शुक्रवार, 11 जून 2021

200 वर्ष बाद ऐसे दिखा शिव मंदिर

         उमरिया कलेक्टर के क्षेत्रअंतर्गत

    200 साल बाद नयेरूप में दिखा 

          प्राचीनतम शिव मंदिर

                    (त्रिलोकीनाथ)

 शहडोल स्थित प्राचीन शक्तिपीठ बूढ़ी माता मंदिर के बगल में स्थापित प्राचीनतम शिव मंदिर  करीब 200 साल बाद बदले हुए दिखे। शिव मंदिर का इतिहास वास्तविक रुप से तो पुरातत्ववेत्ता ही बता सकते हैं किंतु शहडोल संभाग में पुरातत्व बेत्ता के नाम पर एक चपरासी रहता है। वही उसका अफसर रहता है वही उसका चपरासी। उसका अध्यात्मिक-एकात्मवाद का प्रशासनिक पदों का एकात्म पुरातत्व संग्रहालय मे संग्रहित है। और इसका खामियाजा  पुरासंपदा को भोगना पड़ता है। बहरहाल यह आधुनिक भारत के लोकतंत्र की पतित व्यवस्था का प्रमाण है।हमें हमारी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति को अगर नजदीक से देखना है तो इतिहास के पन्नों पर पढ़ना होगा और जानना होगा कि आखिर आदिवासी विशेष क्षेत्र में संपूर्ण जंगलों में जिस प्रकार से पुरातत्व संपदा बिखरी पड़ी है उसी तरह शहडोल नगर में भी वह हमें अपने होने का एहसास कराता रहता है ।


इस लॉक डाउन की दूसरी लहर के बाद कल मैं बूढ़ी माता मंदिर गया जहां पर करीब 1200 साल पुरानी प्राचीनतम शिव मंदिर को अपने जीवन काल में पहली बार उनकी खूबसूरती के साथ देखा ,क्योंकि मंदिर के ठीक सामने स्थित "नंदी जी" की सेवा की तरह आम का विशाल वृक्ष अब वहां नहीं था।

काग के भाग बड़े सजनी ,

हरि हाथ से ले गए हो माखन रोटी।

 मंदिर में वंशानुगत स्थापित पंडा जी बताते हैं चार-पांच साल पहले आए तूफान में आम का वृक्ष आंशिक तौर पर गिर गया था तब नवीन स्थापित


हनुमान जी की मूर्ति को लगा कि वे छुप गए अथवा उन्हें क्षति हो गई है। किंतु नजदीक से जाकर देखा इसने विशाल वृक्ष गिरने के बाद भी हनुमान जी महाराज की विशाल मूर्ति को खरोच भी नहीं आई। आज आम का वृक्ष जो लगभग सूख चुका था और पंडा जी की माने तो कम से कम 200 साल भगवान शिव की मुख्य द्वार पर सेवक की भांति रहने के बाद अब विदा हो गया।  इसे आध्यात्मिक आनंद के अनुभवों से बताते हैं आम के वृक्ष के सूखी लकड़ियां भगवान के हवन इत्यादि में ही समर्पित हो गई। निश्चित तौर पर शेष लकड़ी अभी हवन यज्ञ में लग जाएंगी। हमने बचपन में पढ़ा था काग के भाग बड़े सजनी ,हरि हाथ से ले गए हो माखन रोटी।भगवान शिव की आराधना में संपूर्ण जीवन सेवारत रहने के बाद इसकी लकड़ी अभी राख हो जाने के लिए व्याकुल हो गई हो। ऐसे महान वृक्ष को "काग का भाग्य" ही कहना चाहिए । यही हमारा आधुनिक सत्य है ।

"हस्ती मिटती नहीं हमारी...." 

बहरहाल आध्यात्मिक आनंद से हटकर हम देखें तो बावजूद इसके बात कुछ है कि "हस्ती मिटती नहीं हमारी...." के अंदाज में शहडोल की पुरातत्व संपदा को स्थानीय प्रशासन भलाई कितनी भी ताकत लगा ले उसे नजरअंदाज करें इसकी पहचान नहीं मिटने वाली। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं जब कभी 1992-93 हमारे आदिवासी नेता ज्ञान सिंह मध्यप्रदेश के वन मंत्री थे तब मैं विराट मंदिर के बगल स्थित पूर संपदा से भरपूर टांकि नदी (टांकि नाला) के क्षेत्र से जमीन के अंदर दवे किसी मंदिर के शिखर का पत्थर लेकर घर आ गया था। और पत्र लिखकर मध्यप्रदेश शासन को तथा केंद्रीय पुरातत्व संग्रहालय को सूचना दिया था कि शहडोल में पुरातत्व का संरक्षण किया जाए। उसी समय अपने नवाचार के प्रयोग में तत्कालीन केंद्रीय पुरातत्व संग्रहालय के निर्देशक रमेश जी शहडोल आए थे और माइनिंग पॉलिटेक्निक हॉल में कलेक्टर सूर्य प्रताप सिंह परिहार की उससे तक उपस्थिति में यह बता रहे थे शहडोल में कोई पुरातत्व संपदा नहीं है। मैंने न सिर्फ खंडन किया बल्कि टांकि नदी के अवशेष का उल्लेख करते हुए अपनी पुरा संपदा का महिमामंडन किया।फिर बात उनके जरिए राज्य को भी गई और थोड़ा बहुत अनुसंधान हुआ।

