गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

कहीं खुशी... कहीं गम... (त्रिलोकीनाथ)

 20वीं सदी में साइमन कमीशन के बाद,

21वीं सदी में वापस हुआ तीन काले कानून


21वीं सदी की आजादी की
 लड़ाई का पहला दौर खत्म

(त्रिलोकीनाथ)

अंततः 21वीं सदी में 1 साल चले ऐतिहासिक लोक ज्ञानी समाज द्वारा चलाए गए किसान आंदोलन का प्रथम चरण यह कह कर समाप्त किया गया है कि 15 जनवरी को किसान आंदोलन वापसी संबंधी मुद्दों पर पुणे समीक्षा बैठक होगी और उस पर निर्णय लिए जाएंगे यानी भारत की आजादी का 18 वीं सदी से जो स्वतंत्रता की क्रांति अंग्रेजों की शोषणकारी व्यवस्था से पैदा थी वह 19वीं सदी में कांग्रेस के संगठन के रूप में उभरी और 20वीं सदी में देश की आजादी का कारण बनी किंतु संपूर्ण आजादी नहीं होने से भ्रष्टाचार जातिवाद सांप्रदायिकता और चुनाव के वोट बैंक के के कारण सत्ता पर कब्जा कर लेने की चाहत ने सामंतवाद का नया चेहरा बनाया जिसे आपातकाल में फिर अन्ना आंदोलन में और अब लोक ज्ञानी समाज याने भारत का वास्तविक नागरिक समाज किसान आंदोलन के रूप में 1 साल की लंबी करीब 700 किसानों की बलिदान


के साथ आज घर वापसी कर रहा है दुखद परिणीति है कि वह इस पर जश्न नहीं मना सकता क्योंकि भारत के जय किसान का जय


जवान एक बड़ी दुर्घटना में 13 जवानों की मौत का मातम मना रहा है हमारे देश के प्रथम तीनों सेना के प्रमुख बनाए गए सी डी एस जनरल बिपिन रावत उनकी धर्मपत्नी मेरे शहडोल की जन्मी पली-बढ़ी  सोहागपुर कुंवर मृगेंद्र सिंह की पुत्री मधुलिका व अन्य वीर जवानों का निधन हो गया था।
 याद करें 20 व सदी में साइमन कमीशन

 का क्या रूप था











फिर आया देश की आजादी को लाने वाला 1947 का परिणाम दायक आंदोलन जिसमें षडयंत्रों की गंध ने बंटवारे का अभूतपूर्व मर्म दे दिया जिसे हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7 दशक बाद विभीषिका दिवस की पहचान दी। ताकि उसे चिन्हित किया जा सके। यह अलग बात है कि इसके पीछे उनकी कोई निहित मंसा रही, जो हर नेता के पीछे रहती है उसी तरह मोदी के पीछे भी रही और मोदी के पीछे रहने वालों के पीछे भी रही।

किंतु शायद आज आधी अधूरी थी जिसने तानाशाही का


अर्ध विकसित रूप सामने आया और जल्द ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उसे स्वीकार कर लिया और फिर से सत्ता पर आ गई और अपना शेष समय रचनात्मक कार्यों के लिए दिया

21वीं सदी में लोकपाल के निर्माण के लिए जारी यह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में ५ अप्रैल २०११ को समाजसेवी अन्ना हजारे एवं उनके साथियों के जंतर मंतर  पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ,  संचार साधनों के प्रभाव के कारण इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे।  के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने इसके प्रति नकारात्मक रवैया दिखाया और इसकी उपेक्षा की। इसके परिणामस्वरूप शुरु हुए अनशन के प्रति मनमोहन सरकार का भी उनका रवैया उपेक्षा पूर्ण ही रहा।  इस अनशन के आंदोलन का रूप लेने पर भारत सरकार ने आनन-फानन में एक समिति बनाकर संभावित खतरे को टाला और १६ अगस्त तक में लोकपाल विधेयक पास कराने की बात स्वीकार कर ली। अगस्त से शुरु हुए मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया वह कमजोर और जन लोकपाल के सर्वथा विपरीत था। किंतु इससे आंदोलन पुरे देश में भड़क उठा। देश भर में अगले १२ दिनों तक लगातार बड़ी संख्या में धरना, प्रदर्शन और अनशन आयोजित किए गए। अंततः संसद द्वारा अन्ना की तीन शर्तों पर सहमती का प्रस्ताव पास करने के बाद २८ अगस्त को अन्ना ने अपना अनशन स्थगित करने की घोषणा की। किंतु आंदोलन के पीछे सत्ता में आने के लिए आरएसएस भारतीय जनता पार्टी ने बैकग्राउंड अपना पूरा समर्थन दिया सत्ता में आने के बाद आंदोलन की मांग के अनुरूप जनलोकपाल के लिए उन्होंने कोई कार्य नहीं किया आंदोलन से उच्च शिक्षित समाज के अरविंद केजरीवाल व अन्य लोग दिल्ली में अपनी सरकार बना लिए इसी आंदोलन में योगेंद्र यादव प्रशांत भूषण जैसे लोग केजरीवाल सरकार से दूर हो गए और फिर 21वीं सदी के किसान आंदोलन के प्रणेता बने।

