प्रत्यक्षण किम् प्रमाणम-3
...माफ करना, गलती म्हारे से हो गई!
माफिया मुद्दा उठा..,
तो मंत्री जी चलते बने...
(त्रिलोकीनाथ)
प्रशासन की तरफ से पत्रकार से प्रभारी मंत्री तक बनने वाले रामखेलावन पटेल की पत्रकार वार्ता का आयोजन 23 जुलाई को सर्किट हाउस में हुआ। शहडोल में पत्रकारों ने इस पत्रकार वार्ता के लिए आदर्श आचार संहिता बनाए रखने के लिए 1 दिन पहले तैयारी बैठक की,ताकि लोकतंत्र की गरिमा बनाए रखने के लिए शालीनता के साथ क्रमबद्ध तरीके से करीब 2 वर्ष बाद लोकतंत्र की घर वापसी के रूप में अपने विधायिका के प्रतिनिधि प्रभारी मंत्री से कई प्रश्नों की तैयारी के साथ आए।और तैयारी बैठक के अनुरूप सर्किट हाउस में पत्रकारों की संख्या को देखते हुए कंगाली वाली जगह सर्किट हाउस में स्वयं को उपस्थित कराना चाहा। निर्धारित समय से आधा घंटा देर से पटेल जी पत्रकार वार्ता में आये, कुछ प्रश्न की शमा बनती कि चार प्रश्नों के बाद मंत्री जी का उठ गये,अपने संगठन के इशारे पर।
जिस प्रकार का उत्साह पत्रकारों में था, लगा उसी प्रकार का उत्साह मंत्री जी का भी लोकतंत्र के प्रति रहा होगा... यह धोखा ही प्रमाणित हुआ जब मंत्री जी परंपरागत शोरगुल पैदा करके चलते बने ।इससे किसे फायदा हुआ...? इस शोर के धुंध में कई प्रश्नों के उत्तर छुप गये।प्रश्नों की शुरुआत खनिज माफिया के साथ हुआ फिर सड़क माफिया आरक्षण और धर्मांतरण में दम तोड़ दिया।
क्योंकि इसी बीच आज ही पुलिस प्रशासन ने एक आश्रम के 75 वर्षीय बुजुर्ग संचालक गुरुदीन को भू माफिया गिरी से त्रस्त होने पर अंततः आग लगाकर आत्महत्या न करने से बचा लिया था, वह पत्रकार वार्ता में पहुंच गया था ऐसा माना जाता है की वह अपने झूठे आरोपों में मंत्री जी के बगल में बैठे जिला भाजपा अध्यक्ष पर भी माफिया गिरी को संरक्षण देने का आरोप लगाने वाला था।गुरुदीन के प्रकट होते ही मानो लोकतंत्र का अंधेरा खत्म हो गया और पत्रकार वार्ता खत्म हो गई। यह अलग बात है एसडीएम दिलीप पांडे ने गुरुदीन की आरोपों में सच्चाई देख कर कहा तहसीलदार ने अन्याय किया है आप आग लगाकर आत्महत्या मत करिए हम आशा की किरण हैं न्याय जिंदा रहेगा।
बहरहाल प्रशासन की बुलाई गई पत्रकार वार्ता में गुरुदीन क्यों पहुंच गया.., उसे किसी ने रोका टोका भी नहीं । जब पत्रकार वार्ता में गंभीर मुद्दों पर चर्चा हो रही थी क्या सब प्रायोजित था..? विशेषकर माफियाओं का स्वर्ग बने शहडोल मे सड़क माफिया, खनिज माफिया, सूदखोर माफिया ,भू माफिया, मेडिकल माफिया, चावल माफिया ,जंगल माफिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर के पेगासस जासूसी पर भी आदिवासी स्तर की चर्चा का माहौल बन रहा था। तभी जिला भाजपा अध्यक्ष कमल प्रताप ने प्रत्येक पत्रकार से अपना परिचय देकर प्रश्न पूछने की शर्त लगा दी... सशर्त प्रश्न पूछने का अधिकार उपस्थित पत्रकारों को यह लोकतांत्रिक व्यवहार के खिलाफ लगा और यह कोई नया नहीं था, क्योंकि जब कुछ पल के लिए कांग्रेस की सत्ता आई तब कांग्रेस प्रवक्ता इसी सर्किट हाउस में प्रशासन की बुलाई गई प्रभारी मंत्री की पत्रकार वार्ता में कुछ इसी अंदाज में पूछा था कि "किस प्रेस के पत्रकार हो..?
