मंगलवार, 25 अगस्त 2020

जमात जमात जमात .......(ब्लॉग) : उत्कर्ष नाथ

 करोना आ चुका था सत्ता में सरकार भी आ चुकी थी , ट्रंप भी आ चुका था, और इन सबसे पहले जमात भी आ चुकी थी । किंतु कोरोना का भाव थोड़ा कम कर दिया गया था , सरकार बनाने से ज्यादा महत्वता नहीं थी ,तो जब नहीं थी तो कोरोना को भी बुरा लगा और धीमे-धीमे वह

पांव पसारने लगा। किंतु एक आम मनोभाव की तरह हम गलतियों के लिए कोई चेहरा ढूंढते हैं क्योंकि ताकि उन चेहरों को गलतियों के लिए ज़िम्मेदार ठहरा सके, तो चेहरा बने जमात ,थोड़ा सुधार करूंगा तबलीगी जमात लोगों के मन में आक्रोश भरा गया काफी पुराने पुराने वीडियो सामने आए और इस देश में एक समुदाय को उसी माध्यम से दोष देना शुरू कर  दिया गया । , लगा कि भाई किसी तरीके से यह बीमारी खत्म हो जाएगी और लापरवाही केवल एक विशेष जमात की रह जाएगी । काफी बहस हुई इस संवेदनशील स्थिति में देश का माहौल  काफी गरमा गरम था । सब्जियां भी कभी हिंदू हो रही थी कभी मुसलमान हो रही  थी, लेकिन लॉकडाउन में भी बाजार में एक चीज मुफ्त बंट रही थी जिसका नाम था नफरत।  दिन बीतते गए निष्कर्ष ऊपर दिए हुए विषय में तो दूर , सुना था केस स्टडी भी नहीं हुई होगी की क्या सबसे प्रमुख कारण जैसा मीडिया बता रहा था जमात ही था ?  खैर यह तो नहीं पता लेकिन कोरोना  का होना एक अपराध की श्रेणी में ले आना यह एक प्रमुख कारण हो सकता है । करोना जैसे लक्षण पर भी मीडिया के दबाव में लोग घबराने लगे थे की हम पर भी वही आरोप लग सकते हैं जो उन पर लग रहे हैं। हम भी बीमार की जगह देशद्रोही हो सकते हैं। हम भी गद्दार हो सकते हैं । यह डर लोगों को संपर्क ना बनाने के लिए विवश करता रहा और यह  करोना कि लड़ाई कमजोर भी पड़ी।  उस समय जब सोशल मीडिया के माध्यम से कुछ कहता था तो जवाब के तौर पर जितना भद्दा हो सकता था इतना भद्दा जवाब मिलता था। दोष जवाब देने वालों का नहीं है दोष एक ही जवाब को सब इंसानों के अंदर भरने वालों का था, क्योंकि सभी एक ही दर्जे का जवाब देते थे खैर इसमें भी कोई परेशानी नहीं है क्योंकि भारत एक भाव प्रधान देश है, और हम भावात्मक लोग हैं समय बीतता गया यह फैक्टर धीमे धीमे कमजोर पड़ता गया, क्योंकि करोना के साथ लॉकडाउन भी अपने चरम स्थिति में था ।वह दौर ऐसा था कि जब एक तरफ करोना ,दूसरी तरफ भूख एक दूसरे को टक्कर  दे रहे थे। फिर बीच में मिल गया, मिल गया दिमाग में भरने के लिए एक  और विषय पालघर, पालघर लिंचिंग का विषय  शुरुआत में उसे भी एक समुदाय विशेष के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए इस्तेमाल किया गया किंतु समय गुजरा और यह पता चला की ऐसा नहीं हुआ है । शुरुआत के दिनों में न्याय की मांग की गूंज बहुत तेजी से उठी किंतु न्याय का किस्सा बड़ा अलबेला है । न्याय का मतलब सजा दिलवाना होता है ,अगर व्यक्ति भीड़ की नज़रों में सजा के लायक नहीं है, तो लोग उस मुद्दे को धीमे धीमे भूलते जाते हैं। वर्तमान परिवेश में न्याय एक समीकरण मात्र है मौत बराबर मौत,  वेदना बराबर वेदना का।

जब उस समुदाय विशेष का नाम धीमे-धीमे उस से हटने लगा तो लोगों के दिमाग से भी संतों की मौत हटने लगी दुख की बात यह है कि आज के परिवेश में उसके चर्चा नहीं है । कहीं भी लिंचिंग लिंचिंग होती है भीड़ भीड़ होती है, यह पूर्वानुमानो से मुझे भी जरा अंदाज़ लगने लगा था, उसी बीच एक कविता भी लिखी थी कि ''फिर एक नया शोर होगा ब्रेकिंग न्यूज़ का सिलसिला घनघोर होगा मीडिया हाउसेस में अदालत  बैठेंगी , काला कोट पहने जज तो नहीं कोई और होगा''  बस उन संतों की चीख को


फिर नई ब्रेकिंग न्यूज़ के माध्यम से दबा दिया गया।  अब चर्चा में कहीं भी संत नहीं है क्योंकि चर्चा में समुदाय विशेष का नाम नहीं था  । समय बीत रहा है ब्रेकिंग न्यूज़ आती रहती रहती है इस समय देश सुशांत मग्न है आशा है इस विषय में भी कुछ निष्कर्ष निकलेगा क्योंकि यह भारत है यहां 2G के कारण सरकारें पलट जाती हैं फिर पता चलता है कि  सब हो हौआ था । मुझे कई लोग यह बात कहते हैं की इतना खुलकर लिखना सही नहीं विरोध क्यों लेते हो ?  उनकी बात मुझे सही लगती है क्योंकि विरोध एक बार दूसरों से हो जाए तो चलता है ,लेकिन स्वयं की आत्मा से हो जाए तो जीवन दूभर हो जाएगा । जरा खुद भी सोचिए की क्या हम अरबों के रिसोर्सेज के माध्यम से अपने मन में सच विचार रखते हैं ?  या अफवाहों के लिए यह रिसोर्सेज हुआ करते हैं ? क्या हम सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वतंत्र इकाइयों के रूप में चिंतन करते हैं? या कोई हमारा सोचना भी अपनी सोच के हिसाब से निर्धारित किन्ही  एसी के कमरों में बैठकर करता है ? जरा सोचिए क्योंकि  सोचना ईश्वर का वरदान है उस वरदान को व्यर्थ ना जाने दे।

 जय हिंद जय भारत 🇮🇳🇮🇳🇮🇳

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