 किंतु राम वन गमन पर वोट का धंधा ढूंढने वाली चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भारतीय जनता पार्टी की सरकारी नीतियां हो..., दोनों ने ही सिर्फ अपने "वोट के धंधे" के हिसाब से शहडोल आदिवासी विशेष क्षेत्र की पुरातत्व संपदा को चिन्हित करने का काम किया। संरक्षण करने के लिए उनके मन में सिर्फ उपयोग करो और फेंक दो यानी यूज एंड थ्रो के अंदाज में उनका कार्य दिखा। अन्यथा स्टेडियम के बगल में स्थित पुरातत्व संग्रहालय मे कोई स्थाई प्राणी अधिकारी के रूप में जीवित दिखता। किंतु वहां   "पिन टू प्लेन" के अंदाज में एक चपरासी नुमा कर्मचारी आदिवासी विशेष क्षेत्र की अमूल्य पुरासंपदा को अपने अंदाज में विलासिता के रूप में उपयोग करता रहता है। अन्यथा शहडोल क्षेत्र का इतिहास हमें यह बताता कि हम किस क्षेत्र के निवासी हैं, सिर्फ जंगली नहीं है। और लूटपाट - माफिया गिरी के अड्डे नहीं है...? किंतु शायद जानबूझकर पुरातत्व संपदा को खारिज करने का काम होता रहा क्योंकि बाजारवाद मे यह बाधक बन सकता था । किंतु अगर पर्यटन का बाजारवाद विकसित किया जाता तो निश्चित तौर पर यही एक बड़े राजस्व का हिस्सा बन जाता। लेकिन फिर भी लूटपाट और माफिया गिरी की उतना बड़ा अड्डा नहीं बनता जितना नए बाजारवाद को जरूरत है। क्योंकि तब शहडोल के बगल में बिचारपुर कोल माइन्स मे कुछ बाधाएं आती। इसी तरह अन्य प्रकार की खनिज संपदा में आंशिक रोक लगती। शायद यही कारण है की बाजारवादी-पूंजीपति-माफिया-गठजोड़ पुरातत्व संपदा को खारिज करता रहा है।

 हाल में शहडोल नगर पालिका क्षेत्र में करोड़ों रुपए की मल जल निकास हेतु नए प्रोजेक्ट में भी इसे खारिज किया गया है। ताकि मनमानी तरीके से कहीं भी कुछ भी तोड़फोड़ करके विकास के नाम पर माफिया गिरी की जा सके। बहरहाल यह उनकी बातें हैं।

 अपनी बात यह है कि 200 साल बाद शिव मंदिर के  नव स्वरूप को हमने बूढ़ी मातामंदिर परिसर मे देखा। कतिपय विचारको का मानना है यह शिव मंदिर चौसठ योगिनी का विशाल मंदिर है। जो किसी कारण से दब गया। यदा-कदा मूर्तियां निकलती रहती हैं। एक समस्या यह भी है परंपरागत लोकज्ञानी समाज का सम्मान किए बिना जहां भी ऐसी पुरातत्व संपदा स्थापित है वहां संबंधित विभाग लूट के अंदाज में संरक्षण के नाम पर बजाए लोकज्ञानी समाज वंशानुगत पंडित  पंडा, पुजारी आदि के साथ विकास का समन्वय बैठाने के बजाय उनसे उस विरासत को लूटने का और उन्हें हटा देने का प्रयास करते देखे गए। जो बहुत ही गलत है। अगर वह विरासत उनकी पूंजी है तो वही पुरातत्व संपदा का आंशिक प्रचारक भी स्वीकृति के साथ काम कभी होता नहीं दिखा। इसलिए पुरातत्व संपदा कभी अपने वैभव रूप में हमें देखने को नहीं मिली ।

कभी इसी बूढ़ी माता मंदिर का महिमा सुनकर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया  न्यायाधिपति श्री


चावला विशेष रूप से दिल्ली से शहडोल आए थे इसके बाद भी प्रशासन शहडोल की पुरातत्व संपदा को उपेक्षित करता रहा है। हो सकता है शासन और प्रशासन उन्हें भी आदिवासी विशेष क्षेत्र की तरह पिछड़ा व दकियानूसी विचार वाला मानकर उपेक्षित कर दिया हो। बहरहाल हमारी नई चिंता यह है कि अब जबकि बूढ़ी माता मंदिर के सामने और पीछे मुख्य सड़कों का विस्तार हो गया है तो यह पुरातत्व संपदा की सुरक्षा का प्रश्न भी बन गया है। यदि से सुरक्षित करने का काम प्रशासन नहीं करता है जैसा कि इस मंदिर के आसपास बैगा आदिवासियों की जमीनों पर गैर बैगा आदिवासी समाज अपनी माफिया गिरी के चलते पूरी जमीनों पर कब्जा कर लिया है। क्योंकि प्रशासन ने उसे सहयोग किया रहा होगा। यदि यही हालत रही तो शेष विरासत भी धीरे धीरे लूट जाएगी । इसलिए जरूरी है कि समय रहते बूढ़ी माता मंदिर और आधुनिक स्वरूप में सामने आए शिव मंदिर को बेहतर समन्वय के साथ अद्यतन किया जाए। किंतु वोट का धंधा धर्म में ढूंढने वाले राजनेताओं और उन्हें मदद करने वाली प्रशासनिक व्यवस्था क्या ईमानदारी और नैतिकता के साथ अपना कोई समर्पण दिखाएगी....? 

क्योंकि अब उमरिया कलेक्टर के अधीन बूढ़ी माता मंदिर की जिम्मेदारी और भी चिंतनीय हो गई है कि वे यहां पर भूमि माफियाओं को संरक्षण देना चाहते हैं अथवा पुरातत्व संपदा की और हमारी प्राचीन गौरवशाली इतिहास की रक्षा करना चाहते हैं। अगर जरूरी लगता है तो कुछ और जमीन छोड़कर अद्यतन विकास मंदिर संरक्षण में किया जाना शहडोल क्षेत्र के लिए भी एक बड़ा काम होगा। शुभम मंगलम।


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