और यह सत्ता का चरित्र है प्रभारी मंत्री को उत्तर देने में बहुत अच्छा लगता किंतु सत्ता का दागदार चरित्र बार बार उभर कर प्रेस से भयभीत होकर उससे ही उसकी औकात बताने लगता है। जबकि यदि धोखे से भी कोई गैर पत्रकार यदि पत्रकार वार्ता में आ गया तो यह प्रशासन की जिम्मेदारी या भारतीय जनता पार्टी के तथाकथित अनुशासनबध्य पार्टी के लोगों की जिम्मेदारी थी कि उनके मंत्री की पत्रकार वार्ता मैं कोई अराजक तत्व अथवा अनचाहा न घुसने पाए।
सत्ता का चरित्र है कि उसका संगठन स्वयं को प्रभारी मंत्री का पिता समझता है वह उसे गुलाम बनाकर अपनी उंगली से नचाना चाहता है, इससे जो संवाद लोकतंत्र के अज्ञात चौथे स्तंभ का कार्यपालिका और विधायिका इन 2 स्तंभों के साथ स्वस्थ तरीके से होने वाला होता है उसकी हत्या पत्रकार वार्ता के दौरान ही हो जाती है ।
तो क्या प्रभारी मंत्री किसी सिस्टम का गुलाम होता है..? जो उसके इशारे पर चलता है। उसकी अपनी स्वतंत्रता, प्रेस के साथ बंधुआ मजदूर की तरह क्यों दिखाई देने लगती है...? जो चाहे मानवीय संवेदना की हत्या करने वाला करीब आधा करोड़ आबादी का नरसंहार करने वाला कोरोना का कार्यकाल का अनुभव भी साथ में क्यों ना रहा हो..।
और उससे भी ज्यादा दुखद है की पार्टी लाइन से हटकर सच बोलने की ताकत की संभावनाओं की भी हत्या हो जाती है। जब कोई प्रभारी मंत्री अचानक ढेर सारे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना उठा दिया जाता है। यानी क्या हमारा सिस्टम कुत्ते की पूंछ और नेता की मूंछ में कोई बदलाव नहीं होता है इसे अंगीकार कर लिया है।
अन्यथा महामहिम राष्ट्रपति के प्रत्यक्ष संरक्षण में संविधान की पांचवी अनुसूची में शामिल शहडोल जैसे आदिवासी जिलोंं मे खुलकर पत्रकार वार्ता करने मेंं क्या खतरा था...? और अगर चर्चा हो भी जाती तो उससे क्या फर्क पड़ता है, क्योंकि कोई सुनने और देखने वाला तो है नहीं....
तो फिर परेशानी क्या थी कुछ भड़ास ही है जो रिलीज हो जाती पत्रकारों की, शायद लोकतंत्र के पल्स, कुछ ऑक्सीजन मिलनेे की संभावना से जुग-जुआने लगते हैं...
तो प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम् बंधुओं, लोकतंत्र यूं ही धीरेे धीरे स्लो प्वाइजन मैंं मरता रहेगा... फिर भी
आशा पर आकाश टिका है
की स्वांस् तंत्र कब टूटे...
ऐसा समझकर लोकतंत्र के सिस्टम को चालू रखना चाहिए ।
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