चिन्हित अत्यावश्यक चिकित्सा सेवाएं दवा की दरें की पारदर्शी प्रकाशन क्यों ना हो....?
भारी मुनाफे का कारण क्यों बना हुआ है आपदा प्रबंधन चिकित्सा सेवाएं
(सुशील शर्मा)
कहने और दिखाने के लिए ही सही वर्तमान में आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 की व्यवस्था में हम संविधान की सुरक्षा पर रह रहे हैं। तो प्रश्न यह उठता है कि जब आपदा का विशेष प्रभाव शहडोल विशेष आदिवासी परिक्षेत्र में पड़ रहा है तब अत्यावश्यक कोविड-19 की संक्रमण से प्रभावित व्यक्तियों के लिए या उनकी समस्या निवारण हेतु क्या जीवनदायी चिकित्सा सुविधाएं आपदा प्रबंधन की व्यवस्था के अनुरूप काम कर रहे हैं ....? और यदि नहीं कर रही हैं तो आपदा प्रबंधन अधिनियम को लागू कराने वाले तमाम जिम्मेदार वर्ग, क्यों चिकित्सा प्रबंधन पर दबाव नहीं बना रहे हैं कि वह आवश्यक स्वास्थ्य संबंधी दवाओं को न्यूनतम लागत मूल्य में 15 - 20 परसेंट लाभ का समावेश करके ही दवाओं का अथवा चिकित्सा स्वास्थ्य सेवाओं प्रदाय कर पालन करें।
जबकि देखा यह जा रहा है कि यह महामारी ही चिकित्सा स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े तमाम व्यक्ति संस्थाओं और दुकानों तथा चिकित्सालय के लिए महामारी से प्रभावित व्यक्तियों के पर जैसे डाका डालने का अवसर आ गया है । विशेषकर निजी चिकित्सा सेवा संस्थान क्या आपदा प्रबंधन अधिनियम की धाराओं के तहत मानवता के लिए अपने भारी भरकम लाभ के सिद्धांत को भूलकर मानवीय आपदा मे मानव की सुरक्षा के लिए सेवा पूर्ण कार्य कर रहे हैं...?
यह उनके लिए सब मूल्यांकन का भी अवसर है और यदि कोई इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाधक बन रहा है तो उसके खिलाफ क्या कार्रवाई की जा रही हैं...? यह तो स्पष्ट तथ्य है की आपदा प्रबंधन अधिनियम का उद्देश्य चिकित्सा सेवाओं मे लगे निजी चिकित्सकों दुकानों और चिकित्सालय को भारी लाभ कमाने की छूट नहीं देता है। फिर भी आम परिस्थितियों में जो चिकित्सा संसाधन सामान्य प्रचलित दर भारतीय नागरिकों के लिए उपलब्ध थे वह अचानक मांग के अनुरूप कई गुना कैसे बढ़ गए...? और बड हुए दरों पर उन पर बिक्री होना अथवा निजी चिकित्सालय का कई गुना चिकित्सा दरों का बढ़ जाना आश्चर्यजनक है। उससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात यह है कि जिस जिम्मेदार वर्ग पर आपदा प्रबंधन में स्वास्थ्य में राहत देने की उपनियमों का अधिकार है वह क्या उन अधिनियम का उपयोग करके आम आदमी को इस महामारी से राहत दिला पाने पर स्वयं को सक्षम पा रहे हैं....? या फिर वह खुद एक समस्या बनकर चिकित्सा सेवा संस्थानों के लिए भारी लाभ का जरिया बन गए हैं...। इस अवसर पर उपभोक्ता परिषद अथवा संगठन मूक बधिर क्यों बनी हुई हैं..? या फिर सोता है वह इस लूट में शामिल है....? यह प्रश्न तो खड़ा ही होता है।
यह बात बार-बार इसलिए उभर कर आ रही है क्योंकि शहडोल अनूपपुर अथवा उमरिया जिले में निजी चिकित्सक संस्थान आपदा प्रबंधन के मूल उद्देश्यों में बजाए सहयोग करने के किसी भी मरीज के पहुंचने पर उससे तत्काल भारी भरकम राशि एडवांस में जमा कराते हैं। और बिना किसी भी कारण के जब मरीज लुट जाता है तो उसके रिक्वेस्ट पर, उसे किसी सुनिश्चित स्थान में आवश्यक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराए जाने हेतु ना तो पुलिस को सूचना देते हैं ना प्रशासन को और ना ही संबंधित किसी उच्च चिकित्सा सेवा संस्थान को ताकि मरीज की जान बचाने के लिए उसे जीने का मौलिक अधिकार कि उसकी गारंटी उसे सुनिश्चित की जा सके । उसे छोड़ दिया जाता है क्योंकि उपभोक्ता तो लूट ही चुका है।
यह बड़ा प्रश्न वर्तमान परिवेश में विशेष आदिवासी क्षेत्र पर क्यों घटित हो रहा है..? आखिर क्यों कोई भी मरीज अपनी क्षमता, आर्थिक योग्यता अथवा जीने के मौलिक अधिकार मे जीवन क्यों नहीं पा रहा है....? अब जब के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं ऑक्सीजन जैसी चीजों की कमी की समस्या न सिर्फ शहडोल में बल्कि पूरे भारतवर्ष में आम समस्या के रूप में तब प्रचलित होती दिख रही है... जबकि दावा यह है कि ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में है और ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मर रहा है... तो बात चाहे ऑक्सीजन की हो अथवा दवाओं की कम दर पर उपलब्ध कराए जाने की हो अथवा निजी चिकित्सा सेवा संस्थानों को आम आदमियों को राहत देने की हो इसके विपरीत वातावरण का न सिर्फ निर्माण होना बल्कि उसका प्रसारित होना संविधान की मंशा के विपरीत हो रहा एक घटित अपराध है।
ऐसे में आपदा प्रबंधन समितियों का कर्तव्य निजी चिकित्सा संस्थानों दुकानों अथवा चिकित्सा राहत में पारदर्शिता की होती है। क्यों नहीं, प्रतिदिन आवश्यक दवाओं की प्रतिपूर्ति अथवा उपलब्ध सामग्रियों का सार्वजनिक प्रकाशन सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।ताकि कोविड-19 महामारी विशेष पर एक भी दवा, एक भी सुविधा.. यदि आवश्यक है तो वह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर कम लागत मूल और लाभ पर मानवीय हित के लिए उपलब्ध हो सकें। किंतु यह दायित्व आपदा प्रबंधन समिति का है। क्या वह ऐसा कर सकेगी....? यह बात उनके अधिकारियों के लोकहित की मंशा और कर्तव्य निष्ठा पर सुनिश्चित करती है... किंतु हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और होते हैं इस कहावत को चरितार्थ करता जिला आपदा प्रबंधन फिलहाल तो ऐसा कुछ करता नहीं दिखाई दे रहा है.... क्योंकि मेडिकल कॉलेज के कैंपस में ही अगर दवाइयां महंगी मिल रही हैं तो प्रश्न तो खड़े ही होते हैं फिर निजी चिकित्सा संस्थानों और दुकानों में सस्ती दवाओं कादर सुनिश्चित करने का अधिकार आपदा प्रबंधन का खत्म ही हो जाता है ऐसा दिख रहा है...?
आशा करनी चाहिए की आवश्यक चिकित्साा सुविधाएं उनके मूल्य सस्ती वा सुलभता के साथ पारदर्शी उपलब्ध होंगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें