यह कैसा समाज सुधार..?-1
सबको सदबुद्धि दे भगवान...
"सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम भी बागी हैं" डॉ लोहिया
(त्रिलोकीनाथ)
"सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम भी बागी हैं"प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया कि यह वाक्यांश हमारे लोकतंत्र की सच्चाई है, क्योंकि भारत की एक तिहाई आबादी हमारे किसान जब सच बोलना चाहते है तो उसे खालिस्तानी, आतंकवादी, माओवादी और ना जाने किस-किस रूप में सत्ता पक्ष का तानाशाह चेहरा अपनी गोदी मीडिया से प्रचारित करता रहा है। पिछले 1 साल होने को आए उसकी सच को स्वीकार करने में कॉर्पोरेट जगत का यह सिस्टम स्वयं को भयभीत देखता है।
देश की आजादी के पहले महात्मा गांधी का चंपारण में रामचंद्र शुक्ल के आमंत्रण पर जो किसानों की बर्बादी के हालात नील की खेती के रूप में तब गांधी जी ने देखे थे कमतर उसी प्रकार के हालात किसानों के इस देश में एक नियोजित तरीके से आजादी के बाद बना दिए गए हैं। और कृषि को हानिकारक पेसा बना दिया जा रहा है... कभी कर्जे के रूप में, कभी सूदखोरी के रूप में, कभी झूठा शब्द "मुफ्त" सामग्री देकर कभी किसान सहयोग राशि के रूप में आदि आदि तरीके से उस पर एहसान जताया जाता है और अब उन्हें देश में ही आतंकवादियों के समकक्ष अथवा परजीवी कहकर गाली देने में जरा भी शर्म नहीं आती । क्योंकि हम यह हमारी सत्ता एहसान फरामोश और गद्दार चरित्र की होती जा रही है।
कमोबेश यही हालात भारतीय लोकतंत्र के ताकत
"पत्रकारिता" के बने हुए हैं पत्रकारों को कहने के लिए "चतुर्थ स्तंभ" की अघोषित मान्यता दी गई है क्योंकि लालची चरित्र उसे बंधुआ मजदूर बनाकर अपना प्रचार प्रसार करवाता रहा है किंतु उसे गुणवत्तापूर्ण जीने का अधिकार संविधान ने उसकी आर्थिक सुरक्षा से सुरक्षित नहीं किया है। जैसा कि विधायकों व सांसदों नेेे अपने लिए बना लिया है जबकि चौथा, पांचवा, छठवां और अब सातवां वेतनमान के कानून का प्रोपेगेंडा तैयार कर अपनी आर्थिक सुरक्षा की ताकि वेेे सम्मानजनक गुणवत्ता की ओर बढ़ सके।
लेकिन आजादी के बाद पत्रकारिता की सुरक्षा व गुणवत्ता के लिए जो कानून बने भी, वह कानून उसके विकास की वजाये उसके पतन की खाखा लिखकर पत्रकारों को कॉर्पोरेट जगत का गुलाम बना रहा है। इससे देश की आजादी का सबसे बड़ा स्तंभ "पत्रकारिता" अब पतन की राह पर प्रायोजित तरीके से "ब्लैकमेलर" के रूप में प्रचारित करने का नवसीखा समाज अवसर नहीं छोड़ना चाहता।यह हालातजी कमोवेश पूरे भारत मे है। क्योंकि पत्रकारिता आजादी के और अब आजादी के बाद लगातार एक अघोषित आंदोलन भी है यह अलग बात है पत्रकार समाज का संख्या बल किसानों की तरह बड़ा नहीं है इसलिए उसमें गुलाम पैदा करने की ताकत नवोदित भ्रष्ट समाज ज्यादा अवसर देखता है।
शहडोल में भी इसके अंकुर फूटने लगे हैं "कतिपय पतित-समाज" को लेकर पूरी पत्रकारिता को अपनी तरफ से प्रश्नचिन्ह के घेरे में खड़ा करना चाहते हैं ।अच्छा मुद्दा है हम भी इसका समर्थन करते हैं।
किंतु यह भाषा सिर्फ पत्रकारिता के लिए बोली जाए यह मानसिक पतन का प्रमाण भी है। जबकि लोकतंत्र के सबसे बड़े स्तंभ न्यायपालिका में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आवाज बार-बार उठाना चाहती है। क्योंकि वर्तमान सत्ता पक्ष से वह भी भयभीत रहती है। जबकि न्यायपालिका सर्वाधिक ताकतवर अधिकार प्राप्त संस्था स्तंभ है ।
धन्यवाद, इस बात का है कि अपने अद्भुत निर्णय से वह स्वयं को बार-बार जिंदा घोषित करती है। क्योंकि पत्रकारिता अभी भी लोक ज्ञानी समाज से सही गुणवत्ता पाता है। क्योंकि जो भी प्रयास किए गए माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय आदि बनाकर वह बेहद नियंत्रित और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मूल सिद्धांतों के विपरीत प्रोडक्ट देता नजर आया है।
पूरी दुनिया को अभिव्यक्ति को दबा देने वाली सोच तथा आम जीवन में निजी जीवन में भी नई टेक्नोलॉजी से वीडियो ऑडियो के जरिए नजर रखने वाली सोच के खिलाफ "पेगासस जासूसी मामले" में स्वतंत्र कमेटी बनाकर जांच करने की न्यायपालिका की कार्यवाही इसका एक बड़ा प्रमाण है। जिसका हम स्वागत करते हैं ।
किंतु पत्रकारिता के लिए ऐसे अवसर कम है क्यो कि उनके पास आर्थिक सुरक्षा के साथ संवैधानिक सुरक्षा भी कमतर है, इसलिए इस प्रकार के पोस्टर आदिवासी जैसे पिछड़े क्षेत्रों में काम कर रहे पत्रकारिता संस्था के लिए सामने आते हैं। ऐसे पोस्टर हलांकि स्वागतेय हैं इस बात के लिए नागरिक समाज चिंतन और मंथन जिंदा है किंतु किसी एक आर्थिक रूप से कमजोर लोकतांत्रिक स्तंभ को टारगेट करना मैं उचित नहीं मानता। एक प्रकार की दिशा भ्रम तथा वैचारिक कायरता भी है।
सब जानते हैं कि 20-22 आम नागरिक मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से कोरोना बीमारी के दौर में मर गए। शहर का कतिपय नागरिक समाज उस समय जिंदा नहीं दिखा...? क्योंकि उसे कार्यपालिका और सत्ता पक्ष की विधायिका इस प्रकार की मृत्यु के लिए मौन सहमति दे रही थी कार्यपालिका ने तो वीडियो जारी करके इसे प्रमाणित किया इस पर चुप्पी आजीवन आश्चर्यजनक बनी रहेगी...?
यह कहने से काम नहीं चलेगा कि भारत के संसद में भी यह कहा गया कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा।
तो फिर हम क्यों जिंदा हो...? हम भी उन सड़े और बदबू, गंध मारते विचारों मे भयभीत नागरिक के रूप में अपना अस्तित्व बचाते दिखे। इस हालात में यह कहना की पत्रकारिता में ही नकाब पहनकर कोई ब्लैकमेल करता है...? बहुत दुखद है।
प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट का स्वर्ग बना शहडोल, लोकतंत्र के सभी स्तंभों के लिए शर्मनाक है। यह कहकर चुप नहीं रह जाना चाहिए कि पूरा भारत खुला लुट रहा है, तो शहडोल में भी खुला भ्रष्टाचार एक आम समस्या है क्या हम इसी भ्रष्टाचार के नवोदित समाज हैं....?
क्या होता है आखिर किसान तो मर ही रहे हैं। तो फिर किसी विशेष संस्था को टारगेट करना किसी भी प्रकार की शुचिता का कोई प्रयास नहीं माना जाएगा। एक अच्छे प्रयास वाली पत्रकारिता के बिंदु की हत्या करना भी एक बड़ा अपराध माना जाता है। तब जबकि पत्रकारिता समाज की किसी भी हिस्से से कोई आवाज जनहित में उठती है और अन्य स्तंभ मिलकर उसको जब दबा देते हैं तब यह अधिकारता सिर्फ एक मजाक बनकर रह जाती है की "यदि कोई ब्लैकमेल कर रहा है तो हमें खबर किया जाए.." जब कानूनी संस्थाएं जिंदा बनी हुई हो जिन्हें यह अधिकार हो क्या उन संस्थाओं कार्यपालिका या विधाईका अथवा न्यायपालिका भी को मृत मान लिया गया है...? अगर उसमें ब्लैकमेल से का अधिकार सुरक्षित हो।
मैं तो आश्चर्यजनक उस वक्त रह गया था जब शहडोल का नागरिक समाज जिसमें जागरूक वर्ग उस गुलामी के खिलाफ स्वयं को जिंदा घोषित किया जिसमें मध्यप्रदेश शासन का सड़क विकास निगम के जरिए तानाशाह-चेहरा रोहनिया टोल टैक्स इसलिए वसूलना चाहता था की शहडोल रीवा अमरकंटक सड़क मार्ग जगह जगह टूटी है उसे बनाना है इसलिए पैसा चाहिए और जो पैसा आएगा उससे सड़क की मरम्मत होगी। तो सवाल यह है कि मध्यप्रदेश शासन बैठक किस बात के लिए टैक्स वसूलती है..? तब हम किस मुंह से ब्लैकमेल के विरुद्ध किसी संस्था को टारगेट करते हैं यह प्रश्न भी बड़ा है जब इस प्रकार की अघोषित वसूली आम बात है यह तो कानून बनाकर लूटने का प्लान चल रहा था बहरहाल बधाई है उस समाज को जो जिंदा रहा
वसूली , चाहे नंबर एक की वसूली हो यह नंबर दो कि क्योंकि विधायिका और कार्यपालिका मिलकर यह समझते हैं की आदिवासी संभाग शहडोल को आदिवासियों के नाम पर खुली लूट का चारागाह बना दिया जाए। जितना शोषण हो सकता है आम नागरिक का किया जाए वह गुलामों की तरह व्यवहार करता है उसे और कमजोर किया जाए इसलिए उसने टोल टैक्स के जरिए भी लूटने का प्लान बनाया।
जितना भी, जो कुछ भी हो सका नागरिक समाज ने स्वयं को जिंदा होने का प्रमाण जो दिया है वह दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन के धरने से कमजोर नहीं कहना चाहिए...। उसे सलूट करना चाहिए कि देश की आजादी जिस सोच के लिए लाई गई थी वह प्रयास अभी बाकी है।
यह लिखने का मेरा आशय यह है कि यह दिशा है जहां से सुचिता लाई जा सकती है। रही बात कि अगर पत्रकारिता के नाम पर कोई ब्लैकमेल कर रहा है तो आखिर लोग क्या गलत कर रहे हैं कि उन्हें ब्लैकमेल होना पड़ रहा है। ऐसा काम क्यों करते हैं कि उन्हें ब्लैकमेल किया जा सकता है..? क्या ऐसे सेवाभावी कार्यों को भी आम नागरिकों को लूटने का उन्होंने अपना अजीबका का संसाधन बना रखा है...? और यदि प्रश्न्न चिन्ह उठाए जाते है तो उसे पत्रकारिता की ब्लैकमेलिंग की परिभाषा दी जाती है बजाय उस पर शुचिता पूर्ण प्रयास करनेे के ताकि चिकित्सा सेवा समााज सेवा शिक्षा सेवा आदि आदि सेवा के संस्थानों में लोकहित केे अनुरूप वह सेवाकारी संस्था के रूप में बनी रह सके।
हाल में एक पत्रकार संस्था में सेवारत का एक्सीडेंट हुआ एक लोन पर बने करोड़पति संस्था ने लिख रखा था आयुष्मान कार्ड लिखे जाते हैं वह भटक कर एडमिट हो गया 4 घंटे में प्राइमरी सुविधा के नाम पर कहते हैं ₹20000 का उसे बिल दे दिया क्या और बताया गया आयुष्मान के लिए आवेदन कर रखा है अभी हम अधिकृत नहीं हैं....? क्योंकि पत्रकारिता मैं यह बात आई इसलिए अभिव्यक्त हो गई अन्यथा आम आदमी लूट ही रहा है तो नवोदित समाज क्यों नहींं देख पा रहा..?
आखिर अर्थशास्त्र का "प्रथम सेवा द्वितीय लाभ" और इस सिद्धांत की जरूरत विशेेषकर चिकित्सा के क्षेत्र में स्थापित होना ही चाहिए चाहे उसकी कीमत कुछ भी क्यों ना हो...? एक एक्सीडेंट में 4 घंटेे की प्राथमिक चिकित्सा की एक निजी अस्पताल में एक पत्रकार से ₹20000 वसूलने में जरा भी संकोच नहीं किया तो आम नागरिक से वह कितना खूंखार तरीके से पैसा वसूलता होगा...? कल्पना करकेेे देखना चाहिए। क्या यहांं जिंदा नहीं हुआ जा सकता...? यह पिक कल्पना करना चाहिए कि अगर वह सरकारी दस्तावेज में दर्ज नहीं है प्रेस संस्था में काम करने वाला व्यक्ति तो वह ऐसे चिकित्सकों को कैसे पैसा देता क्या ऐसे चिकित्सा संस्थानों को ब्लैकमेल नहीं करना चाहिए अगर ब्लैक मेलिंग से वे सुधर सके क्योंकि बाकी लोकतांत्रिक संस्थाएं आखिर मर ही जाती हैं आखिर कैसे कई लोग चाहे में कार्यपालिका विधायिका अथवा न्यायपालिका के लोग कैसे करोड़पति अरबपति बन कर अचानक स्वयं को ठेकेदार घोषित कर देते हैं कि वह समाज सेवक हैं अगर वह कल तक आम गरीब आदमी थे कौन देख रहा है क्यों ठेका लोकतंत्र की पत्रकारिता पर अघोषित रूप से थोप दिया गया है और कहा गया है भूखे और प्यासे रहकर देश की सुरक्षा करना यह तुम्हारी जिम्मेदारी है अगर मरना पड़े तो मर भी जाना लेकिन चुप चाप हल्ला न करना.. कुछ इस तर्ज पर लोकतंत्र जिंदा है.., क्या ऐसा नहीं लगता....? तो डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने क्या बुरा कहा था कि "सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम भी बागी है.."
उन्हें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए जो किसी के हाथ में यह लिख देते हैं कि "मेरा बाप चोर है..." और दीवार खड़ी करने का प्रयास करते हैं।
क्या ऐसे पोस्टर और फ्लेक्सी बोर्ड, अन्य स्थानों की तरह चिकित्सा क्षेत्रों पर भी नहींं लगाए जा सकते कि यदि कोई चिकित्सक डाका डाल रहा है चिकित्सा सेवा के नाम पर, उसकी सूचना कलेक्टर को दी जाए और उन्हें भी.... ? (अनवरत...)
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