमान के देवताओं को जो भगाये, उसे बड़े पराक्रम और तकलीफ के लिए तैयार रहना चाहिए, तभी कृष्ण को पूरा गोर्वधन पर्वत अपनी छोटी उँगली पर उठाना पड़ा। इन्द्र को वह नाराज कर देता और आपनी गउओं की रक्षा न करता, तो ऐसा कृष्ण किस काम का । फिर कृष्ण के रक्षा- युग का आरम्भ होने वाला था । एक तरह से बाल
और युवा -लीला का शेष ही गिरिधर- लीला है।                                (शेष जारी भाग 3 पर)


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