21वीं सदी में लोक ज्ञानी समाज भारत का विश्व गुरु बनकर दुनिया के किसानों के लिए एक बड़ा संदेश दिया


 जहां कोरोनावायरस के कार्यकाल में अध्यादेश के जरिए लाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ अब तक सत्ता से ठगे गए किसानों ने पहले पंजाब में और बाद में धीरे-धीरे पूरे देश में किसान आंदोलन के नाम से राष्ट्रीय नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने वाला आंदोलन खड़ा किया।

 


हालांकि यह आंदोलन पंजाब में प्रारंभ हुआ था जहां कृषि कानून के विरोध का नेतृत्व पहले पहल कांग्रेस पार्टी के राहुल गांधी ने ट्रैक्टर चलाकर सत्ता की मुखालफत की थी। किंतु जल्द ही वे हाशिए पर चले गए क्योंकि राजनीतिक रंग होने के कारण इसे सफल बनाने का प्रयास किया गया और तब आंदोलन किसानों ने अपने हाथ में ले लिया ।

 उस वक्त किसान आंदोलन को षड्यंत्रकारी और सत्ता की शतरंज की चालों के बीच में अपमान सहना पड़ा।


जब 26 जनवरी को लाल किले दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियां में तथाकथित किसानों के रूप में सत्ता के नजदीक रहने वाले दीप सिद्धू नामक व्यक्ति के नेतृत्व में लाल किले में तिरंगा के खिलाफ तथाकथित खालिस्तानी झंडा फहराया गया ताकि आंदोलन अपना दम तोड़ दे और वह थोड़ी भी देता ....।

किंतु शीघ्र आंदोलन का नेतृत्व महान किसान नेता


महेंद्र सिंह टिकैत के छोटे पुत्र राकेश टिकैत की हताशा के बीच उपजे निराशा से गिरे आंख के आंसू से समग्र किसान पुन: नई चेतना के साथ सत्ता की तानाशाही के खिलाफ एकजुट हो गया। और यह 21वीं सदी का  महान लोकज्ञानी समाज  किसान आंदोलन बनकर उभरा।

 राकेश टिकैत ने कसम खाई थी वह अपने गांव तब लौटेंगे, जब तीन कृषि कानून वापस हो जाएंगे इस तरह किसान आंदोलन का पहला चरण आज समाप्त हो गया। इस दौर में किसानों को आजाद भारत की सत्ता के संसद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपमानजनक "परजीवी आंदोलनकारी" शब्द से भी संबोधित किया था। इसके पूर्व सबसे ताकतवर तानाशाह वाली भाषा पर विश्वास रखने की सत्ता की प्रेरणा से उनके नेताओं ने किसान आंदोलन को आतंकवादी, मवाली, अराजकतावादी, माओवादी, खालिस्तानी, उग्रवादी आदि  शब्दों से भ्रम फैलाने का काम किया था। 

किंतु अंत भला तो, सब भला। लोकतंत्र जीत गया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक प्रसारण के जरिए माफी मांगते हुए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का सूचना दिया किंतु उन्होंने बिल के समर्थन के पक्ष में अपनी बात कही थी इस तरह 29 नवंबर को संसद में तीन काले कानून वापस हो गए तथा उन् 700 किसानों की बलिदान के बाद किसान के रूप में स्वीकारते हुए सत सम्मान घर वापसी के लिए मनाया गया। 

लेकिन भारत का जय किसान जब जीत रहा था तभी जय जवान के रूप में एक बड़ी दुर्घटना ने एक बड़ा गम दे दिया। एक बड़े मातम का आज दिन होने के कारण किसान आंदोलन ने चुपचाप घर वापसी करने का निर्णय लिया।


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